उपलब्धि
From जैनकोष
1. ज्ञानके अर्थमें
सि.वि./वृ. 1/2/8/14 उपलभ्यते अनया वस्तुतत्त्वमिति उपलब्धिः, अर्थादापन्ना तदाकारा च बुद्धिः।
= जिसके द्वारा वस्तुतत्त्व उपलब्ध किया जाता हो या ग्रहण किया जाता हो, वह उपलब्धि है। पदार्थसे उत्पन्न होनेवाली तदाकार परिणत बुद्धि उपलब्धि है।
पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 39 चेतयते अनुभवन्ति उपलभन्ते विन्दन्तीत्येकार्थश्चेतनानुभूत्युपलब्धिवेदनानामेकार्थतत्त्वात्।
= चेतता है, अनुभव करता है, उपलब्ध करता है, और वेदता है, ये एकार्थ हैं; क्योंकि चेतना, अनुभूति, उपलब्धि और वेदना एकार्थक हैं।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 43/86/1 मतिज्ञानावरणीयक्षयोपशमजनितार्थग्रहणशक्तिरुपलब्धिः।
= मतिज्ञानावरणीयके क्षयोपशमसे उत्पन्न अर्थ ग्रहण करनेकी शक्तिको उपलब्धि कहते हैं।
2. अनुरागके अर्थमें
ध./उ. 435 अथानुरागशब्दस्य विधिर्वाच्यो यदार्थतः। प्राप्तिः स्यादुपलब्धिर्वा शब्दाश्चैकार्थवाचकाः ।435।
= जिस समय अनुराग शब्दका अर्थकी अपेक्षासे विधिरूप अर्थ वक्तव्य होता है, उस समय अनुराग शब्दका अर्थ प्राप्ति व उपलब्धि होता है; क्योंकि अनुराग, प्राप्ति और उपलब्धि ये तीनों शब्द एकार्थवाचक हैं।
3. सम्यक्त्व या ज्ञानचेतनाके अर्थमें
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 200-208 ननूपलब्धिशब्देन ज्ञानं प्रत्यक्षमर्थतः। तत् किं ज्ञानावृतैः स्वीयकर्मणोऽन्यत्र तत्क्षतिः ।200। मत्याद्यावरणस्योच्चैः कर्मणोऽनुदयाद्यथा। दृङ्मोहस्योदयाभावादात्मशुद्धोपलब्धिः स्यात् ।203। किंचोपलब्धिशब्दोऽपि स्यादनेकार्थवाचकः। शुद्धोपलब्धिरित्युक्ता स्यादशुद्धत्वहानये ।204। बुद्धिमानत्र संवेद्यो यः स्वयं स्यात्स वेदकः। स्मृतिव्यतिरिक्तं ज्ञानमुपलब्धिरियं यतः ।208।
= प्रश्न-वास्तवमें ज्ञान चेतनाको लक्षणभूत आत्मोपलब्धिमें `उपलब्धि' शब्दसे `प्रत्यक्षज्ञान' ऐसा अर्थ निकलता है। इसलिए ज्ञानावरणीयको आत्मोपलब्धिका घातक मानना चाहिए, मिथ्यात्व कर्मको नहीं। किन्तु ऊपरके पद (199) में मिथ्यात्वके उदयको उस आत्मोपलब्धिका घातक माना है। तो क्या ज्ञानघातक ज्ञानावरणके सिवाय किसी और कर्मसे भी उस आत्मोपलब्धिका घात होता है ।200। उत्तर-1. जैसे वास्तविक आत्माको शुद्धोपलब्धिस्वयोग्यमतिज्ञानावरण कर्मके अभावसे होती है, वैसे ही दर्शनमोहनीय कर्मके उदयके अभाव से भी होती है ।203। 2. दूसरा उत्तर यह है कि उपलब्धि शब्द भी अनेकार्थ वाचक है, इसलिए यहाँ पर प्रकरणवश अशुद्धताके अभावको प्रगट करनेके लिए `शुद्ध' उपलब्धि ऐसा कहा है ।204। क्योंकि शुद्धोपलब्धिमें जो चेतनावान जीव ज्ञेय होता है वही स्वयं ज्ञानी माना जाता है, अर्थात् निश्चयसे ज्ञान और ज्ञेयमें कोई अन्तर नहीं होता। इसलिए यह शुद्धोपलब्धि अतीन्द्रिय ज्ञानरूप पड़ती है। भावार्थ-`उपलब्धि' शब्दका अर्थ जिस प्रकार नेत्रादि इन्द्रियों द्वारा बाह्य पदार्थोंका प्रत्यक्ष ग्रहण करनेमें आता है, उसी प्रकार अतीन्द्रिय ज्ञान द्वारा अन्तरंग पदार्थ अर्थात् अन्तरात्माका प्रत्यक्ष अनुभव करना भी उसी शब्दका वाच्य है। अन्तर केवल इतना है कि इसके साथ `शुद्ध' विशेषण लगा दिया गया है।
