उदय
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
जीव के पूर्वकृत जो शुभ या अशुभ कर्म उसकी चित्तभूमि पर अंकित पड़े रहते हैं, वे अपने-अपने समय पर परिपक्व दशा को प्राप्त हो कर जीव को फल देकर खिर जाते हैं। इसे ही कर्मों का उदय कहते हैं। कर्मों का यह उदय द्रव्य क्षेत्र काल व भव की अपेक्षा रखकर आता है। कर्म के उदय में जीव के परिणाम उस कर्म की प्रकृति के अनुसार ही नियम से हो जाते हैं, इसी से कर्मों को जीव का पराभव करने वाला कहा गया है।- भेद, लक्षण व प्रकृतियाँ
- अनेक अपेक्षाओं से उदय के भेद
- द्रव्य कर्मोदयका लक्षण
- भाव कर्मोदयका लक्षण
- स्वमुखोदय व परमुखोदय के लक्षण
- संप्राप्ति जनित व निषेक जनित उदय का लक्षण
- उदयस्थान का लक्षण
- सामान्य उदय योग्य प्रकृतियाँ
- ध्रुवोदयी प्रकृतियाँ
- स्वोदय परोदय बंधी आदि प्रकृतियाँ - देखें उदय - 7
- उदय सामान्य निर्देश
- कर्मोदय के अनुसार ही जीव के परिणाम होते हैं - देखें कारण - III.5
- कर्मोदयानुसार परिणमन व मोक्ष का समन्वय - देखें कारण - IV.2
- कर्मोदय की उपेक्षा ही जाना संभव है - देखें विभाव - 4
- उदय का अभाव होने पर जीव में शुद्धता आती है
- कर्म का उदय द्रव्य क्षेत्रादि के निमित्त से होता है
- द्रव्य क्षेत्रादि की अनुकूलता में स्वमुखेन और प्रतिकूलता में परमुखेन उदय होता है।
- बिना फल दिये निर्जीर्ण होनेवाले कर्मों की उदय संज्ञा कैसे हो सकती है?
- कर्मोदय के निमित्तभूत कुछ द्रव्यों का निर्देश
- कर्मप्रकृतियों का फल यथाकाल भी होता है और अयथाकाल भी
- बंध, उदय व सत्त्वमें अंतर
- कषायोदय व स्थितिबंधाध्यवसाय स्थानों में अंतर - देखें अध्यवसाय
- उदय व उदीरणा में अंतर - देखें उदीरणा
- ईर्यापथकर्म - देखें ईर्यापथ - 3
- निषेक रचना
- उदय सामान्य की निषेक रचना
- सत्त्व की निषेक रचना
- सत्त्व व उदयागत द्रव्य विभाजन
- उदयागत निषेकों का त्रिकोण यंत्र
- सत्त्वगत निषेकों का त्रिकोण यंत्र
- उपशमकरण द्वारा उदयागत निषेक रचनामें परिवर्तन
- उदय प्ररूपणा संबंधी कुछ नियम
- मूल प्रकृति का स्वमुख तथा उत्तर प्रकृतियों का स्व व परमुख उदय होता है
- सर्वघाती में देशघाती का उदय होता है, पर देशघाती में सर्वघाती का नहीं
- निद्रा प्रकृति के उदय संबंधी नियम - देखें निद्रा - 3
- ऊपर ऊपर की चारित्रमोह प्रकृतियों में नीचे-नीचे वाली तज्जातीय प्रकृतियों का उदय अवश्य होता है
- अनंतानुबंधी के उदय संबंधी विशेषताएँ
- दर्शनमोहनीय के उदय संबंधी नियम
- चारित्र मोहनीय की प्रकृतियों में सहवर्ती उदय संबंधी नियम
- नामकर्म की प्रकृतियों के उदय संबंधी
- चार जाति व स्थावर इन पाँच प्रकृतियों की उदय व्युच्छित्ति संबंधी दो मत।
- संस्थान का उदय विग्रहगति में नहीं होता।
- गति, आयु व आनुपूर्वी का उदय भवके प्रथम समयमें ही हो जाता है।
- आतप-उद्योत का उदय तेज, वात व सूक्ष्म में नहीं होता।
- आहारकद्विक व तीर्थंकर प्रकृति का उदय पुरुषवेदी को ही संभव है।
- तीर्थंकर प्रकृति के उदय संबंधी - देखें तीर्थंकर
- नामकर्मकी प्रकृतियोंमें सहवर्ती उदय संबंधी
- उदय के स्वामित्व संबंधी सारणी
- गोत्र प्रकृतिके उदय संबंधी - देखें वर्ण व्यवस्था
- कषायों का व साता वेदनीय का उदयकाल - देखें वह वह नाम
- प्रकृतियों के उदय संबंधी शंका समाधान
- पुद्गल जीव पर प्रभाव कैसे डाले - देखें कारण - IV.2
- प्रत्येक कर्म का उदय हर समय क्यों नहीं रहता? - देखें उदय - 2.3
- असंज्ञियों में देवादि गति का उदय कैसे होता है?
