वर्णीजी-प्रवचन:चितसंस्तवन - श्लोक 2
From जैनकोष
भवसृष्टिकरं शिवसृष्टिहरं, शिवसृष्टिकरं भवसृष्टिहरं ।
गतसर्वविधानविकल्पनयम्, प्रभजामि शिवं चिदिदं सहजम् ॥2॥
भवसृष्टि में अंत:कारण- मैं इस कल्याणमय सहजचैतन्य स्वरूप को सेवता हूं, भजता हूँ जो भवसृष्टि का करने वाला है और शिवसृष्टि का हरने वाला है और फिर कभी शिवसृष्टि का करने वाला है और भवसृष्टि का हरने वाला है । जितना जो कुछ इसका विकास हो रहा है वह है क्या ? इसी चैतन्यमात्र अंतस्तत्त्व का व्यक्तरूप है । जैसे कि दर्पण में प्रतिबिंब होता है तो वह भी दर्पण का व्यक्तरूप है और जब दर्पण में प्रतिबिंब स्वरूप नहीं रहता है, केवल स्वच्छता रहती है वह भी दर्पण का व्यक्तरूप है । स्वच्छता में तो दर्पण के स्वभाव का सुगमतया ज्ञान होता है और प्रतिबिंबरूप परिणमन के समय दर्पण में स्वच्छता का सुगम ज्ञान तो नहीं हो पाता, किंतु उस स्वच्छता के प्रसाद से ही वह प्रतिबिंब बन सका है । इसका अवश्य निर्णय है, कहीं भींट में, दरी में प्रतिबिंब तो नहीं बन बैठा । प्रतिबिंब बन बैठने की योग्यता विकास भी वहीं है जहां स्वच्छता है । तो यह आत्मतत्त्व अनादिकाल से है, और इसका व्यक्तरूप उन्हीं संसार की मलिन पर्यायों में चल रहा है इसलिए कह सकते हैं कि मेरा भी यह चित्स्वरूप तत्त्व इन विभाव विकार आवरणों के सन्निधान में भव की सृष्टि का करने वाला बन रहा है ।
विकृत अवस्था में प्रभुता का चमत्कार - चित्स्वरूप में प्रभुता है ना, सो बिगाड़ेगा यह प्रभु तो इसके बिगड़ने का भी चमत्कार देखियेगा, सुधारेगा तो सुधरने का भी चमत्कार देखियेगा, भला कोई वैज्ञानिक यह कर सकता है जैसे कि पेड़ पौधे, पशु पक्षी-मनुष्य आदिक प्राणी है । कैसा तो उनका देह है, कैसी उनमें चेतना है, कैसी समझ है, कैसे यह शरीर छोटा, बड़ा, जीर्ण शीर्ण आदि होता । इन सब बातों को कोई वैज्ञानिक कर सकेगा क्या ? यह तो प्रभु के बिगड़ने का चमत्कार है कि प्रभु रूष गया, बिगड़ गया, विकृत हो गया उस समय का यह विलास है जो संसार में यह जीवलोक बन रहा है यह सृष्टि अनादि परंपरा से चली आ रही है । और जब भवसृष्टि की बात रहती है तब शिवसृष्टि नहीं चल रही है, मुक्तिमार्ग नहीं चल रहा है, शुद्ध सम्यक्त्व ज्ञान चरित्र का विकास नहीं चल रहा है । इसको हरने वाला कौन हो गया ? उपादानतया यह ही तो मैं हूं जो शिवसृष्टि से दूर हूं, जो भवसृष्टि में लग रहा हूं । प्रत्येक पदार्थ में अस्तित्व के ही कारण चूंकि वह है अतएव उसमें एसी शक्ति पड़ी हुई है कि वह नवीन अवस्था बनाये, पुरानी अवस्था विलीन करे और वह एक ध्रुव रहे । इस रहस्य को न जानकर अनेक दार्शनिक इसी उलझन में बहुत काल तक रहे, इस समस्या को भी न सुलझा सके और सुलझाया भी तो अनेक विरुद्ध कल्पनायें करके । अरे यह उत्पादव्ययध्रुवत्व शक्ति उस पदार्थ में स्वयं पड़ी हुई है, जो भी है कण कण अणु-अणु, मूर्त अमूर्त, चेतन अचेतन आदि उसमें यह शक्ति स्वयं पड़ी हुई है । प्रत्येक पदार्थ त्रिशक्तिमय है ।
