केवलज्ञान
From जैनकोष
जीवन्मुक्त योगियों का एक निर्विकल्प अतीन्द्रिय अतिशय ज्ञान है जो बिना इच्छा व बुद्धि के प्रयोग से सर्वांग से सर्वकाल व क्षेत्र सम्बंधी सर्व पदार्थों को हस्तामलकवत् टंकोत्कीर्ण प्रत्यक्ष देखता है। इसी के कारण वह योगी सर्वज्ञ कहाते हैं। स्व व पर ग्राही होने के कारण इसमें भी ज्ञान का सामान्य लक्षण घटित होता है। यह ज्ञान का स्वाभाविक व शुद्ध परिणमन है।
- केवलज्ञान निर्देश
- केवलज्ञान का व्युत्पत्ति अर्थ।
- केवलज्ञान निरपेक्ष व असहाय है।
- केवलज्ञान में विकल्प का कथंचित् सद्भाव।–देखें - विकल्प।
- केवलज्ञान एक ही प्रकार का है।
- केवलज्ञान गुण नहीं पर्याय है।
- केवलज्ञान भी ज्ञान सामान्य का अंश है।– देखें - ज्ञान / I / ४ / १ -२
- यह मोह व ज्ञानावरणीय के क्षय से उत्पन्न होता है।
- केवलज्ञान निर्देश का मतार्थ।
- केवलज्ञान कथंचित् परिणामी है।– देखें - केवलज्ञानी / ५ / ३ ।
- केवलज्ञान में शुद्ध परिणमन होता है।–देखें - परिणमन
- यह शुद्धात्मा में ही उत्पन्न होता है।– देखें - केवलज्ञान / ५ / ६ ।
- सभी मार्गणास्थानों में आय के अनुसार ही व्यय।–देखें - मार्गणा।
- तीसरे व चौथे काल में ही होना संभव है।– देखें - मोक्ष / ४ / ३ ।
- केवलज्ञान विषयक गुणस्थान, मार्गणास्थान, व जीवसमास आदि के स्वामित्व विषयक २० प्ररूपणाएँ–देखें - सत्।
- केवलज्ञान विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व–दे० वह वह नाम।
- केवलज्ञान निसर्गज नहीं होता– देखें - अधिगम / १०
- केवलज्ञान का व्युत्पत्ति अर्थ।
- केवलज्ञान की विचित्रता
- सर्व को जानता हुआ भी व्याकुल नहीं होता।
- सर्वांग से जानता है।
- प्रतिबिम्बवत् जानता है।
- टंकोत्कीर्णवत् जानता है।
- अक्रमरूप से युगपत् एकक्षण में जानता है।
- तात्कालिकवत् जानता है।
- सर्वज्ञेयों को पृथक् पृथक् जानता है।
- सर्व को जानता हुआ भी व्याकुल नहीं होता।
- केवलज्ञान की सर्वग्राहकता
- सबकुछ जानता है।
- समस्त लोकालोक को जानता है।
- सम्पूर्ण द्रव्य क्षेत्र काल भाव को जानता है।
- सर्व द्रव्यों व उनकी पर्यायों को जानता है।
- त्रिकाली पर्यायों को जानता है।
- सद्भूत व असद्भूत सब पर्यायों को जानता है।
- अनन्त व असंख्यात को जानता है– देखें - अनन्त / २ / ४ ,५।
- प्रयोजनभूत व अप्रयोजनभूत सबको जानता है।
- इससे भी अनन्तगुणा जानने को समर्थ है।
- इसे समर्थ न माने सो अज्ञानी है।
- सबकुछ जानता है।
- केवलज्ञान ज्ञानसामान्य के बराबर है।– देखें - ज्ञान / I / ४ ।
- केवलज्ञान की सिद्धि में हेतु
- यदि सर्व को न जाने तो एक को भी नहीं जान सकता।
- यदि त्रिकाल को न जाने तो इसकी दिव्यता ही क्या।
- अपरिमित विषय ही तो इसका माहात्म्य है।
- सर्वज्ञत्व का अभाववादी क्या स्वयं सर्वज्ञ है?
- बाधक प्रमाण का अभाव होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है।
- अतिशय पूज्य होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है।
- केवलज्ञान का अंश सर्वप्रत्यक्ष होने से यह सिद्ध है।
- मति आदि ज्ञान केवलज्ञान के अंश हैं।– देखें - ज्ञान / I / ४ ।
- सूक्ष्मादि पदार्थ प्रमेय होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है।
- कर्मों व दोषों का अभाव होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है।
- यदि सर्व को न जाने तो एक को भी नहीं जान सकता।
- केवलज्ञान विषयक शंका समाधान
- केवलज्ञान असहाय कैसे है ?
- विनष्ट व अनुत्पन्न पदार्थों का ज्ञान कैसे सम्भव है ?
- अपरिणामी केवलज्ञान परिणामी पदार्थों को कैसे जान सकता है ?
- अनादि व अनन्त ज्ञानगम्य कैसे हो ? देखें - अनंत / २ ।
- केवलज्ञानी को प्रश्न सुनने की क्या आवश्यकता ?
- केवलज्ञान की प्रत्यक्षता सम्बन्धी शंकाएँ–देखें - प्रत्यक्ष।
- सर्वज्ञत्व के साथ वक्तृत्व का विरोध नहीं है।
- अर्हन्तों को ही क्यों हो, अन्य को क्यों नहीं।
- सर्वज्ञत्व जानने का प्रयोजन।
- केवलज्ञान असहाय कैसे है ?
- केवलज्ञान का स्वपरप्रकाशकपना
- निश्चय से स्व को व्यवहार से पर को जानता है।
- निश्चय से पर को न जानने का तात्पर्य उपयोग का पर के साथ तन्मय न होना है।
- आत्मा ज्ञेय के साथ नहीं, पर ज्ञेयाकार के साथ तन्मय होता है।
- आत्मा ज्ञेयरूप नहीं, पर ज्ञेयाकाररूप से अवश्य परिणमन करता है।
- ज्ञानाकार व ज्ञेयाकार का अर्थ।
- वास्तव में ज्ञेयाकारों से प्रतिबिम्बित निज आत्मा को देखते हैं।
- ज्ञेयाकार में ज्ञेय का उपचार करके ज्ञेय को जाना कहा जाता है।
- छद्मस्थ भी निश्चय से स्व को व्यवहार से पर को जानते हैं।
- केवलज्ञान के स्वपरप्रकाशकपने का समन्वय।
- ज्ञान और दर्शन स्वभावी आत्मा ही वास्तव में स्वपर प्रकाशी है।– देखें - दर्शन / २ / ६ ।
- यदि एक को नहीं जानता तो सर्व को भी नहीं जानता–देखें - श्रुतकेवली
- केवलज्ञान निर्देश
- केवलज्ञान का व्युत्पत्ति अर्थ
स.सि./१/९/१४/६ बाह्येनाभ्यन्तरेण च तपसा यदर्थमर्थिनो मार्ग केवन्ते सेवन्ते तत्केवलम्।=अर्थीजन जिसके लिए बाह्य और अभ्यन्तर तप के द्वारा मार्ग का केवन अर्थात् सेवन करते हैं वह केवलज्ञान कहलाता है। (रा.वा./१/९/६/४४-४५) (श्लो.वा./३/१/९/८/५)
- केवलज्ञान निरपेक्ष व असहाय है
स.सि./१/९/९४/७ असहायमिति वा।=केवल शब्द असहायवाची है, इसलिए असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। मो.पा./टी.६/३०८/१३ (श्लो.वा./३/१/९/८/५)
ध.६/१,९-१,१४/२९/५ केवलमसहायमिंदियालोयणिरवेक्खं तिकालगोयराणं तपज्जायसमवेदाणं तवत्थुपरिमसंकुडियमसवत्तं केवलणाणं।=केवल असहाय को कहते हैं। जो ज्ञान असहाय अर्थात् इन्द्रिय और आलोक की अपेक्षा रहित है, त्रिकालगोचर अनन्तपर्यायों से समवायसम्बन्ध को प्राप्त अनन्त वस्तुओं को जानने वाला है, असंकुटित अर्थात् सर्व व्यापक है और असपत्न अर्थात् प्रतिपक्षी रहित है उसे केवलज्ञान कहते हैं। (ध.१३/५,५,२१/२१३/४)
क.पा./१/१,१/१५/२१,२३ केवलमसहायं इन्द्रियालोकमनस्कारनिरपेक्षत्वात्। ... आत्मार्थव्यतिरिक्तसहायनिरपेक्षत्वाद्वा केवलमसहायम्। केवलं च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानम्।=असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनस्कार अर्थात् मनोव्यापार की अपेक्षा से रहित है। अथवा केवलज्ञान आत्मा और अर्थ से अतिरिक्त किसी इन्द्रियादिक सहायक की अपेक्षा से रहित है, इसलिए भी वह केवल अर्थात् असहाय है। इस प्रकार केवल अर्थात् असहाय जो ज्ञान है उसे केवलज्ञान कहते हैं।
- केवलज्ञान एक ही प्रकार का है
ध.१२/४,२,१४,५/४८०/७ केवलणाणमेयविधं, कम्मक्खएण उप्पज्जमाणत्तादो।=केवलज्ञान एक प्रकार का है, क्योंकि, वह कर्म क्षय से उत्पन्न होने वाला है।
- केवलज्ञान गुण नहीं पर्याय है
ध.६/१,९-१,१७/३४/३ पर्यायस्य केवलज्ञानस्य पर्यायाभावात: सामर्थ्यद्वयाभावात्। =केवलज्ञान स्वयं पर्याय है और पर्याय के दूसरी पर्याय होती नहीं है। इसलिए केवलज्ञान के स्व व पर की जानने वाली दो शक्तियों का अभाव है।
ध.७/२,१,४६/८८/११ ण पारिणामिएण भावेण होदि, सव्वजीवाणं केवलणाणुप्पत्तिप्पसंगादो।= प्रश्न—जीव केवलज्ञानी कैसे होता है? (सूत्र ४६)। उत्तर—पारिणामिक भाव से तो होता नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होता तो सभी जीवों के केवलज्ञान की उत्पत्ति का प्रसंग आ जाता।
- यह मोह व ज्ञानावरणीय के क्षय से उत्पन्न होता है
त.सू./१०/१ मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्।=मोह का क्षय होने से तथा ज्ञानावरण दर्शनावरण व अन्तराय कर्म का क्षय होने से केवलज्ञान प्रगट होता है।
- केवलज्ञान का मतार्थ
ध.६/१,९-९,२१६/४९०/४ केवलज्ञाने समुत्पन्नेऽपि सर्व न जानातीति कपिलो ब्रूते।
तत्र तन्निराकरणार्थं बुद्धयन्त इत्युच्यते।=कपिल का कहना है कि केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भी सब वस्तुस्वरूप का ज्ञान नहीं होता। किंतु ऐसा नहीं है, अत: इसी का निराकरण करने के लिए ‘बुद्ध होते हैं’ यह पद कहा गया है।
प.प्र./टी./१/१/७/१ मुक्तात्मनां सुप्तावस्थावद्वहिर्ज्ञेयविषये परिज्ञानं नास्तीति सांख्या वदन्ति, तन्मतानुसारि शिष्यं प्रति जगत्त्रयकालत्रयवर्तिसर्वपदार्थयुगपत्परिच्छित्तिरूपकेवलज्ञानस्थापनार्थ ज्ञानमयविशेषणं कृतमिति।=’मुक्तात्माओं के सुप्तावस्था की भाँति बाह्य ज्ञेय विषयों का परिज्ञान नहीं होता’ ऐसा सांख्य लोग कहते हैं। उनके मतानुसारी शिष्य के प्रति जगत्त्रय कालत्रयवर्ती सर्वपदार्थों को युगपत् जानने वाले केवलज्ञान के स्थापनार्थ ‘ज्ञानमय’ यह विशेषण दिया है।
- केवलज्ञान का व्युत्पत्ति अर्थ
- केवलज्ञान की विचित्रता
- सर्व को जानता हुआ भी व्याकुल नहीं होता
ध./१३/५,४,२६/८६/५ केवलिस्स विसईकयासेसदव्वपज्जायस्स सगसव्वद्धाए एगरूवस्स अणिंदियस्स।=केवली जिन अशेष द्रव्य पर्यायों को विषय करते हैं, अपने सब काल में एकरूप रहते हैं और इन्द्रियज्ञान से रहित हैं।
प्र.सा./त.प्र./३२ युगपदेव सर्वार्थसार्थसाक्षात्करणेन ज्ञप्तिपरिवर्तनाभावात् संभावितग्रहणमोक्षणक्रियाविराम: प्रथममेव समस्तपरिच्छेद्याकारपरिणतत्वात् पुन: परमाकारान्तरमपरिणममान: समन्ततोऽपि विश्वमशेषं पश्यति जानाति च एवमस्यायन्तविविक्तत्वमेव। =एक साथ ही सर्व पदार्थों के समूह का साक्षात्कार करने से, ज्ञप्ति परिवर्तन का अभाव होने से समस्त परिछेद्य आकारों रूप परिणत होने के कारण जिसके ग्रहण त्याग क्रिया का अभाव हो गया है, फिर पररूप से आकारान्तरूप से नहीं परिणमित होता हुआ सर्व प्रकार से अशेष विश्व को (मात्र) देखता जानता है। इस प्रकार उस आत्मा का (ज्ञेय पदार्थों से) भिन्नत्व ही है।
