स्कंध
From जैनकोष
Molecule ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ प्र.109)
परमाणुओं में स्वाभाविक रूप से उनके स्निग्ध व रूक्ष गुणों से हानि वृद्धि होती रहती है। विशेष अनुपात वाले गुणों को प्राप्त होने पर वे परस्पर बँध जाते हैं, जिसके कारण सूक्ष्मतम से स्थूलतम तक अनेक प्रकार के स्कन्ध उत्पन्न हो जाते हैं। पृथिवी, अप्, प्रकाश, छाया आदि सभी पुद्गल स्कन्ध हैं। लोक के सर्वद्वीप, चन्द्र, सूर्य आदि महान् पृथिवियाँ मिलकर एक महास्कन्ध होता है, क्योंकि पृथक्-पृथक् रहते हुए भी ये सभी मध्यवर्ती सूक्ष्म स्कन्धों के द्वारा परस्पर में बँधकर एक हैं।
स्कन्ध निर्देश
1. स्कन्ध सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/5/25/297/7 स्थूलभावेन ग्रहणनिक्षेपणादिव्यापारस्कन्धनात्स्कन्धा इति संज्ञायन्ते। = जिनमें स्थूल रूप से पकड़ना, रखना आदि व्यापार का स्कन्धन अर्थात् संघटना होती है वे स्कन्ध कहे जाते हैं। ( राजवार्तिक/5/25/2/491/16 )।
राजवार्तिक 5/25/16/493/6 बन्धो वक्ष्यते, तं परिप्राप्ता: येऽणव: ते स्कन्धा इति व्यपदेशमर्हन्ति। = जिन परमाणुओं ने परस्पर बन्ध कर लिया है वे स्कन्ध कहलाते हैं।
* पुद्गल वर्गणा रूप स्कन्ध-देखें वर्गणा ।
2. स्कन्ध देशादि के भेद व लक्षण
पंचास्तिकाय/75 खंधं सयलसमत्थं तस्स दु अद्धं भणंति देसो त्ति। अद्धद्धं च पदेसो परमाणू चेव अविभागी।75। = सकल-समस्त (पुद्गल पिण्डात्मक सम्पूर्ण वस्तु) वह स्कन्ध है, उसके अर्ध को देश कहते हैं, अर्ध का अर्ध वह प्रदेश है और अविभागी वह सचमुच परमाणु है।75। (मू.आ./231); ( तिलोयपण्णत्ति/1/95 ); ( धवला 13/5,3,12/ गा.3/13); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड 604/1059 ); ( योगसार (अमितगति)/2/19 )।
राजवार्तिक/5/25/16/493/7 ते (स्कन्धा:) त्रिविधा: स्कन्धा: स्कन्धदेशा: स्कन्धप्रदेशाश्चेति। अनन्तानन्तपरमाणुबन्धविशेष: स्कन्ध:। तदर्धं देश:। अर्धार्धं प्रदेश:। तद्भेदा: पृथिव्यप्तेजोवायव; स्पर्शादिशब्दादिपर्याया:। = वे स्कन्ध तीन प्रकार के हैं-स्कन्ध, स्कन्धदेश और स्कन्ध प्रदेश। अनन्तानन्त परमाणुओं का बन्ध विशेष स्कन्ध है। उसके आधे को देश कहते हैं और आधे के भी आधे को प्रदेश। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि उसी के भेद हैं। स्पर्शादि और स्कन्धादि उसकी पर्याय हैं।
3. स्थूल सूक्ष्म की अपेक्षा स्कन्ध के भेद व लक्षण
