वर्णीजी-प्रवचन:चितसंस्तवन - श्लोक 3
From जैनकोष
शिवसृष्टियकरं भवसृष्टियहरं, भवसृष्टियकरं शिवसृष्टियहरम् ।
गतसर्वनिषेधविकल्पनयम्, प्रभजामिशिवंचिदिदं सहजम् ॥3॥
निर्विकल्प सहज चित्स्वरूप की उपासना का भाव- यह मैं अंतस्तत्त्व न तो शिव की सृष्टि का करने वाला हूं न भव की सृष्टि का हरने वाला हूं, न भव की सृष्टि का करने वाला हूं न मोक्ष की सृष्टि का हरने वाला हूं । ऐसे विशुद्ध चित्स्वभाव के दर्शन किये जा रहे हैं कि जिसमें किसी भी प्रकार का उत्पाद और व्यय नहीं है । एक विकल्पात्मक दृष्टि से यह विदित हुआ था कि यह अंतस्तत्त्व भवसृष्टि का कारण है और शिवसृष्टि के हरने का कारण है, शिवसृष्टि के करने का कारण है, भवसृष्टि के हरने का कारण है, लेकिन जब और अर्ंतदृष्टि में चलें तो ये सब भी विकल्प दूर हो गए थे, अब विधिविकल्प से विलक्षण निषेधपरक अंतरंग दृष्टि में आते हैं तो यह विदित होता है कि न यह कुछ करने वाला है, न यह कुछ हरने वाला है, यह तो सहज एक चैतन्यमात्रस्वरूप है फिर इसके बाद और अर्ंतदृष्टि लगी तो वहां यह ज्ञात होता है कि निषेध के विकल्प के अभिप्राय से भी यह दूर है । जैसे क्या क्या है आत्मा में ऐसा चिंतन करना विधि का विकल्प है और अनुभव विधि विकल्प से शून्य है, इसी प्रकार इसमें क्या क्या नहीं है, इस प्रकार निषेध की बात सोचना ये निषेध के विकल्प हैं, पर अनुभव में निषेधक विकल्प भी नहीं हैं, ऐसे सहज चित्स्वरूप अंतस्तत्त्व को मैं भजता हूं ।
सुगति और दुर्गति का आधार- यहां उस आधार पर दृष्टि ले जा रहे हैं कि जहां दृष्टि आने पर फिर किसी भी प्रकार का क्लेश संक्लेश, विकल्प, भ्रम, चिंता, शोक, भय आदिक नहीं रहते । यह सर्वचिंताहर तत्त्व है । इस सहज ज्ञानज्योतिस्वरूप अंतस्तत्त्व को माने बिना इसकी प्रतीति और प्रतिपत्ति के बिना यह जीव संसार में कैसे कैसे नाना रूप रखता है बहरूपिया बनता फिरता है, सो यह सब प्रत्यक्ष है । देख लो जीव लोक को । जीव की दो स्थितियां हैं- एक निज चैतन्यस्वरूप में उपयोग समा जाय, सदा के लिए जन्म मरण के संकट टूट जायें, केवल ज्ञान और आनंद का शुद्ध विकास रहा करे एक तो यह दशा और एक यह दशा कि नाना दुर्गतियों में जन्म ले, मरण करे और जिस जन्म में जो चीज मिले उसको अपना सब कुछ मान ले और म्याद पूरी होने पर वहां से चल दे, दूसरा जन्म ले, वहां जो कुछ मिले उसे अपना मान ले, यों जन्म मरण के चक्कर लगाते रहना और नाना क्लेश भोगते रहना एक यह दशा है ‘कौन सी दशा हमें न चाहिए’ और कौन सी दशा हमें चाहिए, इसका भविष्य, इसका निर्णय हमारे भावों पर निर्भर है । दूसरी कोई अधीनता या विघ्न की बात नहीं है, निर्णय करने की प्रबलता चाहिए और निर्णय किए हुए पर अटल रहने का भाव चाहिए । फिर इसे कोई चीज कठिन नहीं है । यदि संसार में ही रुलना है, पेड़ पौधे पशु पक्षी नरक निगोद ऐसी ही दुर्गतियों को प्राप्त करते रहना है तो इसके लिए