प्र.सा./त.प्र./६० केवलस्यापि परिणामद्वारेण खेदस्य संभवादैकान्तिकसुखत्वं नास्तीति प्रत्याचष्टे। (उत्थानिका)। ....यतश्च त्रिसमयावच्छिन्नसकलपदार्थपरिच्छेद्याकारवैश्वरुप्यप्रकाशनास्पदीभूतं चित्रभित्तिस्थानीयमनन्तस्वरूपं स्वमेव परिणमत्केवलमेव परिणाम:, ततो कुतोऽन्य: परिणामो यद्द्वारेण खेदस्यात्मलाभ:।=प्रश्न—केवलज्ञान को भी परिणाम (परिणमन) के द्वारा खेद का सम्भव है, इसलिए केवलज्ञान एकान्तिक सुख नहीं है? उत्तर−तीन कालरूप तीन भेद जिसमें किये जाते हैं ऐसे समस्त पदार्थों की ज्ञेयाकाररूप विविधता को प्रकाशित करने का स्थानभूत केवलज्ञान चित्रित दीवार की भाँति स्वयं ही अनन्तस्वरूप परिणमित होता है, इसलिए केवलज्ञान (स्वयं) ही परिणमन है। अन्य परिणमन कहाँ है कि जिससे खेद की उत्पत्ति हो।
नि.सा./ता.वृ./१७२ विश्वमश्रान्तं जानन्नपि पश्यन्नपि वा मन:प्रवृत्तेरभावादोहापूर्वकं वर्तनं न भवति तस्य केवलिन:।=विश्व को निरन्तर जानते हुए और देखते हुए भी केवली को मन:प्रवृत्ति का अभाव होने से इच्छा पूर्वक वर्तन नहीं होता।
स्या.म./६/४८/२ अथ युष्मत्पक्षेऽपि यदा ज्ञानात्मा सर्वं जगत्त्रयं व्याप्नोतीत्युच्यते तदाशुचिरसास्वादादीनामप्युपालम्भसंभावनात् नरकादिदु:खस्वरूपसंवेदनात्मकतया दुःखानुभवप्रसंगाच्च अनिष्टापत्तिस्तुल्यैवेति चेत्, तदेतदुपपत्तिभि: प्रतिकर्तुमशक्तस्य धूलिभिरिवावकरणम् । यतो ज्ञानमप्राप्यकारि स्वस्थानस्थमेव विषयं परिच्छिनत्ति, न पुनस्तत्रगत्वा, तत्कुतोभवदुपालम्भ: समीचीन:।=प्रश्न—ज्ञान की अपेक्षा जिनभगवान् को जगत्त्रय में व्यापी मानने से आप जैन लोगों के भगवान् को भी (शरीरव्यापी भगवान्वत्) अशुचि पदार्थों के रसास्वादन का ज्ञान होता है तथा नरक आदि दुःखों के स्वरूप का ज्ञान होने से दुःख का भी अनुभव होता है, इसलिए अनिष्टापत्ति दोनों के समान है? उत्तर−यह कहना असमर्थ होकर धूल फेंकने के समान है। क्योंकि हम ज्ञान को अप्राप्यकारी मानते हैं, अर्थात् ज्ञान आत्मा में स्थिर होकर ही पदार्थों को जानता है, ज्ञेयपदार्थों के पास जाकर नहीं। इसलिए आपका दिया हुआ दूषण ठीक नहीं है।
- केवलज्ञान सर्वांग से जानता है
ध.१/१,१,१/२७/४८ सव्वावयवेहि दिट्ठसव्वट्ठा।=जिन्होंने सर्वांग सर्व पदार्थों को जान लिया है (वे सिद्ध हैं)।
क.पा.१/१,१/४६/६५/२ ण चेगावयवेणेव चेव गेण्हदि; सयलावयवगयआवरणस्स णिम्मूलविणासे संते एगावयवेणेव गहणविरोहादो। तदो पत्तमपत्तं च अक्कमेण सयलावयवेहि जाणदि त्ति सिद्धं।=यदि कहा जाय कि केवली आत्मा के एकदेश से पदार्थों का ग्रहण करता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मा के सभी प्रदेशों में विद्यमान आवरणकर्म के निर्मूल विनाश हो जाने पर केवल उसके एक अवयव से पदार्थों का ग्रहण मानने में विरोध आता है। इसलिए प्राप्त और अप्राप्त सभी पदार्थों को युगपद् अपने सभी अवयवों से केवली जानता है, यह सिद्ध हो जाता है।
प्र.सा./त.प्र./४७ सर्वतो विशुद्धस्य प्रतिनियतदेशविशुद्धेरन्त: प्लवनात् समन्ततोऽपि प्रकाशते।=(क्षायिक ज्ञान) सर्वत: विशुद्ध होने के कारण प्रतिनियत प्रदेशों की विशुद्धि (सर्वत: विशुद्धि) के भीतर डूब जाने से वह सर्वत: (सर्वात्मप्रदेशों से भी) प्रकाशित करता है। (प्र.सा./त.प्र./२२)।
- केवलज्ञान प्रतिबिम्बवत् जानता है
प.प्र./मू./९९ जोइय अप्पें जाणिएण जगु जाणिजउ हवेइ। अप्पहँ करेइ भावडइ बिंबिउ जेण वसेइ।९९।=अपने आत्मा के जानने से यह तीन लोक जाना जाता है, क्योंकि आत्मा के भावरूप केवलज्ञान में यह लोक प्रतिबिम्बित हुआ बस रहा है।
प्र.सा./त.प्र./२०० अथैकस्य ज्ञायकभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावत्वात् …प्रतिबिम्बवत्तत्र … समस्तमपि द्रव्यजातमेकक्षण एव प्रत्यक्ष्यन्तं …।=एक ज्ञायकभाव का समस्त ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से, समस्त द्रव्यमात्र को, मानों वे द्रव्य प्रतिबिम्बवत् हुए हों, इस प्रकार एक क्षण में ही जो प्रत्यक्ष करता है।
- केवलज्ञान टंकोत्कीर्णवत् जानता है
प्र.सा./त.प्र./३८ परिच्छेदं प्रति नियतत्वात् ज्ञानप्रत्यक्षतामनुभवन्त: शिलास्तम्भोत्कीर्ण भूतभाविदेववद् प्रकम्पार्पितस्वरूपा।=ज्ञान के प्रति नियत होने से (सर्व पर्यायें) ज्ञानप्रत्यक्ष वर्तती हुई पाषाणस्तम्भ में उत्कीर्ण भूत और भावि देवों की भाँति अपने स्वरूप को अकम्पतया अर्पित करती हैं।
प्र.सा./त.प्र./२०० अथैकस्य ज्ञायकस्वभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावत्वात् प्रोत्कीर्णलिखितनिखातकीलितमज्जितसमावर्तित … समस्तमपि द्रव्यजातमेकक्षण एव प्रत्यक्ष्यन्तं…।=एक ज्ञायकभाव का समस्त ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से, समस्त द्रव्यमात्र को, मानो वे द्रव्य ज्ञायक में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों, कीलित हो गये हों, डूब गये हों, समा गये हों, इस प्रकार एक क्षण में ही जो प्रत्यक्ष करता है।
प्र.सा./त.प्र./३७ किंच चित्रपटस्थानीयत्वात् संविद:। यथा हि चित्रपट्यामतिवाहितानामनुपस्थितानां वर्तमानानां च वस्तूनामालेख्याकारा: साक्षादेकक्षण एवावभासन्ते, तथा संविद्भित्तावपि।=ज्ञान चित्रपट के समान है। जैसे चित्रपट में अतीत अनागत और वर्तमान वस्तुओं के आलेख्याकार साक्षात् एक समय में भासित होते हैं। उसी प्रकार ज्ञानरूपी भित्ति में भी भासित होते हैं।
- केवलज्ञान अक्रम रूप से जानता है
ष.खं.१३/५५/सू. ८२/३४६ …सव्वजीवे सव्वभावे सम्मं समं जाणदि पस्सदि विहरदि त्ति।८२।=(केवलज्ञान) सब जीवों और सर्व भावों को सम्यक् प्रकार से युगपत् जानते हैं, देखते हैं और विहार करते हैं। (प्र.सा./मू./४७); (यो.सा.अ./२६); (प्र.सा./त.प्र./५२/क ४); (प्र.सा./त.प्र./३२,३९) (ध.९/४,१,४५/५०/१४२)
भ.आ./मू./२१४२ भावे सगविसयत्थे सूरो जुगवं जहा पयासेइ। सव्वं वि तहा जुगवं केवलणाणं पयासेदि।२१४२।=जैसे सूर्य अपने प्रकाश में जितने पदार्थ समाविष्ट होते हैं उन सबको युगपत् प्रकाशित करता है, वैसे सिद्ध परमेष्ठी का केवलज्ञान सम्पूर्ण ज्ञेयों को युगपत् जानता है। (प.प्र./टी./१/९/७/३); (पं.का./ता.वृ./२२४/१०); (द्र.सं./टी./१४/४२/७)।
अष्टसहस्री/निर्णय सागर बम्बई/पृ.४९ न खलु ज्ञस्वभावस्य कश्चिदगोचरोऽस्ति। यन्न क्रमेत् तत्स्वभावान्तरप्रतिषेधात् ।=’ज्ञ’ स्वभाव को कुछ भी अगोचर नहीं है, क्योंकि वह क्रम से नहीं जानता, तथा इससे अन्य प्रकार के स्वभाव का उसमें निषेध है।
प्र.सा./मू. व त.प्र./२१ सो णेव ते विजाणदि उग्गहपुव्वाहिं किरियाहिं।२१। ततोऽस्याक्रमसमाक्रान्त … सर्वद्रव्यपर्याया: प्रत्यक्षा एव भवन्ति।=वे उन्हें अवग्रहादि क्रियाओं से नहीं जानते।…अत: अक्रमिक ग्रहण होने से समक्ष संवेदन की आलम्बनभूत समस्त द्रव्य पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं।
प्र.सा./त.प्र./३७ यथा हि चित्रपट्याम् …वस्तूनामालेख्याकारा: साक्षादेकक्षण एवावभासन्ते तथा संविद्भित्तावपि।=जैसे चित्रपट में वस्तुओं के आलेख्याकार साक्षात् एक क्षण में ही भासित होते हैं, इसी प्रकार ज्ञानरूपी भित्ति में भी जानना। (ध.७/२,१,४६/८९/६), (द्र.स./टी./५१/२१६/१३), (नि.सा./ता.वृ./४३)।
- केवलज्ञान तात्कालिकवत् जानता है
प्र.सा./मू./३७ तक्कालिगेव सव्वं सदसब्भूदा हि पज्जया तासिं। वट्टन्ते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं।३७।=उन द्रव्य जातियों की समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें तात्कालिक पर्यायों की भाँति विशिष्टता पूर्वक ज्ञान में वर्तती हैं। (प्र.सा./मू.४७)
- केवलज्ञान सर्व ज्ञेयों को पृथक्-पृथक् जानता है
प्र.सा./मू./३७ वट्टंते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं।३७।=द्रव्य जातियों की सर्व पर्यायें ज्ञान में विशिष्टता पूर्वक वर्तती हैं।
प्र.सा./त.प्र./५२/क४ ज्ञेयाकारां त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्ति:।४। =ज्ञेयाकारों को (मानो पी गया है इस प्रकार समस्त पदार्थों को) पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है।
- सर्व को जानता हुआ भी व्याकुल नहीं होता
- केवलज्ञान की सर्वग्राहकता
- केवलज्ञान सब कुछ जानता है
प्र.सा./मू./४७ सव्वं अत्थं विचित्त विसमं तं णाणं खाइयं भणियं।”=विचित्र और विषम समस्त पदार्थों को जानता है उस ज्ञान को क्षायिक कहा है।
नि.सा./मू./१६७ मुक्तममुक्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च। पेच्छंतस्स दु णाणं पच्छक्खमणिंदियं होइ।१६७।=मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन, द्रव्यों को, स्व को तथा समस्त को देखने वाले का ज्ञान अतीन्द्रिय है, प्रत्यक्ष है। (प्र.सा./मू./५४); (आप्त.प./३९/१२६/१०१/९);
स्व. स्तो./मू./१०६ ‘‘यस्य महर्षे: सकलपदार्थ−प्रत्यवबोध: समजनि साक्षात् । सामरमर्त्यं जगदपि सर्वं प्राञ्जलि भूत्वा प्रणिपतति स्म।’’ =जिन महर्षि के सकल पदार्थों का प्रत्यवबोध साक्षात् रूप से उत्पन्न हुआ है, उन्हें देव मनुष्य सब हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं। (पं.स./१/१२६); (ध.१०/४,२,४,१०७/३१९/५)।