पदार्थ की सहजकला के अपरिचय के कारण भवसृष्टि के कारण में अवमान्यता -जब पदार्थ की इस सहज कला को न पहचान सके तब प्रश्न होने लगे कि इस संसार को किसने बनाया । किसने बनाया इसका यदि कोई उत्तर दे तो संगत नहीं बैठता । कहाँ रहकर बनाया? किस चीज से बनाया ? किसलिए बनाया ? बनाकर उसने फायदा क्या लूटा ? साधारण प्रश्न ऐसा उठता है कि जिसका निर्दोष उत्तर नहीं होता, जो कि एक साधारण प्रश्न है । इस जगत में रहकर बनाया कि जगत से बाहर रहकर बनाया ? कुछ भी कहा जायगा वहां ही समाधान नहीं मिलता । किसलिए बनाया, बनाकर क्यों गलती कराता ? अरे कुछ न होता, कुछ न बनता तो क्या बिगड़ता था बनाने वाले का ? ये सब दु:खी हो रहे हैं, जन्म मरण में लग रहे हैं, अब बनाने वाला भी दया नहीं करता, लोगों को दु:खी कर रहा, परेशान कर रहा, उन जीवों के दु:खों को दूर करने की अब करुणा भी उसे नहीं जगती । जब समाधान योग्य समस्या नहीं बन पाती है तो चूंकि यह भक्तिप्रधान, श्रद्धाप्रधान, धर्मप्रधान देश है, तब एक भगवान के नाम पर उन सब समस्याओं को दोषों के समाधान के रूप में रख दिया ताकि लोग श्रद्धा के कारण उफ न कर सकेंगे और फिर अपने आप उपाय निकालेंगे अरे यह सब तो ईश्वर की लीला है, कहते हैं कि ज्यादह बातें मत करो, उसमें ज्यादह जीभ न हिलानी चाहिए। उस ईश्वर की लीला अपरंपार है, उसे कोई जान नहीं सकता ।
निमित्तनैमित्तिक प्रसंग होने पर भी परिणमन का अंत एकमात्र स्वयं कारण - भैया ! जरा दृष्टि तो दो अणु-अणु की, कण-कण की परख करो । सामने दिखते तो हैं पदार्थों के परिणमन कि प्रति समय बनते हैं प्रत्येक पदार्थ, अनंत पदार्थ । प्रति समय अनंत पदार्थों के इस बनने को भी कौन कर रहा है ? पदार्थों का यह सब स्वयं निजी स्वरूप है कि वे हैं और स्वयं बनते बिगड़ते और बने रहते हैं । साथ ही यह भी निरखते जाइये कि जितने विकाररूप परिणमन हैं वे सब विकाररूप परिणमनेवाले में स्वयं अपने आप अकेला ही अकेला याने निर्निमित्त स्थिति में रहने से हुआ हो सो बात नहीं । परिणमन है विकाररूप परिणमनेवालों में अकेले में ही, परंतु निमित्त सन्निधान, आश्रय, आलंबन प्राप्त होने पर ये विकार होते हैं । सब जगह निमित्त भरे हैं, आश्रय पड़े हैं, और द्रव्य को किसी को कुछ हट नहीं है कि मैं इसके बाद ऐसा ही परिणमूं । सहज जैसा निमित्त योग्य सन्निधान मिले तत्प्रायोग्य उपादान में सहज, वैसा ही विकार परिणमन होता है । इतने पर भी परख कर लिजिये कि परिणमनेवाले की कला से ही वह परिणमन हुआ है । उस ही में ऐसी कला है कि वह कैसे निमित्त सन्निधान को पाकर किस रूप परिणम जाय । सब उसकी योग्यता में बात पड़ी हुई है । यह परिणमने वाले द्रव्य का स्वभाव है कि वह किस समय किस सन्निधान में किस रूप परिणम सके । पदार्थ में ये सब प्रकार की कलायें और योग्यतायें हैं । संसारी जीवों में जो कुछ भी सुख, दु:ख, शांति, अशांति, अज्ञान आदिक जो जो बातें कुछ कुछ बन रही हैं उन सब परिस्थितियों में निमित्त हैं कर्मों के उदय । ये बाह्य पदार्थ, ये समागम जो दृष्टि में आ रहे हैं ये सब निमित्त नहीं हैं, ये सब आश्रयभूत हैं । मेरे सुख हो, दु:ख हो, कषाय जगे, अभिलाषा जगे, जो भी विकार बने उस विकार का निमित्त है कर्मविपाक, न कि आस पास पड़े हुए समागम । जब ये कर्मविपाक होते हैं उस समय ये सामने या कल्पना में पाये हुए समागत वस्तुओं का आलंबन लेकर अपने कषाय विकारभाव को यह जीव रचता है ।
