वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 311
From जैनकोष
कम्मं पडुच्च कत्ता कत्तारं तह पडुच्च कम्माणि।
उप्पज्जंति य णियमा सिद्धि दु ण दीसदे अण्णा।।311।।
विभाव का साधक निमित्तनैमित्तिक भाव―कर्मों का आश्रय करके तो कर्ता होता है और उनमें परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव है। अन्य प्रकार से कर्ता कर्म की सिद्धि नहीं है। अच्छा एक बात पहिले बतलावो-पिता पहिले होता है कि पुत्र पहिले होता है। पिता पुत्र दोनों एक साथ होते हैं, क्योंकि जब तक पुत्र नहीं होता तब तक उसका पिता नाम कैसे पड़ा ? यह फलाने हैं, यह फलाने हैं, ये नाम तो पहिले से हैं, मगर पिता तो पहिले नहीं है। पुत्र की अपेक्षा से बाप नाम पड़ा हैं, पिताकी अपेक्षा से पुत्र नाम पड़ा है। इस कारण पिता और पुत्र का होना दोनों एक साथ हैं। इन दोनों में परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव है, उसके कारण वह पिता, उसके कारण वह पुत्र होता है। इसी प्रकार कर्मों का उदय आता हैं और आत्मा में विभाव पैदा होते हैं, तो यह बतलावों कि उदय पहिले आता कि विभाव पहिले होता है ? सुनने में ऐसा लगता होगा कि जैसे पिता पुत्र की बात सुनकर ऐसा जान लेते हैं कि वाह पिता पहिले हुआ पुत्र बाद में हुआ। इसी तरह यह लगता होगा कि उदय पहिले आता है राग बाद में, पर ऐसा नहीं है, जिस समय उदय है उस समय राग भाव है। राग का होना, कर्मों का उदय होना दोनों एक साथ हैं। विभाव है नैमित्तिक भाव।
साथ होने पर भी कार्यकारणभाव संबंध―अच्छा दीपक का जलना पहिले होता है कि प्रकाशका होना पहिले होता है ?दीपक पहिले हुआ कि प्रकाश पहिले हुआ ? एक ही समय में होते हैं। पर एक ही समय में होकर भी आप यह बतलावो कि प्रकाश दीपक का कारण है कि दीपक प्रकाश का कारण है। अब निमित्तनैमित्तिक भाव पर आइए। तो दीपक प्रकाश का कारण है, एक साथ होने पर भी दीपक कारण है और प्रकाश कार्य है। तो एक साथ बहुत सी चीजें होती हैं। पर उनमें निमित्त नैमित्तिक भाव जैसा हुआ करता है वैसा ही है। अब जैसे कर्म के उदय का निमित्त पाकर आत्मा में राग परिणाम हुआ तो वैसे ही आत्मा में वैराग्य परिणाम का निमित्त पाकर वहां कर्मों का क्षय भी तो हो जाता है। तो कर्मों की दशा बनाने के लिए आत्मा का परिणाम कारण पड़ता है और आत्मा के परिणाम बनाने के लिए कर्मों की अवस्था कारण पड़ती है, ऐसा परस्पर में निमित्तनैमित्तिक व्यवहार होने पर भी परमार्थत: इसका परस्पर में कार्य कारण भाव नहीं होता है, क्योंकि हो गया ऐसा, परंतु अपने अपने स्वरूप में सब द्रव्य रह रहेहैं। उनको अपने से बाहर मुलकने की फुरसत नहीं है। इस कारण किसी द्रव्य का कोई अन्य द्रव्य न कार्य है और न कारण है।
स्वतंत्रता सत्तासिद्ध अधिकार―यहां सर्व विशुद्ध भाव को दिखाया जा रहा है, प्यौर(pure) सबसे न्यारा, केवल सत्वमात्र स्वरूप की दृष्टि की जा रही है। इस दृष्टि में इस जीव में केवल जीव ही जीव नजर आते हैं। और अजीव में अजीव ही नजर आते है। ऐसा है वस्तु का स्वातंत्र्य सिद्धांत । भारत की आजादी के लिए सबसे पहिला नारा था तिलक का और भी हों तो हम नहीं जानते। तो प्रथम नारा यह हुआ ‘कि आजादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।’ जब हम भी मनुष्य हैं और अँग्रेज़ों ! तुम भी मनुष्य हो और मनुष्यों का आजाद रहना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है, तो परिस्थितियां भले ही बन जाया करती हैं, पर मनुष्य क्या गुलाम रहने के लिए पैदा होता है ? उसे तो आजाद रहने का जन्मसिद्ध अधिकार है। जैनसिद्धांत इससे बढ़कर बतलाता है कि वस्तु की आजादी होना सत्तासिद्ध अधिकार है। जन्म की बात तो जाने दो, वह तो 40-50 वर्ष पहिले हुआ, पर हमारा आपका आजाद रहना तो सत्तासिद्ध अधिकार है कि हम आप स्वतंत्र हों।
कठिन संसर्ग में भी वस्तुत्व का अव्यय―निगोद अवस्था में जीव का कर्म का शरीर का कितना शोचनीय संबंध रहा, जिससे जीव का पता ही नहीं है कि है कि नहीं है। पृथ्वी भी जीव है पर उसके बारे में लोगों की श्रद्धा देर में होती कि जीव भी है। तो जहां जड़ जैसी अवस्था हो जाय, ऐसा शरीर धारण किया इस जीव ने, फिर भी जीव आजाद ही रहा। कठिन मेल के बावजूद भी जीव अजीव नहीं बन गया, अजीव जीव नहीं बन गया।
पराधीनता से पराधीनता का अभाव―भैया ! यह जीव पराधीन भी होता है तो स्वतंत्रता से पराधीन होता है, परतंत्रता से पराधीन नहीं होता है। कोई मनुष्य किसी दूसरे जीव से राग करके या वह सुहा गया, उसके प्रति आकर्षण हुआ और उसके पराधीन बन गया तोवह अपनी कल्पना से अपने विचारों से अपनी ही ओर से अपने भीतर का भाव बनाकर ही तो पराधीन हुआ है, या उस दूसरे मनुष्य के हाथ पैर बंध गया क्या ? गांठ लग गयी क्या ? या कोई जबरदस्ती करता है क्या ? क्या कोई वस्तु किसी दूसरे वस्तु पर पराधीनता लादती है? नहीं लादती है। यह जीव ही खुद स्वतंत्र होकर परतंत्र बनता है। तो यद्यपि इस विश्व में एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ निमित्तनैमित्तिकभाव है तिस पर भी प्रत्येक द्रव्य केवल अपने ही परिणमन में अपने ही परिणमन से परिणमता रहता है। किसी दूसरे पदार्थ के साथ इसका संबंध नहीं है।