क.पा.१/१,१/४६/६४/४ तम्हा णिरावरणो केवली भूदं भव्वं भवंतं सुहुमं ववहियं विप्पइट्ठं च सव्वं जाणदि त्ति सिद्धं।=इसलिए निरावरण केवली …सूक्ष्म व्यवहित और विप्रकृष्ट सभी पदार्थों को जानते हैं।
ध.१/१,१,१/४५/३ स्वस्थिताशेषप्रमेयत्वत: प्राप्तविश्वरूपा:।=अपने में ही सम्पूर्ण प्रमेय रहने के कारण जिसने विश्वरूपता को प्राप्त कर लिया है।
ध.७/२,१,४६/८९/१० तदणवगत्थाभावादो।=क्योंकि, केवलज्ञान से न जाना गया हो ऐसा कोई पदार्थ ही नहीं है।
पं.का/मू.४३ की प्रक्षेपक गाथा नं.५ तथा उसकी ता.वृ.टी./८७/९ णाणं णेयणिमित्तं केवलणाणं ण होदि सुदणाणं। णेयं केवलणाणं णाणाणाणं च णत्थि केवलिणो।५।–न केवले श्रुतज्ञानं नास्ति केवलिनां ज्ञानाज्ञानं च नास्ति क्वापि विषये ज्ञानं क्वापि विषये पुनरज्ञानमेव न किन्तु सर्वत्र ज्ञानमेव।=ज्ञेय के निमित्त से उत्पन्न नहीं होता इसलिए केवलज्ञान को श्रुतज्ञान नहीं कह सकते। और न ही ज्ञानाज्ञान कह सकते हैं। किसी विषय में तो ज्ञान हो और किसी विषय में अज्ञान हो ऐसा नहीं, किन्तु सर्वत्र ज्ञान ही है।
- केवलज्ञान समस्त लोकालोक को जानता है
भ.आ./मू./२१४१ पस्सदि जाणदि य तहा तिण्णि वि काले सपज्जए सव्वे। तह वा लोगमसेसं पस्सदि भयवं विगदमोहो।=वे (सिद्ध परमेष्ठी) सम्पूर्ण द्रव्यों व उनकी पर्यायों से भरे हुए सम्पूर्ण जगत् को तीनों कालों में जानते हैं। तो भी वे मोहरहित ही रहते हैं।
प्र.सा./मू./२३ आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ठं। णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं।२३।=आत्मा ज्ञानप्रमाण है, ज्ञानज्ञेयप्रमाण है, ज्ञेय लोकालोक है, इसलिए ज्ञान सर्वगत है। (ध.१/१,१,१३६/१९८/३८६); (नि.सा./ता.वृ./१६१/क.२७७)।
पं.सं./प्रा./१/१२६ संपुण्णं तु समग्गं केवलमसपत्त सव्वभावगयं। लोयालोय वितिमिरं केवलणाणं मुणेयव्वा।१२६।=जो सम्पूर्ण है, समग्र है, असहाय है, सर्वभावगत है, लोक और अलोकों में अज्ञानरूप तिमिर से रहित है, अर्थात् सर्व व्यापक व सर्वज्ञायक है, उसे केवलज्ञान जानो। (ध.१/१,१,११५/१८६/३६०); (गो.जी./मू./४६०/८७२)।
द्र.सं./मू./५१ णट्ठट्ठकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा।=नष्ट हो गयी है अष्टकर्मरूपी देह जिसके तथा जो लोकालोक को जानने देखने वाला है। (वह सिद्ध है) (द्र.सं./टी./१४/४२/७)
प.प्र./टी./९९/९४/८ केवलज्ञाने जाते सति …सर्वं लोकालोकस्वरूपं विज्ञायते।=केवलज्ञान हो जाने पर सर्व लोकालोक का स्वरूप जानने में आ जाता है।
- केवलज्ञान सम्पूर्ण द्रव्य क्षेत्र काल भाव को जानता है
ष.खं.१३/५,५/सू. ८२/३४६ सइं भयवं उप्पण्णणाणदरिसी सदेवासुरमाणुसस्स लोगस्स अगदिं गदिं चयणोववाद बंधं मोक्खं इड्ढिंट्ठिदिं जुदिं अणुभागं तक्कं कलं माणो माणसियं भुत्तं कदं पडिसेविदं आदिकम्मं अरहकम्मं सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्मं समं जाणदि पस्सदि विहरदि त्ति।८२।=स्वयं उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शन से युक्त भगवान् देवलोक और असुरलोक के साथ मनुष्यलोक की अगति, गति, चयन, उपपाद, बन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति, अनुभाग, तर्क, कल, मन, मानसिक, भुक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरह:कर्म, सब लोकों, सब जीवों और सब भावों को सम्यक् प्रकार से युगपत् जानते हैं, देखते हैं और विहार करते हैं।
ध.१३/५,५,८२/३५०/१२ संसारिणो दुविहा तसा थावरा चेदि।...तत्थ वणप्फदिकाइया अणंतवियप्पा; सेसा असंखेज्जवियप्पा। एदे सव्वजीवे सव्वलोगट्ठिदे जाणदि त्ति भणिदं होदि।=जीव दो प्रकार के हैं—त्रस और स्थावर।...इनमें से वनस्पतिकायिक अनन्तप्रकार के हैं और शेष असंख्यात प्रकार के हैं (अर्थात् जीवसमासों की अपेक्षा जीव अनेक भेद रूप हैं)। केवली भगवान् समस्त लोक में स्थित, इन सब जीवों को जानते हैं। यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
प्र.सा./त.प्र./५४ अतीन्द्रियं हि ज्ञानं यदमूर्तं यन्मूर्तेष्वप्यतीन्द्रियं यत्प्रच्छन्नं च तत्सकलं स्वपरविकल्पान्त:पाति प्रेक्षत एव। तस्य खल्वमूर्तेषु धर्माधर्मादिषु, मूर्तेष्वप्यतीन्द्रियेषु परमाण्वादिषु द्रव्यप्रच्छन्नेषु कालादिषु क्षेत्रप्रच्छन्नेष्वलोकाकाशप्रदेशादिषु, कालप्रच्छन्नेस्वसांप्रतिकपर्यायेषु, भावप्रच्छन्नेषु स्थूलपर्यायान्तर्लीनसूक्ष्मपर्यायेषु सर्वेष्वपि स्वपरव्यवस्थाव्यवस्थितेष्वस्ति द्रष्टव्यं प्रत्यक्षत्वात् ।=जो अमूर्त है, जो मूर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय है, और जो प्रच्छन्न (ढँका हुआ) है, उस सबको, जो कि स्व व पर इन दो भेदों में समा जाता है उसे अतीन्द्रिय ज्ञान अवश्य देखता है। अमूर्त द्रव्य धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आदि, मूर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय परमाणु इत्यादि, तथा द्रव्य में प्रच्छन्न काल इत्यादि, क्षेत्र में प्रच्छन्न अलोकाकाश के प्रदेश इत्यादि, काल में प्रच्छन्न असाम्प्रतिक (अतीतअनागत) पर्यायें, तथा भाव प्रच्छन्न स्थूलपर्यायों में अन्तर्लीन सूक्ष्म पर्यायें हैं उन सबको जो कि स्व और पर के भेद से विभक्त हैं उन सबका वास्तव में उस अतीन्द्रियज्ञान के दृष्टपना है।
प्र.सा./त.प्र./२१ ततोऽस्याक्रमसमाक्रान्तसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया समक्षसंवेदनालम्बनभूता: सर्वद्रव्यपर्याया: प्रत्यक्षा एव भवन्ति।=इसलिए उनके समस्त द्रव्य क्षेत्र काल और भाव का अक्रमिक ग्रहण होने से समक्ष-संवेदन (प्रत्यक्ष ज्ञान) की आलम्बनभूत समस्त द्रव्य व पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं। (द्र.सं./टी./५/१७/६)
प्र.सा./त.प्र./४७ अलमथातिविस्तरेण अनिवारितप्रसरप्रकाशशालितया क्षायिकज्ञानमवश्यमेव सर्वदा सर्वत्र सर्वथा सर्वमेव जानीयात् ।=अथवा अतिविस्तार से बस हो—जिसका अनिवार फैलाव है, ऐसा प्रकाशमान होने से क्षायिकज्ञान अवश्यमेव, सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्व को जानता है।
- केवलज्ञान सर्व द्रव्य व पर्यायों को जानता है
प्र.सा./मू./४९ दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि। ण बिजाणादि जदि जुगवं किधं सो सव्वाणि जाणादि।=यदि अनन्त पर्यायवाले एक द्रव्य को तथा अनन्त द्रव्य समूह को नहीं जानता तो वह सब अनन्त द्रव्य समूह को कैसे जान सकता है।
भ.आ./मू./२१४०-४१ सव्वेहिं पज्जएहिं य संपुण्णं सव्वदव्वेहिं।२१४०...तह वा लोगमसेसं पस्सदि भयवं विगदमोहो।२१४१। सम्पूर्ण द्रव्यों और उनकी सम्पूर्ण पर्यायों से भरे हुए सम्पूर्ण जगत् को सिद्ध भगवान् देखते हैं, तो भी वे मोहरहित ही रहते हैं।
त.सू./१/२९ सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य।
स.सि./१/२९/१३५/८ सर्वेषु द्रव्येषु सर्वेषु पर्यायेष्विति। जीवद्रव्याणि तावदनन्तानन्तानि, पुद्गलद्रव्याणि च ततोऽप्यनन्तानन्तानि अणुस्कन्धभेदभिन्नानि, धर्माधर्माकाशानि त्रीणि, कालश्चासंख्येयस्तेषां पर्यायाश्च त्रिकालभुव: प्रत्येकमनन्तानन्तास्तेषु। द्रव्यं पर्यायजातं न किंचित्केवलज्ञानस्य विषयभावमतिक्रान्तमस्ति। अपरिमितमाहात्म्यं हि तदिति ज्ञापनार्थं सर्वद्रव्यपर्यायेषु इत्युच्यते।=केवलज्ञान की प्रवृत्ति सर्व द्रव्यों में और उनकी सर्व पर्यायों में होती है। जीव द्रव्य अनन्तानन्त है, पुद्गलद्रव्य इनसे भी अनन्तानंतगुणे हैं जिनके अणु और स्कन्ध ये भेद हैं। धर्म अधर्म और आकाश ये तीन हैं, और काल असंख्यात हैं। इन सब द्रव्यों की पृथक् पृथक् तीनों कालों में होने वाली अनन्तानन्त पर्यायें हैं। इन सबमें केवलज्ञान की प्रवृत्ति होती है। ऐसा न कोई द्रव्य है और न पर्याय समूह है जो केवलज्ञान के विषय के परे हो। केवलज्ञान का माहात्म्य अपरिमित है इसी बात का ज्ञान कराने के लिए सूत्र में ‘सर्वद्रव्यपर्यायेषु’ कहा है। (रा.वा./१/२९/९/९०/४)
अष्टशती/का १०६/निर्णयसागर बम्बई—साक्षात्कृतेरेव सर्वद्रव्यपर्यायान् परिच्छिनत्ति (केवलाख्येन प्रत्यक्षेण केवली) नान्यत: (नागमात्) इति।=केवली भगवान् केवलज्ञान नामवाले प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा सर्व द्रव्यों व सर्व पर्यायों को जानते हैं, आगमादि अन्य ज्ञानों से नहीं।
ध./१/१.१.१/२७/४८/४ सव्वावयवेहि दिट्ठसव्वट्ठा।=जिन्होंने सम्पूर्ण पर्यायों सहित पदार्थों को जान लिया है।
प्र.सा./त.प्र./२१ सर्वद्रव्यपर्याया: प्रत्यक्षा एव भवन्ति।=(उस ज्ञान के) समस्त द्रव्य पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं।
नि.सा./ता.वृ./४३ त्रिकालत्रिलोकवर्तिस्थावरजंगमात्मकनिखिलद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमलकेवलज्ञानावस्थत्वान्निर्मूढश्च। =तीन काल और तीन लोक के स्थावर जंगमस्वरूप समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायों को एक समय में जानने में समर्थ सकल विमल केवलज्ञान रूप से अवस्थित होने से आत्मा निर्मूढ है।
- <a name="3.5" id="3.5">केवलज्ञान त्रिकाली पर्यायों को जानता है
ध.१/१,१,१३६/१९९/३८६ एय-दवियम्मि जे अत्थ-पज्जया वयणपज्जया वादि। तीदाणागदभूदा तावदियं तं हवइ दव्वं।=एक द्रव्य में अतीत अनागत और गाथा में आये हुए अपि शब्द से वर्तमान पर्यायरूप जितनी अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय हैं तत्प्रमाण वह द्रव्य होता है (जो केवलज्ञान का विषय है)। (गो.जी./मू./५८२/१०२३) तथा (क.पा.१/१,१/१५/२२/२), (क.पा./१/१,१/४६/६४/४) (प्र.सा./त.प्र./५२/क४) (प्र.सा./त.प्र./३६,२००)
