वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 312
From जैनकोष
चेदादु पयडीअट्ठं उप्पज्जइ विणस्सइ।
पयडी वि चेययट्ठं उप्पज्जइ विणस्सइ।।312।।
एवं बंधोउ दोण्हं पि अण्णोण्णप्पच्चया हवे।
अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे।।313।।
संसार होने का कारण―आत्मा प्रकृति के अर्थ उत्पन्न होता है और विनष्ट होता है। यहां उत्पन्न होने और विनष्ट होने का अर्थ है पर्यायविभावों में बदलते रहना। आत्मा विभाव किसलिए करता है ? आचार्य ने यहां यह उत्प्रेक्षा की है कि विभावों के प्रयोजन के लिए प्रकृति उत्पन्न होती है, प्रकृति के प्रयोजन में आत्मा विभावरूप परिणमता है अर्थात् आत्मा के विभावों का निमित्त पाकर कर्मों में कर्मत्व अवस्था आती है। इस ही का दूसरा अर्थ यह है कि प्रकृति का निमित्त पाकर आत्मा अपने में विभाव परिणमन करता है। इसी तरह प्रकृति भी, कर्म भी क्यों बनते हैं? वे आत्मा में विभाव उत्पन्न करने के लिए बनते हैं, ऐसी आचार्यदेव की उत्प्रेक्षा है। इसी प्रकार आत्मा और प्रकृति में परस्पर में निमित्तनैमित्तिक भाव है और इसी कारण यह संसार उत्पन्न होता है।
शुद्ध वर्णन के पश्चात जिज्ञासा का समाधान―इससे पहिले सर्वविशुद्ध ज्ञान स्वरूप बताया जा रहा था यह आत्मा विशुद्ध केवल ज्ञानानंद ज्योति स्वरूप है। वह कर्ता भोक्ता बंध मोक्ष सर्व विकल्पों से परे है, ऐसा उत्कृष्ट वर्णन करने के बाद श्रोता को यह प्रश्न उत्पन्न हो जाता है, तो फिर यहां जो कुछ दिखता है संसार यह क्या है अन्य लोग तो इसको स्वतंत्र मायारूप मानते हैं, किंतु स्याद्वाद की पद्धति में कहा जा रहा है कि इस आत्मा में और कर्म में परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव है और इसी कारण यह संसार उत्पन्न हुआ।
दृष्टियों का कार्य―दृष्टियों का काम अपने विषय को देखना हे। वे दूसरे की विषयों का निषेध नहीं करते। जैसे आँख का काम―जिस और निगाह दें उस और दिखा देने का काम है। पीछे की चीज को मना करने का काम आँख का नहीं है। इसी तरह नयों का काम अपने विषय को देखने का है। दूसरी नय के विषय को मना करने का काम नहीं है। जब सर्वविशुद्ध ज्ञान का स्वरूप देखा जा रहा हे तब केवल एक सहज ज्ञायकस्वरूप ही दृष्टि में लिया जा रहा है। उस दृष्टि में बंध, मोक्ष, कर्ता, भोक्ता की कल्पना नहीं है। पर ज्यों ही दूसरी आंखों से देखने को चले तो फिर यह संसार इतने मनुष्य, इतने पशु, इतने तिर्यंचये सब कहां से आए यह जिज्ञासा होना प्राकृतिक है। पदार्थ तो प्रत्येक विशुद्ध हैं, केवल अपने सहज स्वरूप हैं। फिर यह सब कहां से पैदायस हो गयी ? तो उत्तर देना ही पड़ेगा।
शुद्ध द्रव्य में अशुद्धपरिणति की जिज्ञासा का समाधान―यद्यपि प्रत्येक पदार्थ अपने सहजस्वरूप मात्र है फिर भी जीव और पुद्गल इन दोनों में वैभाविक शक्ति पायी जाती हे सो दोनों परस्पर एक दूसरे का निमित्त पाकर विभावरूप हो जाते हैं। यह दृश्यमान सर्व कुछ स्वतंत्र माया नहीं है किंतु आधारभूत परमार्थ द्रव्य की अवस्था विशेष है, सो जब तक यह जीव पदार्थ को नीयत-नीयत स्वलक्षण को नहीं जानता है शरीर क्या है, मैं क्या हूँ , इन दोनों के नीयत लक्षणों को नहीं पहिचानता है तब तक शरीर में और आत्मा में एकत्व का अध्यवसान करेगा ही। पता ही नहीं है उसे भिन्न-भिन्न स्वरूप का और जब एकत्व का अध्यवसान करेगा तो सारे ऐब सारी गालियां उसमें आने लगेंगी।