मर्जी से बंधन का अपनाना―अहा देखो तो भैया ! यह मोही जीव उचक-उचक कर खुद अपना ही भाव बनाकर विषयों में उलझता है और पराधीन बनता है। विषय इसे पराधीन नहीं बनाते। कभी भोजन ने आप पर जबरदस्ती की है क्या कि तुम खा ही लो हम बैठे हैं बड़ी देर से थाली में ? अरे यह जीव उचक कर ही स्वयं अपनी आजादी से राग के पराधीन होकर पहुंचता है। यह जीव पराधीन भी बनता हैं तो अपनी आजादी से पराधीन बनता है, किसी दूसरे की जबरदस्ती से पराधीन नहीं बनता है। बहाना करना दूसरी बात है।
अपराध छुपाने का बहाना―एक मनुष्य स्वसुराल जा रहा था, तो उसे रात्रि में दिखता नहीं था। शाम को स्वसुराल के गेबड़े में पहुंचा। तो उसे उस समय स्वसुर का बछड़ा मिल गया। उसने बछड़े की पूंछ पकड़ी। जहां वह बछड़ा जायेगा वहां ही स्वसुराल का घर है। बछड़े क पूंछ पकड़कर वहां पहुंच गया। जिससे लोग यह न कहें कि यह बेवकूफ है सो वह पूंछ से घसीटते हुए, रगड़ खाते हुए किसी तरह से पहुंचा। उसने एक बहाना बना लिया कि मुझे एक बछड़ा मिला था दहेज में सो वह दुबला हो गया है ? सो मुझे बछड़े का सोच है। यह उसने यों बहाना बना लिया कि कोई यह न जान पाये कि रात को दिखता नहीं है। जब देर हो गयी, भोजन बनाया। साले साहब आए, साली साहब आयी, सो यही कहे दामाद कि मुझे बछड़े का अफसोस है। तो हाथ पकड़कर ले जायेगी क्यों कि दिखता तो है नहीं। अजी तो क्या है ? दो एक महीने में तगड़ा हो जायेगा। तो पकड़ कर उन्हें खाना खिलाने ले गए। रसोई में बैठाल दिया। भूख तो लगी ही थी। सास ने दाल में घी कड़ाके का डाला। सोचा, घी को गरम किया। गरम घी डालने में छनछल सी आवाज हुई तो उसने समझा कि बिल्ली आ गयी है तो एक थप्पड़ मारा। उसको बड़ी शरम आयी कि अभी तक तो पोल ढकी रही। किसी तरह से अधपेट खाकर उठा, सो शर्म के मारे एक लठिया लेकर बाहर चला गया। जाते जाते क्या हुआ कि एक खाई खुदी हुई थी सोवह उस खाई में गिर गया। पहिले गौने में खुदी न थी, वह उसमें गिर गया। अब सुबह के समय सास गयी कपड़े धोने। छींट गिरे दो चार गालियां उसे दीं। बाद में देखा कि ये तो दामाद साहब पड़े हैं, उस पुरूष ने कहा कि मुझे तो बछड़े का सोच है। सारे ऐब ढाकने के लिए वह केवल एक ही शब्द बार बार बोलता जाय।
दर्शनमोह महाअपराधछिपाने में चारित्रमोह का बहाना―भैया !सो यहांमोह कर रहे हैं व्यर्थ का और कोई पूछे कि यह व्यर्थ का मोह क्यों है ? तो कहेंगे कि अजी मोह नहीं है, चारित्र मोह का उदय है। चाहे वहां श्रद्धा ही बिगड़ रही हो। कहेंगे कि हम क्या करें ? छोटे बच्चे हैं, इनको छोड़ कर हम जायें तो ये मारे मारे फिरेंगे और हमें लोग उल्लू कहेंगे। तो यह चारित्रमोह का उदय है। ऐसा एक शब्द मिल गया है सो अपने सारे ऐब उसी शब्द को कहकर छिपाते हैं। जो अपने को भूले हुए हैं उनकी अपने आप पर दृष्टि नहीं है।
जीव का ज्ञातृत्व–जीव अकर्ता है, इस रूप में अपने आपकी श्रद्धा हो जाय तो इस ज्ञानी के व्याकुलता नहीं रहती।
व्याकुलता होती है काम करने के भाव की। जीव स्वभावत: अकर्ता है। इस प्रकरण में जीव को अकर्ता इस तरह से सिद्ध किया है कि जगत में प्रत्येक द्रव्य का परिणमन उसही द्रव्य में तन्मय है, फिर कहां गुंजाइश है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का परिणमन कर दे। कोई भी पदार्थ अपने आपके स्वरूप से बाहर अपना परिणमन नहीं करता है। इस तरह यह बात निर्णीत होती है कि जीव का स्वभाव दीपक की तरह जगमग टिमटिमाते रहने का है। इससे बाहर इस जीव का कुछ फैलाव नहीं है। लेकिन अपने आपमें ग्रहणरूप फैलाव है।
जीव का विस्तार―जीव कितना बड़ा है ? इसे ज्ञान विषय की अपेक्षा कहा जाय तो यह लोक और अलोक में फैला हुआ इतना बड़ा है। स्याद्वाद के बिना जीवतत्व का यथार्थ निर्णय होना कठिन है। यह आत्मा ज्ञान की अपेक्षा लोकालोक प्रमाण है और यही आत्मा प्रदेश की अपेक्षा देहप्रमाण है। इन दोनों अंशों में यदि एक अंशको तोड़ दिया जाय और निरपेक्ष होकर कुछ माना जाय तो सिद्धि नहीं होती है। ज्ञानविषय की अपेक्षा व्यापक है, इस बात को न माना जाय तो जीव क्या रहा ? अचेतन सा रहा और जीव देहप्रमाण है यह नहीं है और एकांतत: यह आत्मा सर्व व्यापक है। तो हम क्या रहे और हम कहां से निकले, क्या सत्ता है ये सब अंधेरे में बातें रहती हैं। यों तो श्रद्धा के कारण जो जहां आगम में लिखा है वैसा माना जाता है, पर चित्त में उतरे, अनुभव जगे, ऐसी बात प्रमाण द्वारा निर्णय हुए बिना दिल में नहीं उतरती है। यहआत्मा इतना विस्तृत है कि जिसकी स्फुरायमान चैतन्यज्योति में ये सारा तीन लोक रूपी आँगन छुरित हो गया है। सारे लोक में उसका फैलाव हो गया है।
विवेक की आवश्यकता―यह आत्मा विशुद्ध है, केवल जानकर रह जाता है, ऐसा इसका स्वभाव है। आकुल व्याकुल होना जीव का स्वभाव नहीं है, फिर भी यहां जो बंधन देखा जा रहा है कर्मों के साथ और अपने रागादिकों के साथ यह सब अज्ञान की ही विकट महिमा है। जीव हम और आप सब स्वभाव से ज्ञानमय हैं और आनंद स्वरूप हैं। पर अज्ञान के कारण एक अँधेरा छा गया है। कैसा विकट अज्ञान कि यह जीव घर के दो चार लोगों से बँध जाता है कि जो कुछ हमारा श्रम है, जो कुछ हमारा उद्यम है, जान है वह सब इनके लिए है। और कषाय के आवेश में मोह और तृष्णा से अनुरक्त होकर अपना जीवन खोखला कर डालता है। हालांकि है यह गृहस्थावस्था, पर विवेक तो सब जगह होना चाहिए। ऐसी सावधानी बनाए रहो कि अपने आपका भान बना रहे और परपदार्थों का ऐसा लोभ न रहे कि आवश्यकता होने पर भी अपने लिए या पर के लिए सदुपयोग नहीं किया जा सके।