ध.९/४,१,४५/५०/१४२ क्षायिकमेकमनन्तं त्रिकालसर्वार्थंयुगपदवभासम् । निरतिशयमत्ययच्युतमव्यवधानं जिनज्ञानम् ।५०।=जिन भगवान् का ज्ञान क्षायिक, एक अर्थात् असहाय, अनन्त, तीनोंकालों के सर्वपदार्थों को युगपत् प्रकाशित करने वाला, निरतिशय, विनाश से रहित और व्यवधानी विमुक्त है। (ध.१/१,१,१/२४/१०२३), (ध.१/१,१,२/९५/१); (ध.१/१,१,११५/३५८/३); (ध.६/१.९.१,१४/२९/५); (ध.१३/५,५,८१/३४५/८) (ध.१५/४/६); (क.पा.१/१,१/२८/४३/६ (प्र.सा./त.प्र.२६/३७/६०) (प.प्रा.टी./६२/६१/१०) (न्याय बिन्दु/२६१-२६२ चौखम्बा सीरीज)
- केवलज्ञान सद्भूत व असद्भूत सब पर्यायों को जानता है
प्र.सा./मू./३७ तक्कालिगेव सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया तासिं। वट्टंते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं।३७।=उन जीवादि द्रव्य जातियों की समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें तात्कालिक पर्यायों की भाँति विशिष्टता पूर्वक ज्ञान में वर्तती हैं। (प्र.सा./त.प्र./३७,३८,३९,४१)
यो.सा./अ./१/२८ अतीता भाविनश्चार्था: स्वे स्वे काले यथाखिला:। वर्तमानास्ततस्तद्वद्वेत्ति तानपि केवलं।२८।=भूत और भावी समस्त पदार्थ जिस रूप से अपने अपने काल में वर्तमान रहते हैं, केवलज्ञान उन्हें भी उसी रूप से जानता है।
- प्रयोजनभूत व अप्रयोजनभूत सबको जानता है
ध.९/४,१,४४/११८/८ ण च खीणावरणो परिमियं चेव जाणदि, णिप्पडिबंधस्स सयलत्थावगमणसहावस्स परिमितयत्थावगमविरोहादो। अत्रोपयोगी श्लोक:—‘‘ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञ: स्यादसति प्रतिबंधरि। दाह्येऽग्निर्दाहको न स्यादसति प्रतिबंधरि।’’२६।=आवरण के क्षीण हो जाने पर आत्मा परिमित को ही जानता हो यह तो हो नहीं सकता क्योंकि, प्रतिबन्ध से रहित और समस्त पदार्थों के जानने रूप स्वभाव से संयुक्त उसके परिमित पदार्थों के जानने का विरोध है। यहाँ उपयोगी श्लोक—‘‘ज्ञानस्वभाव आत्मा प्रतिबन्धक का अभाव होने पर ज्ञेय के विषय में ज्ञानरहित कैसे हो सकता है? क्या अग्नि प्रतिबन्धक के अभाव में दाह्यपदार्थ का दाहक नहीं होता है। होता ही है। (क.पा.१/१,१/४६/१३/६६)
स्या.म./१/५/१२ आह यद्येवम् अतीतदोषमित्येवास्तु, अनन्तविज्ञानमित्यतिरिच्यते। दोषात्ययेऽवश्यंभावित्वादनन्तविज्ञानत्वस्य। न। कैश्चिद्दोषाभावेऽपि तदनभ्युपगमात् । तथा च वैशैषिकवचनम्—‘‘सर्वं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु। कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य न: कोपयुज्यते।’’ तस्मादनुष्ठानगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । प्रमाणं दूरदर्शी चेदेते गृध्रानुपास्महे।’’ तन्मतव्यपोहार्थमनन्तविज्ञानमित्यदुष्टमेव। विज्ञानानन्त्यं बिना एकस्याप्यर्थस्य यथावत् परिज्ञानाभावात् । तथा चार्षम्—(दे. श्रुतकेवली/२/६) प्रश्न—केवली के साथ ‘अतीत दोष’ विशेष देना ही पर्याप्त है, ‘अनन्तविज्ञान’ भी कहने की क्या आवश्यकता? कारण कि दोषों के नष्ट होने पर अनन्त विज्ञान की प्राप्ति अवश्यंभावी है ? उत्तर—कितने ही वादी दोषों का नाश होने पर भी अनन्तविज्ञान की प्राप्ति स्वीकार नहीं करते, अतएव ‘अनन्तविज्ञान’ विशेषण दिया गया है। वैशैषिकों का मत है कि ‘‘ईश्वर सर्व पदार्थों को जाने अथवा न जाने, वह इष्ट पदार्थों को जाने इतना बस है। यदि ईश्वर कीड़ों की संख्या गिनने बैठे तो वह हमारे किस काम का ?’’ तथा ‘‘अतएव ईश्वर के उपयोगी ज्ञान की ही प्रधानता है, क्योंकि यदि दूर तक देखने वाले को ही प्रमाण माना जाये तो फिर हमें गीध पक्षियों की भी पूजा करनी चाहिए। इस मत का निराकरण करने के लिए ग्रन्थकार ने अनन्तविज्ञान विशेषण दिया है और यह विशेषण ठीक ही है, क्योंकि अनन्तज्ञान के बिना किसी वस्तु का भी ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो सकता। आगम का वचन भी है—‘‘जो एक को जानता है वही सर्व को जानता है और सर्व को जानता है वह एक को जानता है।’’
- केवलज्ञान में इससे भी अनन्तगुणा जानने की सामर्थ्य है
रा.वा./१/२९/९/९०/५ यावांल्लोकालोकस्वभावोऽनन्त: तावन्तोऽनन्ता नन्ता यद्यपि स्यु: तानपि ज्ञातुमस्य सामर्थ्यमस्तीत्यपरिमित माहात्म्यं तत् केवलज्ञानं वेदितव्यम् ।=जितना यह लोकालोक स्वभाव से ही अनन्त है, उससे भी यदि अनन्तानन्त विश्व है तो उसको भी जानने की सामर्थ्य केवलज्ञान में है, ऐसा केवलज्ञान का अपरिमित माहात्म्य जानना चाहिए।
आ.अनु./२१९ वसति भुवि समस्तं सापि संधारितान्यै:, उदरमुपनिविष्टा सा च ते वा परस्य। तदपि किल परेषां ज्ञानकोणे निलीनं वहति कथमिहान्यो गर्वमात्माधिकेषु।२१९।=जिस पृथिवी के ऊपर सभी पदार्थ रहते हैं वह पृथिवी भी दूसरों के द्वारा—अर्थात् घनोदधि, घन और तनुवातवलयों के द्वारा धारण की गयी है। वे पृथिवी और वे तीनों वातवलय भी आकाश के मध्य में प्रविष्ट हैं, और वह आकाश भी केवलियों के ज्ञान के एक मध्य में निलीन है। ऐसी अवस्था में यहाँ दूसरा अपने से अधिक गुणोंवाले के विषय में कैसे गर्व धारण करता है ?
- केवलज्ञान को सर्व समर्थ न माने सो अज्ञानी है
स.सा./आ./४१५/क२५५ स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विधपरक्षेत्रस्थितार्थोज्झनात् तुच्छीभूय पशु: प्रणश्यति चिदाकारान् सहार्थैर्वमन् । स्याद्वादी तु वसन् स्वधामनि परक्षेत्रे विदन्नास्तितां, त्यक्तार्थोऽपि न तुच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान् ।२५५।=एकान्तवादी अज्ञानी, स्वक्षेत्र में रहने के लिए भिन्न-भिन्न परक्षेत्रों में रहे हुए ज्ञेयपदार्थों को छोड़ने से, ज्ञेयपदार्थों के साथ चैतन्य के आकारों का भी वमन करता हुआ तुच्छ होकर नाश को प्राप्त होता है; और स्याद्वादी तो स्वक्षेत्र में रहता हुआ, परक्षेत्र में अपना नास्तित्व जानता हुआ, ज्ञेय पदार्थों को छोड़ता हुआ भी पर-पदार्थों में से चैतन्य के आकारों को खेंचता है, इसलिए तुच्छता को प्राप्त नहीं होता।
- केवलज्ञान सब कुछ जानता है
- केवलज्ञान की सिद्धि में हेतु
- यदि सर्व को नहीं जानता तो एक को भी नहीं जान सकता
प्र.सा./४८-४९ जो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे तिहुवणत्थे। णादुं तस्स ण सक्कं सपज्जयं दव्वमेगं वा।४८। दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि। ण विजाणदि जदि जुगवं किध सो सव्वाणि जाणादि।४९।=जो एक ही साथ त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ पदार्थों को नहीं जानता, उसे पर्याय सहित एक (आत्म–टीका) द्रव्य भी जानना शक्य नहीं।४८। यदि अनन्त पर्याय वाले एक द्रव्य को तथा अनन्त द्रव्य समूह को एक ही साथ नहीं जानता तो वह सबको कैसे जान सकेगा?।४९। (यो.सा./अ./१/२९-३०)
नि.सा./मू./१६८ पुव्वुत्तसयलदव्वं णाणागुणपज्जएण संजुत्तं। जो ण पेच्छइ सम्मं परोक्खदिट्ठी हवे तस्स/१६८/=विविध गुणों और पर्यायों से संयुक्त पूर्वोक्त समस्त द्रव्यों को जो सम्यक् प्रकार से नहीं देखता उसे परोक्ष दर्शन है।
स.सि./१/१२/१०४/८ यदि प्रत्यर्थवशवर्ति सर्वज्ञत्वमस्य नास्ति योगिन: ज्ञेयस्यानन्त्यात् ।=यदि प्रत्येक पदार्थ को (एक एक करके) क्रम से जानता है तो उस योगी के सर्वज्ञता का अभाव होता है क्योंकि ज्ञेय अनन्त हैं।
स्या.म./१/५/२१ में उद्धृत—जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ। (आचारांग सूत्र/१/३/४/सूत्र १२२)। तथा एको भाव: सर्वथा येन दृष्ट: सर्वे भावा: सर्वथा तेन दृष्टा:। सर्वे भावा: सर्वथा येन दृष्टा एको भाव: सर्वथा तेन दृष्ट:।=जो एक को जानता है वह सर्व को जानता है और जो सर्व को जानता है वह एक को जानता है। तथा—जिसने एक पदार्थ को सब प्रकार से देखा है उसने सब पदार्थों को सब प्रकार से देखा है। तथा जिसने सब पदार्थों को सब प्रकार से जान लिया है, उसने एक पदार्थ को सब प्रकार से जान लिया है।
श्लो.वा./२/१/५/१४/१९२/१७ यथा वस्तुस्वभावं प्रत्ययोत्पत्तौ कस्यचिदनाद्यनन्तवस्तुप्रत्ययप्रसंगात् ...। जैसी वस्तु होगी वैसा ही हूबहू ज्ञान उत्पन्न होवे तब तो चाहे जिस किसी को अनादि अनन्त वस्तु के ज्ञान होने का प्रसंग होगा (क्योंकि अनादि अनन्त पर्यायों से समवेत ही सम्पूर्ण वस्तु है)।
ज्ञा./३४/१३ में उद्धृत—एको भाव: सर्वभावस्वभाव:, सर्वे भावा एकभावस्वभावा:। एको भावस्तत्त्वतो येन बुद्ध: सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन बुद्धा:।=एक भाव सर्वभावों के स्वभावस्वरूप है और सर्व भाव एक भाव के स्वभाव स्वरूप है; इस कारण जिसने तत्त्व से एक भाव को जाना उसने समस्त भावों को यथार्थतया जाना।
नि.सा./ता.वृ./१६८/क २८४ यो नैव पश्यति जगत्त्रयभेकदैव, कालत्रयं च तरसा सकलज्ञमानी। प्रत्यक्षदृष्टिरतुला न हि तस्य नित्यं, सर्वज्ञता कथमिहास्य जडात्मन: स्यात् ।=सर्वज्ञता के अभिमानवाला जो जीव शीघ्र एक ही काल में तीन जगत् को तथा तीन काल को नहीं देखता, उसे सदा (कदापि) अतुल प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है; उस जड़ात्मा को सर्वज्ञता किस प्रकार होगी।
- यदि त्रिकाल को न जाने तो इसकी दिव्यता ही क्या
प्र.सा./मू./३९ जदि पच्चक्खमजायं पज्जायं पलहयं च णाणस्स। ण हवदि वा तं णाणं दिव्वं ति हि के परूवेंति।=यदि अनुत्पन्न पर्याय व नष्ट पर्यायें ज्ञान के प्रत्यक्ष न हों तो उस ज्ञान को दिव्य कौन कहेगा ?