- तेजकायिकोंमें आतप वा उद्योत क्यों नहीं? - देखें उदय - 4.7
- देवगति में उद्योत के बिना दीप्ति कैसे है?
- एकेंद्रियों में अंगोपांग व संस्थान क्यों नहीं?
- विकलेंद्रियों में हुँडक संस्थान व दुःस्वर ही क्यों?
- कर्म प्रकृतियों की उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएँ
- सारिणी में प्रयुक्त संकेतोंके अर्थ
- उदय व्युच्छित्ति की ओघ प्ररूपणा
- उदय व्युच्छित्ति की आदेश प्ररूपणा
- सातिशय मिथ्यादृष्टि में मूलोत्तर प्रकृति के चार प्रकार उदय की प्ररूपणा
- मूलोत्तर प्रकृति सामान्य उदयस्थान प्ररूपणा
- मोहनीय की सामान्य व ओघ उदयस्थान प्ररूपणा
- नामकर्म की उदयस्थान प्ररूपणाएँ
- युगपत् उदय आने योग्य विकल्प तथा संकेत।
- नामकर्म के कुछ स्थान व भंग।
- नामकर्मके उदय स्थानोंकी ओघ प्ररूपणा।
- उदय स्थान जीव समास प्ररूपणा।
- उदय स्थान आदेश प्ररूपणा।
- पाँच कालों की अपेक्षा नामकर्मोदय स्थानों की सामान्य प्ररूपणा।
- पाँच कालों की अपेक्षा नामकर्मोदय स्थानों की चतुर्गति प्ररूपणा।
- प्रकृति स्थिति आदि उदयों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणाओं की सूची।
- उदय उदीरणा व बंधकी संयोगी स्थान प्ररूपणाएँ
- उदय व्युच्छित्ति के पश्चात्, पूर्व व युगपत् बंध व्युच्छित्ति योग्य प्रकृतियाँ
- स्वोदय परोदय व उभयबंधी प्रकृतियाँ
- आतप व उद्योत का परोदय बंध होता है- देखें उदय - 4.7
- यद्यपि मोहनीय का जघन्य उदय स्व प्रकृति का बंध करने को असमर्थ है परंतु वह भी सामान्य बंध में कारण है - देखें बंध - 3
- किन्हीं प्रकृतियों के बंध व उदय में अविनाभावी सामानाधिकरण्य
- मूल व उत्तर बंध उदय संबंधी संयोगी प्ररूपणा
- मूल प्रकृति बंध, उदय व उदीरणा संबंधी संयोगी प्ररूपणा
- सभी प्रकृतियों का उदय बंध का कारण नहीं - देखें उदय - 9
- बंध उदय सत्त्वकी त्रिसंयोगी स्थान-प्ररूपणा
- मूलोत्तर प्रकृति स्थानों की त्रिसंयोगी ओघप्ररूपणा
- चार गतियों में आयुकर्म स्थानों की त्रिसंयोगी सामान्य व ओघ प्ररूपणा
- मोहनीय कर्म की सामान्य त्रिसंयोगी स्थान प्ररूपणा
- बंध आधार-उदय सत्त्व आधेय।
- उदय आधार-बंध सत्त्व आधेय।
- सत्त्व आधार-बंध उदय आधेय।
- बंध उदय आधार-सत्त्व आधेय।
- बंध सत्त्व आधार-उदय आधेय।
- उदय सत्त्व आधार-बंध आधेय।
- मोहनीय कर्म स्थानों की त्रिसंयोगी ओघ प्ररूपणा
- नामकर्म की सामान्य त्रिसंयोगी स्थान प्ररूपणा
- बंध आधार-उदय सत्त्व आधेय।
- उदय आधार-बंध सत्त्व आधेय।
- सत्त्व आधार-बंध उदय आधेय।
- बंध उदय आधार-सत्त्व आधेय।
- बंध सत्त्व आधार-उदय आधेय।
- उदय सत्त्व आधार-बंध आधेय।
- नामकर्म स्थानों की त्रिसंयोगी ओघ प्ररूपणा
- जीव समासोंकी अपेक्षा नामकर्म स्थानकी त्रिसंयोगी प्ररूपणा
