कुंदकुंद
From जैनकोष
- दिगम्बर आम्नाय के एक प्रधान आचार्य जिनके विषय में विद्धानों ने सर्वाधिक खोज की। मूलसंघ में आपका स्थान ( देखें - इतिहास / ७ / १ )
- कुन्दकुन्द का वंश व ग्राम
जै॰/२/१०३ कौण्डकुण्डपुर गाँव के नाम पर से पद्मनन्दि ‘कुन्दकुन्द’ नाम से ख्यात हुए। पी॰वी॰देसाई कृत ‘जैनिज्म के अनुसार यह स्थान गण्टाकल रेलवे स्टेशन से चार मील दक्षिण की ओर कोनकोण्डल नामक गाँव प्रतीत होता है। यहाँ से अनेकों शिलालेख प्राप्त हुए हैं।
देखें - आगे शीर्षक नं॰ / १०–इन्द्रनन्दि श्रुतावतार के अनुसार मुनि पद्मनन्दि ने कौण्डकुण्डपुर में सिद्धान्त को जानकर ‘परिकर्म’ नामक टीका लिखी थी।
ष.प्रा./प्र.३/प्रेमीजी–द्रविड़ देशस्य ‘कोण्डकुण्ड’ नामक स्थान के रहने वाले थे और इस कारण कोण्डकुन्द नाम से प्रसिद्ध थे। नन्दिसंघ बलात्कार गण की गुर्वावली के अनुसार (दे० ‘इतिहास’) आप द्रविड़ संघ के आचार्य थे। श्री जिनचन्द्र के शिष्य तथा श्री उमास्वामी के गुरु थे। यथा–
मू.आं./प्र. ११ जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले–पद्मनन्दिगुरुर्जातो बलात्कारगणाग्रणी:। (इत्यादि देखो आगे ‘उनका श्वेताम्बरों के साथ वाद’) - अपर नाम
मूल नन्दिसंघ की पट्टावली–पट्टे तदीये मुनिमान्यवृत्तौ, जिनादिचन्द्र: समभूदतन्द्र:। ततोऽभवत् पञ्च सुनामधामा, श्री ‘पद्मनन्दि:’ मुनिचक्रवर्ती।। आचार्य ‘कुन्दकुन्दाख्यो’ ‘वक्रग्रीवो’ महामति:। ‘एलाचार्यो’ गृद्धपृच्छ पद्मनन्दि’ वितायते।=उस पट्ट पर मुनिमान्य जिनचन्द्र आचार्य हुए और उनके पश्चात् पद्मनन्दि नाम के मुनि चक्रवर्ती हुए। उनके पाँच नाम थे–कुन्दकुन्द, वक्रग्रीव, एलाचार्य गृद्धपृच्छ और पद्मनन्दि।
पं.का./ता.वृ./१ मंगलाचरण–श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवै: पद्मनन्द्याद्यपराभिधेयै:। =श्रीमत् कुन्दकुन्दाचार्यदेव जिनके कि पद्मनन्दि आदि अपर नाम भी थे।
चन्द्रगिरि शिलालेख ४५/६६ तथा महानवमी के उत्तर में एक स्तम्भ पर ‘‘श्री पद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्यचार्यशब्दोत्तरकौण्डकुन्द:। =श्री पद्मनन्दि ऐसे अनवद्य नाम वाले आचार्य जिनका नामान्तर कौण्डकुन्द था।
ष.प्रा./मो./प्रशस्ति पृ. ३७९ इति श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्यवक्रग्रीवाचार्यैलाचार्यगृद्धपिच्छाचार्यनामपञ्चकविराजितेन ....।=इस प्रकार श्री पद्मनन्दि, कुन्दकुन्दाचर्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य, गृद्धपिच्छाचार्य नामपंचक से विराजित....।
- नामों सम्बन्धी विचार
- पद्मनन्दि—नन्दिसंघ की पट्टावली में जिनचन्द्र आचार्य के पश्चात् पद्मनन्दि का नाम आता है। अत: पता चलता है कि पद्मनन्दि इनका दीक्षा का नाम था।