भाग्य का पीछे लगा रहना-गुरु जी सुनाते थे कि ‘मड़ावरा में उनका ही एक मित्र था, जिसका नाम था रामदीन। सो वह ऐसा उदार था कि जितना मिल सके पिता से ले लेकर, जिसे चाहे बांटना, खिलाना पिलाना, ग़रीबों को कुछ न कुछ देना, यह उसकी आदत थी। तो जब बहुत बहुत खर्च करने लगा तो पिता ने कहा बेटा, हमने हजार दो हजार रुपये रख रखे हैं तुम्हारे विवाह के लिए, ये काम आयेंगे। बोला कि जो होगा देखा जायेगा। पहिले जो हमारी इच्छा हैं और जिस तरह हमारा उदारता में चित्त जा रहा है पहिले वह काम होने दो। एक ही वह लड़का था सो रामदीन की बात भी रखनी पड़ती थी। बाप जो दे सो खर्च कर दे। अब कुछ घर में न रहा, तो सोचा कि अब रामदीन बड़ी उदारता से दीन दुखियों को खिलाता पिलाता था अब वह गरीब बनकर न रहेगा। गांव छोड़ दिया। पहुंच गया बनारस । वहां जाकर एक महंत की सेवा में रहने लगा। भाग सुधरे। महंत ने रामदीन को अपनी गद्दी दे दी। जब बनारस में गुरूजी जा रहे थे तो सामने से हाथी पर चढ़ा हुआ रामदीन महंतसाही के साथ आ रहा था। तो हाथी से उतर कर गुरूजी से मिलकर कहा कि क्या हमें आप जानते हैं कि हम कौन है ? थोड़ी देर में कहा कि क्या तुम रामदीन हो? कहता है कि अब मैं रामदीन नहीं हूँ । अब तो जो हूँ । सो हूँ ।
परिस्थितियां―भैया ! पुराणों में भी देख लो―श्रीपाल का भाग्य था ना तो देश से भी निकल गए पर ज्यों के त्यों अमन चैन से रहे। कितने ही राजा किसी कारण देश से पृथक हो गए मगर उनका भाग्य था सो दूसरे देश के राजा बन गए। ऐसा अनेक पुराणों में आता है। और जिसके पाप का उदय आता है तो कितना ही कोई उसकी रखवाली करे, उसकी रक्षा का यत्न करने पर भी वह सब बेकार जाता है तो चिंता करना है अपने श्रद्धा ज्ञान और आचरण की, बाह्य की चिंता से कुछ बनता नहीं है।इसलिए उस चिंता में क्या दिमाग उलझाना, साधारणतया कर्तव्य समझ कर उसे करना। तो अपना जो मुख्य ध्येय हैं उसको छोड़कर जो बंधन में पड़ गया है जीव, यह सब उसके अज्ञान की कोई गहन महिमा है।
अकर्तृत्व―यहां बात क्या बतायी जा रहीं है कि अपना सर्व विशुद्ध स्वरूप देखो, सही स्वरूप देखो। यह मैं आत्मा धन वैभव से जुदा हूँ , उनका कुछ करने वाला नहीं। शरीर से जुदा हूँ , शरीर का भी करने वाला नहीं। और जो कर्म बँधते हैं उन कर्मों से जुदा हूँ , उन कर्मों का करने वाला नहीं हूँ । और जो रागादिक विभाव होते है उनसे जुदा हूँ और उनका भी करने वाला नहीं हूँ , जो होता है वह निमित्त पाकर हो जाता है, पर भावों का करने वाला मैं नहीं हूँ । और जो भी शुद्ध परिणमन चलता है चलेगा, जीव के स्वभाव के कारण पदार्थ के द्रव्यत्व गुण के कारण होता है, होगा, उनका भी करने वाला मैं नहीं हूँ । एक दूसरे का कर्ता नहीं है और एक एक का करना क्या ? इसलिए ‘करना’ शब्द अध्यात्मशास्त्र में कुछ मायने नहीं रखता है।
अकर्तृत्व का एक दृष्टांत द्वारा समर्थन―जैसे रस्सी पड़ी है और लाठी के द्वारा उस रस्सी को गोल-गोल कर दें। अब देखते जाना । इस लाठी ने रस्सी का क्या काम किया ? लाठी कितनी है ? जितना कि उसका विस्तार है। मोटी है, लंबी है, उस लाठी ने अपने आपमें अपना घुमाव किया। लाठी से बाहर जो रस्सी है उस रस्सी में लाठी का कोई अंश नहीं गया, कोई परिणति नहीं गयी, कुछ नहीं गया। इस कारण व्यवहारी लोग व्यवहार से ही ऐसा कहते है कि लाठी ने रस्सी को गोल कर दिया। लाठी ने तो लाठी को ही इस तरह चलाया। उसका निमित्त पाकर रस्सी भी मुड़ गयी।
तो एक दूसरे कोकरे क्या और एक एक को करे क्या ? कोई किसी लाठी को खूब घुमाये तो इस अकेले ने अपने से ही अपने को विकल्प रूप किया और वहां निमित्तनैमित्तिक परंपरावश लाठी ने अपने को खूब घुमाया । अरे वह अकेला एक ही है पुरूष, उसने क्या किया ? ऐसा परिणाम किया। अत: करना शब्द व्यवहारी लोगों की भाषा है, करता कोई कुछ नहीं है।
आत्मगौरव―भैया ! जीव को अकर्ता के रूप में देखें तो वहां सर्व विशुद्ध आत्मा के मर्म का ज्ञान होता है। इस मर्म का जिन्हें पता नहीं है वे बाहर मेंसंयम और त्याग करके भी अहंकार का पोषण करते हैं और अहंकार जितना है वह सब विष है। किस पर घमंड होना, काहे का अहंकार करना ? गौरव करें तो अपने ज्ञानानंद स्वभाव का गौरव करें, लोगों पर रोब जमाने का गौरव करें तो वह अहंकार में शामिल हैं।
मैं आचरण से न गिर जाऊँ, मैं श्रद्धान से न गिर जाऊँ, ऐसा अपने आप में अपना गौरव रखना है। इसे कहते हैं वास्तविक गुरुता और लोग मुझे जानें, इसे नाक वाला, इस नाक आँख कान की मुद्रा को लोग हल्का न समझ जायें, कुछ नहीं किया, कोई ऐसा बेकार सा न समझ जाय, इसके लिए अपना प्रभाव जताना, यह तो आत्मगौरव में नहीं है, किंतु यह अहंकार में है। भैया !इस लोक में बड़े-बड़े पुरूष नहीं रहे, राम, रावण, हनुमान तीर्थंकर कोई पुरूष यहां नहीं रहा, कोई मुक्त हो गया, कोर्इ स्वर्ग गया, फिर किस बात पर गर्व करें ? कौनसी चीज यहां सारभूत मिली ? एक कल्पना द्वारा मान रहे हैं, यह मेरा है, यह मेरा है । मोही-मोही हैं ना, सो दूसरे भी कहते हैं, हां हां यह हमारा, यह तुम्हारा है। कोई तीसरा हो तो बतावो कि यह तुम्हारा है कैसे ?