सकल वर्णनों में ज्ञानी द्वारा अंतस्तत्त्व का ग्रहण - चिंतन, निर्णय विचार, परिचय दो दृष्टियों से होता है- उपादानदृष्टी से और निमित्तदृष्टि से, किंतु जिनको अपने अंतस्तत्त्व की रुचि जगी है उन्होंने स्पष्ट ज्ञान पाया है और वह निमित्तदृष्टि के वर्णन में भी ग्रहण करता है आत्मा के शुद्धभाव के आश्रय की बात, और उपादानदृष्टि के वर्णन में भी ग्रहण करता है अंतस्तत्त्व के आलंबन की बात । जैसे जिस किसी पुरुष को किसी कारण शोक हुआ है तो वह दुनिया में जिस जगह जो कुछ देखेगा उसको उसी दृष्टि से दिखेगा । कदाचित् कई लोग हर्षविभोर हो रहे हों तो वह दु:खी पुरुष उन्हें सनीमा के पर्दे पर दिखाने वाले चित्रों की भांति झूठा बनावटी हर्ष दिखेगा । जहां जिसकी रुचि होती है वह प्रत्येक घटनाओं में प्रत्येक बात का अर्थ अपने आप की रुचि के अनुसार लगाता है । तो यह अंतस्तत्त्व का रुचिया ज्ञानी संत जब यह देख रहा है कि कर्मविपाक के होने पर ये विकार हुए, ये रागादिक भाव हुए, कर्मविपाक न होने पर ये विकार नहीं हुए तो अपने आपको अपने भीतर बड़ा सुरक्षित तक रहा है- यह तो ऐसा ही शुद्ध है, यह तो स्वरूप में प्रतिभासमात्र, चैतन्यमात्र हैं देखो ना- विकार के परिहार के स्वभावरूप से हूं यह मैं आत्मा, क्योंकि उनका होना न होना वह कर्मविपाक के अन्वयव्यतिरेकपर अवलंबित है । देखो, किया क्या इस ज्ञानी ने उस निमित्त दृष्टि के वर्णन में ? शुद्ध अंतस्तत्त्व का ग्रहण किया, और ऐसी कलापूर्वक ग्रहण किया कि मानो वह तक रहा है कि यह सब विडंबनाओं से अछूता ही है । जब उपादान दृष्टि से वस्तुस्वरूप के प्रतिपादन में चले तो वहां तो एकत्व का ही दर्शन है । केवल एक अंतस्तत्त्व को, आत्मतत्त्व को, सहज आत्मा को ही देखने का व्रत है उस दृष्टि में । तो वहां भी अशुद्ध निश्चयनय से भी तको तब भी अन्य तत्त्व का परतत्त्व का परद्रव्य का आलंबन न होने से उसकी सुध भी न रहने से दृष्टि एकत्व पथ वाली हुई तब उन रागादि विकारों को पनपाये कौन । परदृष्टिरूप जल का सिंचन होता रहता तो ये राग अंकुर पनपते रहते, किंतु जब एकत्वदृष्टि की प्रधानता में निमित्त की सुध नहीं, आश्रय का ख्याल नहीं, पर की दृष्टि नहीं ऐसे निश्चयस्वरूप की दृष्टि में रागादिक के पनपने का कारण न होने से वे रागादिक तरंग भी बुद्धि से बर्हिगत हो जाते हैं ।
एकदा एक उपादान में भवसृष्टि या शिवसृष्टि का योग - सर्वदशाओं में कुछ भी बात मानने पर इसमें कोई संदेह नहीं कि मेरे में जितनी परिणतियों की सृष्टि होती है वह सब मेरे उपादानकारण पर होती है । तो उपादान कारण की विधि से भवसृष्टि का करने वाला यह मैं आत्मतत्त्व हूं, और जिस काल में भवसृष्टि चल रही है उस काल में शिवसृष्टि नहीं रहती जैसे एक म्यान में दो तलवारें नहीं आती, जैसे एक पुरुष पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं में एक साथ नहीं चल सकता, जैसे एक सुई किसी कपड़े को आगे पीछे दोनो तरफ एक साथ नहीं सी सकती इसी प्रकार एक उपयोग में भव की सृष्टि भी बने और शिवसृष्टि भी बने ये दो बातें एक साथ नहीं हो सकतीं । भवसृष्टि का आधार है अज्ञान, शिवसृष्टि का आधार है ज्ञान । ज्ञान और अज्ञान जैसी परस्पर विरोधी दशायें एक उपयोग में एक साथ कैसे संभव हैं ? तब जबकि भवसृष्टि हो रही है तो वहां शिवसृष्टि नहीं हैं ।