नियमसार/21-24 अइथूलथूलथूलं थूलसुहुमं च सुहुमथूलं च। सुहुमं अइसुहुमं इदि धरादियं होदि छब्भेयं।21। भूपव्वदमादिया भणिदा अइथूलथूलमिदि खंधा। थूला इदि विण्णेया सप्पीजलतेलमादीया।22। छायातवमादीया थूलेदरखंधमिदि वियाणाहि। सुहुमथूलेदि भणिया खंधा चउरक्खविसया य।23। सुहुमा हवंति खंधा पावोग्गा कम्मवग्गणस्स पुणो। तव्विवरीया खंधा अइसुहुमा इदि परूवेंदि।24। = 1. भेद-अतिस्थूलस्थूल, स्थूल, स्थूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म ऐसे पृथिवी आदि स्कन्धों के छह भेद हैं।21। ( महापुराण/24/249 ); ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/76 ); ( योगसार (अमितगति)/2/20 ); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/603/1059 ); 2. लक्षण-भूमि, पर्वत आदि अतिस्थूलस्थूल स्कन्ध कहे गये हैं, घी जल तेल आदि स्थूलस्कन्ध जानना।22। छाया, आतप आदि स्थूल-सूक्ष्मस्कन्ध जानना और चार इन्द्रिय के विषयभूत स्कन्धों को सूक्ष्म-स्थूल कहा गया है।23। और कर्म वर्गणा के योग्य स्कन्ध सूक्ष्म हैं, उनसे विपरीत (अर्थात् कर्म वर्गणा के अयोग्य) स्कन्ध अतिसूक्ष्म कहे जाते हैं।24।
धवला 3/1,2,1/ गा.2/3 पुढवी-जलं च छाया चउरिंदियविसय-कम्मपरमाणू। छव्विह भेयं भणियं जिणवरेहिं।2। = पृथिवी, जल, छाया, नेत्र इन्द्रिय के अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों के विषय, कर्म और परमाणु, इस प्रकार पुद्गल द्रव्य छह प्रकार का कहा गया है। ( पंचास्तिकाय/ प्रक्षेपक/73-1/130); ( नयचक्र बृहद्/32 ); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/602/1058 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/20 )।
महापुराण/24/150-153 शब्द: स्पर्शो रसो गन्ध: सूक्ष्मस्थूलो निगद्यते। अचाक्षुषत्वे सत्येषाम् इन्द्रियग्राह्यतेक्षणात् ।151। स्थूलसूक्ष्मा: पुनर्ज्ञेयाश्छायाज्योत्स्नातपादय:। चाक्षुषत्वेऽप्यसंहार्यरूपत्वादविघातका:।152। द्रवद्रव्यं जलादि स्यात् स्थूलभेदनिदर्शनम् । स्थूलस्थूल: पृथिव्यादिर्भेद्य: स्कन्ध: प्रकीर्तित:।153। = शब्द, रस, गन्ध, स्पर्श सूक्ष्मस्थूल कहलाते हैं, क्योंकि यद्यपि इनका चक्षु इन्द्रिय के द्वारा ज्ञान नहीं होता, इसलिए ये सूक्ष्म हैं परन्तु अपनी-अपनी कर्ण आदि इन्द्रियों के द्वारा इनका ग्रहण हो जाता है इसलिए ये स्थूल भी कहलाते हैं।151। छाया, चाँदनी और आतप आदि स्थूल-सूक्ष्म कहलाते हैं क्योंकि चक्षु इन्द्रिय के द्वारा दिखाई देने के कारण यह स्थूल हैं, परन्तु इनके रूप का संहरण नहीं हो सकता, इसलिए विघात रहित होने के कारण सूक्ष्म भी हैं।152। पानी आदि तरल पदार्थ जो कि पृथक् करने पर भी मिल जाते हैं स्थूल भेद के उदाहरण हैं और पृथिवी आदि स्कन्ध जो कि भेद किये जाने पर फिर मिल न सकें स्थूल-स्थूल कहलाते हैं।153।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/76 तत्र छिन्ना: स्वयं संधानासमर्था काष्ठपाषाणादयो बादरबादरा:। छिन्ना; स्वयं संधानसमर्था: क्षीरघृततैलतोयरसप्रभृतयो बादरा:। स्थूलोपलम्भा अपि छेत्तुं भेत्तुमादातुमशक्या छायातपतमोज्योत्स्नादयो बादरसूक्ष्मा:। सूक्ष्मत्वेऽपि स्थूलोपलम्भा: स्पर्शरसगन्धशब्दा: सूक्ष्मबादरा:। सूक्ष्मत्वेऽपि हि करणानुपलभ्या: कर्मवर्गणादय: सूक्ष्मा:। अत्यन्तसूक्ष्मा: कर्मवर्गणाभ्योऽधो द्वयणुकस्कन्धपर्यन्ता: सूक्ष्मसूक्ष्मा इति। = काष्ठ पाषाणादिक जो कि छेदन करने पर स्वयं नहीं जुड़ सकते वे (घन पदार्थ) बादरबादर हैं। दूध, घी, तेल, रस आदि जो कि छेदन करने पर स्वयं जुड़ जाते हैं वे (प्रवाही पदार्थ) बादर हैं। छाया, धूप, अन्धकार, चाँदनी आदि (स्कन्ध) जो कि स्थूल ज्ञात होने पर भी जिनका छेदन, भेदन, अथवा (हस्तादि द्वारा) ग्रहण नहीं किया जा सकता वे बादर-सूक्ष्म हैं। स्पर्श-रस-गंध-शब्द जो कि सूक्ष्म होने पर भी स्थूल ज्ञात होते हैं (जो चक्षु के अतिरिक्त अन्य चार इन्द्रियों से ज्ञात होते हैं) वे सूक्ष्म बादर हैं। कर्म वर्गणादि कि जिन्हें सूक्ष्मपना है तथा जो इन्द्रियों से ज्ञात न हों ऐसे हैं वे सूक्ष्म हैं। कर्म वर्गणा से नीचे के द्विअणुक स्कंध तक के जो कि अत्यन्त सूक्ष्म हैं वे सूक्ष्मसूक्ष्म हैं। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/603/1059 )।
4. महास्कन्ध निर्देश
षट्खण्डागम/14/5,6/ सू.641/494 अठु पुढवीओ टंकाणि कूडाणि भवणाणि विमाणाणि विमाणिंदियाणि विमाणपत्थडाणि णिरइंदियाणि णिरयपत्थडाणि गच्छाणि गुम्माणि वल्लीणि लदाणि तणवणप्फदि आदीहि।641। = आठ पृथिवियाँ, टंक, कूट, भवन, विमान, विमानेन्द्रक, विमानप्रस्तर नरक, नरकेन्द्रक, नरकप्रस्तर, गच्छ, गुल्म, वल्ली, लता और तृण वनस्पति आदि महास्कन्ध स्थान हैं।641।
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/600/1052/4 महास्कन्धवर्गणा वर्तमानकाले एका सा तु भवनविमानाष्टपृथ्वीमेरुकुलशैलादीनामेकीभावरूपा। कथं संख्यातासंख्यातयोजनान्तरितानामेकत्वं। एकबन्धनबद्धसूक्ष्मपुद्गलस्कन्धै: समवेतानामन्तराभावात् । = महास्कन्ध वर्गणा वर्तमान काल में जगत् में एक ही है सो भवनवासियों के भवन, देवियों के विमान, आठ पृथिवी, मेरुगिरि, कुलाचल इत्यादि का एक स्कन्ध रूप ही है। प्रश्न-जिनके संख्यात असंख्यात योजन का अन्तर है, तिनका एक स्कन्ध कैसे संभवता है? उत्तर-जो मध्य में सूक्ष्म परमाणू हैं, सो वे विमान आदि और सूक्ष्म परमाणू इन सबका एक बँधान है, इसलिए अन्तर नहीं है एक स्कन्ध है। इस एक स्कन्ध का नाम महास्कन्ध है।
द्रव्यसंग्रह टीका/2/ चूलिका/79/2 पुद्गलद्रव्यं पुनर्लोकरूपमहास्कन्धापेक्षया सर्वगतं, शेषपुद्गलापेक्षया सर्वगतं न भवति। पुद्गल द्रव्य लोक व्यापक महास्कन्ध की अपेक्षा सर्वगत हैं और शेष पुद्गलों की अपेक्षा असर्वगत हैं।
देखें परमाणु - 2.7 (महास्कन्ध में कुछ परमाणु त्रिकाल अचल हैं)
देखें वर्गणा /2/2 (जघन्य वर्गणा से लेकर महास्कन्ध पर्यन्त वर्गणाओं की क्रमिक वृद्धि)
* वनस्पति स्कन्ध निर्देश-देखें वनस्पति - 3.7।
5. स्कन्धों की उत्पत्ति का कारण
तत्त्वार्थसूत्र/5/26 भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते।26।