- कुन्दकुन्द–श्रुतावतार/१६०−१६१ गुरुपरिपाट्या ज्ञात: सिद्धान्त: कोण्डकुण्डपुरे।१६०। श्रीपद्मनन्दिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाण:। ग्रन्थपरिकर्मकर्ता षट्खण्डाद्यत्रिखण्डस्य।१६१।=गुरु परिपाटी से आये हुए सिद्धान्त को जानकर कोण्डकुण्डपुर में श्री पद्मनन्दि मुनि के द्वारा १२००० श्लोक प्रमाण ‘परिकर्म’ नाम का ग्रन्थ षट्खण्डागम के आद्य तीन खण्डों की टीका के रूप में रचा गया। इस पर से जाना जाता है तथा प्रसिद्धि भी है कि आप कोण्डकुण्डपुर के निवासी थे। इसी कारण आपको कुन्दकुन्द भी कहते थे। (ष.प्रा./प्र.३ प्रेमीजी)
- एलाचार्य–ष.प्रा./प्र.३ प्रेमजी—ई॰श॰ १ के आसपास मदुरा के कवि सम्मेलन में पेश करने के लिए रचित तमिलवेद या ‘थिरुक्कुरल’ के रचयिता ऐलाचार्य को श्री एम॰ए॰ रामास्वामी आयंगर कुन्दकुन्द का अपर नाम मानते हैं। (मू.आ./प्र.९ जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले) पं. कैलाशचन्द्रजी के अनुसार यह नाम धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी के गुरु का था जिनके पास उन्होंने सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन किया था। इन्द्रनन्दि श्रुतावतार तथा धवला की प्रशस्ति से इस बात की पुष्टि होती है। वीरसेन स्वामी क्योंकि कुन्दकुन्द के बहुत पीछे हुए हैं इसलिए यह नाम इनका नहीं हो सकता। (जै॰सा॰/२/१०१) पं.जुगलकिशोर मुख्तार भी इसे कुन्दकुन्द का नामान्तर स्वीकार नहीं करते। (जै॰सा॰/२/११६)।
- गृद्धपृच्छ–(मू.आ./प्र.१०) जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले) गृद्धपृच्छ नाम का हेतु ऐसा है कि विदेह क्षेत्र से लौटते समय रास्ते में इनकी मयूर पृच्छिका गिर गयी। तब यह गीध के पिच्छ (पंख) हाथ में लेकर लौट आये। अत: गृद्धपिच्छ ऐसा भी इनका नाम हुआ। श्रवणबेलगोला से प्राप्त अनेकों शिलालेखों में यह नाम उमास्वामी के लिए आया है और उन्हें कुन्दकुन्द के अन्वय का बतलाया गया है। इनके शिष्य का नाम भी बलाकपिच्छ है। इस पर से पं. कैलाश चन्द्रजी के अनुसार यह उमास्वामी का नामान्तर है न कि कुन्दकुन्द का। (जै॰सा॰/२/१०२)
- वक्रग्रीव−इस शब्द पर से अनुमान होता है कि सम्भवत: आपकी गर्दन टेढ़ी हो और इसी कारण से आपका नाम वकग्रीव पड़ गया हो। परन्तु पं॰ कैलाशचन्दजी के अनुसार क्योंकि ई॰ ११३७ और ११५८ के शिलालेखों में यह नाम अकलंकदेव के पश्चात् आया है, इसलिए ये कोई एक स्वतंत्र महान् आचार्य हुए हैं, जिनका कुन्दकुन्द के साथ कोई सम्बंध नहीं (जै॰सा॰/२/१०१)।
- श्वेताम्बरों के साथ वाद
(मू.आ./प्र./११/जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले) भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य का गिरनार पर्वत पर श्वेताम्बराचार्यों के साथ बड़ा वाद हुआ था, उस समय पाषाण निर्मित सरस्वती की मूर्ति से आपने यह कहला दिया था कि दिगम्बर धर्म प्राचीन है।–यथा=‘‘पद्मनन्दिगुरुर्जातो बलात्कारगणाग्रणी:। पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती।।−गुर्वावली।। कुन्दकुन्दगणी येनोर्ज्जयन्तगिरिमस्तके। सोऽवताद्वादिता ब्राह्मी पाषाणघटिता कलौ।।’’ (आचार्य शुभचन्द्र कृत पाण्डवपुराण) =ऐसे अनेक प्रमाणों से उनकी उद्भट विद्वत्ता सिद्ध है।