अध्यवसान और आत्मशक्ति का दुरूपयोग―अध्यवसान कहते हैं अधिक निश्चय करने को। भगवान से भी ज्यादा निश्चय करने का नाम अध्यवसान है। अब समझ लो संसारी जीव भगवान से आगे बढ़ चढ़कर बनने में होड़ मचा रहा है। भगवान नहीं जानता है कि यह इनका घर है पर ये हम आप डटकर जान रहे है यह मेरा मकान है, यह उनका मकान है। तो भगवान से भी बढ़कर आप लोग निश्चय करते जा रहे हैं। इसे कहते है अध्यवसान । भगवान झूठ को नहीं जाना करता मगर संसारी जीव झूठ को बहुत अच्छा परखते हैं और सांच की ओर से आँखें बंद किए रहते हैं। किसी मामले में भगवान से बढ़कर उनसे होड़ मचाकर से संसारी जीव चल रहे हैं। ये परपदार्थों में और निज आत्मतत्व में एकत्व का निश्चय किए हुए हैं। इस कारण ये सब जाल बन रहे हैं। एक परिवार का पुरूष परिवार के दूसरे पुरूष के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर क्यों किए जा रहे हैं ? उसके लिए अपना अमूल्य मन क्यों सौंपे जा रहे हैं ? उसका कारण है कि उसे परिवार के उस मायामय पर्याय पर एकत्व की बुद्धि लगाए हैं, इस कारण उसे वही सब कुछ प्रिय दिखता हैं।
कल्पित आत्मीय की प्रियतमता―एक सेठ के यहां एक नई नौकरानी आयी। सेठानी का लड़का एक स्कूल में पढ़ता था। वह लड़का रोज अपने साथ दोपहर का खाना, कलेवा मिठाई वगैरह ले जाता था। एक दिन जल्दी-जल्दी में वह लड़का कुछ न ले जा सका। अब सेठानी ने नौकरानी से कहा जो कि उसी दिन से नौकरी पर आयी थी कि देखो फलाने स्कूल में जावो और यह मिठाई मेरे लड़के को दे आना। तो नौकरानी कहती है कि हम तो आपके लड़के को पहिचानती नहीं हैं। सेठानी को था अपने बच्चे पर बड़ा घमंड कि मेरे बच्चा जैसा सुंदर रूपवान प्यारा दुनिया में कोई है ही नहीं। सो सेठानी मुस्करा कर बोली―अरे स्कूल में चली जावो और तुम्हें जो सबसे प्यारा लगे वही मेरा लड़का है, उसको मिठाई दे आना। अच्छा साहब। मिठाई लेकर चली नौकरानी । उसी स्कूल में नौकरानी का भी लड़का पढ़ता था। मगर वह लड़का काला कुरूप, चपटी नाक, बहती नाक वाला था। नौकरानी जब पहुंची स्कूल में तो उसने सारे लड़कों को देखा, उसे सबसे प्यारा बच्चा खुद का ही लगा। उस लड़के को मिठाई लेकर वह चली आयी। शाम को जब सेठानी का लड़का घर आया तो कहा, मां आज तुमने मिठाई नहीं भेजी। सेठानी नौकरानी को बुलाती है कहती है क्यों तुझे मिठाई दी थी ना ? तुने मेरे लड़के को मिठाई नहीं दी ? तो नौकरानी कहती है कि मालकिन आपकी मिठाई हमने आपके लड़के को दे दी थी। अरे यह तो कह रहा है कि नहीं दिया। बड़ी गुस्सा हुई। तो नौकरानी कहती है कि आपने कहा था ना कि जो लड़का सबसे प्यारा लगे उसी को मिठाई दे देना। सो हमने स्कूल में तीन चार सौ लड़कों को देखा, सबसे प्यारा बच्चा हमको हमारा ही लगा, सो उसे खिला दिया।
अज्ञान का अँधेरा―तो भाई क्या खेल हो रहा है ? अपने घर के माने हुए दो चार जीवों पर कैसा अपना तन, मन, धन न्यौछावर किया जा रहा है। ये संसारी मोही प्राणी जिनसे रंच भी संबंध नहीं है, जैसे सब जीव हैं वैसे ही ये जीव हैं पर मोह का, अज्ञान का अँधेरा बहुत बड़ी विपत्ति है। इससे आत्मा को शांति नहीं प्राप्त होती है। इस अज्ञान के कारण इस आत्मा में और कर्म में परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव बढ़ा चला जा रहा है और अनेक संकटों को यह जीव झेलता है। संकट झेलना तो इसे पसंद है पर मोह छोड़ना पसंद नहीं होता। जब अज्ञान की अंधेरी छायी है, ज्ञान में प्रवेश नहीं है अपने आपका मान ही नहीं है, जैसा स्वतंत्र स्वरूप है उसकी खबर ही नहीं है तो कैसे मोह का परित्याग करे ?