• उपलब्धि व अनुपलब्धि रूप हेतु - देखें हेतु ।
उपलब्धि समा - न्यायदर्शन सूत्र / मूल या टीका अध्याय व भाष्य 5।1।27 निर्दिष्टकारणाभावेऽप्युपलम्भादुपलब्धिसमः ।28। निर्दिष्टस्य प्रयत्नान्तरीयकत्वसयानित्यत्वकारणस्याभावेऽपि वायुनोदनाद्वृक्षशाखाभङ्गजस्य शब्दस्यानित्यत्वमुपलभ्यते निर्दिष्टस्य साधनस्याभावेऽपि साध्यधर्मोपलब्ध्या प्रत्यवस्थानमुपलब्धिसमः।
= वादी द्वारा कहे जा चुके कारण के अभाव होनेपर भी साध्य धर्मका उपलम्भ हो जानेसे, उपलब्धि प्रतिषेध है। उसका उदाहरण इस प्रकार है कि वायुके द्वारा वृक्षकी शाखा आदिके भंगसे उत्पन्न हुए शब्दमें या घनगर्जन, समुद्र घोष आदिमें प्रयत्नजन्यत्वका अभाव होने पर भी, उसमें साध्य धर्मरूप अनित्यत्व वर्त रहा है। इसलिए शब्दको `नित्य' सिद्ध करनेमें दिया गया प्रयत्नान्तरीयकत्व हेतु ठीक नहीं है।
( श्लोकवार्तिक पुस्तक 4/न्या. 419/525/13)
2. अनुपलब्धि समा जाति
न्यायदर्शन सूत्र / मूल या टीका अध्याय व भाष्य 5-1/29 तदनुपलब्धेरनुपलम्भादभावसिद्धौ परीतोपपत्तेरनुपलब्धिसमः ।29। तेषामावरणादीनामनुपलब्धिर्नोपलभ्यते अनुपलम्भान्नास्तीत्यभावोऽस्याः सिध्यति अभावसिद्धौ हेत्वभावात्तद्विपरीतमस्तिनावरणादीनामवधार्यते तद्विपरीतोपपत्तेर्यत्प्रतिज्ञातं न प्रागुच्चारणाद्विद्यमानस्य शब्दस्यानुपलब्धिरित्येतन्न सिध्यति सोऽयं हेतुरावरणाद्यनुपलब्धेरित्यावरणादिषु चावरणाद्यनुपलब्धौ च समयानुपलब्ध्या प्रत्यवस्थितोऽनुपलब्धिसमो भवति।
= निषेध करने योग्य शब्दकी जो अनुपलब्धि है, उस "अनुपलब्धि" की भी अनुपलब्धि हो जानेसे अभावका साधन करने पर, विपर्याससे उस अनुपलब्धिके अभावकी उपपत्ति करना प्रतिवादीकी अनुपलब्धिसमाजाति बखानी गयी है। इसका उदाहरण इस प्रकार है कि-`उच्चारणके प्रथम नहीं विद्यमान हो रहे ही शब्दका अनुपलम्भ है। विद्यमान शब्दका अदर्शन नहीं है, इस प्रकार स्वीकार करनेवाले वादीके लिए जिस किसी भी प्रतिवादीकी ओरसे यों प्रत्यवस्थान उठाया जाता है, कि उस शब्दके आवरण, अन्तराल आदिकोंके अदर्शनका भी अदर्शन हो रहा है। इसलिए वह आवरण आदिकोंकी जो अनुपलब्धि कही जा रही है उसका ही अभाव है। तिस कारण उच्चारणसे पहिले विद्यमान हो रहे ही शब्दका सुनना आवरणवश नहीं हो सका है, यह बात सिद्ध हो जाती है। क्योंकि अनादिकालसे सदा अप्रतिहत चला आ रहा जो शब्द है, तिसके आवरण आदिकोंके अभावका भी अभाव सिद्ध हो जानेसे उनका सद्भाव सिद्ध हो जाता है।
(श्लो. वा. 4/न्या. 425/628/10 तथा पृ. 531/14)।