वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 322
From जैनकोष
लोयसमणाणमेयं सिद्धंतं जइ ण दीसदि विसेसो।
लोयस्स कुणइ विण्हू समणाणवि अप्पओ कुणदि।।322।।
इस प्रकार इन लौकिक पुरूषों में और इन श्रमणों में सिद्धांत का कोई अंतर नहीं दीखता है। लौकिक जनों ने यदि प्रभु को कर्ता माना तो श्रमणों न आत्मा को कर्ता माना, परंतु न तो इस विश्व को किसी अन्य एक प्रभु ने किया और न आत्मा ने ही स्वरसत: शरीरों को किया, जगत् का न प्रभु कर्ता है और न यह आत्मा कर्ता है और हो सो रहा है। किसे कर्ता बताया जाय? जब अपने मित्रों में या अपने बंधवों में बड़ा प्रेम हो और बड़ी निश्छलता हो और फिर भी किसी के द्वारा कोई ऐसा काम बन जाय कि हानि उठाना पड़े तो वहां कहते हैं भाई कसूर तो किसी का भी नहीं हैं, बानक ऐसा बन गया है।
कर्तृत्व समर्थन में कठिनाई―यहां बात तो यह है कि भाई कसूर तो आत्मा का है नहीं कुछ अर्थात् वह विपरीत आशय के स्वभाव वाला नहीं है किंतु बानक बन गया है ऐसा। दर्पण में सामने रखी हुई चीज का प्रतिबिंब पड़ता है, तो प्रतिबिंब पड़ने से स्वच्छता रूक जाती है। इस स्वच्छता के रोकने का अपराध किस पर मढ़ें ? दर्पण पर मढि़ये क्योंकि दर्पण ने ही अपनी परिणति से अपनी स्वच्छता रोक दी है। पर दर्पण के स्वभाव को देखते हैं तो फिर यह गलती पायी ही नहीं जाती है। तब किस पर मढ़़ें ?सामने आयी हुई चीज पर मढ़ें क्या ? सामने आई हुई चीज का न आशय खराब है, न वह अपने प्रदेश से बाहर अपनी गति रखता है, तो उस पर भी क्या अपराध मढ़ें। न उपाधि का अपराध, न उपादान का अपराध और बानक सो ऐसा बन गया है। इसमें यह बात आयी कि अशुद्ध परिणम सकने वाला उपादान उपाधि का निमित्त मात्र पाकर अपनी परिणति से अशुद्ध बन गया है, इस रहस्य को अनभिज्ञ लोग या तो प्रभु को इन पर्यायों का कर्ता मानते हैं या आत्मा को इन पर्यायों का कर्ता मानते हैं या कर्मों को इन पर्यायों का कर्ता मानते हैं। पर ये तीनों की तीनों बातें सत्य नहीं हैं। ये मायामय दृश्य सत्य भी हैं, असत्य भी हैं। सत्य तो यों है कि वर्तमान परिणमन है और असत्य यों हैं कि किसी एक पदार्थ में होने वाला नहीं है। जो श्रमण अपने आत्मा को इन समस्त दृश्यों का कर्ता मानते हैं उनके मत में और लौकिक जनों के मत में किसी प्रकार के सिद्धांत का अंतर नहीं आया। जब कोई अंतर नहीं आया तो इसका दुष्परिणाम क्या निकलेगा ? इस बात को इससे संबंधित तीसरी गाथा में कहते हैं।