मोही का शुद्ध स्वरूप में अविश्वास पर एक दृष्टांत―भैया ! मोही प्राणी को यह विश्वास ही नहीं है कि यदि समस्त परपदार्थों का विकल्प छोड़ दें, मिथ्यात्व त्याग दें तो आत्मा में स्वाधीन सहज अनुपम आनंद प्रकट होता है। ऐसा इस मोही को विश्वास ही नहीं है। जैसे किसी भिखारी ने 5-7 दिनकी बासी बफूड़ी रोटियां अपने झोले में भर रखी हैं और फिर भी तृष्णावश जगह-जगह से रोटी माँगता फिरता है। उस भिखारी को कोई सज्जन कहे कि ऐ भिखारी, तू इन बासी बफूड़ी रोटियों को फेंक दे, मैं तुझे ताज़ी पूड़ी दूंगा तो क्या भिखारी उन रोटियों को फेंक देता है ? नहीं । उसे विश्वास ही नहीं होता है। वह सोचता है कि मैं इनको फेंक दूं जो मुश्किल से कर्इ दिनों में कमाया है और न मिले पूडि़यां तो कैसे गुजारा चलेगा ? वह नहीं फेंकता है। हां वह सज्जन यदि अति दयालु हो तोपुड़ियों का टोकना आगे धर दे फिर कहे कि अब तो फेंक दो। तो शायद है कि वह उन रोटियों को फेंक देगा। तिस पर भी शायद है। क्यों कि शंका होगी कि कहीं यह फुसला न रहा हो। दिखा तो दी हैं पर शायद न दे। उसकी झोली में छोड़ दे तो शायद फेंक सकता है।
मोही का शुद्धस्वरूप में अविश्वास– इसी प्रकार जन्म–जन्म का परवस्तुवों का भिखारी कई बार की भोगी हुई, खाई हुई वस्तुवों का संचय किए हुए है। बासी बफूड़ी जूठे भोगों का यह संचय किए हुए है। इसको कुंदकुंदाचार्य अन्य आचार्य महापुरूष समझा रहे हैं कि तू इन जूठे भोगों को छोड़ दे तो तुझे अनुपम आनंद मिलेगा। पर इसे कहां से विश्वास हो। सोचता है यह मोही प्राणी कि यह तो धर्म बाल बच्चे खुश रखने के लिए किया जाता है। अपनी घर गृहस्थी सुख से रहे इसलिए किया जाता है और इसके करने की यह पद्धति है। यों धर्म करते जावो और इस इस तरह सुख भोगते जावो। यह उपदेश है संसार के सुख भोगने का कि धर्म करते जावो और सुख भोगते जावो। ऐसा मान रखा है मोही जीव ने।
अज्ञानी की धर्मविधि का एक दृष्टांत―जैसे एक गांव के पटेल को हुक्का पीने की बड़ी आदत थी । चलते-चलते हुक्का पीता जाय। सो वह घर में हुक्का पीता जाय और अपने बच्चे से चिलम भरवा ले और पीता जाय। कहता जाय―देखो बेटा हुक्का पीना बहुत खराब है, हुक्का नहीं पीना चाहिए, स्वयं गुड़गुड़ करता जाय। कहता जाय कि देखो इस हुक्के में बड़ेऐब हैं-पेट खराब हो जाय, तंबाकू के रंग के कीड़े पड़ जाए, मुंह से दुर्गंध आए, हुक्का न पीना चाहिए और गुड़गुड़ करता जाय। अब पटेल तो गुजर गया। अब वह लड़का घर में प्रमुख हो गया। सोवह भी रातदिन हुक्का पीवे। सो एक समझदार बोलता है कि तुम्हारे बापने तो दसों वर्ष तुमको समझाया था कि हुक्का न पीना चाहिए, पर तुम्हारे मन में नहीं उतरा। तुम हुक्का पी रहे हो। तो लड़का बोला कि पिताजी यह बताते थे कि हुक्का पीने की विधि यह है कि पास में लड़के को बैठाल लो और उसको कहते जावो कि हुक्का न पीना चाहिए और पीते जावो। तो यह हुक्का पीने की विधि है।
अज्ञानी की धर्मविधि―ऐसी ही संसार के सुख भोगने की यह विधि हैं कि मंदिर आते जावो, बेदी पर पैर पड़ते जावो, कुछ काम करते जावो, बैठते जावो। यह विधि है भोगों के भोगने की। ऐसा मान रखा है इस मोही जीव ने। जब तक मोह का विष दूर नहीं किया जायेगा तब तक शांति की मुद्रा भी दिखने में न आयेगी। मोह करते-करते अब तक भी तो शांति नहीं पायी। फिर भी आशा लगाए हैं कि शांति मिलेगी। वर्तमान का जीवन देख लो―हुए कुछ कृतार्थ क्या कि अब कोई काम नहीं रहा। खूब सुख भोग लिया, बेचैनी वही, क्लेश वही, आकुलता बढ़ गयी, फिर भी खेद है कि अंतर में आशा यह लगाए हैं कि आगे सुख मिलेगा। इस बात का खेद नहीं है कि आप घर में रह रहे हैं। यह कोई खेद की बात नहीं है। खेद की बात तो यह है कि आशा ऐसी लगाए हुए हैं कि आगे मुझे इस धन वैभव परिवार विषय भोग से चैन मिलेगा―यह है खेद की बात। कर्म अपना कुल बढ़ाने के लिए सदा उद्यमी रहते हैं, यह विभाव अपना कुल बढ़ाने के लिए सदा तत्पर रहता है जो कि जड़ है, अचेतन है, चिदाभास है, पर यह चेतन प्रभु अपना कुल बढ़ाने के लिए रंच उद्यम नहीं करता।
अज्ञानी के आद्य दो अपराध―यह जीव अनादि काल से ही तीन चार अपराधों में लग रहा है। पहिला तो यह अपराध है कि जो परिणमन होता है, जो पर्याय मिलती है उसको ही मानने लगता है कि यह मैं हूँ । दूसरा अपराध कि इस ही बलबूते पर यह मान्यता उठ खड़ी होती है कि ये परपदार्थ मेरे हैं। इसमें उदारता नहीं प्रकट हो पायी। चाहे पाप का उदय आए तो यह अच्छी तरह ठुक पिट जाय। पर अपने मनपर, चित्त मेंयह उदारता नहीं आ पाती कि मेरा क्या है ?जगत में यदि किसी दूसरे का उपकार होता है थोड़े से त्याग में, उदारता में तो इससे बढ़ कर हमारे लिए खुशी की बात क्या होगी ?