नोट–यद्यपि सूत्र पाहुड़ से इस बात की पुष्टि होती है और दर्शनसार में भी दिगम्बर श्वेताम्बर भेद वि॰सं॰ १३६ में बताया गया है (देखें - श्वेताम्बर );परन्तु पं॰ कैलाशचन्द जी के अनुसार यह विवाद पद्मनन्दि नाम के किसी भट्टारक के साथ हुआ था। कुन्दकुन्द के साथ नहीं। (जै॰सा॰/२/११०,११२) - ऋद्धिधारी थे
- श्रवणबेलगोला में अनेकों शिलालेख प्राप्त हैं जिन पर आपकी चारण ऋद्धि तथा चार अंगुल पृथिवी से ऊपर चलना सिद्ध है। यथा–जैन शिलालेख संग्रह/शिलालेख नं॰ ४०/६४/तस्यान्वये भूविदिते बभूव य: पद्मनन्दिप्रथमाभिधान:। श्रीकोण्डकुन्दादिमुनीश्वरस्य सत्संयमादुद्गतचारणर्द्धि:।।६।।
४२/६६ श्री पद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्यचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्द:। द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसंजातसुचारणर्द्धि:।४। =श्री चन्द्रगुप्त मुनिराज के प्रसिद्ध वंश में पद्मनन्दि संज्ञावाले श्री कुन्दकुन्द मुनीश्वर हुए हैं। जिनको सत्संयम के प्रसाद से चारण ऋद्धि उत्पन्न हो गयी थी।४०। श्री पद्मनन्दि है अनवद्य नाम जिनका तथा कुन्दकुन्द है अपर नाम जिनका ऐसे आचार्य को चारित्र के प्रभाव से चारण ऋद्धि उत्पन्न हो गयी थी।४२।
- शिलालेख नं. ६२,६४,६६,६७,२५४,२६१ पृ. २६३−२६६ कुन्दकुन्दाचार्य वायु द्वारा गमन कर सकते थे। उपरोक्त सभी लेखों से यही घोषित होता है।
- चन्द्रगिरि शिलालेख/नं.५४/पृ.१०२ कुन्दपुष्प की प्रभा धरनेवाले, जिसकी कीर्ति के द्वारा दिशाएँ विभूषित हुई हैं, जो चारणों के चारण ऋद्धिधारी महामुनियों के सुन्दर हस्तकमल का भ्रमर था और जिस पवित्रात्मा ने भरत क्षेत्र में श्रुत की प्रतिष्ठा करी है वह विभु कुन्दकुन्द इस पृथिवी पर किससे वन्द्य नहीं है।
- जैन शिलालेख संग्रह/पृ. १९७−१९८ रजोभिरस्पष्टतमत्वमन्तर्बाह्यापि सव्यञ्जयितुं यतीश:। रज: पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरङ्गुलं स:।।=यतीश्वर श्री कुन्दकुन्ददेव रजस्थान को और भूमितल को छोड़कर चार अंगुल ऊँचे आकाश में चलते थे। उसके द्वारा मैं यों समझता हूँ कि वह अन्दर में और बाहर में रज से अत्यन्त अस्पृष्टपने को व्यक्त करता हुआ।’’
- मद्रास व मैसूर प्रान्त प्राचीन स्मारक पृ. ३१७−३१८ (६९) लेख नं.३५। आचार्य की वंशावली में–(श्री कुन्दकुन्दाचार्य भूमि से चार अंगुल ऊपर चलते थे।)
हन्ली नं.२१ ग्राम हेग्गरे में एक मन्दिर के पाषाण पर लेख–‘‘स्वस्ति श्री वर्द्धमानस्य शासने। श्री कुन्दकुन्दनामाभूत् चतुरङ्गुलचारणे।’’=श्री वर्द्धमान स्वामी के शासन में प्रसिद्ध श्री कुन्दकुन्दाचार्य भूमि से चार अंगुल ऊपर चलते थे।
