संसार
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
संसरण करने अर्थात् जन्म मरण करने का नाम संसार है। अनादिकाल से जन्म मरण करते हुए जीव ने एक-एक करके लोक के सर्व परमाणुओं को, सर्व प्रदेशों को, काल के सर्व समयों को, सर्व प्रकार के कषाय भावों को और नरकादि सर्वभवों को अनंत-अनंत बार ग्रहण करके छोड़ा है। इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व भव के भेद से यह संसार पंच परिवर्तन रूप कहा जाता है।
संसार सामान्य निर्देश
1. संसार सामान्य का लक्षण
1. परिवर्तन
सर्वार्थसिद्धि/2/10/164/5 संसरणं संसार: परिवर्तनमित्यर्थ:।
सर्वार्थसिद्धि/9/7/415/1 कर्मविपाकवशादात्मनो भवांतरावाप्ति: संसार:। = 1. संसरण करने को संसार कहते हैं जिसका अर्थ परिवर्तन है। 2. कर्म के विपाक के वश से आत्मा को भवांतर की प्राप्ति होना संसार है। ( राजवार्तिक/-2/10/1/124/15; 9/1/8/588/2; 9/7/3/600/28 )।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/32-33 एक्क चयदि सरीरं अण्णं गिण्हेदि णवणवं जीवो। पुणु पुणु अण्णं अण्णं गिण्हदि मुंचेदि बहु बारं।32। एवं जं संसरणं णाणा-देहेसु होदि जीवस्स। सो संसारो भण्णदि मिच्छ-कसाएहिं जुत्तस्स।33। = जीव एक शरीर को छोड़ता है और दूसरे नये शरीर को ग्रहण करता है। पश्चात् उसे भी छोड़कर दूसरा नया शरीर धारण करता है। इस प्रकार अनेक बार शरीर को ग्रहण करता है और अनेक बार उसे छोड़ता है। मिथ्यात्व कषाय वगैरह से युक्त जीव का इस प्रकार अनेक शरीरों में जो संसरण (परिभ्रमण) होता है, उसे संसार कहते हैं।
2. कर्म
धवला 13/5,4,17/44/10 संसरंति अनेन घातिकर्मकलापेन चतसृषु गतिष्विति घातिकर्मकलाप: संसार:। =जिस घातिकर्म समूह के कारण जीव चारों गतियों में संसरण करते हैं, वह घातिकर्म समूह संसार है।
2. संसार असंसार आदि संसार निर्देश
राजवार्तिक/9/7/3/600/28 चतुर्विधात्मावस्था: - संसार: असंसार: नोसंसार: तत्त्रितयव्यपाश्यचेति। तत्र संसारश्चतुसृषु गतिषु नानायोनिविकल्पासु परिभ्रमणम् । अनागतिरसंसार: शिवपदपरमामृतसुखप्रतिष्ठा। नोसंसारसयोगकेवलिन: चतुर्गतिभ्रमणाभावात् असंसारप्राप्त्यभावाच्च ईषत्संसारो नोसंसार इति। अयोगकेवलिन: तंत्रितयव्यपाय: भवभ्रमणाभावात् सयोगकेवलिवत् प्रदेशपरिस्पंद: विगमात् असंसारावाप्त्यभावाच्च। = आत्मा की चार अवस्थाएँ होती हैं - संसार, असंसार, नोसंसार और इन तीनों से विलक्षण अनेक योनि वाली चारों गतियों में परिभ्रमण करना संसार है। फिर जन्म न लेना - शिवप्रद प्राप्ति या परमसुख प्रतिष्ठा असंसार है। चतुर्गति में परिभ्रमण न होने से तथा अभी मोक्ष की प्राप्ति न होने से सयोगकेवली की जीवन्मुक्त अवस्था ईषत्संसार या नोसंसार है। अयोगकेवली इन तीनों से विलक्षण है। इनके चतुर्गति भ्रमण और असंसार की प्राप्ति तो नहीं है पर केवली की तरह शरीर परिस्पंद भी नहीं है। जब तक शरीर परिस्पंद न होने पर भी आत्मप्रदेशों का चलन होता रहता है तब तक संसार है। ( चारित्रसार/180/3 )।
3. द्रव्य क्षेत्रादि संसार निर्देश