भवसृष्टि के अंत:कारण के वर्णन में दृष्टव्य गुण- यह मै स्वयं भव की सृष्टि का करने वाला बन रहा हूं, ऐसा कहने में कार्य के प्रति उपादानदृष्टि का गुण ध्यान में आना चाहिए, न कि निर्दयता, क्रूरता, मलिनता आदि दृष्टि में आने चाहिए, कारण यह है कि यह चित्स्वरूप के भजन का प्रसंग है । भवसृष्टि का कारण बन रहा है ऐसा जानते हुएके समय में केवल उस कला पर ध्यान देना है कि उपादान कारण स्वयं नाना इन विकार परिणतियों रूप परिणम कर करके भी अपने परिणमन भाव का अव्यय कर रहा है । उस कला की दृष्टि से निहारना है और ऐसा कहने में केवल उसकी कला पर दृष्टि देना है जो आदेय है सबको मनोज्ञ है अथवा जैसे बड़े स्वर से गाने वाला है कोई, तो उसके रोने में भी ट्यून आती है । तो यहां भवसृष्टि का करने वाला है यह आत्मा, ऐसा कहते हुए में चूंकि आदेयतत्त्व रूप से इसकी भक्ति की जा रही है तो इसमें उन सब मलिनताओं को, कषायों को, उन सबको दृष्टि में लेकर इसे ग्लानी के योग्य करार न करना, म्लान तत्त्व को देखने के लिए यहां नहीं कहा जा रहा, किंतु इस केवल आत्मा में उपादानतया किस तरह की यह लीला में बस रहा है उस पर दृष्टि दी गई है ।
भवसृष्टि के केवल अंत:कारण पर दृष्टि होने से सृष्टि के मोड़ की संभावना:- यह चित्स्वरूप भवसृष्टि का करने वाला है । क्या किया इसने जिससे कि भव की सृष्टि बनी? करता क्या ? बाह्य में कोई भी किसी का कुछ नहीं कर सकता । केवल बाह्य पदार्थों को मैं कर देता हूं इस प्रकार की कल्पना भर ही तो करता है अज्ञानी मोही प्राणी । तो क्या किया इस जीव ने ? अपने ही प्रदेशों में बसकर, अपने ही भावों में विडंबनायें बना-बनाकर नाना कल्पनायें की, नाना विडंबनायें बनायीं और फिर जिसके निमित्त से बाह्य में व्यक्तरूप यह हो गया । यह चित्स्वरूप, उसके ही मूल की बात मेरे में ही अपने आपके अंत: शाश्वतस्वरूप है जिसके व्यक्तरूप में जन्ममरण कषाय विकल्प आदिक सृष्टि में आ रहे हैं । इन सृष्टियों पर ध्यान न देकर इन सृष्टियों का मूल क्या है उपादानतया, उस पर दृष्टि जगे तो यह भवसृष्टि की रफ्तार मुड़ जायगी और शिवसृष्टि की ओर यह आने लगेगा । ऐसी भवसृष्टियों में हमारा मूलभूतकारण यह मैं चैतन्यस्वरूप हूं, सो यह भी जानकर अंत: इस ही पद्धति से इस चित्स्वरूप को जानकर उस पद्धति को तो छोड़ दूं और इस चित्स्वरूप को सेवता रहूं, ऐसे इस अंत:स्वरूप के भजन से शिवमय, शांतिमय स्थिति प्राप्त होगी ।
सहज प्रभु से सहज मिलन का भाव:- मेरा मैं कहां गुम गया ? खुद ही ढूंढ रहा, खुद को ढूंढ रहा । वाह कैसा संसार का खेल है । जगत के बाह्य पदार्थों में ज्ञान और आनंद का ढूंढना यह खुद का ढूंढना नहीं कहलाता ? ज्ञान और आनंद है क्या चीज ? सभी प्राणी ज्ञान और आनंद की खोज कर रहे हैं इसमें तो कोई संदेह नहीं । ज्ञान और आनंद क्या है ? वह मेरा ही तो स्वरूप है । उसे ढूंढ रहे हैं, अपने आप में ढूंढ रहे हैं पर किसी भी बाह्य इंद्रिय के द्वारा यत्न करके बाहर खोजा जाय तो मैं न मिलूंगा । कितने ही संकल्प विकल्प करके मैं खोजा जाय तो न मिलेगा । जब मिलेगा तो सहज मिलेगा । प्रयास करके न मिलेगा । लोक में सहज मिलने की कला पाने के लिए पहिले कुछ उचित श्रम पुरुषार्थ किया जायगा । वह पुरुषार्थ है ज्ञानाभ्यास । मैं क्या हूं, ऐसी जानकारी के लिए जिस-जिस उपाय की जरूरत है उस उस उपाय के द्वारा ज्ञान का अभ्यास करना यह अति आवश्यक है । उसके बाद फिर सहज ही उस ज्ञानस्वरूप से मिलन होगा जिसके मिलन में एकमात्र वास्तविक आनंद प्रकट होता है । इसमें इस मैं का ही आलंबन हुआ । मैं का आलंबन अपने आपके स्वरूप का दर्शन, यही है अति आवश्यक प्रयत्न पुरुषार्थ एक अपने सहज प्रभु से सहज मिलन के लिए। और इसी मिलन के बाद शिव की सृष्टि प्रारंभ होने लगती है । जब तक अपने आपके इस सहज आत्मदेव का दर्शन नहीं होता तब तक शिव की सृष्टि नहीं बनती, भवसृष्टि ही चलती रहती है । यह स्वयं शिवस्वरूप है अतएव इस शिव चैतन्य तत्त्व के अवलंबन से, अनुभव से शिव की मुक्तिमार्ग की सृष्टि होती है ।