सर्वार्थसिद्धि/5/26/298/5 भेदात्संघाताद्भेदसंघाताभ्यां च उत्पद्यन्त इति। तद्यथा-द्वयो: परमाण्वो: संघाताद् द्विप्रदेश: स्कन्ध उत्पद्यते। द्विप्रदेशस्याणोश्च त्रयाणां वा अणूनां संघातात्त्रिप्रदेश:। द्वयोर्द्विप्रदेशयोस्त्रिप्रदेशस्याणोश्च चतुर्णां वा अणूनां संघाताच्चतु:प्रदेश:। एवं संख्येयासंख्येयानन्तानामनन्तानन्तानां च संघातात्तावत्प्रदेश:। एषामेव भेदात्तावद् द्विप्रदेशपर्यन्ता: स्कन्धा उत्पद्यन्ते। एवं भेदसंघाताभ्यामेकसमयिकाभ्यां द्विप्रदेशादय: स्कन्धा उत्पद्यन्ते। अन्यतो भेदेनान्यस्य संघातेनेति। एवं स्कन्धानामुत्पत्तिहेतुरुक्त:। = भेद से, संघात से तथा भेद और संघात दोनों से स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। प्रश्न-भेद और संघात दो हैं। इसलिए सूत्र में द्विवचन होना चाहिए ? उत्तर-दो परमाणुओं के संघात से दो प्रदेशवाला स्कन्ध उत्पन्न होता है। दो प्रदेश वाले स्कन्ध और अणु के संघात से या तीन अणुओं के संघात से तीन प्रदेश वाले स्कन्ध और अणु के संघात से या चार अणुओं के स्कन्धों के संघात से, चार प्रदेशवाला स्कन्ध उत्पन्न होता है। इस प्रकार संख्यात, असंख्यात, अनन्त और अनन्तानन्त अणुओं के संघात से उतने-उतने प्रदेशों वाले स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। तथा इन्हीं संख्यात आदि परमाणुवाले स्कन्धों के भेद से दो प्रदेश वाले स्कन्ध तक स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार एक समय में होने वाले भेद और संघात इन दोनों से दो प्रदेश वाले आदि स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। तात्पर्य यह है कि जब अन्य स्कन्ध से भेद होता है और अन्य का संघात, तब एक साथ भेद और संघात इन दोनों से भी स्कन्ध की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार स्कन्धों की उत्पत्ति का कारण कहा। ( राजवार्तिक/5/26/2-5/493/26 )।
देखें वर्गणा /2/3,8,9 (ऊपर की वर्गणाओं के भेद से तथा नीचे की वर्गणाओं के संघात से उत्पन्न होने का स्पष्टीकरण)
6. स्कंधों में चाक्षुष अचाक्षुष विभाग व उनकी उत्पत्ति
तत्त्वार्थसूत्र/5/28 भेदसंघाताभ्यां चाक्षुष:/28।
सर्वार्थसिद्धि/5/28/299/7 अनन्तानन्तपरमाणुसमुदयनिष्पाद्योऽपि कश्चिच्चाक्षुष: कश्चिदचाक्षुष:। तत्र योऽचाक्षुष: स कथं चाक्षुषो भवतीति चेदुच्यते-भेदसंघाताभ्यां चाक्षुष:। न भेदादिति। कात्रोपपत्तिरिति चेत् । ब्रूम:; सूक्ष्मपरिणामस्य स्कन्धस्य भेदे सौक्ष्म्यापरित्यागादचाक्षुषत्वमेव। सौक्ष्म्यपरिणत: पुनरपर: सत्यपि तद्भेदेऽन्यसंघातान्तरसंयोगात्सौक्ष्म्यपरिणामोपरमे स्थौल्योत्पत्तौ चाक्षुषो भवति। = भेद और संघात से चाक्षुष स्कन्ध उत्पन्न होता है।