राजवार्तिक/9/7/3/601/4 द्रव्यनिमित्तसंसारश्चतुर्विध: कर्मनोकर्मवस्तुविषयाश्रयभेदात् । तत्र क्षेत्रहेतुको द्विविध: - स्वक्षेत्रपरक्षेत्रविकल्पात् । लोकाकाशतुल्यप्रदेशस्यात्मन: कर्मोदयवशात् संहरणविसर्पणधर्मण: हीनाधिकप्रदेशपरिणामावगाहित्वं स्वक्षेत्रसंसार:। संमूर्च्छनगर्भोपपादजन्मनवयोनिविकल्पाद्यालंबन: परक्षेत्रसंसार:। कालो द्विविध: - परमार्थरूपो व्यवहाररूपश्चेति। तयोर्लक्षणप्राग्व्याख्यातम् । तव परमार्थकालवर्तितपरिस्पंदेतरपरिणामविकल्प: तत्पूर्वककालव्यपदेशौपचारिककालत्रयवृत्ति: कालसंसारम् । भवनिमित्त: संसार: द्वात्रिंशद्विध: - पृथिव्यप्तेजोवायुकायिका: प्रत्येकं चतुर्विधा: सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्तकभेदात् । वनस्पतिकायिका: द्वेधा-प्रत्येकशरीरा: साधारणशरीराश्चेति। प्रत्येकशरीरा द्वेधा-पर्याप्तकापर्याप्तकभेदात् । साधारणशरीराश्चतुर्धा सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकविकल्पात् । विकलेंद्रिया प्रत्येकं द्विधा पर्याप्तकापर्याप्तकविकल्पात् । पंचेंद्रियाश्चतुर्धा संज्ञ्यसंज्ञिपर्याप्तकापर्याप्तकापेक्षयेति। भावनिमित्तो संसारो द्वेधा स्वभावपरभावाश्रयात् । स्वभावो मिथ्यादर्शनादि परभावो ज्ञानावरणादिकर्मरसादि:। = 1. कर्म नोकर्म वस्तु और विषयाश्रय के भेद से द्रव्यसंसार चार प्रकार का है। 2. स्वक्षेत्र और परक्षेत्र के भेद से क्षेत्रसंसार दो प्रकार का है। लोकाकाश के समान असंख्य प्रदेशी आत्मा को कर्मोदयवश संहरणविसर्पण स्वभाव के कारण जो छोटे-बड़े शरीर मे रहना है वह स्वक्षेत्र संसार है। सम्मूर्छन गर्भ उपपाद आदि नौ प्रकार की योनियों के आधीन परक्षेत्र संसार है। 3. काल व्यवहार और परमार्थ के भेद से दो प्रकार का है।...परमार्थ काल के निमित्त से होने वाले परिस्पंद और अपरिस्पंद परिणमन जिनमें व्यवहारकाल का विभाग भी होता है कालसंसार है। 4. भवनिमित्त संसार बत्तीस प्रकार का है - सूक्ष्म, बादर और पर्याप्त व अपर्याप्त के भेद से चार-चार प्रकार के - पृथिवी, जल, तेज और वायुकायिक; पर्याप्तक और अपर्याप्तक प्रत्येक वनस्पति; सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्तक ये चार साधारण वनस्पति; पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से दो-दो प्रकार के - द्वींद्रिय, त्रींद्रिय और चतुरिंद्रिय; संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये चार पंचेंद्रिय इस प्रकार बत्तीस प्रकार भवसंसार हैं। 5. भावनिमित्तिक संसार के दो भेद हैं स्वभाव ओर परभाव। मिथ्यादर्शनादि स्वभाव संसार हैं तथा ज्ञानावरणादि कर्मों का रस परभाव संसार हैं।
प्रवचनसार/ ता.प्र./ यस्तु परिणममानस्य द्रव्यस्य पूर्वोत्तरदशापरित्यागोपादानात्मक: क्रियाख्यपरिणामातत्संसारस्य स्वरूपम् ।=परिणमन करते हुए द्रव्य का पूर्वोत्तर दशा का त्याग-ग्रहणात्मक क्रिया नामक परिणाम है सो वह (भाव) संसार का स्वरूप है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/7/9/9 मिथ्यात्वरागादिसंसरणरूपेण भावसंसारे पतंत...। =मिथ्यात्व रागादि के संसरणरूप भाव संसारे...