भाव की सम्हाल का प्रताप- हम आप लोग केवल भाव ही तो करते हैं । जब भावमात्र करने का ही अधिकार है और उसकी स्वाधीनता है । हम हैं, अपने भाव कर रहे हैं तो थोड़ा इतना और पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है कि हम अपने भाव को स्वभाव के अभिमुख रूप किया करें । थोड़ा सा कर्णधार अपना कर्ण बदल दे तो गति की दिशा बदल जाती है । उपयोग बाहर की ओर फिर रहा था तो संसार की सृष्टि रची जा रही थी । उपयोग अपने स्वभाव के अभिमुख हो जाय तो शिवसृष्टि बनने लगेगी । बात सुनने में सरल है । कहने में सरल है पर करने में ? करने की ओर कोई चले तो करने में भी सरल है । बाह्य पदार्थों में तो अधीनतायें हैं अनेक । जैसे किसी भी इंद्रिय का सुख चाहिये, मानो रसना इंद्रिय का सुख चाहिये, कोई मिष्ठ भोजन बनाना है तो पहिले तो पुण्य के अधीन, फिर समागम जुटाओ, चीजें इकट्ठी करो, फिर बनाने वाले को प्रसन्न करो, अच्छे दिल से बनाये । और, बना चुकने के बाद भी तो विश्वास नहीं कि वह खा भी लिया जायगा । कितने ही विघ्न बीच में आ सकते हैं और तिसपर भी वह सुख क्षणिक है । और भोग के काल में भी दुखरूप है और भोगने के बाद भी दु:खरूप है, ज्यादा खा गए, अब बीमार हो गए, अफरा चढ़ गया, कर्म बंध कर लिया उसका फल और आगे मिलेगा, पर आत्मीय आनंद और स्वरूप के दर्शन में पराधीनता नहीं है । बस यहां पराधीनता है तो कर्ण अपना बाहर की ओर है । उसका निमित्त कर्मोदय है, यह बात ठीक है लेकिन हम इस वृत्ति से बचने का जब भी प्रयत्न बनायेंगे तो वह प्रयत्न बनाना ही तो पड़ेगा।
दु:खमय संसार से विरक्त होने में लाभ- भैया ! अब कुछ चित्त में यह बात आनी चाहिए कि रुलते रुलते हमारा सारा समय गया, अब तो भव से मुक्त होने का उपाय बनाना चाहिए, सार कुछ नहीं है । कितना भी जियो, कितने भी साधन जुटाओ, कितनी ही धन संपदा जोड़ लो, कितना ही अपना मौज ले लो, लेकिन सार कहीं रंचमात्र भी नहीं है । देखते जाते हैं सब फिर भी स्वीकार नहीं करते । जैसे जिसको शराब पीने का चस्का लगा है तो शराब वाले की दुकान पर जाकर कहता है कि हमें बहुत बढ़िया शराब दो । तो दुकानदार ने बहुत समझाया कि हां हमारे पास बहुत बढ़िया शराब है, घटिया शराब तो हमारे पास है ही नहीं । तो वह बोला अजी बहुत ही बिढ़िया शराब दो । तो दुकानदार ने कहा- तुम तो हमारी दुकान पर इन बेहोश पड़े हुए लोगों को ही देखकर समझ लो कि यहां बिढ़िया शराब है कि नहीं । सो भाई जगत के इन दु:खी जीवों को निरखकर जो बेहोश हैं, दु:खी हैं पेड़ पृथ्वी कीड़ा मकोड़ा पतिंगे पशु पक्षी आदि, इन सब दु:खियों को ही निरखकर विश्वास कर लो कि यह सारा संसार दु:खमय है । ऐसा जानकर इन दु:खों से पिंड छुड़ायें । होते हैं दु:ख तो होने दो । सहनशीलता तो बढ़ जायगी ऐसा विश्वास करने में कि संसार में होता ही यह है ।