- नामकर्म स्थानोंकी त्रिसंयोगी आदेश प्ररूपणा
- औदयिक भाव निर्देश
- औदयिक भावका लक्षण
- औदयिक भावके भेद • औदयिक भाव बंधका कारण है - देखें भाव - 2
- मोहज औदयिक भाव ही बंधके कारण हैं अन्य नहीं
- वास्तवमें मोहजनित भाव ही औदयिक हैं, उसके बिना सब औदयिक भी क्षायिक हैं
• मूलोत्तर प्रकृतियोंके चारों प्रकारके उदय व उनके स्वामियों संबंधी संख्या, क्षेत्र, काल, अंतर व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ - देखें [[वह वह नाम#9 | वह वह नाम -
• असिद्धत्वादि भावोंमें औदयिकपना - देखें वह वह नाम • क्षायोपशमिक भावमें कथंचित् औदायिकपना - देखें क्षयोपशम • गुणस्थानों व मार्गणास्थानोंमें औदायिकभावपना तथा तत्संबंधी शंका समाधान - देखें वह वह नाम • कषाय व जीवत्वभावमें कथंचित् औदयिक व पारिणामिकपना - देखें वह वह नाम • औदयिक भाव जीवका निज तत्त्व है - देखें भाव - 2 • औदयिक भावका आगम व अध्यात्म पद्धतिसे निर्देश - देखें पद्धति - 1
- भेद, लक्षण व प्रकृतियाँ
- अनेक अपेक्षाओं से उदय के भेद सर्वार्थसिद्धि 8/21/398/7 स एवं प्रत्ययवशादुपात्तोऽनुभवो द्विधा वर्तते स्वमुखेन परमुखेन च। = इस प्रकार कारणवशसे प्राप्त हुआ वह अनुभव दो प्रकारसे प्रवृत्त होता है - 1. स्वमुखसे और 2 परमुखसे। ( राजवार्तिक 8/21/1/583/16 ) पं.सं./प्रा. 4/513 काल-भव-खेत्तपेही उदओ सविवाग अविवागो। = काल, भव और क्षेत्रका निमित्त पाकर कर्मोंका उदय होता है। वह दो प्रकारका है-1. सविपाक उदय और 2. अविपाक उदय। (पं.सं./सं. 4/368)। तीव्र मंदादिउदयः धवला 1/1,136/388/3 षड्विधः कषायोदयः। तद्यथा, तीव्रतमः, तीव्रतरः, तीव्रः, मंदः, मंदतरः, मंदतम इति। = कषायका उदय छह प्रकारका होता है। वह इस प्रकार है। तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मंद, मंदतर, मंदतम। प्रकृति स्थियि आदिकी अपेक्षा भेद :- धवला /15/285-289 उदय प्रकृति स्थिति अनुभाग प्रदेश पृ. 289 मूल उत्तर मूल उत्तर पृ. 289 प्रयोग जनित स्थिति क्षय जनित पृ. 289 उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट अजघन्य जघन्य
- द्रव्य कर्मोदयका लक्षण
- भावकर्मोदयका लक्षण
- स्वमुखोदय व परमुखोदयके लक्षण
- संप्राप्तिजनित व निषेक जनित उदय
- उदयस्थानका लक्षण
- सामान्य उदय योग्य प्रकृतियाँ
- ध्रुवोदयी प्रकृतियाँ
- उदय सामान्य निर्देश
- कर्म कभी बिना फल दिये नहीं झड़ते
- उदयका अभाव होने पर जीवमें शुद्धता आती है
- कर्मका उदय द्रव्य क्षेत्र आदिके निमित्तसे होता है
- द्रव्यक्षेत्रादिकी अनुकूलतामें स्वमुखेन और प्रतिकूलतामें परमुखेन उदय होता है।
- बिना फल दिये निर्जीर्ण होनेवाले कर्मोंकी उदय संज्ञा कैसे हो सकती है?