अज्ञानी का तृतीय अपराध―तीसरा अपराध है पर का कर्ता समझ लेना। मैं जो चाहूं सो कर सकता हूँ । पर का कर्तृत्व का भार इस पर बहुत बुरी तरह लदा हुआ है। और इसी राग में फंसे हुए प्राणी रात दिन बेजार रहते हैं। अमुक काम करने को पड़ा है। सुबह हुई तो थोड़ा मंदिर जाने का काम पड़ा है, फिर दुकान जाने का काम पड़ाहुआ है, अब अमुक काम पड़ा है। एक न एक काम रहने की धुनि इस पर सदा सवार रहती है। किसी भी क्षण यह जीव नहीं देख पाता कि मैं सर्व पदार्थों से न्यारा केवल अपने आप में अपना परिणमन करता हुआ रहा करता हूँ । मैं अपने ज्ञानानंद आदिक गुणों के परिणमन करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पाता हूँ , ऐसा यह अपने को अनुभव नहीं कर सकता।
आकिंचन्य भाव का महत्व– अकिंचन मानने में जो महत्व प्रकट होता है वह सकिंचन समझने से नहीं प्रकट होता। अकिंचनस्वरूप की सेवा से आनंद की नदियां उमड़ पड़ती हैं। जैसे कि पहाड़ पर कोई पानी का बूंद नजर नहीं आता ऐसे निर्जल पहाड़ में से नदियां फूट निकलती हैं पर समुद्र जिसमें लबालब पानी भरा हुआ हैं उसमें से एक भी नहीं निकलती। जो अपने को अपने उपयोग में अकिंचन देखे हुए है या अकिंचन जो प्रभु है उनके तो आनंद की सरिता बह निकलेगी, किंतु जो अपने को सकिंचन माने हुए हैं―मैं घर वाला हूँ , धन वाला हूँ , सुंदर स्वरूप हूँ , इज्जत पोजीशन वाला हूँ , इस प्रकार जो अपने को सकिंचन मान लेता है वह खारे समुद्र की तरह है। उसमें से आनंद की एक भी धार नहीं बह पाती और जो अपने को अकिंचन तका करता है मेरे में अन्य कुछ नहीं है, मैं केवल निज स्वरूप मात्र हूँ , शून्य हूँ , ऐसा जो अपने को अकिंचन समझते हैं उन जीवों में आनंद सरिता प्रवाह बह निकलता है। यह तो धर्म है कि अपने को सबसे न्यारा केवल ज्ञानानंदमात्र अनुभव कर लें। यह बात हो सकी तो हमने धर्म का पालन किया।
बंधमूल निमित्तत्तनैमित्तिक भाव―यह जीव अनादि काल से ही अपने अपने नीयत लक्षणों का ज्ञान न करने से परपदार्थों में और निज आत्मा में एकत्व का निश्चय करता है और इस एकत्व के निश्चय करने से कर्ता होता हुआ यह जीव प्रकृति के निमित्त अथवा प्रकृति का निमित्त पाकर अपना उत्पाद और विनाश करता है, प्रकृति भी जीव का निमित्त पाकर अपना उत्पाद और विनाश करती है। इस तरह आत्मा और प्रकृति में यद्यपि परस्पर कर्ताकर्म भाव नहीं है तो भी एक दूसरे का निमित्तनैमित्तिक भाव होने के कारण दोनों में ही बंध देखा गया है।
प्रकृतिविस्तार―प्रकृति बोलते हैं कर्मों को। कर्मों के भेदों में प्रकृतियां बतायी गयी हैं, सो प्रकृति नाम मात्र कर्म के भेदों का नहीं है, किंतु कर्म का भी नाम प्रकृति है और कर्म के भेदों का नाम भी प्रकृति है। कर्म कितने होते हैं? कर्म आठ होते है जाति अपेक्षा, और उन कर्मों के भेद कितने होते है ? भेद होते हैं 148 संक्षेप करके। किंतु होते हैं अनगिनते। जैसे ज्ञानावरण, मन:पर्यय ज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण। तो मतिज्ञानावरण में कई भेद होते है। जैसे घटज्ञानावरण, पटज्ञानावरण, मंदिर ज्ञानावरण, गृहज्ञानावरण, जितने पदार्थों के मतिज्ञान होते हैं सो उनके आवरण हों तो उतने ज्ञानावरण होते है। ये अनगिनत ज्ञानावरण हो गए। इसी तरह श्रुतज्ञानावरण, सभी ये अनगिनते होते है।दर्शनज्ञानावरण में देखो तो उनके भी इसी तरह अनगिनते भेद हैं। अवधिज्ञानावरण में जितने पदार्थों का अवधिज्ञान न हो, जिस निमित्त से वे निमित्त हैं उतने ही हैं और भी मोटे रूप से देखलो।