यह निर्णय काफी है कि जो शरीर है सो मैं हूं और मेरे सुख इन सब विषयों से मिलते हैं, ऐसा विश्वास बना लेना यह भाव कर लेना काफी है, फिर खूब अच्छी तरह से विषम दुर्गतियों में, इन देह देहांतरों में जन्म लेते जाइये, सुगम बात मिलेगी, और यदि स्वभाव में उपयोग समा जाय ऐसी विशुद्ध दशा चाहिए, निस्तरंग नीरंग ज्ञानमात्र शुद्ध ज्योर्तिमय और सदा के लिए ऐसी स्थिति चाहिए तो उसका पुरुषार्थ यह है कि एक अपना सुगम भाव ही बनाना है । मैं यह केवल चैतन्यस्वरूपमात्र हूं इस तरह का अपना भाव प्रबल बनाना है । उसका फल यह होगा कि हम उस शुद्ध दशा को भी प्राप्त कर लेंगे ।
उत्तमभविष्य के लिये आत्मनिर्णय की प्रथम आवश्यकता- भैया ! सब कुछ भविष्य आत्मस्वरूप के निर्णय पर है । धर्मपालन के लिए बहुत कष्ट सहते हैं, अनेक बार मंदिर जाना, पूजन करना, बहुत सुबह उठना, उपवास करना, सबका उपकार करना, सेवा करना आदि बहुत बहुत बातें कष्ट की सही जाती हैं, वे भी करने में आयें कुछ हर्ज नहीं, वे साधक ही हैं किसी अपेक्षा में लेकिन यह सत्य है कि अपने आत्मा के स्वरूप का निर्णय किए बिना किसी भी प्रवृत्ति से मोक्षमार्ग का धर्म नहीं बन सकता । तब समझिये कि आत्मस्वरूप का निर्णय कर लेना कितना अधिक आवश्यक है । जैसे किसी बड़ी लड़ाई के प्रसंग में केवल एक बात-बात की लड़ाई, हथियारों की नहीं, किंतु जैसे नगर में हो जाया करती है, बहुत लड़ चुकने के बाद, बहुत दु:खी होने के बाद एक इस आशय पर आ लिया जाता है जैसे कि कोई छोटी सी बात सामने आती है और दोनो इस पर राजी हो जाते हैं कि पहिले अच्छा इसी का फैसला कर लो । यहां उनका विवाद मिटता है और सच्चा फैसला होने पर फिर भविष्य के लिए विवाद मिट गया । तो जब हम यह देख रहें हैं कि बहुत वर्षों तक बहुत कुछ हमने धर्म के लिए तन, मन, धन, वचन न्योछावर किया, कष्ट सहे पर आज हम स्थिति देखते हैं कि क्रोध कषाय हममें पहिले ही जैसा है । कोई घटना आ जाय, कोई प्रतिकूल हो जाय, कुछ बात न सुहाये, मर्जी के खिलाफ हो जाय तो क्रोध तो पहिले ही जैसा है, मान कषाय में भी फर्क नहीं, घमंड, अहंकार समय पाकर उखड़ ही जाता है । लोगों के बीच साधर्मी जनों के बीच रहकर उनकी निंदा नहीं सह सकते । और कोई निंदा या बेइज्जती का थोड़ा सा प्रसंग आये तो उसमें क्षुब्ध हो जाते हैं । अहंकार भी पहिले ही जैसा बना हुआ है । धर्म के लिए काम तो बहुत किया, पर कषायों में फर्क अब तक न आया । मायाचार, जैसे जैसे उम्र बढ़ती है, घटनायें बढ़ती हैं, परिग्रह बढ़ता है, आरंभ बढ़ता है तो मायाचार भी उसके साथ-साथ बढ़ता है । हुआ क्या ? धर्मपालन के लिए तो बहुत श्रम किया मगर बात वहीं की वहीं रही।