* जितने जीव मोक्ष जाते हैं उतने ही निगोद से निकलते हैं - देखें मोक्ष - 2।
* निरंतर मुक्त होते भी जीवों से संसार रिक्त नहीं होता - - देखें मोक्ष - 6।
पंच परिवर्तनरूप संसार निर्देश
1. परिवर्तन के पाँच भेद
सर्वार्थसिद्धि/2/10/165/1 तत् परिवर्तनं पंचविधं द्रव्यपरिवर्तनं क्षेत्रपरिवर्तनं कालपरिवर्तनं भवपरिवर्तनं भावपरिवर्तनं चेति। =परिवर्तन के पाँच भेद हैं - द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन, भवपरिवर्तन और भावपरिवर्तन। (मू.आ./704); ( धवला 4/1,5,4/325/5 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/560/989/14 )।
2. द्रव्यपरिवर्तन आदि के उत्तर भेद
सर्वार्थसिद्धि/2/10/165/2 द्रव्यपरिवर्तन द्विविधम् - नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनं कर्मद्रव्यपरिवर्तनं चेति।
धवला 4/1,5,4/327/10 पोग्गलपरियट्टकालो तिविहोहोदि, अगहितगहणद्धा गहिदगहणद्धा मिस्सयगहणद्धा चेदि। = 1. द्रव्यपरिवर्तन के दो भेद है - नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन और कर्मद्रव्यपरिवर्तन। ( धवला 4/1,5,4/325/7 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/560/989/14 )। 2. यह पुद्गल (नोकर्म) परिवर्तनकाल तीन प्रकार का होता है - अगृहीत ग्रहण काल, गृहीतग्रहण काल और मिश्र काल।
3. द्रव्यपरिवर्तन निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/2/10/165/2 तत्र नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनं नाम त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां च योग्या ये पुद्गला एकेन जीवेन एकस्मिन्समये गृहीता: स्निग्धरूपवर्णगंधादिभिस्तीव्रमंदमध्यमभावेन च यथावस्थिता द्वितीयादिषु समयेषु निजीर्णा अगृहीताननंतबारानतीत्य मिश्रकांश्चानंतवारानतीत्य मध्ये गृहीतांश्चानंतबारानतीत्य त एव तेनैव प्रकारेण तस्यैव जीवस्य नोकर्मभावमापद्यंते यावत्तावत्समुदितं नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनम् । कर्मद्रव्यपरिवर्तनमुच्यते - एकस्मिन्समये एकेन जीवेनाष्टविधकर्मभावेन ये गृहीता: पुद्गला: समयाधिकामावलिकामतीत्य द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीर्णा:, पूर्वोक्तेनैव क्रमेण त एव तेनैव प्रकारेण तस्य जीवस्य कर्मभावमापद्यंते यावत्तावत्कर्मद्रव्यपरिवर्तनं उक्तं च - सव्वे पि पुग्गला खलु कमसो भुत्तुज्झिया य जीवेण। असइं अणंतखुत्तो पुग्गलपरियट्टसंसारे। = नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन का स्वरूप कहते हैं - किसी एक जीव ने तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों को एक समय में ग्रहण किया। अनंतर वे पुद्गल स्निग्ध या रूक्ष स्पर्श तथा वर्ण और गंध आदि के द्वारा जिस तीव्र, मंद और मध्यम भाव से ग्रहण किये थे उस रूप से अवस्थित रहकर द्वितीयादि समयों में निर्जीर्ण हो गये। तत्पश्चात् अगृहीत परमाणुओं को अनंतबार ग्रहण करके छोड़ा, मिश्र परमाणुओं को अनंत बार ग्रहण करके छोड़ा और बीच में गृहीत परमाणुओं को अनंत बार ग्रहण