28। अनन्तानन्त परमाणुओं के समुदाय से निष्पन्न होकर भी कोई स्कन्ध चाक्षुष होता है और कोई अचाक्षुष। उसमें जो अचाक्षुष स्कन्ध है वह चाक्षुष कैसे होता है इसी बात के बतलाने के लिए यह कहा है कि भेद और संघात से चाक्षुष स्कन्ध होता है, केवल भेद से नहीं, यह सूत्र का अभिप्राय है। प्रश्न-इसका क्या कारण है? उत्तर-आगे उसी कारण को कहते हैं-सूक्ष्म परिणामवाले स्कन्ध का भेद होने पर वह अपनी सूक्ष्मता को नहीं छोड़ता इसलिए उसमें अचाक्षुषपना ही रहता है। एक दूसरा सूक्ष्म परिणाम वाला स्कन्ध है जिसका यद्यपि भेद हुआ तथापि उसका दूसरे संघात से संयोग हो गया अत: सूक्ष्मपना निकलकर उसमें स्थूलपने की उत्पत्ति हो जाती है और इसलिए वह चाक्षुष हो जाता है। ( राजवार्तिक/5/28/-/594/15 )
* परमाणुओं की हीनाधिकता से स्कन्ध मोटा व छोटा नहीं होता।-सूक्ष्म/3/4।
* स्कन्ध के प्रदेशों में गुणों सम्बन्धी।-देखें पुद्गल ।
7. शब्द गन्ध आदि भेद स्कन्ध के हैं परमाणु के नहीं
राजवार्तिक/5/24/24/490/25 शब्दादयस्तु स्कन्धानामेव व्यक्तिरूपेण भवन्ति सौक्ष्म्यवर्ज्या इत्येतस्य विशेषस्य प्रतिपत्त्यर्थं पृथग्योगकरणम् । = शब्द आदि (अर्थात् शब्द, बन्ध, सौक्ष्म्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, तम और छाया व आतप उद्योत ये सब) व्यक्त रूप से स्कन्धों के ही होते हैं सौक्ष्म्य को छोड़कर, इस विशेषता को बताने के लिए पृथक् सूत्र बनाया है।
8. कर्म स्कन्ध सूक्ष्म हैं स्थूल नहीं
सर्वार्थसिद्धि/8/24/402/11 कर्मग्रहण...योग्या: पुद्गला: सूक्ष्मा: न स्थूला: इति। = कर्म रूप से ग्रहण योग्य पुद्गल सूक्ष्म होते हैं स्थूल नहीं होते। ( राजवार्तिक/8/24/4/585/17 )
* एक जाति के स्कन्ध दूसरी जाति रूप परिणमन नहीं करते।-देखें वर्गणा /2/8।
* अनन्तों स्कन्धों का लोक में अवस्थान व अवगाह।-देखें आकाश - 3.5।
पुद्गल बन्ध निर्देश
1. पुद्गल बन्ध का लक्षण
राजवार्तिक/2/10/2/124/24 द्रव्यबन्ध: कर्मनोकर्मपरिणत: पुद्गलद्रव्यविषय:। = नोकर्म रूप से परिणत पुद्गलकर्म रूप द्रव्यबन्ध है।
धवला 13/5,5,82/347/9,12 दो तिण्णि आदि पोग्गलाणं जो समवाओ सो पोग्गलबंधो णाम।9। जेण णिद्धल्हुक्खादिगुणेण पोग्गलाणं बंधो होदि सो पोग्गलबंधो णाम। = दो, तीन आदि पुद्गलों का जो समवाय सम्बन्ध होता है वह पुद्गल बन्ध कहलाता है।...जिस स्निग्ध और रूक्ष आदि गुण के कारण पुद्गलों का बन्ध होता है उसकी पुद्गलबन्ध संज्ञा है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/177 यस्तावदत्र कर्मणां स्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषैरेकत्वपरिणाम: स केवलपुद्गलबन्ध:। = कर्मों का जो स्निग्धतारूक्षता रूप स्पर्शविशेषों के साथ एकत्व परिणाम है सो केवल पुद्गलबन्ध है।
द्रव्यसंग्रह टीका/16/52/12 मृत्पिण्डादिरूपेण योऽसौ बहुधाबन्ध: स केवल: पुद्गलबन्ध:। = मिट्टी आदि के पिण्ड रूप जो बहुत प्रकार का बन्ध है वह तो केवल पुद्गलबन्ध है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/47 द्रव्यं पौद्गलिक: पिण्डो बन्धस्तच्छक्तिरेव वा। = कर्मरूप पौद्गलिक पिंड का अथवा कर्म की शक्ति का ही नाम द्रव्य बन्ध है।47।