महत्वपूर्ण दुलर्भ नरजीवन के क्षण व्यर्थ न गमाने का अनुरोध- दु:खमयी संसार में अपने आराम के मौज के लिए विकल्प बनाना और दुर्लभ नरजीवन के ये क्षण खो देना यह विवेक नहीं है । यहां तो यों समझना है कि जैसे किसी नगर में राज्यशासन चलाने का यह नियम था कि अपनी प्रजा में से किसी एक को राजा चुन लिया जाय एक वर्ष के लिए, एक वर्ष के बाद उसे बीहड़ भयानक जंगल में फेंक दिया जाय ताकि राजा का अपमान न हो कि यह राजा था, अब इस तरह रह रहा है । रहेगा जंगल में । कितने ही वर्ष कई राजा हुए, सबकी दुर्दशा हुई । एक बार एक बुद्धिमान पुरुष भी चुनने में आ गया । और उसे ज्ञात था कि यहां ऐसा नियम है, खैर होने दो नियम । एक वर्ष के लिए तो हम राजा हैं, उसने उस एक वर्ष में सैकड़ों एकड़ भूमि जंगल के बीच साफ करवा ली । वहां पर बहुत सी कोठियां बनवा दी, बहुत से नौकर भेज दिये, कृषि का सारा सामान भिजवा दिया और कृषि होने लगी । एक वर्ष का समय जब व्यतीत हो गया तो वह राजा जंगल में छोड़ दिया गया । तो अब उसे वहां क्या तकलीफ ? वह तो आराम से रहने लगा । तो यों ही यहां का रिवाज है इस संसार शासन के चुनाव में हम आज मनुष्य बन गए हैं, मनुष्य ही यहां के सब जीवों का राजा है अपनी कुछ करनी से, कुछ शुभ भावों से, पुण्योदय से मनुष्य भव मिल गया, पर यहां अधिक से अधिक 100 वर्ष का जीवन समझ लो, इतने से समय के लिए हम राजा बने हुए हैं इसके बाद बीहड़ भवकानन में पशु पक्षी स्थावर आदिक योनियों में छोड़ दिये जायेंगे । अच्छा रहने दो रिवाज। बुद्धिमान हो कोई तो वह यह समझेगा कि इस मनुष्य जीवन में तो हमें श्रेष्ठ मन के कारण बहुत अधिकार प्राप्त हैं । बस लग जाय ज्ञान आराधना में, तत्त्वाभ्यास में, 100 वर्ष बाद फिर मरण होगा, फिर क्या डर है ? वह दुर्गति में न जा सकेगा । तो इतने अमूल्य क्षण हैं हम आपके, और, इनमें जो क्षण गुजर जाता है वह क्षण मिन्नत करने पर भी प्राप्त नहीं होता ।
सरलता पौरुष व विवेक में किसी की कमी होने पर उद्धार का निरोध- बूढ़े जवान हम आप सब लोगों का भी तो बचपन था पहिले, और अब अंदाज करते हैं कि हम आप लोगों के बचपन का समय आजकल के समय से बहुत अच्छा था, सभ्यता के ढंग का रहन सहन था, सभ्यता के ढंग का हृदय का बनता था, बड़ों के प्रति आदर बुद्धि रहती थी । खेल कूद में भी किसी को न सताते थे, वे सब बातें आजकल दृष्टिगत नहीं होतीं, लेकिन जो गया सो गया । कोई उपाय है क्या ऐसा कि हम आप लोगों का वही बचपन फिर आ जाय । अगर आ जाय तो अब गलती न की जायगी । मनुष्य की तीन अवस्थायें तीन प्रकृतियों का प्रतीक हैं बचपन तो सरलता का स्थान है, जवानी कर्मठता का स्थान है और बुढ़ापा सच्चे निर्णय का स्थान है। वृद्ध पुरुष जितने चाहे प्रकार से किसी घटना का निर्णय कर सकते हैं, ऐसा निर्णय करने का माद्दा जवान और बालकों में नहीं है- कर्मठता, प्रगतिशीलता जो जवानों में है वह बचपन और वृद्ध अवस्था में नहीं है और सरलता बचपन में है, पर अभ्यास के द्वारा किसी भी अवस्था में ये तीन गुण प्राप्त किये जा सकते हैं- सरलता, कर्मठता और विवेक । इन तीन में से जहां एक दो अलग हैं अलग की वह महिमा नहीं है, न सफलता है, जब ये तीनों एक साथ उपयोग में समाते हैं तब जीवन धन्य हो जाता है ।
वृद्धविवेक का एक दृष्टांत- बूढ़ों के विवेक का एक दृष्टांत सुनिये । एक बारात में लड़की वाले ने यह कह दिया कि आप लोग बारात तो लायें लेकिन बूढ़ा आदमी एक भी साथ में न लायें । तो कुछ लोगों ने विचार किया कि वृद्धों को बारात में आने के लिए क्यों मना किया गया ? इसमें कोई रहस्य की बात अवश्य है । सो उन जवानों ने एक काठ की छिद्रदार ऐसी पेटी बनवायी कि जिसके अंदर हवा प्रवेश करती रहे । उस पेटी के अंदर एक बूढ़े आदमी को भरकर बंद कर दिया और सब सामान के साथ उसे बारात में ले गये । वहां पहुचने पर लड़की वाले ने गिनती की तो कुल 35 बाराती थे । अब उसने अच्छी बड़ी करीब 1-1 किलो की 35 गुड़ की भेलियां बारात में भेज दीं और सबसे कहा कि इन सब भेलियों को तुम्हे खाना होगा ।