मूंछमक्खन का शेखचिल्लीपन―एक पुरूष था जिसका नाम था मूँछ-मक्खन। ऐसा भी नाम कभी सुना है क्या? हुआ क्या कि किसी श्रावक के यहां मट्ठा पीने गया। मूँछ उसके बहुत बड़ी थी। सो जो मट्ठा पिया और पीने के बाद मूँछ में हाथ फैरा तो कुछ मक्खन का कण हाथ में आ गया। उसने सोचा कि और रोजगार में तो शंका रहती है सो रोज 10-5 बार श्रावकों के यहां जाएं, मक्खन पीवें और मूँछों में हाथ फेर कर मक्खन इकट्ठा कर लें तो इस तरह से कुछ ही दिनों में काफी घी इकट्ठा हो जायेगा। सो वह दसों जगह जावे, मट्ठा पीवे और मूँछ पर हाथ फेरे। मक्खन जोड़ता जाय वह एक डिब्बे में। साल डेढ़ साल में उसने 2, 3 सेर घी जोड़ लिया।
मूँछ मक्खन का इंद्रजाल―अब जाड़े के दिन थे। माघ का महीना था, झोंपड़ी में वह रहता था। उसी झोंपड़ी में वह घी का डब्बा लटक रहा था। सो एक दिन वह सोचता है कि कल के दिन यह घी बेचूंगा तो मिल जायेंगे 5-7 रूपये। और उससे फिर एक बकरी खरीद लूंगा। उसके बच्चे, घी दूध आदि बेचकर एक गाय ले लेंगे। फिर भैंस ले लेंगे। फिर बैल ले लेंगे, फिर जमीन ले लेंगे, जमींनदार हो जायेंगे, फिर मकान बनवायेंगे, शादी करेंगे, बच्चे होंगे कोई बच्चा कहेगा कि चलो मां रोटी जीवने को बुलाया है। तो कहेंगे कि अभी नहीं जायेंगे। अपने आप कह रहा है मन में। फिर बच्चा आयेगा, कहेगा कि चलो मां ने रोटी खाने को बुलाया है, वह भूखी बैठी है, तो कहेंगे कि अभी नहीं जायेंगे। तीसरी बार कहेगा तोइस तरह से लात फटकारकर मार देंगे और कहेंगे कि अभी नहीं जायेंगे। सो आवेश में आकर लात फटकार दी। वह लात उसकी घी के डब्बे में लग गयी। नीचे आग जल रही थी। झोंपड़ी जल उठी।
मूंछमक्खन का और परिग्रहियों के समान रूदन―अब वह बाहर जाकर रोता है, अरे भाई हमारा मकान जल गया, हमारे बच्चे जल गए, हमारे गाय बैल जल गये, हमारा सारा वैभव खत्म हो गया। देखने वाले लोग कहते हैं कि अभी कल तक तो इसके मकान न था, स्त्री बच्चे न थे, कुछ भी न था, भीख माँगता था और आज कहता है कि मेरे ये सब जल गए। पूछा कि भाई कैसे जल गए ? उसने अपनी सारी कहानी सुनाई। किसी सेठजी ने कहा कि अरे कुछ जल तो नहीं गये हैं, तू कल्पना करके ही तो रो रहा है। वहां एक विवेकी पुरूष खड़ा था, उसने समझाने वाले सेठजी से कहा कि जैसा यह कहता है वैसा ही तो तुम भी कहते हो। कल्पना करके यह मेरा है, यह मेरा है ऐसा कहते हो और दु:खी होते हो, पर तुम्हारा कुछ है नहीं। तुम्हारे निकट जरूर है, मगर तुम्हारा है कुछ नहीं और तुम जिसे मानते हो कि यह मेरा है वह तुम्हारे निकट भी रहने को नहीं है। सेठजी तुम्हारा यह मानना मिथ्या है कि यह मेरा है। यदि ऐसा तुम मानते हो तो तुम्हारे में और इसमें क्या अंतर है ?
पर्यायबुद्धि से क्लेशप्रवाह―तो यह जीव कल्पना करके अपने को नाना परिणतियों रूप मानकर अहंकार रस में डूब रहा है। यह सब अज्ञान की महिमा है। भीतर देखो मर्म में यह माया जाल कुछ नहीं पाया जाता है। बड़े-बड़े शास्त्र ज्ञान करके देखने से लगता है कि यह तो कुछ भी बात नहीं। और लोगों ने इतनी बात भुला रखी है कि वह तो केवल ज्ञानानंदस्वरूप है। प्रभु की प्रभुता इस बात में ही है कि वह ज्ञाता तो रहे समस्त विश्व का परंतु निज आनंदरस में ही लीन रहे। भ्रम न आए। बाह्य पदार्थों से ज्ञान और सुख मानने का उसे विश्रय कभी न बैठेगा, ऐसी प्रभु में त्रिकाल सामर्थ्य रहती है। ऐसा ही स्वरूप अपना है। पर अपने को जाने बिना हम दु:खी हो रहे हैं।
सिंह की अंधेरी से भयभीतता―आजकल चैत का ही तो महीना है। इस मौसम का एक कथानक है कि कहीं गेहूँ कट रहे थे। सो किसान मालिक नौकरों से बोला कि जल्दी काटो-जल्दी चलो, अंधेरी आने वाली है। अंधेरी कैसी है ? अरे तुम जानते हो, मैं जितना शेर का डर नहीं है उतना डर अंधेरी का है। यह बात सुन लिया शेर ने। अब वह शेर डरा कि मुझसे भी कोई बड़ी अंधेरी होती है। यह किसान मुझसे जितना नहीं डरता उतना डर इसे अंधेरी से है। अंधेरी मुझसे भी कोर्इ बड़ी चीज है। ऐसा सोचकर वह शेर डर कर बैठ गया। उसी दिन एक कुम्हार का गधा खो गया था, सो वह अपना गधा ढूंढ़ते-ढूंढ़ते उसी शेर के पास पहुंच गया। सोचा कि यह गधा है सो उसे दो एक गाली देकर उठाया। दो एक डंडे भी जमाए। और कान पड़कर लेकर चल दिया अब सिंह ने समझ लिया कि आ गई अंधेरी सो अंधेरी के डर के मारे कुम्हार मनचाही तरह से कान पकड़ कर ले गया। शेर वहां डरता-डरता चला गया। रात के समय शेर को बाँध दिया।
अंधेरी का विनाश―जब सुबह हुआ व अंधेरी न रही, उजेला हुआ तो शेर देखता है कि अरे मैं कहां वनराज और कहां गधों के बीच में। एक बड़ी दहाड़ मारी तो पास में बँधें हुए सब गधे वगैरह घर में घुस गए और वह छलांग मारकर जंगल में पहुंच गया। सो ऐसा लगता है कि अंधेरी है कुछ नहीं। केवल कल्पना की अंधेरी है। कोर्इ किसी को खिलाता पिलाता है क्या ? कोई किसी का अधिकारी है क्या ? सब जीवों के अपने-अपने कर्मों का उदय है। और अपने-अपने उदय के अनुसार अपना-अपना कार्य करते है।