- कर्मोदयके निमित्तभूत कुछ द्रव्योंका निर्देश- गो.क./भाषा 68/61/15 जिस जिस प्रकृतिका जो जो उदय फलरूप कार्य है तिस तिस कार्यको जो बाह्यवस्तु कारणभूत होइ सो सो वस्तु तिस प्रकृतिका नोकर्म द्रव्य जानना (जैसे)- (गो.क. 69-88/61-71)।
- कर्मप्रकृतियोंका फल यथाकाल भी होता है और अयथाकाल भी
- बंध, उदय व सत्त्वमें अंतर
- निषेक रचना
- उदय सामान्यकी निषेक रचना
- सत्त्वकी निषेक रचना गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/ भाषा 942/1141 तातै समय प्रति समय एक-एक समय प्रबद्धका एक-एक निषेक मिलि (कुल) एक समयप्रबद्धका उदय हो है। बहुरि गले पीछे अवशेष रहे सर्व-निषेक तिनिको जोड़ै किंचिदून अर्धगुणहानिगुणित समय प्रमाण सत्त्व हो है। कैसे-सो कहिये है। जिस समयप्रबद्धका एक हू निषेक गल्या नांहीं ताके सर्व निषेक नीचै पंक्तिविषै लिखिये। बहुरि ताकै ऊपरि जिस समयप्रबद्धका एक निषेक गल्या होइ ताके आदि (512 वाले) निषेक बिना अवशेष निषेक पंक्ति विषै लिखिये। बहुरि ताकै ऊपरि जिस समयप्रबद्धके दोय निषेक गले होंइ ताकै आदिके दोय (512, 480) बिना अवशेष निषेक पंक्तिविषै लिखिये। ऐसे ही ऊपरि-ऊपरि एक-एक निषेक घटता लिखि सर्व उपरि जिस समयप्रबद्धके अन्य निषेक गलि गये, एक अवशेष रहा होइ ताका अंत (9 का) निषेक लिखना। ऐसे करते त्रिकोण रचना हो है। अंक संदृष्टि करि जैसे-नीचे ही 48 निषेक लिखे ताके उपरि 512 वालेके बिना 80 निषेक लिखें। ऐसे ही क्रमतै उपरि ही उपरि 9 वाला निषेक लिख्या। ऐसे लिखतै त्रिकूण हू रचना हो है। तातै तिस त्रिकोण यंत्रका जोड़ा हुआ सर्व द्रव्यप्रमाण सत्त्व द्रव्य जानना। सो कितना हो है सो कहिये है-किंचिदून द्व्यर्ध गुणहानि गुणित समयप्रबद्धप्रमाण ही है।
- सत्त्व व उदयगत द्रव्य विभाजन 1. सत्त्व गत- एक समयप्रबद्धमें कुल द्रव्यका प्रमाण 6300 है। तो प्रथम समयसे लेकर सत्ताके अंतसमय पर्यंत यथायोग्य अनेकों गुण हानियोंद्वारा विशेष चय हीन क्रमसे उसका विभाजन निम्न प्रकार है। यद्यपि यहाँ प्रत्येक गुणहानिको बराबर बराबर दर्शाया है, परंतु इसको एक दूसरेके ऊपर रखकर प्रत्येक सत्ताका द्रव्य जानना। अर्थात् षष्ठ गुणहानिके उपर पंचमको और उसके ऊपर चतुर्थ आदिको रखकर प्रथम निषेक अंतिम निषेक पर्यंते क्रमिक हानि जाननी चाहिए।
- उदयागत निषेकोंका त्रिकोण यंत्र देखें पृ - 369
- सत्वगत निषेकोंका त्रिकोण यंत्र देखें पृ - 370
- उपशमकरण द्वारा उदयागत निषेक रचनामें परिवर्तन लब्धिसार/ भाषा 247/303/20 जब उदयावलीका एक समय व्यतीत होइ तब गुणश्रेणी निर्जराका एक समय उदयावली विषै मिलै। और तब ही गुणश्रेणीविषै अंतरायामका एक समय मिलै और तब ही अंतरायामविषै द्वितीयस्थितिका (उपरला) एक निषेक मिले, द्वितीय स्थिति घटै है। प्रथम स्थिति और अंतरायाम जेताका तेता रहै।
- उदय प्ररूपणा संबंधी कुछ नियम
- मूल प्रकृतिका स्वमुख तथा उत्तर प्रकृतियोंका स्व व परमुख उदय होता है।
- सर्वघातीमें देशघातीका उदय होता है पर देशघातीमें सर्वघातीका नहीं/li> गोम्मटसार जीवकांड/ भाषा 651/6 यद्यपि क्षायोपशमिकविषै तिस आवरणके देशघाती स्पर्धकनिका उदय पाइये है, तथापि वह तिस ज्ञानका घात करनेकूं समर्थ नाहीं है, तातै ताकी मुख्यता न करी। याका उदाहरण कहिये है-अवधिज्ञानावरण कर्म सामान्यपने देशघाती है तथापि अनुभागका विशेष कींए याके केई स्पर्धक सर्वघाती हैं, केई स्पर्धक देशघाती हैं। तहाँ जिनिके अवधिज्ञान कुछू भी नाहीं तिनिके सर्वघाती स्पर्धकनिका उदय जानना। बहुरि जिनिके अवधिज्ञान पाइये है और आवरण उदय पाइये है तहाँ देशघाती स्पर्धकनिका उदय जानना।
- ऊपर-ऊपरकी चारित्रमोह प्रकृतियोंमें नीचे-नीचे वाली तज्जातीय प्रकृतियोंका उदय अवश्य होता है
- अनंतानुबंधीके उदय संबंधी विशेषताएँ
- दर्शनमोहनीयके उदय संबंधी नियम
- चारित्रमोहनीयकी प्रकृतियोंमें सहवर्ती उदय संबंधी नियम
- नाम कर्मकी प्रकृतियोंके उदय संबंधी
- 1-4 इंद्रिय व स्थावर इन पाँच प्रकृतियोंकी उदय व्युच्छित्ति संबंधी दो मत गो.क./भाषा 263/395/18 इस पक्ष विषैं-एकेंद्री, स्थावर, बेंद्री, तेंद्री, चौंद्री इन नामकर्मकी प्रकृतिनिकी व्युच्छित्ति मिथ्यादृष्टि विषै कही है। सासादन विषै इनका उदय न कह्या। दूसरी पक्ष विषै इनका उदय सासादन विषै भी कहा है, ऐसे दोऊ पक्ष आचार्यनि कर जानने। (विशेष देखो आगे उदयकी ओघ प्ररूपणा)
- संस्थानका उदय विग्रह गतिमें नहीं होता
- गति, आयु व आनुपूर्वी का उदय भवके प्रथम समय ही हो जाता है
- आतप-उद्योतका उदय तेज, वात व सूक्ष्ममें नहीं होता
- आहारकद्विक व तीर्थंकर प्रकृतिका उदय पुरुषवेदीको ही संभव है
- नामकर्म की प्रकृतियों में सहवर्ती उदय संबंधी
- उदयके स्वामित्व संबंधी सारणी (गो.क.285-289)
- प्रकृतियों के उदय संबंधी शंका-समाधान
- असंज्ञियोंमें देवादि गतिका उदय कैसे है?