करके छोड़ा। तत्पश्चात् जब उसी जीव के सर्वप्रथम ग्रहण किये गये वे ही परमाणु उसी प्रकार से नोकर्म भाव को प्राप्त होते हैं, तब यह सब मिलकर एक नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन है। अब कर्मद्रव्यपरिवर्तन का कथन करते हैं - एक जीव ने आठ प्रकार के क्रमरूप से जिन पुद्गलों को ग्रहण किया वे समयाधिक एक आवलीकाल के बाद द्वितीयादिक समयों में झर गये। पश्चात् जो क्रम नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन में बतलाया है उसी क्रम से वे ही पुद्गल उसी प्रकार से उस जीव के जब कर्मभाव को प्राप्त होते हैं तब यह सब मिलकर एक कर्म द्रव्यपरिवर्तन होता है। इस जीव ने सभी पुद्गलों को क्रम से भोगकर छोड़ा है। और इस प्रकार यह जीव अनंतबार पुद्गल परिवर्तनरूप संसार में घूमता रहता है ( भावपाहुड़/ मू./22); (बा.अनु./25); ( धवला 4/1,5,4/325-33 ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/67 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/103/5 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/560/989/15 )
4. क्षेत्रपरिवर्तन निर्देश
1. स्वक्षेत्र
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/560/991/20 स्वक्षेत्रपरिवर्तनमुच्यते - कश्चिज्जीव: सूक्ष्मनिगोदजघन्यावगाहनेनोत्पन्न: स्वस्थितिं जीवित्वा मृत: पुन: प्रदेशोत्तरावगाहनेन उत्पन्न:। एवं द्वयादिप्रदेशोत्तरक्रमेण महामत्स्यावगाहनपर्यंता: संख्यातघनांगुलप्रमितावगाहनविकल्पा: तेनैव जीवेन यावत्स्वीकृता: तत् सर्वं समुदितं स्वक्षेत्रपरिवर्तनं भवति। =स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं - कोई जीव सूक्ष्मनिगोदिया की जघन्य अवगाहना से उत्पन्न हुआ, और अपनी आयु प्रमाण जीवित रहकर मर गया। फिर वही जीव एक प्रदेश अधिक अवगाहना लेकर उत्पन्न हुआ। एक-एक प्रदेश अधिक की अवगाहनाओं को क्रम से धारण करते - करते महामत्स्य की उत्कृष्ट अवगाहना पर्यंत संख्यात घनांगुल प्रमाण अवगाहना के विकल्पों को वही जीव जितने समय में धारण करता है उतने काल के समुदाय को स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं।
2. परक्षेत्र
बा.अणु./26 सव्वम्हि लोयखेत्ते कमसो तण्णत्थि जण्ण उप्पण्णं। उग्गाहणेण बहुसो परिभमिदो खेत्तसंसारं।26। =क्षेत्र परिवर्तनरूप संसार में अनेकबार भ्रमण करता हुआ यह जीव तीनों लोकों में संपूर्ण क्षेत्र में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है, जहाँ पर अपनी अवगाहना वा परिणाम को लेकर उत्पन्न न हुआ हो। ( भावपाहुड़/ मू./21); ( सर्वार्थसिद्धि/2/10 पर उद्धृत); ( परमात्मप्रकाश/ मू./65/प्रक्षेपक); ( धवला 4/1,5,4/ गा.23/333); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/28 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/103/7 )।