पर का पर में अकर्तृत्व―अच्छा बतलावो एक मिल में यदि हज़ारों नौकर काम करते हैं तो नौकर मालिक की सेवा कर रहा है, चाकरी कर रहा है या मालिक उन सब हज़ारों नौकरों की चाकरी कर रहा है ? अरे कथंचित् मालिक हज़ारों नौकरों की चाकरी कर रहा है, उन्हें आजीविका से लगाए है, उनकी खबर रखता है सो वह हज़ारों नौकरों की चाकरी करता है और वे हज़ारों नौकर मालिक की चाकरी करते हैं ऐसा तो दुनिया ही देखती है। वस्तुत: कोई किसी अन्य का कुछ नहीं करता है। जिनका जितना जो उदय है उस उदय के अनुसार उसका कार्य चलता है। यह सोचना भ्रम है कि मेरे पर बड़ा बोझ लदा है और मुझे बड़ा संचय बनाए रहना चाहिए। ये सब बातें बिल्कुल व्यर्थ की है, जो होने को होता है वह स्वयं होता है।
संपदा के आगमन व निर्गमन की पद्धति का अप्रकटपना―लक्ष्मी आती है तो पता नहीं पड़ता कि कहां से आती है और जब लक्ष्मी जाती है तो पता नहीं पड़ता कि कहां से जाती है ? जैसे नारियल के फल के अंदर पानी होता है ना, अच्छा बतावो पानी कहां से उसके अंदर घुस गया ? बड़ा कठोर तो उसका ढक्कन है। जब उसे किसी चीज से फोड़ा या पत्थर पर पटको तो मुश्किल से फूटता है। ऐसे कठोर ढक्कन वाले नारियल में यह पानी कहां से आ गया ? और हाथी कैंथ खा लेता है, जब तो खूब दलदार वजनदार कैंथ खा लिया।अब पेट से उसकी लीद के साथ जब कैंथ निकलता है तो पूरा का पूरा निकलता है। न उसमें छेद मिलेगा, न उसमें दरार मिलेगी और उठाकर देखो तो उस कैंथ की खोल लगभग डेढ़ तोले के वज़न की निकलेगी और कहां तो वह था कोई पखभर का। बताओ वह रस कहां से निकल गया। न वहां छिद्र दिखता है, न वहां दरार दिखती है तो जैसे उस कैंथ का सारा सार निकल गया, कुछ पता नहीं पड़ा, इसी तरह जब लक्ष्मी जाती है, निकल जाती है तो पता नहीं होता है और जब आती है तो पता नहीं होता है। इसका क्या सोचना ?
पुण्य पाप के उदय का परिणमन―एक सेठ का नौकर था। सो हवेली के नीचे कोठरी में रहता था। उसे एक दोहा बड़ा याद आता था―होंगे दयाल तो देंगे बुलाके। कौन जायेगा लेने देंगे खुद आ के।। दसों बार वह यही दोहा गाये। एक रात सेठ की कोठरी में कुछ चोरों ने छेद कर दिया। जब भींत कुछ फटी और जाना कि चोरों ने यह उद्यम किया तो वहीं बैठे-बैठे कहता है कि देखो स्वसुरे यहां तो सिर मारते हैं और फला ने तालाब के बड़ के नीचे जो असर्फियों का हंडा गड़ा है उसे खोद नहीं लेते। चोरों ने सोचा कि ठीक कह रहा है, चलो खोदें तो मिले असर्फियों का हंडा। उस हंडे पर तवा जड़ा था। खोदा तो तवा निकला। कुछ ततैयों ने उन्हें काटना शुरू किया। चोरों ने सोचा कि वह बड़ा चालाक निकला । ततैयों से हमें कटा दिया। सोचा कि इस हंडे को ले चलो और उसकी कोठरी में डाल दो। हंडा ले गए और उसकी कोठरी में उसी छेद में से उड़़ेर दिया, सब असर्फी उसके कोठे में आ गई। तो वह दोहा कहता है कि―होंगे दयाल तो देंगे बुलाके। कौन जायेगा लेने देंगे खुद आके।
नरजन्म का प्रयोजन धर्मपालन―भैया ! चिंता काहे की है? न लाइलोन पहिनो तो मोटे ही कपड़े सही। बिगड़ता क्या है ? और न पहिने कानके ततैया बिच्छू तो उससे क्या बिगड़ गया सो बतलावों । और आजकल की शोभा तो बिना आभूषण के रहने में है। बिगड़ा क्या बतलावो ? न रसगुल्ले खाये, सीधी दाल रोटी से पेट भर ले तो उसमें क्या बिगड़ गया ? हम आप सब जो जन्मे हुए हैं सो केवल धर्म के लिए जन्में हुए है। एक धर्म का ही सारा सच्चा सहारा है, न हुआ लाखों का धन तो क्या बिगड़ा ? जो उदय के अनुसार आपके पास हो, बस, स्वपर के उपयोग के लिए विवेकपूर्वक व्यय करते रहो। क्या चिंता है? जीवन अच्छा गुजारो और प्रभु से अपना स्नेह लगावो और ज्ञान में अपना समय बितावो। मर जायेंगे तो कम से कम अगला भव तो अच्छा हो जायगा। यहां के लोग क्या साथ निभायेंगे ?
हितरूप उपदेश―सो भैया ! ऐसा चित्त बनावो कि किसी चीज की परवाह नहीं है। जो होगा उसको देखेंगे और जमाना भी बड़े संकट का है। कुछ पता किसी को तो है नहीं कि क्या से क्या गुजरता है ? जो होगा सो देखा जायेगा। पर वर्तमान विवेक तो न त्यागो। धर्म का और ज्ञान का संचय तो न त्यागो। सो ऐसा ही साहस बनाए कि उदय के अनुसार तो है आजीविका और हिसाब, किंतु अपनेपुरूषार्थ के अनुसार है एक आत्मकल्याण। सो आत्महित के अर्थ अपना पुरूषार्थ ज्ञान कमावें और धर्म का पालन करे। ऐसा जीवन व्यतीत हो तो उसके कुछ हाथ लगेगा।
स्वरूपविस्मरण का परिणाम―यह जीव यद्यपि अपने स्वरूप से चैतन्यमात्र है, प्रभुवत ज्ञान और आनंद का पिटारा है, किंतु अनादि काल से कर्म उपाधि के संयोग में रहकर यह अपने स्वरूप को भूलकर नाना प्रकार के शरीरों के भेष लादे-लादे फिर रहा है। जगत के शरीरों पर दृष्टि दो तो पता होगा कि हम किस-किस प्रकार के कष्टों में अभी तक रहे हैं ? जगत में दिखने वाले जीवों के कष्ट देखों घोड़ा, ऊँट, पशु, बैल इन पर मनुष्यों की कैसी दृष्टि रहती है। जब तक इनसे कुछ स्वार्थ निकलता है तब तक ही उन्हें रखते हैं घर पर । जब बूढ़े हो गए, उनसे कोई स्वार्थ नहीं निकलता तब उन्हें जहां चाहे बेच डालते हैं, चाहे उनकी कोई हत्या भी कर दो। जब तक उन्हें पालते भी हैं लादते हैं तो बहुत बोझ लादते और कोड़ों से मार मार कर उन्हें जोतते हैं। हम आपको कोई एक गाली भी दे दें तो एक गाली भी नहीं सहन कर सकते। उस गाली को सुनकर इतनी परेशानी हो जाती है कि बाण की तरह ह्रदय भिद जाता है और उससे बदला लेने की रात दिन सोचा करते है। एक गाली के ही सुन लेने पर हम आप पर ऐसा प्रभाव हो जाता है कि रात दिन चैन नहीं आती है। तो भला बतलावों जिन पशुवों पर छुरी चलाई जाती है, जिन पशुवों को कोड़ों से पीटा जाता है ऐसे उन पशुवों के दु:खों का क्या ठिकाना ?