- अपरिमित विषय ही तो इसका माहात्म्य है
स.सि./१/२९/१३५/११ अपरिमितमाहात्म्यं हि तदिति ज्ञापनार्थं ‘सर्वद्रव्यपर्यायेषु’ इत्युच्यते=केवलज्ञान का माहात्म्य अपरिमित है, इसी बात का ज्ञान कराने के लिए सूत्र में ‘सर्वद्रव्यपर्यायेषु’ पद कहा है। (रा.वा./१/२९/९/९०/६)
- सर्वज्ञत्व का अभाव कहने वाला क्या स्वयं सर्वज्ञ नहीं है
सि.वि./मू./८/१५-१६ सर्वात्मज्ञानविज्ञेयतत्त्वं विवेचनम् । नो चेद्भवेत्कथं तस्य सर्वज्ञाभाववित्स्वयम् ।१५। तज्ज्ञेयज्ञानवैकल्याद् यदि बुध्येत न स्वयम् ।...। नर: शरीरी वक्ता वासकलज्ञं जगद्विदन् । सर्वज्ञ: स्यात्ततो नास्ति सर्वज्ञाभावसाधनम् ।१६।=सब जीवों के ज्ञान तथा उनके द्वारा ज्ञेय और अज्ञेय तत्त्वों को प्रत्यक्ष से जानने वाला क्या स्वयं सर्वज्ञ नहीं है? यदि वह स्वयं यह नहीं जानता कि सब जीव सर्वज्ञ के ज्ञान से रहित हैं तो वह स्वयं कैसे सर्वज्ञ के अभाव का ज्ञाता हो सकता है? शायद कहा जाये कि सब आत्माओं की असर्वज्ञता प्रत्यक्ष से नहीं जानते किन्तु अनुमान से जानते हैं अत: उक्त दोष नहीं आता। तो पुरुष विशेष की भी वक्तृत्व आदि सामान्य हेतु से असर्वज्ञत्व का साधन करने में भी उक्त कथन समान है क्योंकि सर्वज्ञता और वक्तृत्व का कोई विरोध नहीं है सर्वज्ञ वक्ता हो सकता है।
न्याय.वि./वृ./३/१९/२८६ पर उद्धृत (मीमांसा श्लोक चोदना/१३४-१३५) ‘‘सर्वत्रोऽयमिति ह्येवं तत्कालेऽपि बुभुत्सुभि:। तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् ।१३४। कल्पनीयाश्च सर्वज्ञा भवेयुर्वहवस्तव। य एव स्यादसर्वज्ञ: स सर्वज्ञं न बुध्यते।१३५।’’=उस काल में भी जो जिज्ञासु सर्वज्ञ के ज्ञान और उसके द्वारा जाने गये पदार्थों के ज्ञान से रहित हैं वे ‘यह सर्वज्ञ है’ ऐसा कैसे जान सकते हैं। और ऐसा मानने पर आपको बहुत से सर्वज्ञ मानने होंगे क्योंकि जो भी असर्वज्ञ है वह सर्वज्ञ को नहीं जान सकता।
द्र.सं./टी./५०/२११/५ नास्ति सर्वज्ञोऽनुपलब्धे:। खरविषाणवत् । तत्र प्रत्युत्तर—किमत्र देशेऽत्र काले अनुपलब्धे:, सर्वदेशे काले वा। यद्यत्र देशेऽत्र काले नास्ति तदा सम्मत एव। अथ सर्वदेशकाले नास्तीति भण्यते तज्जगत्त्रयं कालत्रयं सर्वज्ञरहितं कथं ज्ञात भवता। ज्ञातं चेत्तर्हि भवानेव सर्वज्ञ:। अथ न ज्ञातं तर्हि निषेध: कथं क्रियते।१।...यथोक्तं खरविषाणवदिति दृष्टान्तवचनं तदप्यनुचितम् । खरे विषाणं नास्ति गवादौ तिष्ठतीत्यत्यन्ताभावो नास्ति यथा तथा सर्वज्ञस्यापि नियतदेशकालादिष्वभावेऽपि सर्वथा नास्तित्वं न भवति इति दृष्टान्तदूषणं गतम् ।=प्रश्न—सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि उसकी प्रत्यक्ष उपलब्धि नहीं होती, जैसे गधे के सींग ? उत्तर—सर्वज्ञ की प्राप्ति इस देश व काल में नहीं है वा सब देशों व सब कालों में नहीं है ? यदि कहो कि इस देश व इस काल में नहीं तब तो हमें भी सम्मत है ही। और यदि कहो कि सब देशों व सब कालों में नहीं है, तब हम पूछते हैं कि यह तुमने कैसे जाना कि तीनों जगत् व तीनों कालों में सर्वज्ञ नहीं हैं। यदि कहो कि हमने जान लिया तब तो तुम ही सर्वज्ञ सिद्ध हो चुके और यदि कहो कि हम नहीं जानते तो उसका निषेध कैसे कर सकते हो। (इस प्रकार तो हेतु दूषित कर दिया गया) अब अपने हेतु की सिद्धि में जो आपने गधे के सींग का दृष्टान्त कहा है वह भी उचित नहीं है, क्योंकि भले ही गधे को सींग न हों परन्तु बैल आदिक तो हैं ही। इसी प्रकार यद्यपि सर्वज्ञ का किसी नियत देश तथा काल आदि में अभाव हो पर उसका सर्वथा अभाव नहीं हो सकता। इस प्रकार दृष्टान्त भी दूषित है। (पं.का./ता.वृ./२९/६५/११)
- बाधक प्रमाण का अभाव होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है
सि.वि./मू./८/६-७/५३७-५३८ ‘‘प्रामाण्यमक्षबुद्धेश्चेद्यथाऽबाधाविनिश्चयात् । निर्णीतासंभवद्वाध: सर्वज्ञो नेति साहसम् ।६। सर्वज्ञेऽस्तीति विज्ञानं प्रमाणं स्वत एव तत् । दोषवत्कारणाभावाद् बाधकासंभवादपि।७।’’ =जिस प्रकार बाधकाभाव के विनिश्चय से चक्षु आदि से जन्य ज्ञान को प्रमाण माना जाता है उसी प्रकार बाधा से असंभव का निर्माण होने से सर्वज्ञ के अस्तित्व को नहीं मानना यह अति साहस है।६। ‘सर्वज्ञ है’ इस प्रकार के प्रवचन से होने वाला ज्ञान स्वत: ही प्रमाण है क्योंकि उस ज्ञान का कारण सदोष नहीं है। शायद कहा जाये कि ‘सर्वज्ञ है’ यह ज्ञान बाध्यमान है किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि उसका कोई बाधक भी नहीं है। (द्र.सं./टी./५०/२१३/७) (पं.का./ता.वृ./२९/६६.१३)।
आप्त.प./मू./९६-११० सुनिश्चितान्वयाद्धेतो: प्रसिद्धव्यतिरेकत:। ज्ञाताऽर्हन् विश्वतत्त्वानामेवं सिद्ध्येदबाधित:।९६।...एवं सिद्ध: सुनिर्णीतासंभवद्बाधकत्वत:। सुखवद्विश्वतत्त्वज्ञ: सोऽर्हन्नेव भवानिह।१०१।=प्रमेयपना हेतु का अन्वय अच्छी तरह सिद्ध है और उसका व्यतिरेक भी प्रसिद्ध है, अत: उससे अर्हन्त निर्बाधरूप से समस्त पदार्थों का ज्ञाता सिद्ध होता है।१६। (१)—त्रिकाल त्रिलोक को न जानने के कारण इन्द्रिय प्रत्यक्ष बाधक नहीं है।९७। (२)—केवल सत्ता को विषय करने के कारण अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति और आगम भी बाधक नहीं है।९८। (३)—अनैकान्तिक होने के कारण पुरुषत्व व वक्तृत्व हेतु (अनुमान) बाधक नहीं है−(दे. केवलज्ञान/५)।९९−१००।;४)—सर्व मनुष्यों में समानता का अभाव होने से उपमान भी बाधक नहीं है।१०१।; (५)—अन्यथानुपपत्ति से शून्य होने से अर्थापत्ति बाधक नहीं है।१०२।; (६)—अपौरुषेय आगम केवल यज्ञादि के विषय में प्रमाण है, सर्वज्ञकृत आगम बाधक हो नहीं सकता और सर्वज्ञकृत आगम स्वत: साधक है।१०३-१०४।; (७)—सर्वज्ञत्व के अनुभव व स्मरण विहीन होने के कारण अभाव प्रमाण भी बाधक नहीं है अथवा असर्वज्ञत्व की सिद्धि के अभाव में सर्वज्ञत्व का अभाव कहना भी असिद्ध है।१०५−१०८। इस प्रकार बाधक प्रमाणों का अभाव अच्छी तरह निश्चित होने से सुख की तरह विश्वतत्त्वों का ज्ञाता—सर्वज्ञ सिद्ध होता है।१०९।
- अतिशय पूज्य होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है
ध.९/४,१,४४/११३/७ कधं सव्वणहू वड्ठमाणभयवंतो ?...णवकेवललद्धीओ...षेच्छंतएण सोहम्मिदेण तस्स कयपूजण्णहाणुववत्तीदो। ण च विज्जावाइपूजाए वियहिचारो...साहम्माभावादो...वइधम्मियादो वा।=प्रश्न—भगवान् वर्द्धमान सर्वज्ञ थे यह कैसे सिद्ध होता है? उत्तर—भगवान् में स्थित नवकेवल लब्धि को देखने वाले सौधर्मेन्द्र द्वारा की गयी उनकी पूजा क्योंकि सर्वज्ञता के बिना बन नहीं सकती। यह हेतु विद्यावादियों की पूजा से व्यभिचरित नहीं होता, क्योंकि व्यन्तरों द्वारा की गयी और देवेन्द्रों द्वारा की गयी पूजा में समानता नहीं है।
- केवलज्ञान का अंश सर्व प्रत्यक्ष होने से केवलज्ञान सिद्ध है
क.पा.१/१/३१/४४ ण च केवलणाणमसिद्धं; केवलणाणंसस्स ससंवेयणपच्चक्खेण णिव्वाहेणुवलंभादो। ण च अवयवे पच्चक्खे संते अवयवी परोक्खो त्ति जुत्तं; चक्खिंदियविसयीकयअवयवत्थंभस्स वि परोक्खप्पसंगादो।=यदि कहा जाय कि केवलज्ञान असिद्ध है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा केवलज्ञान के अंशरूप (मति आदि) ज्ञान की निर्बाध रूप से उपलब्धि होती है। अवयव के प्रत्यक्ष हो जाने पर सहवर्ती अन्य अवयव भले परोक्ष रहें, परन्तु अवयवी परोक्ष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर चक्षुइन्द्रिय के द्वारा जिसका एक भाग प्रत्यक्ष किया गया है उस स्तम्भ को भी परोक्षता का प्रसंग प्राप्त होता है।
स्या.म./१७/२३७/६ तत्सिद्धिस्तु ज्ञानतारतम्यं क्वचिद् विश्रान्तम् तारतम्यत्वात् आकाशे परिणामतारतम्यवत् ।=ज्ञान की हानि और वृद्धि किसी जीव में सर्वोत्कृष्ट रूप में पायी जाती है, हानि, वृद्धि होने से। जैसे आकाश में परिणाम की सर्वोत्कृष्टता पायी जाती है वैसे ही ज्ञान की सर्वोत्कृष्टता सर्वज्ञ में पायी जाती है।
- <a name="4.8" id="4.8">सूक्ष्मादि पदार्थों के प्रमेय होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है
आप्त.मी./५ सूक्ष्मान्तरितदूरार्था: प्रत्यक्षा: कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थिति: ।५।=सूक्ष्म अर्थात् परमाणु आदिक, अन्तरित अर्थात् कालकरि दूर राम रावणादि और दूरस्थ अर्थात् क्षेत्रकरि दूर मेरु आदि किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं, क्योंकि ये अनुमेय हैं। जैसे अग्नि आदि पदार्थ अनुमान के विषय है सो ही किसी के प्रत्यक्ष भी अवश्य होते हैं। ऐसे सर्वज्ञ का भले प्रकार निश्चय होता है। (न्या.वि./मू./३/२९/२९८) (सि.वि./मू./८/३१/५७३) (न्या.वि./वृ./३/२०/२८८ में उद्धृत) (आप्त.प./मू./८८-९१) (काव्य मीमांसा ५) (द्र.सं./टी./५०/२१३/१०) (पं.का./ता.वृ./२९/६६/१४) (सा.म./१७/२३७/७) (न्या.दी./२/२१-२३/४१-४४)
- <a name="4.9" id="4.9">प्रतिबन्धक कर्मों का अभाव होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है
सि.वि./मू./८-९ ज्ञानस्यातिशयात् सिध्येद्विभुत्वं परिमाणवत् । वैषद्य क्वचिद्दोषमलहानेस्तिमिराक्षवत् ।८। माणिक्यादेर्मलस्यापि व्यावृत्तिरतिशयवती। आत्यन्तिकी भवत्येव तथा कस्यचिदात्मन:।९।=जैसे परिमाण अतिशययुक्त होने से आकाश में पूर्णरूप से पाया जाता है, वैसे ही ज्ञान भी अतिशययुक्त होने से किसी पुरुष विशेष में विभु-समस्त ज्ञेयों का जानने वाला होता है। और जैसे अन्धकार हटने पर चक्षु स्पष्ट रूप से जानता है, वैसे ही दोष और मल की हानि होने से वह ज्ञान स्पष्ट होता है। शायद कहा जाये कि दोष और मल को आत्यन्तिक हानि नहीं होती तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे माणिक्य आदि से अतिशयवाली मल की व्यावृत्ति भी आत्यन्तिकी होती है उसके मल सर्वथा दूर हो जाता है उसी तरह किसी आत्मा से भी मल के प्रतिपक्षी ज्ञानादि का प्रकर्ष होने पर मल का अत्यन्ताभाव हो जाता है।७-८। (न्या.वि./मू./३/२१-२५/२९१२९५), (ध.९/४,१,४४/२६/तथा टीका पृ.११४-११८), (क.पा.१/१,१/३७−४६/१३ तथा टीका पृ. ५६−६४), (राग/५−रागादि दोषों का अभाव असंभव नहीं है), (मोक्ष/६−अकृत्रिम भी कर्ममल का नाश सम्भव है); (न्या.दी./२/२४−२८/४४−५०), (न्याय बिन्दु चौखम्बा सीरीज/श्लो. ३६१−३६२)
- यदि सर्व को नहीं जानता तो एक को भी नहीं जान सकता
- <a name="5" id="5">केवलज्ञान विषयक शंका−समाधान
- केवलज्ञान असहाय कैसे है ?