सर्वार्थसिद्धि/2/10/165/13 क्षेत्रपरिवर्तनमुच्यते - सूक्ष्मनिगोदजीवोऽपर्याप्तक: सर्वजघन्यप्रदेशशरीरी लोकस्याष्टमध्यप्रदेशान् स्वशरीरमध्ये कृत्वोत्पन्न: क्षुद्रभवग्रहणं जीवित्वा मृत:। स एव पुनस्तेनैवावगाहेन द्विरुत्पन्नस्तथाविस्तथा चतुरित्येवं यावद् घनांगुलस्यासंख्येयभागप्रमिताकाशप्रदेशास्तावत्कृत्वस्तत्रैव जनित्वा पुनरेकैकप्रदेशाधिकभावेन सर्वो लोक आत्मनो जन्मक्षेत्रभावमुपनीती भवति यावत्तावत्क्षेत्रपरिवर्तनम् ।=जिसका शरीर आकाश के सबसे कम प्रदेशों पर स्थित है, ऐसा एक सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकजीव लोक के आठ मध्य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्य में करके उत्पन्न हुआ और क्षुद्रभव ग्रहण काल तक जीवित रहकर मर गया। पश्चात् वही जीव पुन: उसी अवगाहना से वहाँ दूसरी बार उत्पन्न हुआ, तीसरी बार उत्पन्न हुआ, चौथी बार उत्पन्न हुआ। इस प्रकार अंगुल के असंख्यातवें भाग में आकाश के जितने प्रदेश हों उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ। पुन: उसने आकाश का एक-एक प्रदेश बढ़ाकर सब लोक को अपना जन्म क्षेत्र बनाया। इस प्रकार सब मिलकर एक क्षेत्रपरिवर्तन होता है। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/560/992/2 )।
5. काल परिवर्तन निर्देश
बा.अणु./27 अवसप्पिणि उस्सप्पिणि समयावलियासु णिरवसेसासु। जादो मुदो य बहुसो परिभमिदो कालसंसारे। =काल परिवर्तनरूप संसार में भ्रमण करता हुआ उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के संपूर्ण समयों और आवलियों में अनेक बार जन्म धारण करता है और मरता है। ( भावपाहुड़/ मू./35); ( सर्वार्थसिद्धि/2/10/166 पर उद्धृत); ( धवला 4/1,5,4/ गा.24/333); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/69 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/103/9 )।
सर्वार्थसिद्धि/2/10/166/6 कालपरिवर्तनमुच्यते-उत्सर्पिण्या: प्रथमसमये जात: कश्चिज्जीव: स्वायुष: परिसमाप्तौ मृत:। स एव पुनर्द्वितीयाया उत्सर्पिण्या द्वितीयसमये जात: स्वायुषक्षयान्मृत:। स एव पुनस्तृतीयाया उत्सर्पिण्यास्तृतीयसमये जात:। एवमनेन क्रमेणोत्सर्पिणी परिसमाप्ता। तथावसर्पिणी च। एवं जंमनैरंतर्यमुक्तम् । मरणस्यापि नैरंतर्यं तथैव ग्राह्यम् । एतावत्कालपरिवर्तनम् । =कोई जीव उत्सर्पिणी के प्रथम समय में उत्पन्न हुआ और आयु के समाप्त हो जाने पर मर गया। पुन: वही जीव दूसरी उत्सर्पिणी के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ और अपनी आयु के समाप्त होने पर मर गया। पुन: वही जीव तीसरी उत्सर्पिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ इस प्रकार इसने क्रम से उत्सर्पिणी समाप्त की और इसी प्रकार अवसिर्पणी भी। यह जन्म नैरंतर्य कहा। तथा इसी प्रकार मरण का भी नैरंतर्य लेना चाहिए। यह सब मिलकर एक कालपरिवर्तन है। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/560/992/12 )।
6. भव परिवर्तन निर्देश
बा.अणु./28 णिरयाउजहण्णादिसु जाव दु उवरिल्ल वा [गा] दुगेवेज्जा मिच्छत्तसंसिदेण दु बहुसो वि भवट्ठिदीब्भमिदा।28। =इस मिथ्यात्व संयुक्त जीव ने नरक की छोटी से छोटी आयु लेकर ऊपर के ग्रैवेयक विमान तक की आयु क्रम से अनेक बार पाकर भ्रमण किया है। ( भावपाहुड़/ मू./24); ( सर्वार्थसिद्धि/2/10/167 पर उद्धृत); ( धवला 4/1,5,4/ गा.25/333); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/70 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/104/1 )।