2. बन्ध का कारण स्निग्ध रूक्षता
तत्त्वार्थसूत्र/5/33 स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्ध:।33।
सर्वार्थसिद्धि/5/33/304/8 द्वयो: स्निग्धरूक्षयोरण्वो: परस्परश्लेषलक्षणे बन्धे सति द्वयणुकस्कन्धो भवति। एवं संख्येयासंख्येयानन्तप्रदेश: स्कन्धो योज्य:। = स्निग्धत्व और रूक्षत्व से बन्ध होता है।33। स्निग्ध और रूक्षगुणवाले दो परमाणुओं का परस्पर संश्लेष लक्षण बन्ध होने पर द्वयणुक नाम का स्कन्ध बनता है। इसी प्रकार संख्यात असंख्यात और अनन्त प्रदेश वाले स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/609/1066 )।
3. स्निग्ध व रूक्ष में परस्पर बन्ध होने सम्बन्धी नियम
षट्खण्डागम 14/5,6/ सू.34,36/31,33 णिद्धणिद्वा ण बज्झंति ल्हुक्खल्हुक्खा य पोग्गला। णिद्धल्हुक्खा य बज्झंति रूवारूवी य पोग्गला।34। णिद्वस्स णिद्धेण दुराहिएण ल्हुक्खस्स ल्हुक्खेण दुराहिएण। णिद्धस्स ल्हुक्खेण हवेदि बंधो जहण्णवज्जे विसमे समे वा।36। = स्निग्ध पुद्गल स्निग्ध पुद्गलों के साथ नहीं बँधते। रूक्ष पुद्गल रूक्ष पुद्गलों के साथ नहीं बँधते किन्तु सदृश और विसदृश ऐसे स्निग्ध और रूक्ष पुद्गल परस्पर बँधते हैं।34। स्निग्ध पुद्गल का दो गुण अधिक स्निग्ध पुद्गल के साथ और रूक्ष पुद्गल का दो गुण अधिक रूक्ष पुद्गल के साथ बन्ध होता है। तथा स्निग्ध पुद्गल का रूक्ष पुद्गल के साथ जघन्य गुण के सिवा विषम अथवा सम गुण के रहने पर बन्ध होता है।36। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/166 में उद्धृत); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/610,618/1068 )
प्रवचनसार/166 णिद्धत्तणेण दुगुणो चदुगुणणिद्धेण बंधमणुभवदि। लुक्खेण वा तिगुणिदो अणु बज्झदि पंचगुणगुत्तो।166। = स्निग्धरूप से दो अंशवाला परमाणु चार अंशवाले स्निग्ध परमाणु के साथ बन्ध को अनुभव करता है अथवा रूक्षरूप से तीन अंशवाला परमाणु पाँच अंशवाले के साथ युक्त होता हुआ बँधता है।
तत्त्वार्थसूत्र/5/34,36 न जघन्यगुणानाम् ।34। गुणसाम्ये सदृशानाम् ।35। द्वयधिकादिगुणानां तु।36। = जघन्य गुणवाले पुद्गलों का बन्ध नहीं होता।34। समान शक्त्यंश होने पर तुल्य जाति वालों का बन्ध नहीं होता।35। दो अधिक आदि शक्त्यंशवालों का तो बन्ध होता है।36।
नयचक्र बृहद्/28 णिद्धादो णिद्धेण तहेव रुक्खेण सरिस विसमं वा। बज्झदि दोगुणअहिओ परमाणु जहण्णगुणरहिओ।28। = जघन्य गुण से रहित तथा दो गुण अधिक होने पर स्निग्ध का स्निग्ध के साथ, रूक्ष का रूक्ष के साथ, स्निग्ध का रूक्ष के साथ, और रूक्ष का स्निग्ध के साथ परमाणुओं का बन्ध होता है।
* स्कन्धों में परमाणुओं का एक देश व सर्वदेश समागम-देखें परमाणु - 3।
4. पुद्गल बंध सम्बन्धी नियम में दृष्टि भेद