किसकी कहानी―वे पशु और कोई नहीं हैं। हम और आप भी ऐसे ही कभी थे। कितनी ही तरह ने जीव है। यह तो है सामने दिखने वाले जीवों की कहानी। भला कीड़े मकोड़ों को देखकर, बचा बचाकर कौन चलता है बल्कि कुछ लोग जूतों से रगड़कर देखते हैं कि यह किस तरह से तड़फता है और बेदर्द होकर जो चाहे जूतों से रगड़कर मार डालते हैं। रेशम के कपड़े बनाए जाते है। रेशम के कीड़े खौलते हुए पानी की कड़ाही में डाल दिए जाते हैं और वे जब मरते हैं तो अपने मुख से तार छोड़ते हैं । उन तारों का संग्रह करते है। उनसे रेशम बनता है। जो रेशम के कपड़े बड़ी रूचि से आप पहिनते हैं और खरीदते हैं। मंदिरों के लिए भी कि उसके ऊपर का चंदोवा अच्छा लगेगा, अगल बगल के पर्दे अच्छे लगेंगे, वे रेशम के कीड़ों से बनते है। कितने ही जीवों की हिंसा होती है, उनके मुंह से तागा निकलता है। उसी रेशम से ये कपड़े बनाए जाते है। भला जो स्वयं रेशम का कीड़ा है वही उस दु:ख को जान सकता है। यहां तो खौलते हुए पानी का एक बूंद ही हाथ पर पड़ जाय तो कितनी परेशानी हो जाती है और यदि दूसरे से गलती से गिर जाय तो उससे कितना लड़ने लगते हैं? यह है रेशम के कीड़ों की दुर्दशा। यह सब किसकी कहानी है? हम आप सबकी कहानी है।
एकेंद्रिय व विकलत्रिक अवस्था में दुर्दशा―तो जगत में कितने प्रकार के जीव हैं ? इस जगत में अनंतानंत जीव हैं। वे सब दु:ख हम आपने भोगे। जब जमीन हुए थे तो लोगों ने खोद-खोदकर मिट्टी काढ़ा था, पत्थर को खोदकर सुरंग से फोड़कर इस जीव की हत्या की थीं। क्या हम आप कभी जल के जीव नहीं हुए थे ? प्राय: हुए थे। लोगों ने जल को गरम करके खोला करके अग्नि में डाल करके इस जीव को मार डाला था, हम आप अग्नि हुए तो राख से दबोच कर व पानी डालकर बुझा दिया था। यह सब अपनी ही कहानी चल रही है। हम आप कभी हवा भी हुए थे। देख लो हवा की क्या हालत है ? उसे रबड़ में रोक दिया और मुंह बंद कर दिया। अब भरी रही, वहीं पड़ी-पड़ी हवा मर जाती है। हवा को भी हवा न मिले तो वह जिंदा नहीं रह सकती है। यह जीव वनस्पति हुआ तो वनस्पति को भी भेदा, छेदा। क्या-क्या नहीं हुआ इस जीव को ? विकलत्रय हुआ तो उनकी कौन परवाह करता है?
पशुगति में असहय्य दुर्दशा―पशुवों को लोग खाने तक लगे हैं। उन्हें जिंदा भी लोग आग में डाल देते है। जो मांसभक्षण करते है उनके क्या दया ? छुरी से उनकी हत्या कर डालते हैं और या तो उन्हें आग में भून कर खा डालते हैं। मांस खाने की एक खोटी आदत है। उन्हें क्या परवाह है। इसी तरह पशुवों की बात देखो―सूकरों को भाले से छेदकर गिरा देते हैं और धर्म का नाम भी लेकर जहां चाहे बलि कर डालते हैं। तो ऐसी-ऐसी दुर्दशा भोगी हम आपने।
वर्तमान सुयोग का सुयोग―उन सब दशावों के समक्ष आज विचार करते हैं तो हम और आपने कितना ऊँचा सौभाग्य पाया, कितना दुर्लभ नरजीवन पाया, अपने मन की बातों को दूसरों को सुना सकते हैं, दूसरों के मन की बातों को अपन सुन सकते हैं, समझ सकते हैं। ऐसा ऊँचा भव प्राप्त किया और कुल भी श्रेष्ठ पाया, धर्म भी श्रेष्ठ पाया। जहां आत्मा की सावधानी रह सके, जहां अहिंसा का अपने व्यवहार में बर्ताव किया जा सके, ऐसा श्रेष्ठ धर्म भी प्राप्त किया। वीतरागता का जहां पोषण मिल सके। जिससे वास्तविक शांति और अनाकुलता उत्पन्न होती है। तो बतलावो इतना उत्कृष्ट समागम पाकर भी हम आप कुछ न चेते, मोह-मोह में ही रहे, जिन्हें गुजर जाना है, जिनका वियोग हो जाना है उनको ही अपना सर्वस्व मान मानकर यह जिंदगी बिता दी तोभला बतलावों तो सही कि कुछ शांति भी कहीं पावोगे ? जो शांति का घर है ऐसे प्रभु की भक्ति में मन नहीं लगाया जाता है, शांति का खजाना भरा है, ऐसे निज ज्ञायक स्वरूप में उपयोग न पाया तो फिर भला बतलावो कि पावोगे कहां शांति ?