- देवगतिमें उद्योतके बिना दीप्ति कैसे है?
- एकेंद्रियोंमें अंगोपांग व संस्थान क्यों नहीं?
- विकलेंद्रियोंमें हुंडक संस्थान व दुःस्वर ही क्यों?
- कर्म प्रकृतियों की उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएँ
- सारणीमें प्रयुक्त संकेतोंके अर्थ
- उदय व्युच्छित्तिकी ओघ प्ररूपणा नोट-उदय योग्यमें-से अनुदय घटाकर पुनः उदयकी प्रकृतियाँ जोड़नेपर उस स्थानकी कुल प्रकृतियाँ प्राप्त होती हैं। इनमें-से व्युच्छित्तिकी प्रकृतियाँ घटानेपर अगले स्थानकी उदय योग्य प्राप्त होती हैं। 1. कुल उदय योग्य प्रकृतियाँ-वर्ण पाँच, गंध दो, रस पाँच और स्पर्श आठ इन 20 प्रकृतियोंमें-से अन्यतमका ही उदय होना संभव है, तातैं केवल मूल प्रकृतियोंका ही ग्रहण है, शेष 16 का नहीं। तथा बंधन पाँच और संघात पाँच इन दस प्रकृतियोंका भी स्व-स्व शरीर में अंतर्भाव हो जानेसे इन 10 का भी ग्रहण नहीं। इस प्रकार 26 रहित 122 प्रकृतियाँ उदय योग्य हैं-148-26 = 122। (पं.सं./प्रा. 2/7) प्रमाण – (पं.सं./प्रा. 3/27-43), ( राजवार्तिक 9/36/8/630 ), ( धवला 8/3,5/9 ), ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 263-277/395-406 )
- उदय व्युच्छित्तिकी आदेश प्ररूपणा 1. गतिमार्गणा प्रमाण :- गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 284/305/412-434 मार्गणा गुण स्थान व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ अनुदय पुनः उदय उदय योग्य अनुदय पुनः उदय कुल उदय व्युच्छित्ति 1. नरक गति – ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 290-293/415-418 ) - - उदय योग्य-स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्री पुरुष वेद इन 5 रहित घातिया की। 47-5 = 42 - - नरकायु, नीच गोत्र, साता, असाता, नरकानुपूर्वी, वैक्रि, द्वि., तैजस, कार्माण, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, अप्रशस्त, विहायोगति, हुंडक, संस्थान, निर्माण, पंचेंद्रिय, नरकगति, दुर्भग दुःस्वर, अनादेय, अयश, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, वर्णादि चतु. = 34। 42 + 34 = 76
- सातिशय मिथ्यादृष्टिमें मूलोत्तर प्रकृतियोंके चार प्रकार उदयकी प्ररूपणा संकेत-चतु. = गुड़, खंड, शर्करा, [अमृत रूप चतुस्रनीय अनुभाग, द्वि. = निंब व कांजीर रूपद्वि स्थानीय अनुभाग; अज. = अजघन्य प्रदेशोदय। ( धवला 6/1,9-8,4/207-213 )
- मूलोत्तर प्रकृति सामान्यकी उदय स्थान प्ररूपणा 1. मूल प्रकृतिस्थान प्ररूपणा देखो अगला उत्तर शीर्षक सं. 2 `मूलप्रकृति ओघ प्ररूपणा'
- मोहनीय की सामान्य व ओघ उदयस्थान प्ररूपणा 1. भंग निकालनेके उपाय
- नाम कर्मकी उदय स्थान प्ररूपणाएँ
- युगपत् उदय आने योग्य विकल्प तथा संकेत
- नाम कर्मके कुछ स्थान व भंग प्रमाण- (पं.सं./प्रा.5/97-180); ( धवला 15/86-87 ); (गो.क.593-597/795-802); ( गोम्मटसार कर्मकांड व.टी. 603-605/806-811); (पं.सं./सं.5/112-198) संकेत- देखें उदय - 6.7.1; कार्मण काल आदि-देखें उदय - 6.7.6 कुल स्थान- = 12
