प्रतिज्ञाविरोध
From जैनकोष
न्यायदर्शन सूत्र/ मू.व टी./5/2/4/311 प्रतिज्ञाहेत्वोर्विरोधः प्रतिज्ञाविरोधः।4। गुणव्यतिरिक्तद्रव्यमिति प्रतिज्ञा । रूपादितोऽर्थांतरस्यानुपलब्धेरिति हेतुः सोऽयं प्रतिज्ञाहेत्वोर्विरोधः कथं यदि गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यं रूपादिभ्योऽर्थांतरस्यानुपलब्धिर्नोपपद्यते । रूपादिभ्योऽर्थांतरस्यानुपलब्धिः गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यमिति नोपपद्यते गुणव्यतिरिक्तं च द्रव्यं रूपादिभ्यश्चार्थांतरस्यानुपलब्धिरिति विरुध्यते ब्याहन्यते न संभवतीति । = प्रतिज्ञावाक्य और हेतुवाक्य का विरोध हो जाना प्रतिज्ञाविरोध है ।4। द्रव्य, गुण से भिन्न है यह प्रतिज्ञा हुई और रूपादिकों से अर्थांतर की अनुपलब्धि होने से, यह हेतु है । ये परस्पर विरोधी हैं क्योंकि जो द्रव्य गुण से भिन्न है, तो रूपादिकों से भिन्न अर्थ की अनुपलब्धि इस प्रकार कहना ठीक नहीं होता है । और जो रूप आदिकों से भिन्न अर्थ की अनुपलब्धि हो तो ‘गुण से भिन्न द्रव्य’ ऐसा कहना नहीं बनता है । इसको प्रतिज्ञाविरोध नामक निग्रहास्थान कहते हैं । ( श्लोकवार्तिक 4/ न्या.142/359/22 में इस पर चर्चा )।