वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 321
From जैनकोष
लोयस्स कुणदि विण्हू सुरणारयतिरियमाणुसे सत्ते।
समणाणं पि य अप्पा जदि कुव्वदि छव्विहे काऐ।।321।।
लौकिक व आत्मकर्तृत्ववादी श्रमण, इन दोनों के आत्महित के अलाभ में समानता―लोक के मध्य में कोई एक विष्णु व्यापक देव, नारकी, तिर्यंच मनुष्य जीवों को उत्पन्न किया करता है और यहां इन श्रमणों के मन में भी यदि यह बात आ जाय कि यह आत्मा 6 प्रकार के कायों को रचता है―पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रस काय। इन को आत्मा ही किया करता है। तो आप देखेंगे कि स्वरूप की पकड़ दोनों ने नहीं की। लोक में एक भगवान को कर्ता मानने की प्रसिद्धि क्यों हो गई? कुछ भी थोड़ी बात होती है तो वह बात बढ़कर बड़ी बनती है। कोई रंच मात्र भी उसमें मर्म न हो, बात न हो और फिर फैल जाय, ऐसा तो नहीं होता है। उसके प्रारंभ में जहां से बिगड़ना था उसका आशय बिगड़ गया वहां मूल में कुछ बात हैं, तब लोक में यह प्रसिद्धि हुई कि भगवान समस्त जगत का कर्ता है। वह क्या है सो बतावेंगे।
बात के बतंगड़ा होने में एक दृष्टांत―एक सेठ के यहां प्रीतिभोज हुआ। सेठ ने सोचा कि ये लोग हमारी ही पातल में खायेंगे और उसी में छेद करेंगे। क्योंकि दाँत खुजलाने पड़ते हैं। पातल में सींक लगी होती है। यदि बजाय पातल के हम लोगों को कटोरा मिलता तो सींक का झंझट न रहता। कोई कहता नीम की सींक ले आवो, कोई कहता लकड़ी की सींक ले आवो लेकिन कैसे मिले उसमें सचित्त का दोष है। तो पातल से सींक निकालकर छेद कर डालना यह तो अच्छा नहीं है ना। उसी पातल में खाये और उसी में छेद करदे तो एक आदमी से तीन-तीन अंगुल की सींक भी परसवा दी। अरे जहां पेड़ा मिठाई सब परस रहे हैं तो एक छोटा सा टोकना सींकों का भर दिया, एक आदमी एक-एक आदमी को तीन अंगुल की सींक भी परोसता जाय। सो खाने के बाद किसी ने पातल में छेद नहीं किया क्योंकि सींक सभी को मिल गयी ना। सेठजी गुजर गए। 7-8 वर्ष बाद उनके लड़कों ने पंगत करी तो लड़के सोचते हैं कि ऐसी पंगत करें कि बाप का हम नाम ऊँचा उठा दें। उसने 3 मिठाई बनवाई थी तो अपन 7 बनवायेंगे। और उसने इतने लोगों को निमंत्रण दिया था, अपन इतने आदमियों को निमंत्रण करेंगे। और एक भैया ने कहा कि उसने एक-एक पतली लठिया भी परोसी थी (सींक) अरे तो अपन उससे तिगुनी बड़ी परोसेंगे। बजाय तीन अंगुल के 12 अंगुल का जितना कि बच्चों के लिखने का वर्तना होता है उतनी बड़ी डंडियां परोसी गयी। लड़के भी जब गुजर गए तो लड़कों के लड़कों ने पंगत करी। हम अपने बाप का नाम खूब रोशन करेंगे। तो उसने 7 मिठाई बनवायी थीं अपन 11 बनवायेंगे। उसने एक वेथा की डंडी परोसी थी अपन सवा हाथ के बहुत से डंडे बनवाये। जब सब कुछ परोसा गया तो पीछे से सवा सवा हाथ का डंडा भी परोसा गया। तो भाई यह सवा हाथ का डंडा परोसने की नौबत कहां से आ गयी ? कुछ तो मूल में बात होगी। मूल में बात थी वही कि लोग पातल में छेद न कर दें। उस उद्देश्य को तो भूल गए और डंडे परोसने लगे। भगवान की मर्जी बिना पत्ता भी नहीं हिलता। सो भाई तुम्हारी बात तो है सच, पर कहां सच है उसको कहना चाहिए? ये सब कारण परमात्मा जो अनादि से मर्जी वाले बने हुए हैं, यदि इनकी मर्जी न होती तो यह क्या एक भी पर्याय मिलती यहां विभाव की, क्या कुछ भी परिस्पंद होता ? क्या रंच भी संबंध बनता ? तब मर्जी बिना कुछ हिला तो