मायाचार की वृत्ति कम नहीं हुई । लोभ कषाय की बात देखो तो यह भी कम नहीं हुई बल्कि बढ़ती ही गई । वर्षों तो हो गए धर्मपालन करते-करते, उपवास, दान, पूजा, सामायिक, ध्यान आदिक बहुत बहुत किये, पर मन लगाकर कुछ भी नहीं किया । खैर किया, लेकिन बात ज्यों की त्यों रह रही है, वैसी ही लोभ कषाय जग रही है, पहिले से भी और अधिक जग रही है, तो हुआ क्या कि धर्मपालन के लिए श्रम बहुत किया पर लाभ कुछ न पाया । तो अब इस निर्णय पर आ जाओ कि मुझे पहिले यह समझना है कि मैं क्या हूं, धर्म का पालने वाला यह मैं क्या हूं । धर्मपालन की बहुत लंबी चौड़ी बात बाद में देखेंगे । अभी तो हमें इसी बात का निर्णय करना है कि मैं क्या हूं ।
आत्मनिर्णय के बिना शांति का अलाभ- अंतस्तत्त्व का निर्णय करना कठिन नहीं है, क्योंकि विधि मार्ग में भावों को प्रगतिपथ मिलने का काम भर है । जैसे होशियार बालक को विद्या सिखाते हैं तो एक उसे गति मिल गई, कुंजी मिल गई, विधि मिल गई तो कितना जल्दी विद्या में वह बढ़ता जाता है । दो तीन कक्षायें एक वर्ष में उत्तीर्ण कर लेता है, ऐसी तीव्र गति में बढ़ सकता है । उसे मार्ग मिल गया ना । तो अपने आपके स्वरूप के परिचय का यदि मार्ग मिल जाय तो बहुत ही शीघ्र, बड़े अच्छे रूप से हम अपने आप का धर्मपालन कर सकते हैं । मैं क्या हूं, इस निर्णय के बिना शांत्िा मिल ही नहीं सकती । कैसे मिले ? आत्मनिर्णय के बिना दृष्टि रहेगी किसी पर के आश्रय में । और पर है अध्रुव, भिन्न, अहितमय, तो उसके आलंबन से शांति की कैसे आशा की जा सकती है ? आत्मनिर्णय के बिना किसी भी ढंग में हम शांति का लाभ नहीं ले सकते । ऐसा जानकर हमें अन्य काम तो बाद में करना है, सबसे पहिले इसका निर्णय करना है कि मैं क्या हूं । कितनी अधिक आवश्यकता समझकर निर्णय करेंगे ? इतनी अधिक आवश्यकता समझकर निर्णय करना है कि हम प्रत्येक कार्य में इस विधि को और इस स्वरूप को जान जायें कि आत्मनिर्णय बिना हम धर्मपालन में कभी बढ़ नहीं सकते ।
धर्मपालनपरीक्षा- हमने धर्म किया इसकी परिक्षा यह है कि अपने आपमें समझलें कि हममें क्रोध कितना है ? पहिले जो क्रोध जगता था, जो घटनायें बनती थीं उससे कुछ कम हुए कि नहीं । कम तो होना चाहिए था, किंतु अधिकांश यह देखा जाता है कि क्रोध और बढ़ जाता है । लड़के हुए, पोते हुए, बहुत घर में झमेला हुआ, कई लड़के हुए, उनमें नहीं बनती, न्यारे न्यारे होना है, सबका मेल बैठाना है, सबके रहने के साधन बनाना है, लो झंझट उमर बढ़ने पर बढ़े कि घटे ? कषाय वहां बढ़ गई । तो यह निर्णय करो कि मैने अभी धर्म नहीं किया । धर्म किया होता तो शांति अधिक मिलती । शांति नहीं मिल पा रही है उसका मूल कारण है धर्म से विमुख होना । आक के दूध को कोई खाये पिये तो क्या हाल होगा ? आक का एक छोटा पेड़ होता है, उस सारे पेड़ में दूध भरा होता है । जैसे किसी के कांटा लग गया हो तो उस कांटे की जगह पर आक का थोड़ा सा दूध डाल देने पर लगा हुआ कांटा कुछ बाहर को अपने आप ही खिंच आता है । वही दूध अगर किसी की आंख में पड़ जाय तो उसमें इतनी गर्मी होती है कि आंख फोड़ देता है । तो उस आक के पेड़ में जो दूध निकलता