काल
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
- असुरकुमार नाम व्यंतरजातीय देवों का एक भेद–देखें असुर ।
- पिशाच जातीय व्यंतर देवों का एक भेद–देखें पिशाच ।
- उत्तर कालोद समुद्र का रक्षक व्यंतर देव–देखें व्यंतर - 4।
- एक ग्रह–देखें ग्रह ।
- पंचम नारद विशेष परिचय–देखें शलाकापुरुष - 6।
- चक्रवर्ती की नवनिधियों में से एक–देखें शलाका पुरुष - 2।
पुराणकोष से
(1) भरत चक्रवर्ती की निधिपाल देवों द्वारा सुरक्षित और अविनाशी नौ निधियों में प्रथम निधि । इससे लौकिक शब्दों-व्याकरण आदि शास्त्रों की तथा इंद्रियों के मनोज्ञ विषयों वीणा, बांसुरी आदि संगीत की यथासमय उपलब्धि होती रहती थी । महापुराण 37.73-76, हरिवंशपुराण 11. 110-114
(2) गंधमादन पर्वत से उद्भूत महागंधवती नदी के समीप भल्लंकी नाम की पल्ली का एक भील । इसने वरधर्म मुनिराज के पास मद्य, मांस और मधु का त्याग किया था । इसके फलस्वरूप यह मरकर विजया पर्वत पर अलका नगरी के राजा पुरबल और उनकी रानी ज्योतिर्माला का हरिबल नाम का पुत्र हुआ था । महापुराण 71. 309-311
(3) भरत खंड के दक्षिण का एक देश । लवणांकुश ने यहाँ के राजा को पराजित किया था । पद्मपुराण 101.84-86
(4) विभीषण के साथ राम के आश्रय में आगत विभीषण का शूर सामंत । यह राम का योद्धा हुआ और इसने रावण के योद्धा चंद्रनख के साथ युद्ध किया था । पद्मपुराण 55.40-41, 58.12-17 62.26
(5) व्यंतर देवों के सोलह इंद्रों में पंद्रहवाँ इंद्र । वीरवर्द्धमान चरित्र 14.59-61
(6) पंचम नारद । यह पुरुष सिंह नारायण के समय में हुआ था । इसकी आयु दस लाख वर्ष की थी । अन्य नारदों के समान यह भी कलह का प्रेमी, धर्म-स्नेही, महाभव्य और जिनेंद्र का भक्त था । हरिवंशपुराण 60.548-550
(7) सातवीं पृथिवी के अप्रतिष्ठान नामक इंद्रक की पूर्व दिशा में स्थित महानरक । हरिवंशपुराण 4.158
(8) कालोदधि के दक्षिण भाग का रक्षक देव । हरिवंशपुराण 5.638
(9) दिति देवी द्वारा नीम और विनमि को प्रदत्त विद्याओं का एक निकाय । हरिवंशपुराण 22. 59-60
(10) छ: द्रव्यों में एक द्रव्य । यह रूप, रस, गंध और स्पर्श तथा गुरुत्व और लघुत्व से रहित होता है । वर्तना इसका लक्षण है । अनादिनिधन, अत्यंत सूक्ष्म और असंख्येय यह काल सभी द्रव्यों के परिणमन में कुम्हार के चक्र के घूमने में सहायक कील के समान सहकारी कारण होता है । महापुराण 3. 2-4, 24.139-140, हरिवंशपुराण 7.1, 58.56 इसके अणु परस्पर एक दूसरे से नहीं मिलते इसलिए यह अकाय है तथा शेष पांचों द्रव्य― जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश के प्रदेश एक दूसरे से मिले हुए रहते हैं इसलिए वे अस्तिकाय हैं । यह धर्म, अधर्म और आकाश की भाँति अमूर्तिक है । इसके दो भेद हैं― मुख्य (निश्चय) और व्यवहार । इनमें व्यवहारकाल-मुख्यकाल के आश्रय से उत्पन्न उसी की पर्याय है । यह भूत, भविष्यत् और वर्तमान रूप होकर यह संसार का व्यवहार चलाता है समय, आवलि, उच्छ्वास, नाड़ी आदि इसके अनेक भेद है । महापुराण 3.7-12, 24.139-144 परमाणु जितने समय में अपने प्रदेश का उल्लंघन करता है, उतने समय का एक समय होता है । यह अविभागी होता है । इसके आधार से होने वाला व्यवहार निम्न प्रकार है―
असंख्यात समय = एक आवलि
संख्यात आवीरू = एक उच्छ्वास-नि:श्वास
दो उच्छ्वास-निःश्वास = एक प्राण
सात प्राण = एक स्तोक
सात स्तोक = एक लव
सतहत्तर लव = एक मुहूर्त
तीस मुहूर्त = एक अहोरात्र
पंद्रह अहोरात्र = एक पक्ष
दा पक्ष = एक मास
दो मास = एक ऋतु
तीन ऋतु = एक अयन
दो अयन = एक वर्ष
पांच वर्ष = एक युग
दो युग = दस वर्ष
दस वर्ष × 10 = सौ वर्ष
100 वर्ष × 10 = हजार वर्ष
1000 वर्ष × 10 = दस हजार वर्ष
दस हजार वर्ष × 10 = एक लाख वर्ष
एक लाख वर्ष × 84 = एक पूर्वांग
84 लाख पूर्वांग = एक पूर्व
84 लाख पूर्व = एक नियुतांग
84 लाख नियुतांग = एक नियुत
84 लाख नियुत = एक कुमुदांग
84 लाख कुमुदांग = एक कुमुद
84 लाख कुमुद = एक पद्मांग
84 लाख पद्मांग = एक पद्म
84 लाख पद्म = एक नलिनांग
84 नलिनांग = एक नलिन
84 लाख नलिन = एक कमलांग
84 लाख कमलांग = एक कमल
84 लाख कमल = एक तुट्यांग
84 लाख तुट्यांग = एक तुट्य
84 लाख तुट्य = एक अंट्टांग
84 लाख अटटांग = एक अटट
84 लाख अटट = एक अममांग
84 लाख अममांग = एक अमम
84 लाख = एक ऊहांग
84 लाख ऊहांग = एक ऊह
84 लाख ऊह = एक लतांग
84 लाख लतांग = एक लता
84 लाख लता = एक महालतांग
84 लाख महालतांग = एक महालता
84 लाख महालता = एक शिर: प्रकंपित
84 लाख शिर: प्रकंपित = एक हस्त प्रहेलिका
84 लाख हस्त प्रहेलिका = चर्चिका
यह चर्चिका आदि रूप में परिभाषित काल संख्यात है तथा संख्यात वर्ष से अतिक्रांत काल असंख्येय काल होता है । इससे पल्य, सागर, कल्प तथा अनंत आदि अनेक काल-परिणाम बनते हैं । 7.17-31 इस व्यवहार काल के उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दो भेद भी है । दोनों मे प्रत्येक का काल-प्रमाण दस कोड़ाकोड़ी सागर होता है । दोनों का काल बीस कोड़ाकोड़ी होता है जिसे एक कल्प कहते हैं । महापुराण 3. 14-15