नाम कर्म की पर्याय 93 बतायी हैं। उनमें से किसी भी एक प्रकृति का नाम ले लो। जैसे एक शुभ नाम प्रकृति है, शुभ नाम प्रकृति के उदय का निमित्त पाकर अंग शुभ होता है तो कोई कर्म शुभ है, कोई अधिक शुभ है इस तरह से कितनी प्रकार की शुभ प्रकृतियाँ हो जाती हैं। वर्ण नामक प्रकृति है। कोई किसी वर्ण का है, कोई किसी और वर्णों के भी कितने की वर्ण हैं, तो कितने भेद हो गए ? ये कर्मों के भेद अनगिनते होते हैं। प्रकृति की अपेक्षा और अनुभाग की अपेक्षा अनंत कर्म होते है और प्रदेश की अपेक्षा अनंतकर्म होते हैं। प्रकृति और स्थिति की अपेक्षा असंख्यात कर्म होते हैं।
बंधन और अवधि– इन कर्मों का और इन जीवों का परस्पर में निमित्तनैमित्तिक भाव है, कर्ताकर्म भाव नहीं है क्योंकि प्रत्येक द्रव्य का परिणमन उसमें ही तन्मय होकर रहता है। कर्मों का जितना जो कुछ परिणमन है वह कर्मों में ही तन्मय होकर होता है। आत्मा और कर्म का पुरूष और प्रकृति नाम रखा है। जब तक पुरूष और प्रकृति में भेदविज्ञान नहीं होता है तब तक यह जीव संसारी है, कर्ता है, भोक्ता है, जन्ममरण की परंपरा बढ़ाने वाला है और जब प्रकृति और पुरूष में भेद विज्ञान हो जाता है तब यह जीव अकर्ता है, अभोक्ता है। इस ज्ञानी संतकी पद-पद में, प्रत्येक क्षण में अपने आपकी ओर उन्मुखता हुआ करती है। सो जब तक यह निमित्तनैमित्तिक भाव चलता जा रहा है तब तक इन दोनों का भी बंध देखा गया है। जीव और कर्म ये दोनों परस्पर बंध गए।
बंधन में दोनों का विपरिणमन―यहाँ ऐसा नहीं जानता है कि यहाँ केवल जीव ही बंधा है। जीव भी बंधा है और कर्म भी बंधा है। जीव अपने स्वभाव की स्वतंत्रता न पाकर रागद्वेषादिक अनेक पराधीनता के भावों में जकड़ा है और ये कर्म अपनी स्वतंत्रता खोकर जीव के साथ बंधा हुआ है और देखो जीव में तीव्र अशुभ परिणाम हो तो उदय में आने वाले कर्मों की उदीरणा हो जाती है। जीव में तीव्र शुभ और निर्मल परिणाम हो तो उदय में आने वाले कर्मों की उदीरणा हो जाती है। इस जीव के विभाव का निमित्त पाकर कर्मों में बनना बिगड़ना ऐसी पराधीनता कर्मों में भी है।
पराधीनता के विनाश का उपाय―यह पराधीनता कब मिट सकती है जबयह जीव अपने स्वरूप को संभाले कि यह मैं आकाश की तरह निर्लेप शुद्ध ज्ञायक स्वभावमय चेतन तत्व हूँ। इस मुझ आत्मा का किसी भी परस्वरूप भाव से कोई संबंध नहीं है। ऐसा भेद विज्ञान पाकर अपने को ज्ञानमात्र स्वरूप मानें तो इस जीव का बंधन रूकता है। इस आत्मा के और कर्मों के बंधन केकारण यह संसार चल रहा है और इस कारण इन दोनों में कर्ता कर्म का व्यवहार होता है। भेदविज्ञान होने पर पराधीनता का विनाश होता है।
विचित्र बंधन―देखो यहां भी कितना विचित्र बंधन है कि पर का परिणमन देखकर अपने आप में अपनी विचित्र कल्पना बनाना। ज्ञान का काम तो यह है कि पर की बातों को पर की ओर से देखना, अपनी ओर से न देखना। अपने विचारों के मुताबिक पर में परिणमन हो,इस प्रकार नहीं देखना किंतु जैसा हो रहा हो वैसा उपादान और परिणमन सर्वयोग जानकर मात्र ज्ञाता रहना, यही है ज्ञान का काम। देखो सभी जीव अपने अपने भावों के अनुसार अपनी-अपनी प्रवृत्ति में लगे हैं। जो जैसा चाहता है वह वैसा अपना वातावरण चाहता है। किंतु किसी का वातावरण में अपना अधिकार नहीं है। अपने को ही संयत करके अपने को ही केंद्रित कर समझाकर अपने आपको अपनी अनाकुलता के अनुकूल बना सकना इस पर तो अपना अधिकार है, किंतु किसी परजीव के परिणमन पर अपना कोई अधिकार नहीं है।