- नाम कर्म उदय स्थानोंकी ओघ आदेश प्ररूपणा नोट-प्रत्येक स्थानमें प्रकृतियोंका विवरण देखो इसी प्रकरणका नं. 2 "नाम कर्मके कुल स्थान व भंग"। प्रति स्थान भंग यथायोग्य रूपसे लगा लेना। विशेषके लिए देखें आगे - 5 उदय कालोंकी अपेक्षा सारणी नं. 7 क्रम गुणस्थान कुल स्थान स्थान विशेष 3. उदय स्थान ओघ प्ररूपणा (पं.सं./प्रा.5/402-417); (गो.क.692-703/872-877); (पं.सं./स.5/416-428)
- उदय स्थान जीव समास प्ररूपणा (पं.सं./प्रा.5/268-280); (गो.क.704-711/878-881)
- उदय स्थान आदेश प्ररूपणा प्रमाण सामान्य : (पं.सं./प्रा.व.सं.); (गो.क.712-738/881/896); 1. गति मार्गणा- (पं.सं./प्रा.5/97-190 419-425) (पं.सं./सं.5/112-120; 431-436);
पं.सं./प्रा./3/3 धण्णस्स संगहो वा संतं जं पुव्वसंचियं कम्मं। भुंजणकालो उदओ उदीरणाऽपक्वपाचणफलं व ।3।
= धन्यके संग्रहके समान जो पूर्व संचित कर्म हैं, उनके आत्मामें अवस्थित रहनेको सत्व कहते हैं। कर्मोंके फल भोगनेके कालको उदय कहते हैं। तथा अपक्व कर्मोंके पाचनको उदीरणा कहते हैं।
सर्वार्थसिद्धि 2/1/149/8 द्रव्यादिनिमित्तवशात् कर्मणां फलप्राप्तिरुद्रयः।
= द्रव्य, क्षेत्र, काल व भवके निमित्तके वशसे कर्मोंके फलका प्राप्त होना उदय है। ( राजवार्तिक 2/1/4/100/19 ) ( राजवार्तिक 6/14/1/524/29 ) ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका 56/106/1 )
कषायपाहुड़/ वेदक अधिकार नं.6 कम्मेण उदयो कम्मोदयो, अवक्कपाचणाए विणा जहाकालजणिदो कम्माणं ठिदिक्खएण जो विवागो सो कम्मोदयोत्ति भण्णदे। सो पुण खेत्त भव काल पोग्गल ट्ठिदी विवागोदय त्ति एदस्सगाहाथच्छद्धस्स समुदायत्थो भवदि। कुदो। खेत्त भव काल पोग्गले अस्सिऊण जो ट्ठिदिवखओ उदिण्णफलक्खंध परिसडणलक्खणो सोदयो त्ति सुत्तत्थावलंवणादो।
= कर्मरूपसे उदयमें आनेको कर्मोदय कहते हैं। अपक्वपाचनके बिना यथाकाल जनित स्थितिक्षयसे जो कर्मोंका विपाक होता है, उसको कर्मोदय कहते हैं। ऐसा इस गाथाके उत्तरार्धका अर्थ है। सो कैसे? क्षेत्र, भव, काल और पुद्गल द्रव्यके आश्रयसे स्थितिका क्षय होना तथा कर्मस्कंधोंका अपना फल देकर झड़ जाना उदय है। ऐसा सूत्रके अवलंबनसे जाना जाता है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 8/29/12 स्वस्थितिक्षयवशादुदयनिषेके गलतां कार्मणस्कंधानां फलदानपरिणतिः उदयः।
= अपनी अपनी स्थिति क्षयके वशसे उदयरूप निषेकोंके गलनेपर कर्मस्कंधोंकी जो फलदान परिणति होती है, उसे उदय कहते हैं। ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 439/592/8 )।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 264/397/11 स्वभावाभिव्यक्तिः उदयः, स्वकायं कृत्वा रूपपरित्यागो वा।
= अपने अनुभागरूप स्वभावको प्रगटताकौ उदय कहिए है। अथवा अपना कार्यकरि कर्मणाको छोडै ताको उदय कहिये।
समयसार 132-133 अण्णाणस्सस उदओ जा जीवाणं अतच्चउवलद्धी। मिच्छत्तस्स दु उदओ जीवस्स असंद्दहाणत्तं ।132। उदओ असंजमस्स दु जं जीवाणं हवेइ अविरमणं। जो दु कलुसोवओगो जीवाणं सो कसायउदओ ।133।