है उसका भी नाम दूध है । यदि उसे दूध जानकर कोई पी लेवे तो उससे अपनी हानि ही है लाभ कुछ नहीं है, तो दूध दूध दूध, इसी नाम पर नही अड़ना है, किंतु है क्या असल में ठीक दूध, उसकी जानकारी करना है । यों ही, धर्म धर्म धर्म, केवल नाम पर ही नहीं अड़ना है किंतु असल में धर्म क्या है, कहां है, कैसी धर्म की मुद्रा है, किस तरह उस धर्म का पालन होता है इन सब बातों को यथार्थ जानना है ।
सविधि धर्मपालन से लाभ- भैया ! विधि सहित कोई कार्य धीरे-धीरे भी हो तो कुछ समय बाद वह कार्य पूर्ण हो जाता है और उसमें आलस्य हो, उल्टे चलें, सोच लें कि मुझे तो ज्ञान मिला है, आगे कभी इस ज्ञान को सम्हालकर जग से पार हो जायेंगे । अभी मन नहीं मानता तो मन को ही प्रसन्न करके जो चाहे कर लें लेकिन न ये सब ठाठ रहेंगे और न यह ठाठ मानने वाला रहेगा । यहां से तो विकल्प तोड़ना ही होगा । फिर अपने आपके स्वरूप में विराजमान इस अंत: सहजस्वरूप का अवलंबन करिये । दुकान बनायेंगे तो, मकान बनायेंगे तो कैसी बड़ी विधि से उसकी जड़ मजबूत बनाकर काम करते हैं पर धर्मपालन को एक ऐसा फालतू काम समझा है कि समय मिलेगा तो कर लिया जायगा । जब दिल में बड़ी तेज बात समा जायगी धर्म करने के लिए तब कर लिया जायगा, अभी से क्यों परेशान हों ? इस तरह जो धर्म के पालन की बात को मानते हैं कि यह काम तो बड़ी अवस्था वालों के करने का है, वे ही शास्त्रसभा में जाकर शास्त्र सुनें, वे ही पूजा पाठ करें, हम लोगों को तो अगर समय मिल गया तो यह काम करने का है, इस प्रकार जो धर्म के महत्व को खोकर धर्मपालन करते हैं तो ठीक है, करते जायें इस तरह से धर्मपालन, पर उन्हें उससे लाभ कुछ न मिलेगा । जैसे अनेक वृद्ध पुरुषों को देखते हैं कि उनमें कषाय पहिले से भी अधिक बढ़ गई यही हाल इस प्रकार के धर्म करने वालों का भी होगा । ऐसा समझो कि अभी उन्होंने धर्म किया ही नहीं ।
अधर्मपरिहार में धर्मपालन- कोई धर्मपालन करें और उसमें कषाय बढ़े यह कभी नहीं हो सकता । कषायरहित, विकाररहित चित्स्वभाव के अवलंबन को ही तो धर्म कहा जाता है। तो वहां फिर कषायों के बढ़ने की बात ही क्या है ? असलरूप से धर्मपालन किया होता तो वहां हम यह सोच सकते थे कि इतना हमने अच्छा कार्य किया ? तो धर्मपालन आत्मस्वरूप के निर्णय बिना कभी हो ही नहीं सकता । इस कारण और और कुछ बातों को गौण करके एक इसमें ही खूब समय लगायें, समझें, चर्चा करें ध्यान करें कि धर्म क्या है, उसका स्वरूप क्या है । वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं, तो अपने आपके स्वभाव की हम परख तो करें नहीं और यह स्वप्न देखें कि हम धर्मपालन करते हैं और खूब किया धर्मपालन, अरे काम, क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह इन छ: विकार शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सके तो हमने धर्मपालन किया, और इनके वश रहे तो समझिये कि हमने धर्मपालन नहीं किया ।