परतंत्रता के विनाश से दु:खविनाश―भैया ! और दु:ख है क्या इस संसार में ? पदार्थ हैं और प्रकार और हम मानते हैं और प्रकार । पदार्थ हैं विनाशीक और हमारे कब्जे में जो कुछ है उसके प्रति विश्वास बनाए रहते हैं कि यह अविनाशी है। चीजें मिटती हैं तो औरों की मिटा करती होगी, हमारी नहीं मिटती। परिवार के लोग गुजरते हैं तो औरों के गुजरा करते हैं अपने परिवार के लोगों में, ये भी मिटेंगे ऐसी कल्पना तक नहीं उठती । पदार्थ हैं सब भिन्न और अशरण किंतु जीव अपना शरण पर पदार्थों से मानता है किंतु कोई शरण न होगा, नमाता, न पिता, न भाई, न भतीजे। अरे वस्तुस्वरूप कहीं बदल दोगे ? क्या उनके गुण और पर्यायें खींचकर तुम अपने में रख सकोगे ? क्या अपने गुण और पर्याय उनमें रखसकोगे ? वस्तुस्वरूप तो नहीं बदल सकता। तब फिर कैसे कोई किसी का शरण होगा ? ऐसी स्वतंत्रता का भान जब ज्ञानी पुरूष के होता है तब उसके कर्ता कर्म का व्यवहार समाप्त हो जाता है।
प्रशंसा द्वारा अपराधी की खोज―स्कूल में लड़के नटखटी हो और कोई लड़का कोई काम बिगाड़ दे तो मास्टर यों पूछता है कि भाई यह काम बड़ी चतुरायी का किया है, कितना सुंदर बना दिया इस चीज को ? बड़ी बुद्धिमानी का काम किया है किसी ने, किसने इस काम को किया है ? तो बिगाड़ने वाला लड़का बोल देता है कि मैंने किया है। लो पकड़ा गया। कर्तृत्व बुद्धि का आशय आने से वह पकड़ा गया। अच्छा सभी भाई अपने घर से बँधें हैं, अपने परिजन से बँधें हैं, अपनी तृष्णादिक भावों से बँधें हैं, तो भला बतलावों कि ये आजादी से बँधें हैं या जबरदस्ती से बँधें हैं ? आजादी से बँधें हैं। कोई दूसरा जबरदस्ती नहीं कर रहा है। खुदही राग उठता है और खुद ही बँधते हैं।
निमित्तपना और आश्रयभूतपना―विभाव होने में निमित्तकर्मों का उदय है, बाहरी पदार्थ भावों में निमित्त नहीं होते । हमारे रागद्वेषादिक भावों में कर्म निमित्त हैं सिर्फ । ये चीजें निमित्त नहीं हैं। इसको बोलते हैं आश्रयभूत। जैसे एक गुहेरा जानवर होता है तो लोग उसके संबंध में कहते हैं कि जब यह काटता है किसी को तो तुरंत मूतता है और उसमें लोट जाता है और उसका अपने ही मूत्र में लोट जाना यह विष को बढ़ाने वाला होता है जिससे हष्ट पुरूष मर जाता है। तो क्या उस गुहेरा में कुछ ऐसा बैर भाव है कि पुरूष को काटे और तुरंत मूतकर लोट जाय ? ऐसा नहीं है, किंतु गुहेरे का मूतना इस ही भांति से हो कि वह किसी चीज को दबा कर, काटकर ही हो। किसी भी चीज को काटकर मूत्र करे। मनुष्य हो, जानवर हो या कोई लकड़ी हो।वह यों ही काटकर अपने मूत्र में लोटता है। सो ये रागद्वेष जो उत्पन्न होते हैं वे कर्मों के उदय का निमित्त पाकर होते हैं। इन बाहरी विषय भूत पदार्थों का निमित्त पाकर नहीं होते । ये निमित्त ही नहीं होते, किंतु कर्मों का निमित्त पाकर उठसकने वाले रागद्वेषादिक के मय जो हमारी पकड़ में आ गया, आड़में आ गया, ज्ञान के विषय में आ गया बस उसका उपयोग बनाकर हम रागद्वेष कर डालते हैं। इसी कारण चरणानुयोग की पद्धति से बाह्य पदार्थों का त्याग करना बताया हैं।