क.पा.१/१,१/१५/२१/१ केवलमसहायं इन्द्रियालोकमनस्कारनिरपेक्षत्वात् । आत्मसहायमिति न तत्केवलमिति चेत्; न; ज्ञानव्यतिरिक्तात्मनोऽसत्त्वात् । अर्थसहायत्वान्न केवलमिति चेत्; न; विनष्टानुत्पन्नातीतानागतेऽर्थेष्वपि तत्प्रवृत्त्युपलम्भात् ।=असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनोव्यापार की अपेक्षा से रहित है। प्रश्न—केवलज्ञान आत्मा की सहायता से उत्पन्न होता है, इसलिए इसे केवल नहीं रह सकते? उत्तर—नहीं, क्योंकि ज्ञान से भिन्न आत्मा नहीं पाया जाता है, इसलिए इसे असहाय कहने में आपत्ति नहीं है। प्रश्न—केवलज्ञान अर्थ की सहायता लेकर प्रवृत्त होता है, इसलिए इसे केवल (असहाय) नहीं कह सकते ? उत्तर—नहीं, क्योंकि नष्ट हुए अतीत पदार्थों में और उत्पन्न न हुए अनागत पदार्थों में भी केवलज्ञान की प्रवृत्ति पायी जाती है, इसलिए यह अर्थ की सहायता से होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
भ.आ./वि./५१/१७३/१५ प्रत्यक्षस्यावध्यादे: आत्मकारणत्वादसहायतास्तीति केवलत्वप्रसंग: स्यादिति चेन्न रूढेर्निराकृताशेषज्ञानावरणस्योपजायमानस्यैव बोधस्य केवलशब्दप्रवृत्ते:।=प्रश्न−प्रत्यक्ष अवधि व मन:पर्यय ज्ञान भी इन्द्रियादि की अपेक्षा न करके केवल आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनको भी केवलज्ञान क्यों नहीं कहते हो? उत्तर−जिसने सर्व ज्ञानावरणकर्म का नाश किया है, ऐसे केवलज्ञान को ही ‘केवलज्ञान’ कहना रूढ है, अन्य ज्ञानों में ‘केवल’ शब्द की रूढि नहीं है।
ध./१/१,१,२२/१९९/१ प्रमेयमपि मैवमैक्षिष्टासहायत्वादिति चेन्न, तस्य तत्स्वभावत्वात् । न हि स्वभावा: परपर्यनुयोगार्हा: अव्यवस्थापत्तेरिति।=प्रश्न−यदि केवलज्ञान असहाय है, तो वह प्रमेय को भी मत जानो ? उत्तर−ऐसा नहीं है, क्योंकि पदार्थों का जानना उसका स्वभाव है। और वस्तु के स्वभाव दूसरों के प्रश्नों के योग्य नहीं हुआ करते हैं। यदि स्वभाव में भी प्रश्न होने लगें तो फिर वस्तुओं की व्यवस्था ही नहीं बन सकती।
- विनष्ट व अनुत्पन्न पदार्थों का ज्ञान कैसे सम्भव है
क.पा.१/१,१/१५/२२/२ असति प्रवृत्तौ खरविषाणेऽपि प्रवृत्तिरस्त्विति चेत्; न; तस्य भूतभविष्यच्छत्तिरूपतयाऽप्यसत्त्वात् । वर्तमानपर्याणामेव किमित्यर्थत्वमिष्यत इति चेत्; न; ‘अर्यते परिच्छिद्यते’ इति न्यायतस्तत्रार्थत्वोपलम्भात् । तदनागतातीतपर्यायेष्वपि समानमिति चेत्; न; तद्ग्रहणस्य वर्तमानार्थ ग्रहणपूर्वकत्वात् ।=प्रश्न−यदि विनष्ट और अनुत्पन्नरूप से असत् पदार्थों में केवलज्ञान की प्रवृत्ति होती है, तो खरविषाण में भी उसकी प्रवृत्ति होओ? उत्तर−नहीं, क्योंकि खरविषाण का जिस प्रकार वर्तमान में सत्त्व नहीं पाया जाता है, उसी प्रकार उसका भूतशक्ति और भविष्यत् शक्तिरूप से भी सत्त्व नहीं पाया जाता है। प्रश्न−यदि अर्थ में भूत और भविष्यत् पर्यायें शक्तिरूप से विद्यमान रहती हैं तो केवल वर्तमान पर्याय को ही अर्थ क्यों कहा जाता है? उत्तर−नहीं, क्योंकि, ‘जो जाना जाता है उसे अर्थ कहते हैं’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार वर्तमान पर्यायों में ही अर्थपना पाया जाता है। प्रश्न−यह व्युत्पत्ति अर्थ अनागत और अतीत पर्यायों में भी समान है? उत्तर−नहीं, क्योंकि उनका ग्रहण वर्तमान अर्थ के ग्रहण पूर्वक होता है।
ध.६/१,९-१,१४/२९/६ णट्ठाणुप्पण्णअत्थाणं कधं तदो परिच्छेदो। ण, केवलत्तादो वज्झत्थावेक्खाए विणा तदुप्पत्तीए विरोहाभावा। ण तस्स विपज्जयणाणत्तं पसज्जदे, जहारूवेण परिच्छित्तीदो। ण गद्दहसिंगेण विउचारो तस्स अच्चंताभावरूवत्तादो।=प्रश्न−जो पदार्थ नष्ट हो चुके हैं और जो पदार्थ अभी उत्पन्न नहीं हुए हैं, उनका केवलज्ञान से कैसे ज्ञान हो सकता है? उत्तर−नहीं, क्योंकि केवलज्ञान के सहाय निरपेक्ष होने से बाह्य पदार्थों की अपेक्षा के बिना उनके, (विनष्ट और अनुत्पन्न के) ज्ञान की उत्पत्ति में कोई विरोध नहीं है। और केवलज्ञान के विपर्ययज्ञानपने का भी प्रसंग नहीं आता है, क्योंकि वह यथार्थ स्वरूप को पदार्थों से जानता है। और न गधे के सींग के साथ व्यभिचार दोष आता है, क्योंकि वह अत्यन्ताभाव रूप है।
प्र.सा./त.प्र./३७ न खल्वेतदयुक्तं—दृष्टाविरोधात् । दृश्यते हि छद्मस्थस्यापि वर्तमानमिव व्यतीतमनागतं वा वस्तु चिन्तयत: संविदालम्बितस्तदाकार:। किंच चित्रपटीयस्थानत्वात् संविद:। यथा हि चित्रपट्यामतिवाहितानामनुपस्थितानां वर्तमानानां च वस्तूनामालेख्याकारा: साक्षादेकक्षण एवावभासन्ते, तथा संविद्भित्तावपि। किंच सर्वज्ञेयाकाराणां तदात्विकत्वाविरोधात् । यथा हि प्रध्वस्तानामनुदितानां च वस्तूनामालेख्याकारा वर्तमाना एव तथातीतानामनागतानां च पर्यायाणां ज्ञेयाकारा वर्तमाना एव भवन्ति।=यह (तीनों कालों की पर्यायों का वर्तमान पर्यायों वत् ज्ञान में ज्ञात होना) अयुक्त नहीं है, क्योंकि १. उसका दृष्ट के साथ अविरोध है। (जगत् में) दिखाई देता है कि छद्मस्थ के भी, जैसे वर्तमान वस्तु का चिन्तवन करते हुए ज्ञान उसके आकार का अवलम्बन करता है, उसी प्रकार भूत और भविष्यत् वस्तु का चिन्तवन करते हुए (भी) ज्ञान उसके आकार का अवलम्बन करता है। २. ज्ञान चित्रपट के समान है। जैसे चित्रपट में अतीत अनागत पर्यायों के ज्ञेयाकार साक्षात् एक क्षण में ही भासित होते हैं। ३. और सर्व ज्ञेयाकारों को तात्कालिकता अविरुद्ध है। जैसे चित्रपट में नष्ट व अनुत्पन्न (बाहूबली, राम, रावण आदि) वस्तुओं के आलेख्याकार वर्तमान ही हैं, इसी प्रकार अतीत और अनागत पर्यायों के ज्ञेयाकार वर्तमान ही हैं।
- अपरिणामी केवलज्ञान परिणामी पदार्थों को कैसे जाने
ध.१/१,१,२२/१९८/५ प्रतिक्षणं विवर्तमानानर्थानपरिणामि केवलं कथं परिच्छिनत्तीदि चेन्न, ज्ञेयसमविपरिवर्तिन: केवलस्य तदविरोधात् ।ज्ञेयपरतन्त्रतया परिवर्तमानस्य केवलस्य कथं पुनर्नैवोतपत्तिरिति चेन्न, केवलोपयोगसामान्यापेक्षया तस्योत्पत्तेरभावात् । विशेषापेक्षया च नेन्द्रियालोकमनोभ्यस्तदुत्पत्तिर्विगतावरणस्य तद्विरोधात् । केवलमसहायत्वान्न तत्सहायमपेक्षते स्वरूपहानिप्रसंगात् ।=प्रश्न—अपरिवर्तनशील केवलज्ञान प्रत्येक समय में परिवर्तनशील पदार्थों को कैसे जानता है? उत्तर—ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि, ज्ञेय पदार्थों को जानने के लिए तदनुकूल परिवर्तन करने वाले केवलज्ञान के ऐसे परिवर्तन के मान लेने में कोई विरोध नहीं आता। प्रश्न—ज्ञेय की परतंत्रता से परिवर्तन करने वाले केवलज्ञान की फिर से उत्पत्ति क्यों नहीं मानी जाये? उत्तर−नहीं, क्योंकि, केवलज्ञानरूप उपयोग−सामान्य की अपेक्षा केवलज्ञान की पुन: उत्पत्ति नहीं होती है। विशेष की अपेक्षा उसकी उत्पत्ति होते हुए भी वह (उपयोग) इन्द्रिय, मन और आलोक से उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि, जिसके ज्ञानावरणादि कर्म नष्ट हो गये हैं, ऐसे केवलज्ञान में इन्द्रियादि की सहायता मानने में विरोध आता है। दूसरी बात यह है कि केवलज्ञान स्वयं असहाय है, इसलिए वह इन्द्रियादिकों की सहायता की अपेक्षा नहीं करता है, अन्यथा ज्ञान के स्वरूप की हानि का प्रसंग आ जायेगा।
- केवलज्ञानी को प्रश्न पूछने या सुनने की आवश्यकता क्यों
म.पु./१/१८२ प्रश्नाद्विनैव तद्भावं जानन्नपि स सर्ववित् । तत्प्रश्नान्तमुदैक्षिष्ट प्रतिपत्रनिरोधत:।१८२।=संसार के सब पदार्थों को एक साथ जानने वाले भगवान् वृषभनाथ यद्यपि प्रश्न के बिना ही भरत महाराज के अभिप्राय को जान गये थे तथापि वे श्रोताओं के अनुरोध से प्रश्न के पूर्ण होने की प्रतीक्षा करते रहे।
- सर्वज्ञत्व के साथ वक्तृत्व का विरोध नहीं है
आप्त.प./मू./९९-१०० नार्हन्नि:शेषतत्त्वज्ञो वक्तृत्व-पुरुषत्वत:। ब्रह्मादिवदिति प्रोक्तमनुमानं न बाधकम् ।९९। हेतोरस्य विपक्षेण विरोधाभावनिश्चयात् । वक्तृत्वादे: प्रकर्षेऽपि ज्ञानानिर्ह्नासिद्धित:।१००।=प्रश्न—अर्हन्त अशेष तत्त्वों का ज्ञाता नहीं है क्योंकि वह वक्ता है और पुरुष है। जो वक्ता और पुरुष है, वह अशेष तत्त्वों का ज्ञाता नहीं है, जैसे ब्रह्मा वगैरह ? उत्तर—यह आपके द्वारा कहा गया अनुमान सर्वज्ञ का बाधक नहीं है, क्योंकि, वक्तापना और पुरुषपन हेतुओं का, विपक्ष के (सर्वज्ञता के) साथ विरोध का अभाव निश्चित है, अर्थात् उक्त हेतु सापेक्ष व विपक्ष दोनों में रहता होने से अनैकान्तिक है। कारण वक्तापना आदि का प्रकर्ष होने पर भी ज्ञान की हानि नहीं होती। (और भी देखें - व्यभिचार / ४ )।
- अर्हन्तों को ही केवलज्ञान क्यों; अन्य को क्यों नहीं
आप्त.मी./मू./६,७ स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते।६। त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टादृष्टेन बाध्यते।७।=हे अर्हन् ! वह सर्वज्ञ आप ही हैं, क्योंकि आप निर्दोष हैं। निर्दोष इसलिए हैं कि युक्ति और आगम से आपके वचन अविरूद्ध हैं–और वचनों में विरोध इस कारण नहीं है कि आपका इष्ट (मुक्ति आदि तत्त्व) प्रमाण से बाधित नहीं है। किन्तु तुम्हारे अनेकान्त मतरूप अमृत का ज्ञान नहीं करने वाले तथा सर्वथा एकान्त तत्त्व का कथन करने वाले और अपने को आप्त समझने के अभिमान से दग्ध हुए एकान्तवादियों का इष्ट (अभिमत तत्त्व) प्रत्यक्ष से बाधित है। (अष्टसहस्री) (निर्णय सागर बम्बई/पृ. ६६-६७) (न्याय.दी./२/२४-२६/४४-४६)।
- <a name="5.7" id="5.7">सर्वज्ञत्व जानने का प्रयोजन
पं.का./ता.वृ./२९/६७/१० अन्यत्र सर्वज्ञसिद्धौ भणितामास्ते अत्र पुनरध्यात्मग्रन्थत्वान्नोच्यते। इदमेव वीतरागसर्वज्ञस्वरूपं समस्तरागादिविभावत्यागेन निरन्तरमुपादेयत्वेन भावनीयमिति भावार्थ:।=सर्वज्ञ की सिद्धि न्यायविषयक अन्य ग्रन्थों में अच्छी तरह की गयी है। यहाँ अध्यात्मग्रन्थ होने के कारण विशेष नहीं कहा गया है। ऐसा वीतराग सर्वज्ञ का स्वरूप ही समस्त रागादि विभावों के त्याग द्वारा निरन्तर उपादेयरूप से भाना योग्य है, ऐसा भावार्थ है।
- केवलज्ञान असहाय कैसे है ?