भावानुसार फलभाजनता- दो भाई थे, सो एक दिन मंदिर में पूजा की बारी थी और रसोईघर के लिए लकड़ियां भी न बची थीं सो जंगल से लकड़ियां भी तोड़कर लानी थीं । बड़े भाई ने अपने छोटे भाई से कहा किे भाई तुम पूजा में चले जाओ और हम जंगल से लकड़ियां तोड़ लायें । छोटा भाई तो पूजन करने चला गया और बड़ा भाई लकड़ियां तोड़ने जंगल चला गया । अब बड़ा भाई जंगल में लकड़ियां तोड़ते हुए सोचता है कि हमारा छोटा भैया कैसा आनंद से प्रभु का भजन कर रहा होगा, कैसा पुलकित ह्रदय होकर प्रभु की सेवा कर रहा होगा हम यहां कहां आकर व्यर्थ के झंझट में फस गये । उधर छोटा भैया मंदिर में पूजा करते हुए यह सोच रहा था कि मेरा बड़ा भैया जंगल में आम जामुन आदि के पेड़ों पर चढ़कर डालियों में झूम रहा होगा, पके हुए आम जामुन आदि के फल तोड़ तोड़कर खा रहा होगा । लकड़ियां भी तोड़ रहा होगा । हम कहां यहां आकर झंझट में फंसे । तो भला बताओ वहां फल काहे का मिले ? फल तो भावों का है । काम कुछ कर रहे, भाव कुछ हैं तो फल तो भावों का ही मिलेगा ।
भावमात्र अंतस्तत्त्व में भावमात्र का ही कर्तृत्व और स्वरूप में अकर्तृत्व- यह बात बिल्कुल स्पष्ट सामने है कि हम हर जगह भाव ही भाव करते हैं, भावों के सिवाय कुछ किया ही नहीं करते । तो अब भावों को सम्हालना, सही बनाना, लक्ष्य पर ले जाना, इन कामों में प्रमादी ही रहे तो अपने दुर्लभ क्षण ही तो गवां रहे हैं । तो निर्णय रखना है अपने स्वरूप का कि यह कैसा है । सहज अपने आप में किस प्रकार का है यह आत्मदेव ? एक प्रतिभासमात्र, अमूर्त, सर्वानंदमय, स्वाधीन । ऐसा पवित्र है यह आत्मस्वरूप । उसको दृष्टि में लें तो काम बनेगा, और जिनको दृष्टि में हम बसाये रहते हैं उनसे कुछ काम न बनेगा इस दृष्टि से काम बनेगा । तो ऐसा जो आत्मा का विशुद्ध चैतन्यस्वरूप है उस स्वरूप की सुध होने से ही अनेक संकट दूर हो जाते हैं, और जो शेष रहे संकट हैं वे इस ही ज्ञानस्वरूप के अभ्यास से निकट भविष्य में दूर हो जायेंगे । तो यहां ज्ञानी पुरुष चिंतन कर रहा है कि मैं अपना ही कुछ करने वाला, अपना ही कुछ हरने वाला हूं । पर इससे और अंतरंग में चलें तो मैं किसी का करने वाला भी नहीं, हरने वाला भी नहीं । समस्त निषेध विकल्पों से मैं दूर हूं । इस प्रकार विधिनिषेध के विकल्प से परे होकर निर्विकल्प ज्ञानमात्र अपने आपका चिंतन करना यह अपने लिए बहुत लाभदायक बात होगी । यद्यपि मैं विधिदृष्टि में भवसृष्टि का करने वाला, शिवसृष्टि का हरने वाला, शिवसृष्टि का करने वाला, भवसृष्टि का हरने वाला हूं तथापि स्वरूप दृष्टि से मैं सर्वविधिविकल्पों से परे हूं । यद्यपि मैं भवसृष्टि का न करने वाला, शिवसृष्टि का न हरने वाला, शिवसृष्टि का न करने वाला, भवसृष्टि का न हरने वाला हूं तथापि मैं सर्वनिषेध विकल्पों से परे हूं । ऐसे मैं सहज इस चित्स्वरूप को प्रकृष्टरूप से सेवता हूं ।