त्याग का प्रयोजन―बाह्य पदार्थों का त्याग करने से परिणाम शुद्ध हो ही जाए ऐसा नियम तो नहीं है, पर रागद्वेष उत्पन्न होने के आश्रयभूत है परपदार्थ। सो ऐसा यत्न करते हैं कि उस आश्रयभूत से दूर रहें तो नो कर्म न रहने सेये कर्म निष्फल हो सकते है। तो निमित्तनैमित्तिक संबंध जीव के विभावों का कर्मों केसाथ है इन बाह्य पदार्थों के साथ नहीं है। तभी तो कुछ ऐसी शंका हो जाती है। जो इस बाह्य पदार्थ को भी निमित्त मानते हैं कि देखो अमुक निमित्त मिला और फिर भी क्रिया नहीं हुई। अरे वह निमित्त है कहाँ, वह तो आश्रयभूत है। क्या कभी एकसा अटपट परिणमन देखा सुना कि क्रोध प्रकृति का उदय आ रहा हो और यह जीव मान कर रहा हो ? नहीं, तभी तो निमित्तनैमित्तिक संबंध यह है, पर निमित्तनैमित्तिक संबंध होने पर भी पदार्थों के स्वरूप पर दृष्टि दें, उनके अस्तित्व को देखें तो वहाँ कर्ता कर्म संबंध नहीं है। कर्म जीव में कुछ भी कार्य नहीं कर सकते हैं, जीव कर्म में कुछ भी कार्य नहीं कर सकते है।
स्वतंत्र परिणमन―भैया ! जीव जो करेगा सो अपना कार्य करेगा। कर्मों में जो परिणमन होगा सो उसका अपना होगा, पर इन दोनों में परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव है। जैसे मोटे रूप में अभी का दृष्टांत लो। आपने पूजा वालों को रोका तो वे और जोर से बोलने लगे और पूजा वाले जोर से बोलने लगे तो आपमें और रोषआने लगा। इस संबंध में आपका पूजकों ने कुछ नहीं किया, आप अपने में ही कल्पना बनाकर हाथ पैर पीटकर बैठ गए और पूजकों का आपने कुछ नहीं किया, वे भी अपनी शान समझकर अपनी कल्पना से अपने आप और जोर से चिल्लाने लगे। हम आप अपने परिणमन से अपनी चेष्टा करने लगे, वे अपने परिणमन से अपनी चेष्टा करने लगे। ऐसा ही सब जगह हो रहा है, घर में भी ऐसा ही होता है। एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का कुछ भी परिणमन कर सकने में समर्थ नहीं है। पर निमित्तनैमित्तिक भावका खंडन भी नहीं किया जा सकता। न हो निमित्तनैमित्तिक भाव तो बतलावो यह सारा संसार कहाँ से आ गया ? कैसे हो गया ?
अपनी दृष्टि– भैया ! हैं ये सब पर अपना कर्तव्य तो यह है कि ऐसी दृष्टि बनावो जिस दृष्टि के प्रताप से संसार केये सब संकट टल जाए। वह दृष्टि क्या है ? निमित्त की दृष्टि बनने से संकट नहींटलते। हैं वे निमित्त, पर उनकी दृष्टि से संकट दूर नहीं होते। संकट दूर होंगे तो एक अद्वैत शुद्ध निज ज्ञायक स्वभाव की उपासना से संकट दूर होंगे। धर्म के पदों में चतुर्थगुणस्थान से लेकर जहाँ तक बुद्धिपूर्वक यत्न है, अथवा जहाँ अबुद्धि पूर्वक भी यत्न हैं, मोक्ष मार्ग के लिए वहाँ केवल एक ह काम हो रहा है। वह क्या काम ? अपने सहजस्वरूप का आलंबन। जहाँ जानन हो पाता है वहाँ हमारे धर्म का पालन है। पूजा करते हुए में जितनी दृष्टि अपने शुद्ध स्वभाव की रूचि लेकर अपने आप में मग्न होने के लिए चलती है उतना तो धर्मपालन है और जितना यहां वहां के बाहरी लोगों को देख कर पूजा में उत्साह और चिल्लाहट बढ़ती है वह तो धर्म का पालन नहीं हैं।
अज्ञानी की भक्ति―भगवान की मुद्रा को देखकर यदि शांति रस की और मचलते हैं वह तो है भगवान की पूजा और चार आदमियों को दिखाकर यदि हम कुछ लय के साथ जोर से पूजा पढ़ने लगते हैं तो वह है चार आदमियों की पूजा। जिसका जहाँ लक्ष्य है उसकी वही तो पूजा कहलाती है। यह शांति का परिणामी भगवान के गुणों से प्रेम कर रहा है। तो यह राग और चिल्लाहट से अधिक बोलने वाले केउन चार व्यक्तियों के गुणों पर आसक्ति है, ये लोग जान जायेंगे कि ये बड़े भक्त हैं तो हम कृतकृत्य हो जायेंगे, उसके मन में यह परिणाम है। और इस शांति रस के प्रेमी के ह्रदय में यह परिणाम है कि प्रभु जैसी शांति छवि निष्कषाय परिणाम निज आनंदरस में मग्नता यदि मुझमें आ सके तो मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा।
