वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 28
From जैनकोष
पंचेदियसंवरणं पंच वया पंचविंसकिरियासु ।
पंच समिदि तय गुत्ती संयमचरणंणिरायारं ।।28।।
मुनि की 25 क्रियायें क्या होती हैं―5 इंद्रिय का सम्वरण, 5 व्रत, 5 समिति, 3 गुप्तियां यह निरागार संयमाचरण है । और यह भेद मुनि के 25 क्रियावों के सद्भाव होने पर होता है । अंतरंग में तो 25 भावनायें हैं, प्रत्येक व्रत की 5-5 भावनायें हैं जिनका वर्णन आगे आयेगा । ये 25 भावनायें मुनि के रहा करती हैं । उनमें किसी भी भावना की कमी नहीं रहती । सागार संयमाचरण में भी ये 25 भावनायें बतायी हैं, किंतु मुनिव्रत में तो ये 25 भावनायें पूर्ण होनी ही चाहिएँ, निर्दोष होनी ही चाहिएँ । तो इन 25 भावनाओं के होते संते ये व्रत भली भांति पलते हैं । ये 5 महाव्रत, 5 समिति 3 गुप्ति 12 और व्रत, इस प्रकार की भी 25 तरह की वृत्तियां मुनि के होती हैं । तो यती धर्म में 5 इंद्रियां संवरण हैं, जिनका स्वरूप आगे की गाथा कहा जायेगा । मुनि के 5 महाव्रत होते हैं-हिंसा झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन 5 प्रकार के पापों का पूर्णतया त्याग होता है । सो 5 महाव्रत कहलाते हैं । इसका भी निर्देश आगे किया जायेगा । 5 समितियां मुनि की विशेषता से होती हैं―(1) चार हाथ आगे जमीन देखकर चलना, (2) सूर्य का प्रकाश होने पर चलना (3) अच्छे काम के लिए चलना, (4) अच्छा भाव रखते हुए चलना, ये चार बातें ईया समिति में हुआ करती हैं । भाषासमिति में हितमित प्रिय वचन बोलना होता है । मुनि के रूप को देखकर कोई भय नहीं करता जैसे कि भस्मधारी, जटाधारी, शस्त्रधारी अनेक तरह का रूप संग रखने वाली सन्यासी को देखकर साधारण लोगों को भय उत्पन्न होता है । पर मुनि को देखकर साधारण बच्चे को भी भय नहीं होता । इसका कारण यह है कि मुनि का रूप केवल शरीरमात्र है । वह अन्य वस्तु को ग्रहण करके रूप बिगाड़ता नहीं है । जिस हाथ में शस्त्र नहीं है उससे लोगों को डर कैसे उत्पन्न हो जायेगा? जिसके वचन हित मित प्रिय निकलते हैं, जिनकी सुनते ही उपासक साधु की भक्ति बन जाती है तो इन समितियों रूप प्रवृत्ति होने से मुनि अभय के स्थान होते हैं । भाषासमिति में हितकारी वचन बोलना, जिससे दूसरे जीवों का हित हो । मुनि के दूसरों का अहित करने का भाव कभी आता ही नहीं है, उन्हें तो अपने आत्मा के उद्धार की पड़ी हुई है । वे फाल्तू नहीं है जो दूसरे मनुष्यों के प्रति फाल्तू बात सोचा करें । ये हितकारी वचन बोलना इसको पसंद नहीं है, पर किसी काम में बोलना हो पड़े तो बोलता है पर परिमित वचन बोलता है और साथ ही उनके वचन प्रिय होते हैं, क्योंकि मुनि को अप्रिय बोलने का प्रयोजन ही क्या है? तो ऐसे हितमित प्रिय वचन बोलना भाषासमिति है ।
आदाननिक्षेप समिति―संयम के उपकरण, ज्ञान के उपकरण पुस्तक आदिक देखभालकर उठाना और धरना पीछी से पोंछकर ताकि किसी जीव को बाधा न हो । वह अपने प्रयोजन की वस्तु कमंडल, पीछी, पुस्तक आदि को उठाता है और रखता है । एषणा समिति―शुद्ध निर्दोष निरतिचार आहार लेना, भ्रमण करके, भिक्षावृत्ति से अर्थात् जिस श्रावक ने विनयपूर्वक निवेदन किया, पड़गाहा वहाँ सविधि आहार कर लेना । 5वीं है प्रतिष्ठापना समिति―मल मूत्रादिक का क्षेपण जहाँ करना है उसको पहले शोध लेना कि वहाँ कोई जंतु न हों और उनको बाधा न पहुंचे यह है प्रतिष्ठापना समिति । तो 5 समितिरूप प्रवर्तन मुनिराज के बताया है । तीन गुप्ति भी मुनिराज के आवश्यक कर्तव्य में हे । मन, वचन, काय की प्रवृत्ति करना, मन को वश करना, किसी का बुरा न सोचें । सबका भला सोचे और नहीं तो मन की क्रिया पसंद नहीं है इस कारण केवल आत्मतत्त्व का मनन करना, वचन कदाचित् बोलना ही पड़े तो अत्यंत कम और आत्मसंबंधित वचन बोले और शेष समय मौन भाव से रहे । कायगुप्ति―शरीर को वश करना । शरीर की चेष्टा कुछ बनानी ही पड़े तो शुभ चेष्टा धर्मबुद्धि पूर्व चेष्टा होना । तो इस प्रकार मुनिव्रत में 5 इंद्रिय का निरोध, 5 व्रत, 5 समिति और 3 गुप्ति, ये निरागार संयमाचरण बताये गए हैं ।