ष.प्रा./मो./प्रशस्ति/पृ.३७९ नामपञ्चकविराजितेन चतुरङ्गुलाकाशगमनर्द्धिना पूर्वविदेहपुण्डरीकिणीनगरवन्दितसीमन्धरजिनेन ....।=नाम पंचक विराजित (श्री कुन्दकुन्दाचार्य) ने चतुरंगुल आकाशगमन ऋद्धि द्वारा विदेह क्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगर में स्थित श्री सीमन्धर प्रभु की वन्दना की थी।
मू.आ./प्र.१० जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले−भद्रबाहु चरित्र के अनुसार राजा चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्नों का फल कथन करते हुए भद्रबाहु आचार्य कहते हैं कि पंचम काल में चारणऋद्धि आदिक ऋद्धियाँ प्राप्त नहीं होतीं, और इसलिए भगवान् कुन्दकुन्द की चारण ऋद्धि होने के सम्बंध में शंका उत्पन्न हो सकती है। जिस का समाधान यों समझना कि चारण ऋद्धि के निषेध का वह सामान्य कथन है। पंचम काल में ऋद्धिप्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है यही उसका अर्थ समझना चाहिए। पंचम काल के प्रारम्भ में ऋद्धि का अभाव नहीं है परन्तु आगे उसका अभाव है ऐसा समझना चाहिए। यह कथन प्रायिक व अपवाद रूप है। इस सम्बंध में हमारा कोई आग्रह नहीं है।
- श्रवणबेलगोला में अनेकों शिलालेख प्राप्त हैं जिन पर आपकी चारण ऋद्धि तथा चार अंगुल पृथिवी से ऊपर चलना सिद्ध है। यथा–जैन शिलालेख संग्रह/शिलालेख नं॰ ४०/६४/तस्यान्वये भूविदिते बभूव य: पद्मनन्दिप्रथमाभिधान:। श्रीकोण्डकुन्दादिमुनीश्वरस्य सत्संयमादुद्गतचारणर्द्धि:।।६।।
- विदेहक्षेत्र गमन
- द.सा./मू./४३ जह पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण। ण विवोहेइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति।४३।=विदेहक्षेत्रस्थ श्री सीमन्धर स्वामी के समवशरण में जाकर श्री पद्मनन्दि नाथ ने जो दिव्य ज्ञान प्राप्त किया था, उसके द्वारा यदि वह बोध न देते तो, मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे जानते।
- पं.का./ता.वृ./मंगलाचरण/१ अथ श्रीकुमारनन्दिसिद्धान्तदेवशिष्यै: प्रसिद्धकथान्यायेन पूर्वविदेहं गत्वा वीतरागसर्वज्ञश्रीमंदरस्वामितीर्थकरपरमदेवं दृष्ट्वा। तन्मुखकमलविनिर्गतदिव्यवाणीश्रवणावधारितपदार्थाच्छुद्धात्मतत्त्वादिसारार्थं गृहीत्वा पुनरप्यागतै: श्रीकुण्डकुन्दाचार्यदेवै: पद्मनन्द्याद्यपराभिधेयै ....विरचिते पञ्चास्तिकायप्राभृतशास्त्रे... तात्पर्यव्याख्यानं कथ्यते।=अब श्री कुमारनन्दि सिद्धान्तदेव के शिष्य, जो कि प्रसिद्ध कथा के अनुसार पूर्व विदेह में जाकर वीतरागसर्वज्ञ तीर्थंकर परमदेव श्रीमन्दर स्वामी के दर्शन करके, उनके मुखकमल से विनिर्गत दिव्य वाणी के श्रवण द्वारा अवधारित पदार्थ से शुद्धात्म तत्त्व के सार को ग्रहण करके आये थे, तथा पद्मनन्दि आदि हैं दूसरे नाम भी जिनके ऐसे कुन्दकुन्द आचार्यदेव द्वारा विरचित पंचास्तिकाय प्राभृतशास्त्र का तात्पर्य व्याख्यान करते हैं।