राग का विपाक―यह जीव स्वभाव से यद्यपि अकर्ता है। जीवका स्वत: परिणमन ज्ञाता दृष्टा रहने का है। तो भी अनादि काल से अज्ञान भाव के कारण पर में और आत्मा में एकत्व बुद्धि होने से लो यह भी मिट रहा और ये भी मिट रहे हैं। पुरूष और स्त्री में परस्पर में राग होता है तो लो पुरूष भी बरबाद हो रहा है और स्त्री का भी आत्मा बरबाद हो रहा है ? भाई भाई में यदि यह सांसारिक राग बढ़ रहा है तो वहाँ यह भी बरबाद हो रहा है और वह भी बरबाद हो रहा है। राम भगवान और लक्ष्मण नारायण इन दोनों में कितनी प्रीति थी ? भाई-भाई की प्रीति का इतना जबरदस्त उदाहरण राम और लक्ष्मण का ही है। इतना स्नेह करके राम ने कौनसा आराम लूटा और लक्ष्मण ने कौनसा आराम लूटा ? लक्ष्मण का राम से स्नेह हो ने के कारण हार्ट फैल हो गया था और राम को लक्ष्मण से स्नेह करने के कारण कुछ कम 6 माह तक विभ्रम में रहना पड़ा था तो परस्पर स्नेह करने से क्या आराम लूट लिया यही हालत सबकी है। राग के फल में केवल क्लेश ही हाथ आयेंगे, आनंद हाथ न आयेगा।
आत्मा की प्रभुता―आत्मा की प्रभुता स्वच्छ ज्ञाता दृष्टा रहने में है। परंतु अज्ञानी जीव अपनी सहज प्रभुता को भूलकर विकल्प करने में व भोगने और पर के अधिकारी मानने में अपनी प्रभुता समझने लगे। ये कर्ता भोक्ता के विकल्प प्रभुता की हीनता करने वाले हैं। लेकिन मोह का अज्ञान जो छाया है इस कारण इस जीव को इन ही दुष्कल्पनावों में अपनी बुद्धिमानी मालूम होती है। आचार्यदेव कहते है कि उसे मैं करुंगा, मैं करता हूँ, ये सब विकल्प, ये सब बातें निंदा की हैं। प्रशंसा की नहीं हैं, जब कि लोग इसही पर झुकते हैं कि यह बात प्रसिद्ध हो कि मैंने किया। जब कि जैन सिद्धांत और वीर का संदेश अध्यात्मयोग में यह है कि अपने को अकर्ता मानो। जब कि अपराधी मोही जन जगत के मायामय पुरूषों को जन्म मरण के दु:ख भोगने वाले जीवों को अपना कर्तापन जताने का बड़प्पन समझते हैं। आत्मा की प्रभुता है समस्त विश्व ज्ञान में आता रहे, ज्ञान का पुंज रहे, उपयोग से ऐसा ही वह ध्रुव अविचल सामान्य ज्ञानस्वरूप अनुभव में आता रहे कि यह उपयोग इसके ज्ञेय ज्ञानस्वरूप में मग्न हो जाय, ऐसा जो समतारस का और अनुपम आनंदका अनुभव है, यही है आत्मा की प्रभुता।
अंत:स्पर्श के लिये प्रेरणा―भैया ! जब तक यह जीव शुद्ध आत्मा के सम्वेदन से च्युत रहता है और प्रकृति के नृत्य के लिए प्रकृति के निमित्त को पाकर यह रागादिक भावों को करता है, तब तक यह बँधता है, दु:ख भोगता है, स्वरूप को नहीं अनुभवता है। दु:ख से दूर होना हो तो अपने स्वरूप का आदर करें और औपाधिक जो विकल्प हठ कषाय विषय इच्छा जो कुछ अनर्थ भाव हो रहे हैं, इनसे विश्राम लेकर कुछ अपने अंतर में उतरे। क्या यह जीवन केवल विषय कषायों के लिए है। किसके जीवन में ऐसे दो चार अवसर नहीं आए कि उसही समय इस देह को छोड़ जाते। यह गर्भ में भी मर सकता था, जन्मते समय में भी मर सकता था, अब बड़ी उम्र में भी पानी में अग्नि में दंगों में अनेक ऐसे प्रसंग आए होंगे जिसमें आयु समाप्ति की संभावना थी। यदि तभी गुजर गए होते और गुजरकरकिसी परभव में जन्म ले लिया होता तो यहां के मकान वैभव, यहाँ के समुदाय फिर अपने लिए कुछ होते क्या ? यदि आयु संयोगवश अब भी जीते बचे हुए हैं तो कर्तव्य है कि जितना जल्दी हो सके आत्मज्ञान करें। जब तक यथार्थ ज्ञान नहीं होता तब तक यह जीव अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि है और असंयमी है। इस हीतत्त्व को कुंदकुंददेव अब दो छंदो में कह रहे हैं।