सर्वार्थसिद्धि/2/10/167/1 नरकगतौ सर्वजघन्यमायुर्दशवर्षसहस्राणि। तेनायुषा तत्रोत्पन्न: पुन: परिभ्रम्य तेनै वायुषा जात:। एवं दशवर्षसहस्राणां यावंत: समयास्तावत्कृत्वस्तत्रैव जातो मृत:। पुनरेकैकसमयाधिकभावेन त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि परिसमापितानि। तत: प्रच्युत्य तिर्यग्गतावंतर्मुहूर्तायु: समुत्पन्न:। पूर्वोक्तेनै व क्रमेण त्रीणि पल्योपमानि तेन परिसमाप्तानि। एवं मनुष्यगतौ च। देवगतौ च नारकवत् । अयं तु विशेष: - एकत्रिंशत्सागरोपमाणि परिसमाप्तानि यावत्तावद् भवपरिवर्तनम् । = नरकगति में सबसे जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है। एक जीव उस आयु से वहाँ उत्पन्न हुआ पुन: घूम-फिरकर पुन: उसी आयु से वहाँ उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दस हजार वर्ष के जितने समय हैं उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ और मर गया। पुन: आयु में एक-एक समय बढ़ाकर नरक की तेतीस सागर आयु समाप्त की। तदनंतर नरक से निकलकर अंतर्मुहूर्त आयु के साथ तिर्यंच गति में उत्पन्न हुआ। और पूर्वोक्त क्रम से उसने तिर्यंच गति की तीन पल्य आयु समाप्त की। इसी प्रकार मनुष्य गति में अंतर्मुहूर्त से लेकर तीन पल्य आयु समाप्त की। तथा देवगतियों में नरक गति के समान आयु समाप्त की। किंतु देवगति में इतनी विशेषता है कि यहाँ 31 सागर आयु समाप्त होने तक कथन करना चाहिए। [क्योंकि ऊपर नवदिश आदि के देव संसार में भ्रमण नहीं करते] इस प्रकार यह सब मिलकर एक भवपरिवर्तन है। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/560/992/20 )।
7. भाव परिर्वतन निर्देश
बा.अनु./29 सव्वे पयडिट्ठिदिओ अणुभागप्पदेसबंधट्ठाणाणि। जीवो मिच्छत्तवसा भमिदो पुण भावसंसारे।29। =इस जीव ने मिथ्यात्व के वश में पड़कर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबंध के कारणभूत जितने प्रकार के परिणाम वा भाव हैं, उन सबका अनुभव करते हुए भाव परिवर्तनरूप संसार में अनेक बार भ्रमण किया है। ( सर्वार्थसिद्धि/2/10/169 पर उद्धृत); ( धवला 4/1,5,4/ गा.26/333); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/71 )।
सर्वार्थसिद्धि/2/10/167/10 भावपरिवर्तनमुच्यते-पंचेंद्रिय: संज्ञी पर्याप्तको मिथ्यादृष्टि: कश्चिज्जीव: सर्वजघन्यां स्वयोग्यां ज्ञानावरणप्रकृते: स्थितिमंत: कोटीकोटीसंज्ञिकामापद्यते। तस्य कषायाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकप्रमितानि षट्स्थानपतितानि तत्स्थितियोग्यानि भवंति। तत्र सर्वजघन्यकषायाध्यवसायस्थाननिमित्तान्यनुभागाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकप्रमितानि भवंति। एवं सर्वजघन्यां स्थितिं सर्वजघन्यं च कषायाध्यवस्थानं सर्वजघंयमेवानुभागबंधस्थानमास्कंदतस्तद्योग्यं