- ष.प्रा./मो./प्रशस्ति/पृ.३७९ श्री पद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्य ....नामपञ्चकविराजितेन चतुरङ्गुलाकाशगमनर्द्धिना पूर्वविदेहपुण्डरीकणीनगरवंदित सीमन्धरापरनामस्वयंप्रभजिनेन तच्छ्रुतज्ञानसंबोधितभरतवर्षभव्यजीवेन श्रीजिनचन्द्रभट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षट्प्राभृतग्रन्थे ....।=श्री पद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य देव जिनके कि पाँच नाम थे, चारण ऋद्धि द्वारा पृथिवी से चार अंगुल आकाश में गमन करते पूर्व विदेह की पुण्डरीकणी नगर में गये थे। तहाँ सीमन्धर भगवान् जिनका कि अपर नाम स्वयंप्रभ भी है, उनकी वन्दना करके आये थे। वहाँ से आकर उन्होंने भारतवर्ष के भव्य जीवों को सम्बोधित किया था। वे श्री जिनचन्द्र भट्टारक के पट्ट पर आसीन हुए थे, तथा कलिकाल सर्वज्ञ के रूप में प्रसिद्ध थे। उनके द्वारा विरचित षट्प्राभृत ग्रन्थ में।
- मू.आ./प्र./१० जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले=चन्द्रगुप्त के स्वप्नों का फलादेश बताते हुए आचार्य भद्रबाहु ने (भद्रबाहु चरित्र में) कहा है कि पंचम काल में देव और विद्याधर भी नहीं आयेंगे, अत: शंका होती है कि भगवान् कुन्दकुन्द का विदेह क्षेत्र में जाना असम्भव है। इसके समाधान में भी ऋद्धि के समाधानवत् ही कहा जा सकता है।
जै.सा./१/१०८,१०९ (पं.कैलाश चन्द)−शिलालेखों में ऋद्धिप्राप्ति की चर्चा अवश्य है। परन्तु किसी में भी उनके विदेहगमन का उल्लेख नहीं है, जबकि एक शिला में ‘पूज्यपाद के लिये ऐसा लेख पाया जाता है। (देखें - पूज्यपाद )। स्वयं कुन्दकुन्द ने भी इस विषय में कोई चर्चा नहीं की है।
- द.सा./मू./४३ जह पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण। ण विवोहेइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति।४३।=विदेहक्षेत्रस्थ श्री सीमन्धर स्वामी के समवशरण में जाकर श्री पद्मनन्दि नाथ ने जो दिव्य ज्ञान प्राप्त किया था, उसके द्वारा यदि वह बोध न देते तो, मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे जानते।
- कलिकालसर्वज्ञ कहलाते थे
ष.प्रा./मो./प्रशस्ति/पृ. ३७९ श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्य ....कलिकालसर्वज्ञेन विरचितेन षट्प्राभृतग्रन्थे। =कलिकाल सर्वज्ञ श्रीपद्मनन्दि अपर नाम कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा विरचित षट्प्राभृत ग्रन्थ में।
- गुरु सम्बन्धी विचार
भा॰पा॰/६२ वारस अंगवियाणां चउदसपुव्वंगविउलवित्थरण। सुयणाणि भद्रबाहु गमयगुरु भयवओं जयऊ। =१२ अंग १४ पूर्व के ज्ञाता गमकगुरु भगवान् भद्रबाहु जयवंत वर्तो।