नहीं। मर्जी खत्म कर दे, सारी बात शांत हो जायेगी। एक बात। फिर दूसरी क्या चली कि भगवान के ज्ञान को भी लोग मर्जी के रूप में देखने लगे। सो यह तो बात सत्य है कि भगवान के ज्ञान में आए बिना कुछ होता नहीं है, जो ज्ञात है सो होता है। यद्यपि जो होना है सोई ज्ञात है, पर इसको किसी भी किनारे बैठकर कह लो। समस्त ज्ञानियों ने मर्जी से इसका संबंध जोड़ा है क्योंकि इसका ज्ञान भी तो मर्जी बिना अलग पाया हुआ नहीं है। सो जो भगवान सर्वज्ञदेव द्वारा ज्ञात है वहीं होता है। इस रहस्य को इन शब्दों में जान लिया गया कि भगवान की मर्जी बिना कुछ नहीं होता है।
कठिन बात न करने में कुलपरंपरा का बहाना―भैया ! यद्यपि परउपाधि का निमित्त पाकर इस जीव में नानाविध परिणमन हो रहे है, परिणतियां हो रही हैं और अनेकों द्रव्य पर्यायों में ये शरीर रचे जा रहे हैं तिस पर भी जो स्वभाव मात्र आत्मा तकते हैं उनकी दृष्टि में यह आत्मा अकर्ता है। कितनी ही किंबदंतियां गढ़ी जानी पड़ती हैं पर द्रव्य को परद्रव्य का कर्ता मानने पर। कोई तो यों कह बैठते हैं कि कोई बुढ़िया थी सो वह गुजर गयी। उसके जीव को यमराज ने भगवान के सामने पेश किया। तो भगवान ने अपनी खतौनी निकाली, उसमें देखा कि उसके मरने का टाइम था ना, तो जो खतौनी देखी, रोकड़ देखी तो वहां इसके मरने का टाइम न था। इस नाम की एक गाँव में और एक बुढ़िया है। तो कहा कि जावो जावो इस जीव को उसी शरीर में ले जावो और दूसरे जीव को ले आवो। वह बुढ़िया जिंदा हो गयी। सो कहानी सुनने में दिल तो खूब लग रहा होगा। तो ऐसी किंबदंतियां जैसी चाहे गढ़नी पड़ती हैं। विज्ञान द्वारा सिद्ध बात को सीधा मानने में कष्ट हो रहा है। और जो विज्ञान से न उतरें, युक्ति पर न उतरे किंतु अपने बावा के कहे आए कुल परंपरा से होता आया उसे मान लेता। सो यह मोही नाना कल्पनावों को तो कर लेता है पर सीधा मानने का उत्साह नहीं जगाता।
निर्धनता रखने में कुलपरंपरा की अनिच्छा―कोई कुल परंपरा से खोंचा ही लगता है, गरीबी ही बनी है, वह तो नहीं विचारता कि धनी मत बनो, देखो अपने बाप दादा कुल परंपरा गरीबी की बनाते चले आए हैं, खोंचा ही फेरते आए हैं, सो धनी मत बनो, ऐसा तो कोई नहीं सोचता। वहाँ तो कुल परंपरा को खत्म करना चाहते हैं। एक गरीबी की कुल परंपरा अच्छी नहीं है। पर यहां असत् श्रद्धा की परंपरा है। इसको ही समाप्त नहीं करना चाहते हैं। हम प्रभु के दर्शन करने आते हैं तो उतने ही काल हम अपना ज्ञानानंदस्वरूप तक सकें, अकिंचन तक सकें, कुछ हमें न चाहिए, ऐसा अपने को बना सके तो हम मोक्षमार्ग के प्रकाश से लाभ लूट सकते हैं, किंतु कितना अँधेरा छाया है ? जहां नदी का बड़ा तीव्र वेग है कितना ही बाँध बाँधे, एक जगह बाँधे दूसरी जगह से उखड़ जाता है। जब मोह का वेग मोही पुरूषों में चल रहा है तो वह चाहे पुण्योदय से ऐसे भी धर्म और कुल में उत्पन्न हुआ हो जहां मोक्ष मार्ग की अनेकों ही प्रवृत्तियों की परंपरा हो तो मोह के वेग के कारण वहां भी गैल निकाल लिया जाता है और ऐसी प्रसिद्धि की ली जाती है कि अपनी इच्छा की पूर्ति वहां समझते हैं। इस लोक के मध्य में जैसे एक कोई विष्णु ईश्वर भगवान प्रभु समस्त देव, नारक, तिर्यंच मनुष्यों का कर्ता है तो इस श्रमण ने भी अपने आत्मा को सुर, नारकादिक का कर्ता मान लिया है। ऐसी स्थिति होने पर उन दोनों का क्या हाल होता हैं? इस बात को इस गाथा में कह रहे हैं।