सर्वजघन्यं योगस्थानं भवति। तेषामेव स्थितिकषायानुभागस्थानानां द्वितीयमसंख्येयभागवृद्धियुक्तं योगस्थानं भवति। एवं च तृतीयादिषु चतुस्थानपतितानि श्रेण्यसंख्येयभागप्रमितानि योगस्थानानि भवंति। तथा तामेव स्थितिं तदेव कषयाध्यवसायस्थानं च प्रतिमाद्यमानस्य द्वितीयमनुभवाध्यवसायस्थानं भवति। तस्य च योगस्थानानि पूर्ववद्वेदितव्यानि। एवं तृतीयादिष्वपि अनुभवाध्यवसायस्थानेषु आअसंख्येयलोकपरिसमाप्ते:। एवं तामेव स्थितिमापद्यमानस्य द्वितीयं कषायाध्यवसायस्थानं भवति।। तस्याप्यनुभवाध्यवसायस्थानानि च पूर्ववद्वेदितव्यानि। एवं तृतीयादिष्वपि कषायाध्यवसायस्थानेषु आ असंख्येयलोकपरिसमाप्तेर्वृद्धिक्रमो वेदितव्य:। उक्ताया जघन्याया: स्थिते: समयाधिकाया: कषायादिस्थानानि पूर्ववत् । एवं समयाधिकक्रमेण आ उत्कृष्टस्थितेस्त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीपरिमिताया: कषायादिस्थानानि वेदितव्यानि। अनंतभागवृद्धि:...इमानि षट्वृद्धिस्थानानि। हानिरपि तथैव। अनंतभागवृद्धयनंतगुणवृद्धिरहितानि चत्वारि स्थानानि। एवं सर्वेषां कर्मणां मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां च परिवर्तनक्रमो वेदितव्य:। तदेतत्सर्वं समुदितं भावपरिवर्तनम् । = भाव परिवर्तन का कथन करते हैं - पंचेंद्रिय संज्ञी पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि कोई एक जीव ज्ञानावरण प्रकृति की सबसे जघन्य अपने योग्य अंत:कोड़ा-कोड़ी प्रमाण स्थिति को प्राप्त होता है उसके उस स्थिति के योग्य षट्स्थान पतित असंख्यात लोक प्रमाण कषाय अध्यवसाय स्थान होते हैं। और सबसे जघन्य इन कषाय अध्यवसाय स्थानों के निमित्त से असंख्यात लोक प्रमाण अनुभाग अध्यवसाय स्थान होते हैं। इस प्रकार सबसे जघन्य स्थिति, सबसे जघन्य कषाय अध्यवसाय स्थान और सबसे जघन्य अनुभाग अध्यवसाय स्थान को धारण करने वाले इस जीव के तद्योग्य सबसे जघन्य योग स्थान होता है। तत्पश्चात् स्थिति कषाय अध्यवसाय स्थान और अनुभाग अध्यवसाय स्थान वहीं रहते हैं किंतु योगस्थान दूसरा हो जाता है जो असंख्यात भाग वृद्धि संयुक्त होता है। इसी प्रकार तीसरे, चौथे आदि योग स्थानों में समझना चाहिए। ये सब योग-स्थान चार स्थान पतित होते हैं, और इनका प्रमाण श्रेणी के असंख्यातवें भाग है। तदनंतर उसी स्थिति और उसी कषाय अध्यवसाय स्थान को धारण करने वाले जीव के दूसरा अनुभाग अध्यवसायस्थान होता है इसके योगस्थान पहले के समान जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि यहाँ भी पूर्वोक्त तीनों बातें ध्रुव रहती हैं किंतु योगस्थान श्रेणि के असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। इस प्रकार असंख्यात लोक प्रमाण अनुभाग अध्यवसाय स्थानों के होने तक तीसरे आदि अनुभाग अध्यवसाय स्थानों में जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि यहाँ स्थिति और कषाय अध्यवसाय स्थान तो जघन्य ही रहते हैं। किंतु अनुभाग अध्यवसाय स्थान क्रम से असंख्यात लोक प्रमाण हो जाते हैं और एक-एक अनुभाग अध्यवसाय स्थान के प्रति