सम्यक्ज्ञान का आदर―भैया ! ये मलिन जीव जो स्वयं बेचारे असमर्थ हैं, विवेक रहित हैं उन मलिन जीवों पर हम कुछ आशा लगाएं कि इससे आनंद मिलेगा यह बड़ी भूल है। सुख और शांति चाहना है तो आवो वीतराग सर्वज्ञदेव परमात्मा के गुणों के स्मरण की छाया में। शांति चाहते हो तो आवो अपने शुद्ध ज्ञानस्वरूप के स्मरण में। इन दो ठिकानों के अलावा तीसरा कोई ठिकाना ऐसा नहीं है जहां आप शांति प्राप्त कर सकें। तो भाई अब अपने स्वरूप की ओर निहारो और ममता कम करो। यह नहीं कहा जा रहा है कि आप लोग अभी अपना घर छोड़ दें या रोजगार छोड़ दें, परघर का मुंह तकें। यह बात नहीं कहीं जा रही है, किंतु ज्ञान की बात ज्ञान से करने में कौन से आलस्य का प्रश्न है ? रह रहे हो घर में रहो, जो काम कर रहे हो करते रहो किंतु इतना ज्ञान बनाए रहने में इस आत्मा को कौनसी तकलीफ हो रही है? समझ जावो कि जगत के सभी जीव एक समान है। यहां न मेरा कोई है और मुकाबलेतन कोई पराया है। स्वरूप की दृष्टि में सब मेरे ही समान हैं। और व्यक्ति की दृष्टि में सब मेरे से अत्यंत भिन्न हैं।
पर से रक्षा की मान्यतारूप संकट―भैया ! यही तो बड़ी आपत्ति है। जो आपको इन अनंत जीवों में से एक दो जीवों को अपने सिर पर रखना पड़ रहा है। इसी में अपना हर्ष मानते हैं, यही तो आपत्ति है। ये अध्रुव हैं, इनमें उपयोग लगाया ये ही संकट हैं जिससे ऐसा दुर्लभ नरजीवन पाया वह यों ही गंवाया जा रहा है। सत्य ज्ञान बनाने में आपको कौनसी परेशानी है।
जानते रहो―सभी जीव मुझसे अत्यंत भिन्नहैं। एक भी जीव मेरा नहीं है। इस शरीर रूपी मंदिर में विराजमान यह मैं कारण परमात्मा स्वयं ज्ञानानंद से परिपूर्ण हूँ । इसे कोई कष्ट नहीं है। इसको दूर करने के लायक कोई काम नहीं है। बाहर में कुछ किया नहीं जा सकता है। यह मैं अपने आपमें ही कुछ करता हूँ , कुछ भोगता हूँ , किसी भी प्रकार रहता हूँ । अपने आपमें ही मैं रहता हूँ , किसी परपदार्थ में मेरा कोई परिणमन नहीं चलता। ऐसा जानकर हे आत्महित चाहने वाले जीवों ! अब उस ज्ञान की रफ्तार में कमी न करनी चाहिए। और चिंता भी क्या करें ? चिंता तृष्णा से हो जाया करती है। तृष्णा का भाव नहीं रखें तो कोई चिंता नहीं। कष्ट तो वर्तमान में कुछ है ही नहीं। मगर तृष्णा का जो परिणाम लगा है उससे चिंता बनाते हो और उससे कष्ट मानते हो। तृष्णा को छोड़ो।
तृष्णा के अभाव का परिणाम―एक बार देश में कुछ अन्न की कमी हो गयी, अकाल पड़ गया। दो पड़ोसी थे। एक पड़ोसी के पास तो ग्यारह महीने का अनाज इकट्ठा हो गया था और एक पड़ोसी के पास एक महीने का अनाज इकट्ठा था। 11 महीने के अनाज वाला मन में सोचता है कि एक साल कैसे गुजरेगा ? हमारे पास तो 11 महीने का ही अनाज है। सोचा कि ऐसा करें कि पहिले एक महीना अनशन रख लें। न खा करके पहिला महीना गुजारें, फिर 11 महीने बड़े आराम से रहेंगे। दूसरे पड़ोसी ने सोचा कि हमारे पास एक महीने का अनाज तो है, इसे सुख से खायें, बाद में जैसा भाग्य होगा वैसा सुयोग मिल जायेगा। चिंता किस बात की ? उस एक महीने के अनाज वाले ने एक महीना सुख से गुजारा और इस 11 महीने के अनाज वाले ने 1 महीना अनशन तो क्या करे 3 दिन में टांय-टांय बोल गया। अब क्या था ? 11 महीने के अनाज का भी उपयोग उस एक महीने के अनाज वाले ने कर लिया। तो भविष्य की चिंता बनाकर वर्तमान में पाये हुए आराम को भी नहीं भोगना चाहते है। और चिंता करके गुजारा करने से धर्म से भी विमुख रहते है और शांति से भी विमुख रहते हैं।
सुख का ज्ञान से संबंध--भैया ! जरा सोचो तो जिसके पास एक लाख का धन है, कदाचित् 1 हजार का टोटा आ जाय, 99 हजार रह जाए तो वह एक हजार पर दृष्टि देकर दुःखी होता है। हाय, हाय, एक हजार नहीं रहा। उस 1 हजार पर दृष्टि देकर 99 हजार का सुख वह नहीं ले पा रहा है और एक मनुष्य एक हजार का ही धनी था और उसे 1 हजार और मिल गए तो वह खुश हो रहा है, धर्म कर्म की भी याद कर रहा है, शांति से अपना जीवन भी बिता रहा है। वह सुखी है। तो धन से सुख नहीं होता है। एक निर्धन पुरूष अपने विचार उत्तम रखता है, तृष्णा से दूर रहता है वह सुखी है और एक करोड़पति पुरूष भी एक अपने धन की रक्षा की चिंता में और वृद्धि की चिंता में रात दिन परेशान रहता है। सो सुख शांति का संबंध धन से नहीं है। अपना मंतव्य आप ऐसा न बनाए कि धन अधिक रहेगा तो मुझे सुख रहेगा। सुख का कारण ज्ञान है, विवेक है। विवेक है तो सुख प्राप्त होगा और अविवेक है तो वहां सुख नहीं मिल सकता।
अविवेक में अपराध―भैया ! अविवेक में यह जीव क्या करता है? अपराध तो अनेक करता हैं, पर उन सब अपराधों को संक्षेप में संग्रहीत किया जाय तो वे अपराध तीन होते हैं। पहिला अपराध तो पर को आपा मानना और पर को अपना मानना, अहंभाव और ममता भाव, अज्ञान भाव। हैं नहीं अपन के और कल्पना कर लिया-मेरा है, लो बस दु:ख हो गए। किसी के ससुराल में साला नहीं है, सास के एक ही लड़की है, तो अब दामाद खुश हो रहा है, अब तो यह सब धन मेरा है और कदाचित् सास के लड़का हो जाय तो उसी दिन से कल्पना में आ गया कि अब तो हमें न मिलेगा। पहिले कल्पना करके आनंद मान रहा था, अब कल्पना करके दु:खी हो रहा है। सोना जिसके घर में है, आज दिन 140 का भाव होगा तो हिसाब लगाकर अपनी हैसियत समझते हैं, और कुछ समय बाद भाव कम हो गया तो दु:खी हो गए, हाय मेरा धन कम हो गया। हालांकि कभी उसे बेचना नहीं था, सास बहू के पहिनने का गहना था, फिर भी कल्पना में धनी और निर्धनता की बात आ जाने से हर्ष और विषाद मानने लगते हैं।