पं.का./टी. श्रीकुमारनन्दिसिद्धान्तदेवशिष्यै: ....श्रीकुण्डकुन्दाचार्यदेवै: .... शिवकुमारमहाराजादिसंक्षेपरुचिशिष्यप्रबोधनार्थ विरचितं पञ्चास्तिकाय: ....।।=कुमारनन्दि सिद्धान्तदेव के शिष्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव के द्वारा शिवकुमार महाराज आदि संक्षेप−रुचि वाले शिष्यों के प्रबोधनार्थ विरचित पञ्चास्तिकाय ....।
नन्दिसंघ की पट्टावली
श्रीमूलसंघेऽजनि नन्दिसंघस्तस्मिन्बलात्कारगणोऽतिरम्य:। तत्राभवत् पूर्वपदांशवेदी श्रीमाघनन्दी नरदेववन्द्य:।। पदे तदीये मुनिमान्यवृत्तौ जिनादिचन्द्र: समभूदतन्द्र:। ततोऽभवत्पञ्चसुनामधामा श्री पद्मनन्दी मुनिचक्रवर्ती।।=श्री मूलसंघ में नन्दिसंघ तथा उसमें बलात्कारगण है। उसमें पूर्वपदांशधारी श्री माघनन्दि मुनि हुए जो कि नर सुर द्वार वन्द्य हैं। उनके पद पर मुनि मान्य श्री जिनचन्द्र हुए और उनके पश्चात् पंच नामधारी मुनिचक्रवर्ती श्रीपद्मनन्दि हुए।
ष.प्रा./मो./प्रशस्ति/पृ. ३७९ श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्य... नाम पञ्चकविराजितेन... श्री जिनचन्द्रसूरिभट्टारकपट्टाभरणेन ....। श्री पद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य जिनके पाँच नाम प्रसिद्ध हैं तथा जो श्री जिनचन्द्रसूरि भट्टारक के पद पर आसीन हुए थे।
नोट–आचार्य परम्परा से आगत ज्ञान का श्रेय होने से श्रुत केवली भद्रबाहु प्र॰ को गमकगुरू कहना न्याय है। इनके साक्षात् गुरु (दीक्षा गुरु जिनचन्द्र ही थे। १०७ कुमारनन्दि के साथ भी इनका कोई सम्बंध नहीं है।१०४। (जै॰सा॰/२/पृष्ठ) (हो सकता है कि ये इनके शिक्षा गुरु रहे हों)।
- रचनाएँ
इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार/श्ल॰ न॰२–
एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगत: समागच्छन् गुरुपरिपाट्या ज्ञात: सिद्धान्त: कोण्डकुण्डपुरे।।१६०। श्रीपद्मनन्दिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाण:। ग्रन्थ परिकर्म कर्ता षट्खण्डाद्यत्रिखण्डस्य।१६१। =इस प्रकार द्रव्य व भाव दोनों प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करके गुरु परिपाटी से आये हुए सिद्धान्त को जानकर श्रीपद्मनन्दि मुनि ने कोण्डकुण्डपुर ग्राम में १२००० श्लोक प्रमाण परिकर्म नाम की षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों की व्याख्या की।
इसके अतिरिक्त ८४ पाहुड़ जिनमें से १२ उपलब्ध हैं; समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पञ्चास्तिकाय और दर्शन पाहुड़ आदि से समवेत अष्ट पाहुड़। और भी बारस अणुवेक्खा, तथा साधु जनों के नित्य क्रियाकलाप में प्रसिद्ध सिद्ध, सुद, आइरिय, जोई, णिव्वाण, पंचगुरु और तित्थयर भक्ति।
- काल विचार
संकेत—प्रमाण=जै./२/पृष्ठ;ती॰/२/१०७−१११।
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