वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 27
From जैनकोष
एवं सावयधम्मं संजमचरणं उदेसियं संयलं ।
सुद्धं संजमचरणं जइधम्मं णिक्कलं वोच्छे ।।27।।
उक्त स्थल में श्रावकधर्म का वर्णन किया है, उसे लक्ष्य में लेकर आचार्यदेव कहते हैं कि इस प्रकार श्रावकधर्म सागार संयमाचरण सब बता लिए गए हैं । अब मुनि का धर्म जो संयमाचरण है, सकल संयमाचरण है उस यती धर्म को अब कहेंगे । श्रावकधर्म और मुनिधर्म में एकदेश और सर्वदेश संयम की बात है । श्रावकधर्म में एकदेश संयम है मुनिधर्म में सर्वदेश संयम है । श्रावक गृहस्थी में रहता है तो उसकी बाहरी क्रियायें कुछ अन्य तरह की बन जाती हैं और मुनि को कोई आरंभ परिग्रह रहे ही नहीं इस कारण उसकी व्रति अन्य प्रकार की होती है, पर अंतरंग देखा जाये तो जो श्रद्धा मुनि की है ही श्रद्धा श्रावक की है और इम श्रद्धा के बल से दोनों की जो क्रियायें चल रही हैं वे सब सही क्रियायें कहलाती हैं । तो श्रावकधर्म बारह व्रत रूप का वर्णन तो कर चुका है, अब यहाँ निष्फल संयमाचरण बतलाते हैं । निष्फल का अर्थ है―काल मायने खंड, भेदरहित मायने परिपूर्ण सर्वदेश विरति बतलाते हैं । यह यती धर्म शुद्ध है, निर्दोष है, 5 पापों का सर्वथा त्याग हे, इस कारण किसी क्रिया में इसकी तुलना नहीं चला करती । जैसे श्रावकधर्म में प्रवृत्तियों का, तुलना का अध्ययन किया जाता है कि यह उसकी अपेक्षा से अणुव्रत है, इस अपेक्षा से व्रत है । मुनिधर्म में तो सर्वदेश त्याग है, वहाँ तो परिपूर्ण हो त्याग होना चाहिए । ऐसे सकल संयमाचरण का अब वर्णन करते हैं ।