अज्ञानी की उन्मत्त दशा―पागल जैसी दशा इस अज्ञान अवस्था में हो जाती है। जैसे कोई नदी के निकट पागल बैठा हो, वहां से बहुत से मुसाफिर गुजर रहे हों, सो किसी को नहाना या पानी पीना था, मोटर में आए, खड़ी कर दिया, पानी पीने चल गए। पागल मानता है कि यह मेरी मोटर आ गयी। वे तो पानी पीने के बाद मोटर में बैठकर चले जायेंगे। अब पागल सिर धुनता है कि हाय मेरी मोटर चली गयी। इसी तरह यह है पृथ्वीकाय चीज रुपया पैसा, लेकिन अब तो वनस्पतिकाय के भी रूपया पैसा होने लगा है। कागज के रूपये बनते हैं। तो ये पृथ्वीकाय और वनस्पतिकाय ये दाम पैसा अपन सदा रखते हैं और कदाचित् जीवों के उदयानुसार यह रूपया पैसा आता रहता है । आया और गया। अब यह रूपया पैसा जब आता है तब यह जीव अपने को मानता है कि मैं बड़ा हो गया हूँ और जब चला जाता है सब कुछ तो अपने को मानता है कि मैं हल्का हो गया हूँ । यह मान्यता है। यह पता नहीं है कि उसका विकल्प करने से क्या होता है? उदय अनुकूल है तो न जाने कहां-कहां से यह लक्ष्मी आ जाती है, और उदय प्रतिकूल है तो किस किस उपाय से नष्ट हो जाती है।
दौलत―इस लक्ष्मी का नाम दौलत है। बोलते हैं ना उर्दू में। दो का अर्थ है दो, लत का अर्थ है लात अथवा पैर। तो लक्ष्मी के दो लात हैं। सो जब वह आती है तब यह पुरूष की छाती पर लात मारकर आती है। तो पुरूष के छाती लगने से छाती टेढ़ी हो जाती है। तो जब धन आता है तो अभिमान के मारे छाती पसार कर दृष्टि ऊंची करके यह जीव चलता है और जब यह लक्ष्मी जाती है तो पीठ पर लात मारकर जाती है जिससे कि कमर झुक जाती है, दुर्बल गरीब सा लगने लगता है। ऐसा इस दौलत का प्रयोजन है। पर धीर, गंभीर पुरूष ऐसा है जो लक्ष्मी आए तो हर्ष न माने, लक्ष्मी जाय तो हर्ष न माने।
लक्ष्मी शब्द का मर्म―भला देखो तो भैया ! इस खोटे काल का प्रभाव कि लक्ष्मी नाम तो है ज्ञानलक्ष्मी का, और कोई दूसरी चीज नहीं है। कोई समुद्र में बैठा हो, दोनों तरफ हाथी खड़े हों, माला लिए हुए या कलसा डाल रहे हों, ऐसी लक्ष्मी कहीं नहीं है। आप अरबपतियों से पूछ लो कि कहीं लक्ष्मी देखी है ? लक्ष्मी नाम है ज्ञानलक्ष्मी का। लक्ष्मी शब्द का अर्थ है लक्ष्म, लक्ष, लक्षण। ये तीनों एकार्थक शब्द हैं। आत्मा लक्षण आत्मा का लक्ष्य, आत्मा की लक्ष्मी ज्ञान है। ज्ञान का नाम लक्षण है। लक्षण लक्ष्मी है, लक्ष्य है और ज्ञानस्वरूप इस विश्व की उत्कृष्टता उपादेय है। सो सारभूत होने से दुनिया की निगाह पूर्व समय में एक ज्ञानलक्ष्मी की ओर लगी रहती थी।
बालकों का मुनिबन में अध्ययन―गुरूवों के सत्संग में विद्याध्ययन के लिये रईस लोग भी छोटे बच्चों को गुरूवों के साथ भेज देते थे। बस भिक्षा मांगो और विद्या पढ़ो । राजा लोगों के लड़के पढ़ते और भिक्षा माँगते थे। जब वे लड़के बड़े होते थे विवाह योग्य 18-20 वर्ष के तब उनको सोचने दिया जाता था कि बेटा विचार करो, तुम किस धर्म को निभा सकते हो ? तुम्हारे पालने के लिए दो धर्म हैं- गृहस्थधर्म और मुनिधर्म। यदि तुम मुनिधर्म पाल सकते हो तो तुम्हें इतने दिन रहकर अंदाज हो गया होगा, उम्र भी इस योग्य हो गयी है। तुम विचार कर सकते हो, मुनिधर्म पाल सकते हो तो मुनि हो जावो पर केवल भेष मात्र से मुनि नहीं कहलाता, किंतु भीतर से अनादि अनंत ज्ञानस्वभाव को पकड़े रहें ऐसी निरंतर जहां वृत्ति होती है उसे मुनिधर्म कहते हैं। तुम्हारे अंदर में यदि ज्ञान पुरूषार्थ चल सकता है तो मुनि होओ और गृहस्थ धर्म निभा सकते हो तो गृहस्थधर्म निभावो । उनमें से कोई बालक गृहस्थधर्म निभाता था, कोई मुनिधर्म।
शिक्षित बालक का गृह प्रवेश―उस समय की बात है जब माता पिता के कहने से गृहस्थधर्म में प्रवेश की बात तय हो जाती है तो माता पिता जंगल से अपने बालक को ले आते हैं। अब तो उसकी शादी करना है ना। 15,16 वर्ष जंगल में रहने से उसका शरीर मलिन हो गया, बालक बड़े हो गए। कोई अँग्रेज़ी कटिंग तो वहां हो न सकती थी। तो अब सब स्त्रियां मिल कर उसका दस्तूर करती हैं, बाल बनवाती हैं और उबटना करती है, तेल लगाती हैं, जिसका रिवाज आज तक चल रहा है। दुल्हा के उबटन लगता है। अरे रोज-रोज शरीर को साबुन से तो धोते हैं फिर क्या उबटना करने का ढोंग करते हो ? पर वह तो रिवाज है। वहीं रिवाज प्राचीन समय से चला आ रहा है। जंगल में रहकर गुरूवों से विद्याध्ययन करते थे और भीख मांगकर अपना उदर भरते थे। राजा के लड़के, करोड़पतियों के लड़के, उन लड़कों का उबटना और तेल होना सही था। पर वह रिवाज आज तक चल रहा है, और वह रिवाज यह स्मरण दिलाता है।
विशुद्ध आत्मतत्व की दृष्टि की प्रेरणा―भाई प्रकरण की बात यह है कि इस मनुष्य जन्म का सदुपयोग यह है कि अपने आपको ज्ञान से भर लेना और ज्ञानमात्र निहार कर संतुष्ट और शांत रखना। कर्मों का काटना, संसार से छूटने का उपाय बना लेना, यह है मनुष्यजन्म की सफलता का काम। इसलिए विषयकषायों में मोह ममता में ही यह समय मत गुजारो। सर्वविशुद्ध आत्मतत्व की आराधना करो। यह समयसार का सर्वविशुद्ध अधिकार है जो प्रवचनों में चलेगा। तैयारी के साथ उसे सुनेंगे तो कुछ दिनों में ही यह सरल हो जायेगा।