अब वे इतनी बड़ी एक-एक भेली कैसे खा सकें, यह समस्या सामने आ गई । तो दो एक बरातियों ने उस बूढ़े के पास जाकर पूछा कि हम लोग इतनी बड़ी गुड़ की भेलियां कैसे खायें ? तो बूढ़े ने सलाह दी कि तुम सभी लोग एक-एक भेली न खाओ, हंसते खेलते हुए उन सभी भेलियों से नोच नोचकर खाओ तो सभी भेलियां खाने में आ जायेंगी । उन सब बरातियों ने वैसा ही किया तो सारी गुड़ की भेलियां खा ली गई । तब लड़की वाले ने कहा कि हमें लगता है कि तुम लोग अपने साथ में किसी बूढ़े आदमी को जरूर लाये हो, बतलाओ कहां है ? कर्मठता की बात है आप जानते ही हैं ।
कर्मठता सरलता व विवेक के योग की महिमा–जहां बल विशेष है, जवानी का जोश है वहां कोई काम असंभव सा नहीं लगता । जहां बुद्धि लगेगी उस ही में यत्न करके लग जायगा युवक । जहां विवेक नहीं रहता और कर्मठता की बात रहती है वहाँ ऐसीसी ही तो विडंबना हो जाती कि खर्च भी अधिक कर डाला, लाभ कुछ न मिला । बच्चों में सरलता होती है इसके अनेक दृष्टांत भी आपने सुने होंगे । जैसे-कोई सेठ को आता हुआ देखकर किसी बाबूजी ने अपने बच्चों से कह दिया कि देखो बेटा- अमुक सेठ आ रहा है । अगर वह यहां आकर पूछे कि तुम्हारे बाबूजी कहां है तो कह देना कि हमारे बाबूजी बाहर गए हुए हैं । बाबूजी तो घर के अंदर बैठे रहे । वह सेठ आया, बच्चों से पूछा- कि तुम्हारे बाबूजी कहां हैं? तो उस बच्चे ने कहा- हमारे बाबूजी बाहर गए हुए हैं, फिर सेठ ने पूछा- तो कहां गए हुए हैं ? तो बच्चा बोला- अच्छा ठहरो यह बात भी हम बाबूजी से पूछ आयें फिर बतावेंगे तो ऐसी सरलता होती है बच्चों में । माया छल कपट रहित और ज्ञान वैराग्यसहित जो एक ज्ञान प्रगति के मार्ग में चलना है यही कदम एक श्रेष्ठ कदम है, बाकी आप कितनी ही संपदा जोड़कर रख जावें तो उसका क्या होगा ? पुत्र सपूत तो क्या धन संचै, पुत्र कुपूत तो क्या धन संचय । लोग तो कह बैठते हैं- अरे यदि हमारा मरण हो गया तो उस धन का उपयोग हमारे लड़के लोग करेंगे ? पर वह मर जाने वाला तो कहां का कहां पहुंच गया, वहां तो उसके दूसरे ही बच्चे होंगे, वे पहिले वाले लड़के बच्चे तो अब इसके कुछ न रहे । तो इस मायामय संसार में अपना कुछ भी प्रताप बढ़ा लेना सब बेकार हैं। कपट, प्रमाद व अविवेक तजें । सरलता, पौरुष व विवेक से ही पार पा सकेंगे । यहां अन्य किसी से प्रीती न करें, एक अपने आत्मज्ञान से प्रीती रहे ।
विषयों के प्रसंग में क्लेश, किंतु शिवसाधन में सर्वत: आनंद- संसार का दुखमय स्वरूप जानकर जिसने संकल्प के साथ एकचित्त होकर अपने आत्मस्वरूप के अवलोकन की ओर ही झुकाव रखा तो यही एक उसका सारभूत काम है । जब ही यह जीव अपने आपके शिवस्वरूप चैतन्यमात्र सहज स्वभाव का अवलंबन लेता है तो उसकी शिवसृष्टि प्रारंभ होने लगती है । वह शिवसृष्टि क्या है ? आत्मा के स्वरूप का श्रद्धानुरूप प्रर्वतन होना और ज्ञान इस ही आत्मस्वरूप के बराबर आकर आनंद लूटता रहे, और इस ही ज्ञानस्वभावअंतस्तत्त्व के निकट उपयोग को रमाकर विशुद्ध आनंद के घूँट पीता रहे अर्थात् आनंदमय रहे । शिव की सृष्टि का उपाय कर लेने पर फिर कोई क्लेश नहीं होता । धर्मपालन आनंदपूर्वक