- केवलज्ञान का स्वपर-प्रकाशकपना
- निश्चय से स्व को और व्यवहार से पर को जानता है
नि.सा./मू./ १५९ जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं। केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं।१५९।=व्यवहार नय से केवली भगवान् सबको जानते हैं और देखते हैं; निश्चयनय से केवलज्ञानी आत्मा को जानता है और देखता है। (प.प्र./टी./१/५२/५०/८ और भी देखें - श्रुतकेवली / ३ )
प.प्र./मू./१/५ ते पुणु बंदउँ सिद्धगण जे अप्पाणि वसंत/लोयलोउ वि सयलु इहु अच्छहिं विमलु णियंत।५।=मैं उन सिद्धों को वन्दता हूँ, जो निश्चय करके अपने स्वरूप में तिष्ठते हैं और व्यवहार नयकरि लोकालोक को संशयरहित प्रत्यक्ष देखते हुए ठहर रहे हैं।
- निश्चय से पर को न जानने का तात्पर्य उपयोग का पर के साथ तन्मय न होना है
प्र.सा./त.प्र./५२/क.४ जानन्नप्येष विश्वं युगपदपि भवद्भावि भूतं समस्तं, मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निर्लूनकर्मा। तेनास्ते मुक्त एव प्रसभविकसितज्ञप्तिविस्तारपीतज्ञेयाकार त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्ति:।४।=जिसने कर्मों को छेद डाला है ऐसा यह आत्मा भूत, भविष्यत् और वर्तमान समस्त विश्व को एक ही साथ जानता हुआ भी मोह के अभाव के कारण पररूप परिणमित नहीं होता, इसलिए अब, जिसके (समस्त) ज्ञेयाकारों को अत्यन्त विकसित, ज्ञप्ति के विस्तार से स्वयं पी गया है ऐसे तीनों लोक के पदार्थों को पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ वह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है।
प्र.सा./त.प्र./३२ अयं खल्वात्मा स्वभावत एव परद्रव्यग्रहणमोक्षणपरिणमनाभावात्स्वतत्त्वभूतकेवलज्ञानस्वरूपेण विपरिणम्य समस्तमेव नि:शेषतयात्मानमात्मनात्मनि संचेतयते। अथवा युगपदेव सर्वार्थसार्थसाक्षात्करणेन ज्ञप्तिपरिवर्तनाभावात् संभाषितग्रहणमोक्षणक्रियाविराम:....विश्वमशेषं पश्यति जानाति च एवमस्यात्यन्तविविक्तत्वमेव।=यह आत्मा स्वभाव से ही परद्रव्यों के ग्रहण-त्याग का तथा परद्रव्यरूप से परिणमित होने का अभाव होने से स्वतत्त्वभूत केवलज्ञानरूप से परिणमित होकर, नि:शेषरूप से परिपूर्ण आत्मा को आत्मा से आत्मा में संचेतता जानता अनुभव करता है। अथवा एक साथ ही सर्व पदार्थों के समूह का साक्षात्कार करने से ज्ञप्तिपरिवर्तन का अभाव होने से जिसके ग्रहणत्यागरूप क्रिया विराम को प्राप्त हुई है, सर्वप्रकार से अशेष विश्व को देखता जानता ही है। इस प्रकार उसका अत्यन्त भिन्नत्व ही है। भावार्थ–केवली भगवान् सर्वात्म प्रदेशों से अपने को ही अनुभव करते रहते हैं, इस प्रकार वे परद्रव्यों से सर्वथा भिन्न हैं। अथवा केवली भगवान् को सर्वपदार्थों का युगपत् ज्ञान होता है। उनका ज्ञान एक ज्ञेय को छोड़कर किसी अन्य विवक्षित ज्ञेयाकार को जानने के लिए भी नहीं जाता है, इस प्रकार भी वे पर से सर्वथा भिन्न हैं।
प्र.सा./ता.वृ./३७/५०/१६ अयं केवली भगवान् परद्रव्यपर्यायान् परिच्छित्तिमात्रेण जानाति न च तन्मयत्वेन, निश्चयेन तु केवलज्ञानादिगुणाधारभूतं स्वकीयसिद्धपर्यायमेवस्वसंवित्त्याकारेण तन्मयो भूत्वा परिच्छिनत्ति जानाति।=यह केवली भगवान् परद्रव्य व उनकी पर्यायों को परिच्छित्ति (प्रतिभास) मात्र से जानते हैं; तन्मयरूप से नहीं। परन्तु निश्चय से तो वे केवलज्ञानादि गुणों के आधारभूत स्वकीय सिद्धपर्याय को ही स्वसंवित्तिरूप आकार से अर्थात् स्वसंवेदन ज्ञान से तन्मय होकर जानता है या अनुभव करता है।
स.सा./ता.वृ./३५६-३६५ श्वेतमृत्तिकादृष्टान्तेन ज्ञानात्मा घटपटादिज्ञेयपदार्थस्य निश्चयेन ज्ञायको न भवति तन्मयो न भवतीत्यर्थ: तर्हि किं भवति। ज्ञायको ज्ञायक एव स्वरूपे तिष्ठतीत्यर्थ:। ...तथा तेन श्वेतमृत्तिकादृष्टान्तेन परद्रव्यं घटादिकं ज्ञेयं वस्तुव्यवहारेण जानाति न च परद्रव्येण सह तन्मयो भवति।=जिस प्रकार खड़िया दीवार रूप नहीं होती बल्कि दीवार के बाह्य भाग में ही ठहरती है इसी प्रकार ज्ञानात्मा घट पट आदि ज्ञेयपदार्थों का निश्चय से ज्ञायक नहीं होता अर्थात् उनके साथ तन्मय नहीं होता, ज्ञायक ज्ञायकरूप ही रहता है। जिस प्रकार खड़िया दीवार से तन्मय न होकर भी उसे श्वेत करती है, इसी प्रकार वह ज्ञानात्मा घट पट आदि परद्रव्यरूप ज्ञेयवस्तुओं को व्यवहार से जानता है पर उनके साथ तन्मय नहीं होता।
प.प्र./टी./१/५२/५०/१० कश्चिदाह। यदि व्यवहारेण लोकालोकं जानाति तर्हि व्यवहारनयेन सर्वज्ञत्वं, न च निश्चयनयेनेति। परिहारमाह–यथा स्वकीयमात्मानं तन्मयत्वेन जानाति तथा परद्रव्यं तन्मयत्वेन न जानाति, तेन कारणेन व्यवहारो भण्यते न च परिज्ञानाभावात् । यदि पुनर्निश्चयेन स्वद्रव्यवत्तन्मयो भूत्वा परद्रव्यं जानाति तर्हि परकीयसुखदु:खरागद्वेषपरिज्ञातो सुखी दु:खी रागी द्वेषी च स्यादिति महद्दूषणं प्राप्नोतीति।=प्रश्न–यदि केवली भगवान् व्यवहारनय से लोकालोक को जानते हैं तो व्यवहारनय से ही उन्हें सर्वज्ञत्व भी होओ परन्तु निश्चयनय से नहीं ? उत्तर–जिस प्रकार तन्मय होकर स्वकीय आत्मा को जानते हैं उसी प्रकार परद्रव्य को तन्मय होकर नहीं जानते, इस कारण व्यवहार कहा गया है, न कि उनके परिज्ञान का ही अभाव होने के कारण। यदि स्वद्रव्य की भाँति परद्रव्य को भी निश्चय से तन्मय होकर जानते तो परकीय सुख व दुःख को जानने से स्वयं सुखी दुःखी और परकीय रागद्वेष को जानने से स्वयं रागी द्वेषी हो गये होते। और इस प्रकार महत् दूषण प्राप्त होता है। (प.प्र./टी./१/५/११) और भी दे. मोक्ष/६ व हिंसा/४/५ में भी इसी प्रकार का शंका-समाधान)।
- आत्मा ज्ञेय के साथ नहीं; पर ज्ञेयाकार के साथ तन्मय होता है
रा.वा./१/१०/१०/५०/१९ यदि यथा बाह्यप्रमेयाकारात् प्रमाणमन्यत् तथाभ्यन्तरप्रमेयाकारादप्यन्यत् स्यात्, अनवस्थास्य स्यात् ।१०।...स्यादन्यत्वं स्यादनन्यत्वमित्यादि । संज्ञालक्षणादिभेदात् स्यादन्यत्वम्, व्यतिरेकेणानुपलब्धे: स्यादनन्यत्वमित्यादि।१३।=जिस प्रकार बाह्य प्रमेयाकारों से प्रमाण जुदा है, उसी तरह यदि अन्तरंग प्रमेयाकार से भी वह जुदा हो तब तो अनवस्था दोष आना ठीक है, परन्तु इनमें तो कथंचित् अन्यत्व और कथंचित् अनन्यत्व है। संज्ञा लक्षण प्रयोजन की अपेक्षा अन्यत्व है और पृथक् पृथक् रूप से अनुपलब्धि होने के कारण इनमें अनन्यत्व है। (प्र.सा./त.प्र./३६)।
प्र.सा./त.प्र./२९,३१ यथा चक्षु रूपिद्रव्याणि स्वप्रदेशैरसंस्पृशदप्रविष्टं परिच्छेद्यमाकारमात्मसात्कुर्वन्न चाप्रविष्टं जानाति। पश्यति च, एवमात्मापि....ज्ञेयतामापन्नानि समस्तवस्तूनि स्वप्रदेशैरसंस्पृशन्न प्रविष्ट:....समस्तज्ञेयाकारानुन्मूल्य इव कलयन्न चाप्रविष्टो जानाति पश्यति च। एवमस्य विचित्रशक्तियोगिनो ज्ञानिनोऽर्थेष्वप्रवेश इव प्रवेशोऽपि सिद्धिमवतरति।२९।...यदि खलु...सर्वेऽर्था न प्रतिभान्ति ज्ञाने तदा तन्न सर्वगतमभ्युपगम्येत। अभ्युपगम्येत वा सर्वगतम् । तर्हि साक्षात् संवेदनमुकुरुन्दभूमिकावतीर्णप्रमिबिम्बस्थानीयस्वसंवेद्याकारणानि परम्परया प्रतिबिम्बस्थानीयसंवेद्याकारकारणानीति कथं न ज्ञानस्थायिनोऽर्था निश्चीयन्ते।=जिस प्रकार चक्षु रूपीद्रव्यों को स्वप्रदेशों के द्वारा अस्पर्श करता हुआ अप्रविष्ट रहकर (उन्हें जानता देखता है), तथा ज्ञेयाकारों को आत्मसात्कार करता हुआ अप्रविष्ट न रहकर जानता देखता है, उसी प्रकार आत्मा भी ज्ञेयभूत समस्त वस्तुओं को स्वप्रदेशों से अस्पर्श करता है, इसलिए अप्रविष्ट रहकर (उनको जानता देखता है), तथा वस्तुओं में वर्तते हुए समस्त ज्ञेयाकारों को मानो मूल में से उखाड़कर ग्रास कर लिया हो, ऐसे अप्रविष्ट न रहकर जानता देखता है। इस प्रकार इस विचित्र शक्तिवाले आत्मा के पदार्थ में अप्रवेश की भाँति प्रवेश भी सिद्ध होता है।२९। यदि समस्त पदार्थ ज्ञान में प्रतिभासित न हों तो वह ज्ञान सर्वगत नहीं माना जाता। और यदि वह सर्वगत माना जाय तो फिर साक्षात् ज्ञानदर्पण भूमिका में अवतरित बिम्ब की भाँति अपने अपने ज्ञेयाकारों के कारण (होने से), और परम्परा से प्रतिबिम्ब के समान ज्ञेयाकारों के कारण होने से पदार्थ कैसे ज्ञानस्थित निश्चित नहीं होते।३१। (प्र.सा./त.प्र./३६) (प्र.सा./पं.जयचन्द/१७४)
- आत्मा ज्ञेयरूप नहीं, पर ज्ञेय के आकार रूप अवश्य परिणमन करता है
स.सा./आ./४९ सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाद्रसपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वयं रसरूपेणापरिणमनाच्चारस:।=(उसे समस्त ज्ञेयों का ज्ञान होता है परन्तु) सकल ज्ञेयज्ञायक के तादात्म्य का निषेध होने से रस के ज्ञानरूप में परिणमित होने पर भी स्वयं रस रूप परिणमित नहीं होता, इसलिए (आत्मा) अरस है।
- ज्ञानाकार व ज्ञेयाकार का अर्थ
रा.वा./१/६/५/३४/२९ अथवा, चैतन्यशक्तेर्द्वावाकारौ ज्ञानाकारो ज्ञेयाकारश्च। अनुपयुक्तप्रतिबिम्बाकारादर्शतलवत् ज्ञानाकार:, प्रतिबिम्बाकारपरिणतादर्शतलवत् ज्ञेयाकार:।=चैतन्य शक्ति के दो आकार हैं ज्ञानाकार और ज्ञेयाकार। तहां प्रतिबिम्बशून्य दर्पणतलवत् तो ज्ञानाकार है और प्रतिबिम्ब सहित दर्पणतलवत् ज्ञेयाकार है।
- वास्तव में ज्ञेयाकारों से प्रतिबिम्बित निजात्मा को देखते हैं
रा.वा./१/१२/१५/५६/२३ अथ द्रव्यसिद्धिर्माभूदिति ‘आकार एव न ज्ञानम्’ इति कल्प्यते; एवं सति कस्य ते आकारा इति तेषामप्यभाव: स्यात् ।=यदि (बौद्ध लोग) अनेकान्तात्मक द्रव्यसिद्धि के भय से केवल आकार ही आकार मानते हैं, पर ज्ञान नहीं तो यह प्रश्न होता है कि वे आकार किसके हैं, क्योंकि निराश्रय आकार तो रह नहीं सकते हैं। ज्ञान का अभाव होने से आकारों का भी अभाव हो जायेगा।