जगश्रेणि के असंख्यातवें भागप्रमाण योगस्थान होते हैं। तत्पश्चात् उसी स्थिति को प्राप्त होने वाले जीव के दूसरा कषाय अध्यवसाय स्थान होता है, इसके अनुभाग अध्यवसाय स्थान और योगस्थान पहले के समान जानना चाहिए। इस प्रकार असंख्यात लोक प्रमाण कषाय अध्यवसाय स्थानों के होने तक तीसरे कषाय अध्यवसाय स्थानों में वृद्धि का क्रम जानना चाहिए। जिस प्रकार सबसे जघन्य स्थिति के कषायादि स्थान कहे हैं उसी प्रकार एक समय अधिक जघन्य स्थिति के भी कषयादि स्थान जानना चाहिए। और इसी प्रकार एक-एक समय अधिक के क्रम से तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति तक प्रत्येक स्थिति विकल्प के भी कषायादि स्थान जानने चाहिए। अनंतभागवृद्धि...ये वृद्धि के छह स्थान हैं तथा इसी प्रकार हानि भी छह प्रकार की है। इनमें से अनंतभागवृद्धि और अनंतगुणवृद्धि इन दो स्थानों के कम कर देने पर चार स्थान होते हैं। इस प्रकार सर्व मूल व उत्तर प्रकृतियों के परिवर्तन का क्रम जानना चाहिए। यह सब मिलकर एक भाव परिवर्तन होता है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/104/8 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/560/992/22 )।
8. पाँच परिवर्तनों में अल्पबहुत्व
धवला 4/1,5,4/334/7 अदीदकाले एगस्स जीवस्स सव्वत्थो वा भावपरियट्टवारा। भवपरियट्टवारा अणंतगुणा। कालपरियट्टवारा अणंतगुणा। खेत्तपरियट्टवारा अणंतगुणा। पोग्गलपरियट्टवारा अणंतगुणा। सव्वत्थोवो पोग्गलपरियट्टकालो। खेत्तपरियट्टकालो अणंतगुणो। कालपरियट्टकालो अणंतगुणो। भवपरियट्टकालो अणंतगुणो भावपरियट्टकालो अणंतगुणो। = 1. अतीतकाल में एक जीव के सबसे कम भावपरिवर्तन के बार हैं। भव परिवर्तन के बार भावपरिवर्तन के बारों से अनंतगुणे हैं। काल परिवर्तन के बार भव परितर्वन के बारों से अनंतगुणे हैं। क्षेत्र परिवर्तन के बार कालपरिवर्तनों के बारों से अनंतगुणे हैं। पुद्गल परिवर्तन के बार क्षेत्र परिवर्तन के बारों से अनंतगुणे हैं। 2. पुद्गल परिवर्तन का काल सबसे कम है। क्षेत्र परिवर्तन का काल पुद्गल परिवर्तन के काल से अनंतगुणा है। कालपरिवर्तन का काल क्षेत्र परिवर्तन के काल से अनंतगुणा है। भव परिवर्तन का काल, काल परिवर्तन के काल से अनंतगुणा है। भावपरिवर्तन का काल भव परिवर्तन के काल से अनंतगुणा है। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/560/994/3 )।
पुराणकोष से
जीव का एक पर्याय छोड़कर दूसरी नयी पर्याय धारण करना । जीव-चक्र के समान भिन्न-भिन्न योनियों में भ्रमता है । कर्मों के वश में होकर अरहट के घटीयंत्र के समान कभी ऊपर और कभी नीचे जाता रहता हे । यह अनादिनिधन है । यह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के भेद से पंच परावर्तन रूप है । नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव ये चार गतियाँ है । इन्हीं गतियों में जीव का गमनागमन संसरण कहलाता है । महापुराण 11.210, 24.115, 67.8, पद्मपुराण 8.220, 109.67-69, 114.32, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.21