होता है और आनंद देने वाला होता है और आनंदमय रहता है । विषयों में तो आदि मध्य अंत में कष्ट ही कष्ट है किंतु इस मोक्षसाधन में कहीं भी कष्ट नहीं है । कोई क्रोध करना चाहता है, किसी की निंदा करना चाहता है तो बहुत पहिले से भावों में संक्लेश बसाना पड़ेगा, फिर क्रोध निंदा आदिक के समय भी भय और संक्लेश करना होगा, और क्रोध निंदा आदि कर चुकने के बाद भी क्लेश संक्लेश सतायेंगे, ये सब उसे भेंट मिलेंगे । और, कोई बात बढ़ गई, दूसरा भी उस पर तुल गया तो भावी समय का खतरा बन गया । और कर्म बंध जो किया उसके उदय में आगे भी दु:ख पायगा । कोई आज हम आपको रोकने वाला नहीं है, लेकिन यह ध्यान में रखना है कि कार्माणवर्गणा सदा साथ है । ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक संबंध है कि कषायभाव के जगने पर कर्म बंध हो ही जाता है और उसका उदय आने पर उसको दंड मिलेगा । जन्म मरण करना यह ही तो इस जीव को दंड मिल रहा है ।
संसारदंड से बचने का उपाय- भैया !संसार दंड न चाहिए तो जन्ममरण रहित, भवरहित, विकाररहित केवल अपने आपका जो सहज स्वरूप है उस सहज स्वरूप में अपना उपयोग लगाना चाहिए । वह सहज स्वरूप कैसा है कि शिव की सृष्टि कराने वाला है । और जैसे ही शिवसृष्टि होती है वैसे ही भव की सृष्टि मिट जाया करती है । ऐसी सृष्टि आत्मा के स्वभाव का स्वभाविक विलास है । भवसृष्टि का भी वही स्वरूप कारण है मगर वे विडंबना होकर रो रोकर, दुर्गति होकर बनने वाले कार्य हैं किंतु शिवसृष्टि का कार्य प्रसाद पूर्वक होता है, निर्मलता है, आनंद है, निराकुलता है, स्वतंत्रता है, समृद्धि की संपन्नता है, कृतार्थता है, जो चाहिए कल्याण, मंगल, सबके सब वहां प्राप्त होते हैं । ऐसी शिवसृष्टि का मूल कारण है यह सहज अंतस्तत्त्व । इसको कहते कि यह मोक्ष के कारण का कारण है । मोक्ष का कारण है सम्यगदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । और सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप धर्मपालन का आलंबनरूप कारण है यह सहज शुद्ध चैतन्यस्वभाव जिसके आलंबन से मुक्ति का मार्ग मिलता है, संसार की सृष्टि समाप्त होती है, उस ज्ञानमय चैतन्यस्वरूप को, उस शिवस्वरूप सहज चैतन्यरूप को मैं प्रकृष्टरूप से भजता हूं, सेवता हूं, उपासना करता हूं, एकतान होकर उसके अवलोकन में और रमण में रहना चाहता हूं । यह आत्मा संसार की सृष्टि का करने वाला है । यह आत्मा मोक्ष की सृष्टि का हरने वाला है, यह आत्मा मोक्ष की सृष्टि का करने वाला है, और यही आत्मा भवसृष्टि का हरने वाला है । इस तरह इसमें कितनी ही विधि की बातें कही गईं लेकिन उसके तथ्यस्वरूप को देखा जाय तो वहां से सर्वप्रकार की विधियों के विकल्पनय दूर हो जाते हैं । ऐसे सर्वविधि विकल्प के नयों से रहित शिवस्वरूप इस सहज चैतन्यस्वरूप की मैं उपासना करता हूं । जब आत्मा का अनुभव होता है उस समय आत्मा में क्या क्या शक्ति है, कैसी प्रसिद्धि है, क्या गुण है, ये सब विकल्प उसके दूर हो जाते हैं । अनुभव के समय में तो केवल निर्विकल्प स्व का अनुभव रहता है और यही अपने आपकी बड़ी ऊंची सेवा है जो अपने आपको निर्विकल्प अनुभव में लिया जाय, इस अनुभव में कुछ भी विधि के विकल्प नहीं उठते इस कारण कहा गया है कि यह मैं चित्स्वरूप सर्वविधियों के विकल्पों से रहित हूं ऐसे शिवस्वरूप सहज निज अंतस्तत्त्व को मैं प्रकृष्ट रूप से भजता हूं ।