ध. १३/५,५,८४/३५३/२ अशेषबाह्यार्थग्रहणे सत्यपि न केवलिन: सर्वज्ञता, स्वरूपपरिच्छित्त्यभावादित्युक्ते आह—‘पस्सदि’ त्रिकालगोचरानन्तपर्यायोपचितमात्मानं च पश्यति। =केवली द्वारा अशेष बाह्य पदार्थों का ज्ञान होने पर भी उनका सर्वज्ञ होना सम्भव नहीं है, क्योंकि उनके स्वरूपपरिच्छित्ति अर्थात् स्वसंवेदन का अभाव है; ऐसी आशंका के होने पर सूत्र में ‘पश्यति’ कहा है। अर्थात् वे त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायों से उपचित आत्मा को भी देखते हैं।
प्र.सा./त.प्र./४९ आत्मा हि तावत्स्वयं ज्ञानमयत्वे सति ज्ञातृत्वात् ज्ञानमेव। ज्ञानं तु प्रत्यात्मवर्ति प्रतिभासमयं महासामान्यम् । तत्तु प्रतिभासमयानन्तविशेषव्यापि। ते च सर्वद्रव्यपर्यायनिबन्धना:। अथ य: ...प्रतिभासमयमहासामान्यरूपमात्मानं स्वानुभवप्रत्यक्षं न करोति स कथं...सर्वद्रव्यपर्यायान् प्रत्यक्षीकुर्यात् ।...एवं च सति ज्ञानमयत्वेन स्वसंचेतकत्वादात्मानो ज्ञातृज्ञेययोर्वस्तुत्वे नान्यत्वे सत्यपि प्रतिभासप्रतिभास्यमानयो: स्वस्यामवस्थायामन्योन्यसंबलनेनात्यन्तमशक्यविवेचनत्वात्सर्वमात्मनि निखातमिव प्रतिभाति। यद्येवं न स्यात् तदा ज्ञानस्य परिपूर्णात्मसंचेतनाभावात् परिपूर्णस्यैकस्यात्मनोऽपि ज्ञान न सिद्धयेत् ।=पहिले तो आत्मा वास्तव में स्वयं ज्ञानमय होने से ज्ञातृत्व के कारण ज्ञान ही है; और ज्ञान प्रत्येक आत्मा में वर्तता हुआ प्रतिभासमय महासामान्य है; वह प्रतिभास अनन्त विशेषों में व्याप्त होने वाला है और उन विशेषों के निमित्त सर्व द्रव्यपर्याय हैं। अब जो पुरुष उस प्रतिभासमय महासामान्यरूप आत्मा का स्वानुभव प्रत्यक्ष नहीं करता वह सर्वद्रव्य पर्यायों को कैसे प्रत्यक्ष कर सकेगा? अत: जो आत्मा को नहीं जानता व सबको नहीं जानता। आत्मा ज्ञानमयता के कारण संचेतक होने से, ज्ञाता और ज्ञेय का वस्तुरूप से अन्यत्व होने पर भी, प्रतिभास और प्रतिभास्यमानकर अपनी अवस्था में अन्योन्य मिलन होने के कारण, उन्हें (ज्ञान व ज्ञेयाकार को) भिन्न करना अत्यन्त अशक्य है इसलिए, मानो सब कुछ आत्मा में प्रविष्ट हो गया हो इस प्रकार प्रतिभासित होता है। यदि ऐसा न हो तो ज्ञान के परिपूर्ण आत्मसंचेतन का अभाव होने से परिपूर्ण एक आत्मा का भी ज्ञान सिद्ध न हो। (प्र.सा./त.प्र./४८), (प्र.सा./ता.वृ./३५), (पं.ध./पू./६७३)
स.सा./परिशिष्ट/क२५१ ज्ञेयाकारकलङ्कमेचकचिति प्रक्षालनं कल्पयन्नेकाकारचिकीर्षया स्फुटमपि ज्ञानं पशुर्नेच्छति।...।२५१।=ज्ञेयाकारों को धोकर चेतन को एकाकार करने की इच्छा से अज्ञानीजन वास्तव में ज्ञान को ही नहीं चाहता। ज्ञानी तो विचित्र होने पर भी ज्ञान को प्रक्षालित ही अनुभव करता है।
- ज्ञेयाकार में ज्ञेय का उपचार करके ज्ञेय को जाना कहा जाता है
प्र.सा./त.प्र./३० यथा किलेन्द्रनीलरत्नं दुग्धमधिवसत्स्वप्रभाभारेण तदभिभूय वर्तमाने, तथा संवेदनमप्यात्मनोऽभिन्नत्वात्...समस्तज्ञेयाकारानभिव्याप्यं वर्तमानं कार्यकारणत्वेनोपचर्य ज्ञानमर्थानभिभूय वर्तत इत्युच्यमान न विप्रतिषिध्यते।=जैसे दूध में पड़ा हुआ इन्द्रनीलरत्न अपने प्रभावसमूह से दूध में व्याप्त होकर वर्तता हुआ दिखाई देता है, उसी प्रकार संवेदन (ज्ञान) भी आत्मा से अभिन्न होने से समस्त ज्ञेयाकारों में व्याप्त हुआ वर्तता है, इसलिए कार्य में कारण का उपचार करके यह कहने में विरोध नहीं आता, कि ज्ञान पदार्थों में व्याप्त होकर वर्तता है;(स.सा./पं.जयचन्द/६)
स.सा./ता.वृ./२६८ घटाकारपरिणतं ज्ञानं घट इत्युपचारेणोच्यते। =घटाकार परिणत ज्ञान को ही उपचार से घट कहते हैं।
- छद्मस्थ भी निश्चय से स्व को और व्यवहार से पर को जानता है
प्र.सा८/ता.वृ./३९/५२/१६ यथायं केवली परकीयद्रव्यपर्यायान् यद्यपि परिच्छित्तिमात्रेण जानाति तथापि निश्चयनयेन सहजानन्दैकस्वभावे स्वशुद्धात्मनि तन्मयत्वेन परिच्छित्तिं करोति, तथा निर्मलविवेकिजनोऽपि यद्यपि व्यवहारेण परकीयद्रव्यगुणपर्यायपरिज्ञानं करोति, तथापि निश्चयेन निर्विकारस्वसंवेदनपर्याये विषयत्वात्पर्यायेण परिज्ञानं करोतीति सूत्रतात्पर्यम् ।=जिस प्रकार केवली भगवान् परकीय द्रव्यपर्यायों को यद्यपि परिच्छित्तिमात्ररूप से जानते हैं तथापि निश्चयनय से सहजानन्दरूप एकस्वभावी शुद्धात्मा में ही तन्मय होकर परिच्छित्ति करते हैं, उसी प्रकार निर्मल विवेकीजन भी यद्यपि व्यवहार से परकीय द्रव्यगुण पर्यायों का ज्ञान करता है परन्तु निश्चय से निर्विकार स्वसंवेदन पर्याय में ही तद्विषयक पर्याय का ही ज्ञान करता है।
- केवलज्ञान के स्व–पर प्रकाशकपने का समन्वय
नि.सा./मू./१६६-१७२ अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं। जह कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ।१६६। मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च। पेच्छंतस्स दु णाणं पच्चक्खमर्णिदियं होइ।१६७। पुव्वुत्तसयलदव्वं णाणागुणपज्जएण संजुत्तं। जो ण य पेच्छइ सम्मं परोक्खदिट्ठी हवे तस्स।१६८। लोयालोयं जाणइ अप्पाणं णेव केवली भगवं। जो केइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ।१६९। णाणं जीवसरूवं तम्हा जाणइ अप्पगं अप्पा। अप्पाणं ण वि जाणदि अप्पादो होदि विदिरित्तं।१७०। अप्पाणं विणु णाणं णाणं विणु अप्पगो ण संदेहो। तम्हा सपरपयासं णाणं तह दंसणं होदि।१७१। जाणंतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो। केवलणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो।१७२।=प्रश्न—केवली भगवान् आत्मस्वरूप को देखते हैं लोकालोक को नहीं, ऐसा यदि कोई कहे तो उसे क्या दोष है?।१६६। उत्तर—मूर्त, अमूर्त, चेतन व अचेतन द्रव्यों को स्व को तथा समस्त को देखने वाले को ही ज्ञान प्रत्यक्ष और अनिश्चय कहलाता है। विविध गुणों और पर्यायों से संयुक्त पूर्वोक्त समस्त द्रव्यों को जो सम्यक् प्रकार नहीं देखता उसकी दृष्टि परोक्ष है।१६७-१६८। प्रश्न—(तो फिर) केवली भगवान् लोकालोक को जानते हैं आत्मा को नहीं ऐसा यदि कहें तो क्या दोष है।१६९। उत्तर—ज्ञान जीव का स्वरूप है, इसलिए आत्मा आत्मा को जानता है, यदि ज्ञान आत्मा को न जाने तो वह आत्मा से पृथक् सिद्ध हो। इसलिए तू आत्मा को ज्ञान जान और ज्ञान को आत्मा जान। इसमें तनिक भी सन्देह न कर। इसलिए ज्ञान भी स्वपरप्रकाशक है और दर्शन भी (ऐसा निश्चय कर)–(और भी देखें - दर्शन / २ / ६ )१७०-१७१। प्रश्न—(पर को जानने से तो केवली भगवान् को बन्ध होने का प्रसंग आयेगा, क्योंकि ऐसा होने से वे स्वभाव में स्थित न रह सकेंगे)? उत्तर—केवली का जानना देखना क्योंकि इच्छापूर्वक नहीं होता है, (स्वाभाविक होता है) इसलिए उस जानने देखने से उन्हें बन्ध नहीं है।१७२।
नि.सा./ता.वृ./गा. स भगवान्...सच्चिदानन्दमयमात्मानं निश्चयत: पश्यतीति शुद्धनिश्चयनयविवक्षयाय: कोऽपि शुद्धान्तस्तत्त्ववेदी परमजिनयोगीश्वरो वक्ति तस्य च न खलु दूषणं भवतीति।१६६। पराश्रितो व्यवहार इति मानाद् व्यवहारेण व्यवहारप्रधानत्वात् निरुपरागशुद्धात्मस्वरूपं नैव जानाति (लोकालोकं जानाति) यदि व्यवहारनयविवक्षया कोऽपि जिननाथतत्त्वविचारलब्ध: कदाचिदेवं वक्ति चेत् तस्य न खलु दूषणमिति।१६९। केवलज्ञानदर्शनाभ्यां व्यवहारनयेन जगत्त्रयं एकस्मिन् समये जानाति पश्यति च स भगवान् परमेश्वर: परम, भट्टारक; पराश्रितो व्यवहार: इति वचनात् । शुद्धनिश्चयत:...निजकारणपरमात्मानं स्वयं कार्यपरमात्मापि जानाति पश्यति च।...किं कृत्वा, ज्ञानस्य धर्मोऽयं तावत् स्वपरप्रकाशकत्वं प्रदीपवत् ।...आत्मापि व्यवहारेण जगत्त्रयं कालत्रयं च परंज्योति:स्वरूपत्वात् स्वयंप्रकाशात्मकमात्मानं च प्रकाशयति।...अथ निश्चयपक्षेऽपि स्वपरप्रकाशकत्वमस्त्येति सततनिरुपरागनिरञ्जनस्वभावनिरतत्वात् स्वाश्रितो निश्चय: इति वचनात् । सहजज्ञानं तावदात्मन: सकाशात् संज्ञालक्षणप्रयोजनेन...भिन्नं भवति न वस्तुवृत्त्या चेति, अत: कारणात् एतदात्मगतदर्शनसुखचारित्रादिकं जानाति स्वात्मानं कारणपरमात्मस्वरूपमपि जानाति।१५९।=वह भगवान् आत्मा को निश्चय से देखते हैं’’ शुद्धनिश्चयनय की विवक्षा से यदि शुद्ध अन्तस्तत्त्व का वेदन करने वाला अर्थात् ध्यानस्थ पुरुष या परम जिनयोगीश्वर कहें तो उनको कोई दूषण नहीं है।१६६। और व्यवहारनय क्योंकि पराश्रित होता है, इसलिए व्यवहारनय से व्यवहार या भेद की प्रधानता होने के कारण ‘शुद्धात्मरूप को नहीं जानते, लोकालोक को जानते हैं’ ऐसा यदि कोई जिननाथतत्त्व का विचार करने वाला अर्थात् विकल्पस्थित पुरुष व्यवहारनय की विवक्षा से कहे तो उसे भी कोई दूषण नहीं है।१६९। अर्थात् विवक्षावश दोनों ही बातें ठीक हैं। (अब दूसरे प्रकार से भी आत्मा का स्वपरप्रकाशकत्व दर्शाते हैं, तहाँ व्यवहार से तथा निश्चय से दोनों अपेक्षाओं से ही ज्ञान को व आत्मा को स्वपरप्रकाशक सिद्ध किया है) सो कैसे—केवलज्ञान व केवलदर्शन से व्यवहारनय की अपेक्षा वह भगवान् तीनों जगत् को एक समय में जानते हैं, क्योंकि व्यवहारनय पराश्रित कथन करता है। और शुद्धनिश्चयनय से निज कारण परमात्मा व कार्य परमात्मा को देखते व जानते हैं (क्योंकि निश्चयनय स्वाश्रित कथन करता है। दीपकवत् स्वपरप्रकाशकपना ज्ञान का धर्म है।१६९।=इसी प्रकार आत्मा भी व्यवहारनय से जगत्त्रय कालत्रय को और परंज्योति स्वरूप होने के कारण (निश्चय से) स्वयं प्रकाशात्मक आत्मा को भी जानता है।१५९। निश्चयनय के पक्ष में भी ज्ञान के स्वपरप्रकाशकपना है। (निश्चय नय से) वह सतत निरुपराग निरंजन स्वभाव में अवस्थित है, क्योंकि निश्चय नय स्वाश्रित कथन करता है। सहज ज्ञान संज्ञा, लक्षण व प्रयोजन की अपेक्षा आत्मा से कथंचित् भिन्न है, वस्तुवृत्ति रूप से नहीं। इसलिए वह उस आत्मगत दर्शन, सुख, चारित्रादि गुणों को जानता है, और स्वात्मा को भी कारण परमात्मस्वरूप जानता है। (इस प्रकार स्व पर दोनों को जानता है।) (और भी देखें - दर्शन / २ / ६ ) (और भी देखो नय/V/७/१) तथा (नय/V/९/४)।
- निश्चय से स्व को और व्यवहार से पर को जानता है