संकेत -
- सदृश=स्निग्ध+स्निग्ध या रूक्ष+रूक्ष।
- विसदृश=स्निग्ध+रूक्ष या रूक्ष+ स्निग्ध।
दृष्टि नं.1. ( षट्खण्डागम 14/ मू.व टी./5,6/सू.32-36/30-32)।
दृष्टि नं.2. ( सर्वार्थसिद्धि/5/34-36/305-307 ); ( राजवार्तिक/5/34-36/498-499 ); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड व जी.प्र./612-618/1068)।
नं. | गुणांश | दृष्टि नं.1 | दृष्टि नं.2 | ||
सदृश | विसदृश | सदृश | विसदृश | ||
1 | समान गुणधारी | नहीं | है | नहीं | नहीं |
2 | असमान गुणधारी | हाँ | है | है | है |
3 | जघन्य+जघन्य | नहीं | नहीं | नहीं | नहीं |
4 | जघन्य+जघन्येतर | नहीं | नहीं | नहीं | नहीं |
5 | जघन्येतर+समजघन्येतर | नहीं | है | नहीं | नहीं |
6 | जघन्येतर+एकाधिक जघन्येतर | नहीं | है | नहीं | नहीं |
7 | जघन्येतर+द्वयधिक जघन्येतर | है | है | है | है |
8 | जघन्येतर+व्यापि अधिक जघन्येतर | नहीं | है | नहीं | नहीं |
5. बद्ध परमाणुओं के गुणों में परिणमन
तत्त्वार्थसूत्र/5/37 बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ च।37।
सर्वार्थसिद्धि/5/37/307/11 यथा क्लिन्नो गुडोऽधिकमधुररस: परीतानां रेण्वादीनां स्वगुणापादनात् पारिणामिक:। तथाऽन्योऽप्यधिकगुण: अल्पीयस: पारिणामिक इति कृत्वा द्विगुणादिस्निग्धरूक्षस्य चतुर्गुणादिस्निग्धरूक्ष: पारिणामिको भवति। तत: पूर्वावस्थाप्रच्यवनपूर्वकं तार्तीयिकमवस्थान्तरं प्रादुर्भवतीत्येकत्वमुपपद्यते। इतरथा हि शुक्लकृष्णतन्तुवत् संयोगे सत्यप्यपारिणामिकत्वात्सर्वं विविक्तरूपेणैवावतिष्ठेत् । = बन्ध के समय दो अधिक गुण वाला परिणमन कराने वाला होता है।37। जैसे अधिक मीठे रसवाला गीला गुड़ उस पर पड़ी हुई धूलि को अपने गुणरूप से परिणमाने के कारण पारिणामिक होता है उसी प्रकार अधिक गुणवाला अन्य भी अल्पगुण वाले का पारिणामिक होता है। इस व्यवस्था के अनुसार दो शक्त्यंश वाले स्निग्ध या रूक्ष परमाणु का चार शक्त्यंशवाला स्निग्ध या रूक्ष परमाणु पारिणामिक होता है। इससे पूर्व अवस्थाओं का त्याग होकर उनसे भिन्न एक तीसरी अवस्था उत्पन्न होती है। अत: उनमें एकरूपता आ जाती है अन्यथा सफेद और काले तन्तु के समान संयोग होने पर भी पारिणामिक न होने से सब अलग-अलग ही स्थित रहेगा।
गोम्मटसार जीवकाण्ड/619/1074 णिद्धीदरगुणा अहिया हीणं परिणामयंति बंधम्मि। संखेज्जासंखेज्जाणंतपदेसाण खंधाण। = संख्यात असंख्यात अनन्तप्रदेश वाले स्कन्धों में स्निग्ध या रूक्ष के अधिक गुण वाले परमाणु या स्कन्ध अपने से हीन गुण वाले परमाणु या स्कन्धों को अपने रूप परिणमाते हैं। (जैसे एक हज़ार स्निग्ध या रूक्ष गुण के अंशों से युक्त परमाणु या स्कन्ध को एक हजार दो अंश वाला स्निग्ध या रूक्ष परमाणु या स्कन्ध परणमाता है।)
* गुणों का परिणमन स्वजाति की सीमा का लंघन नहीं कर सकता-देखें गुण - 2.7।