= जीवोंके तो जो तत्वका अज्ञान है वह अज्ञानका उदय है और जीवके जो अश्रद्धान है वह मिथ्यात्वका उदय है। और जीवोंके अविरमण या अत्यागभाव है वह असंयमका उदय है और जीवोंके मलिन उपयोग है वह कषायका उदय है।
सर्वार्थसिद्धि 6/14/332/7 उदयो विपाकः।
= कर्मके विपाकको उदय कहते हैं।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 342/493/10 अनुदयगतानां परमुखोदयत्वेन स्वसमयोदया एकैकनिषेकाः स्थितोक्तसंक्रमेण संक्रम्य गच्छंतीति स्वमुखपरमुखोदयविशेषो अवगंतव्यः।
= उदयको प्राप्ति नाहीं जे नपुंसक वेदादि परमुख उदयकरि समान समयनिविषै उदयरूप एक-एक निषेक, कह्या अनुक्रमकरि संक्रमणरूप होइ प्रवर्त्तै (विशेष देखें स्तुविक संक्रमण ) ऐसे स्वमुख व परमुख उदयका विशेष जानना। जो प्रकृति आपरूप ही होइ उदय आवै तहाँ स्वमुख उदय है। जो प्रकृति अन्य प्रकृतिरूप होइ (उदय आवै) तहाँ पर-मुख उदय है। पृ. 494/10 ( राजवार्तिक/ हिं. 8/21/629)
धवला 15/289/9 संतत्तीदो एगा ट्ठिदि उदिण्णा, संपहि उदिण्णपरमाणूणमेगसमयावट्ठाणं मोत्तूण दुसमयादि अवट्ठाणंतराणुवलंभादो। सेचियादो अणेगाओ ट्ठिदीओ उदिण्णाओ, एण्हिं जं पदेसग्गं उदिण्णं तस्स दव्वट्ठियणयं पडुच्च पुव्विल्लभावोवयारसंभवादो।
= संप्राप्तिकी अपेक्षा एक स्थिति उदीर्ण होती है, क्योंकि, इस समय उदय प्राप्त परमाणुओंके एक समयरूप अवस्थानको छोड़कर दो समय आदिरूप अवस्थानांतर पाया नहीं जाता। निषेककी अपेक्षा अनेक स्थितियाँ उदीर्ण होती हैं, क्योंकि इस समय जो प्रदेशाग्र उदीर्ण हुआ है उसके द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा पूर्वीयभावके उपचारकी संभावना है।"
राजवार्तिक 2/5/4/107/13- एकप्रदेशो जघन्यगुणः परिगृहीतः, तस्य चानुभागविभागप्रतिच्छेदाः पूर्ववत्कृताः। एवं समगुणाः वर्गाः समुदिता वर्गणा भवति। एकाविभागपरिच्छेदाधिकाः पूर्ववद्विरलीकृता वर्गावर्गणाश्च भवंति यावदंतरं भवति तावदेकं स्पर्धकं भवति। एवमनेन क्रमेण विभागे क्रियमाणेऽभव्यानामनंतगुणानि सिद्धानामनंतभागप्रमाणानि स्पर्धकानि भवंति। तदेतत्समुदितमेकमुदयस्थानं भवति।
= एक प्रदेशके जघन्य गुणको ग्रहण करके उसके अविभाग प्रतिच्छेद करने चाहिए। समान अविभाग प्रतिच्छेदोंकी पंक्तिसे वर्ग तथा वर्गोंके समूहसे वर्गणा होती है। इस क्रमसे समगुणवाले वर्गोंके समुदायरूप वर्गणा बनानी चाहिए। इस तरह जहाँ तक एक-एक अविभाग परिच्छेदका लाभ हो वहाँ तककी वर्गणाओंके समूहका एक स्पर्धक होता है। इसके आगे एक दो आदि अविभागप्रतिच्छेद अधिकवाले वर्ग नहीं मिलते, अनंत अविभागप्रतिच्छेद अधिक वाले ही मिलते हैं। तहाँ से आगे पुनः जब तक क्रम वृद्धि प्राप्त होती रहे और अंतर न पड़े तबतक स्पर्धक होता है। इस तरह सम गुणवाले वर्गोंके समुदायरूपवर्गणाओं के समूहरूप स्पर्धक एक उदयस्थानमें अभव्योंसे अनंतगुणे तथा सिद्धोंके अनंतभाग प्रमाण होते हैं।
म.बं.5/$649/389/12 याणि चेव अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि ताणि चेव अणुभागबंधट्ठाणाणि। अण्णाणि पुणो परिणामट्ठाणि ताणि चेव कसायउदयट्ठाणाणि त्ति भणंति।
= जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान हैं वे ही अनुभाग बंधस्थान हैं। तथा अन्य जो परिणामस्थान हैं वे ही कषाय उदयस्थान कहे जाते हैं।
समयसार / आत्मख्याति 53 यानि स्वफलसंपादनसमर्थकर्मावस्थालक्षणान्युदयस्थानानि।
= अपने फलके उत्पन्न करनेमें समर्थ कर्मअवस्था जिनका लक्षण है ऐसे जो उदयस्थान....।
पं.सं./प्रा. 2/7 वण्ण-रस-गंध फासा चउ चउ सत्तेक्कमणुदयपयडीओ। ए ए पुण सोलसयं बंधण-संघाय पंचेवं ।7।
= चार वर्ण, चार रस, एक गंध, सात स्पर्श, पाँच, बंधन और पाँच संघात ये छब्बीस प्रकृतियाँ उदयके अयोग्य हैं। शेष 122 प्रकृतियाँ उदयके योग्य होती हैं। (पं.सं. 2/38)।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 37/42/1 उदये भेदविवक्षायां सर्वा अष्टचत्वारिंशच्छतं अभेदविवक्षायां द्वाविंशत्युत्तरशतं।
= उदयमें भेदकी अपेक्षा सर्व 148 प्रकृतियाँ उदय योग्य हैं और अभेदकी अपेक्षा 122 प्रकृतियाँ उदय योग्य हैं। (पं.सं./सं. 148)।
गोम्मटसार कर्मकांड 588/792 णामध्रुवोदयबारस गइजाईणं च तसतिजुम्माणं। सुभगादेज्जजसाणं जुम्मेक्कं विग्गहे वाणं।
= तैजस, कार्मण, वर्णादिक 4, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु, निर्माण ये नाम कर्मकी 12 प्रकृतियाँ ध्रुवोदयी हैं।
कषायपाहुड़ 3/22/ $430/245/2, ण च कम्मं सगरूवेण परसरूवेण वा अदत्तफलमकम्मभावं गच्छदि, विरोहादो। एगसमयं सगसरूवेणच्छिय विदियसमए परपडिसरूवेणच्छिय तदियसमए अकम्मभावं गच्छदि त्ति दुसमयकालट्ठिदिणिद्देसो कदो।
= कर्म स्वरूपसे या पररूपसे फल बिना दिये अकर्म्मभावको प्राप्त होते नहीं क्योंकि, ऐसा माननेमें विरोध आता है। किंतु अनुदयरूप प्रकृतियोंके प्रत्येक निषेक एक समय तक स्वरूपसे रहकर और दूसरे समयमें परप्रकृतिरूपसे रहकर तीसरे समयमें अकर्मभावको प्राप्त होते हैं, ऐसा नियम है। अतः सूत्रमें (सम्यग्मिथ्यात्व के) दो समय काल प्रमाण स्थितिका निर्देश दिया है। ( भगवती आराधना 1850/1661 )।
षट्खंडागम 7/2,1/ सू. 34-35/78 अजोगि णाम कधं भवदि ।34। खइयाए लद्धीए ।35।
= जीव अयोगी कैसे होता है? ।34। क्षायिक लब्धिसे जीव अयोगी होता है ।35।
कषायपाहुड़ सुत्त/मू.गा. 59/465......। खेत्त भव काल पोग्गलट्ठिदिविवागोदयखयो दु ।59।
= क्षेत्र, भव, काल और पुद्गलद्रव्यका आश्रय लेकर जो स्थिति विपाक होता है उसे उदीरणा कहते हैं और उदयक्षयको उदय कहते हैं।
पं.सं./प्रा. 4/513....। कालभवखेत्तपेही उदओ.....।
= काल, भव और क्षेत्रका निमित्त पाकर कर्मोंका उदय होता है। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका 1708/1537/8 )।
कषायपाहुड़ 1/1,13,14/ $242/289/1 दव्वकम्मस्स उदएण जीवो कोहो त्ति जं भणिदं एत्थ चोअओ भणदि, दव्वकम्माइं जीवसंबंधाइं संताइं किमिदि सगकज्जं कसायरूवं सव्वद्धं ण कुणंति? अलद्ध विसिट्ठभावत्तादो। तदलंभे कारणं वत्तव्वं। पागभावो कारणं। पागभावस्स विणासो वि दव्वखेत्तकालभवा वेक्खाए जायदे। तदो ण सव्वद्धं दव्वकम्माइं सगफलं कुणंति त्ति सिद्धं।
= द्रव्यकर्मके उदयसे जीव क्रोधरूप होता है, ऐसा जो कथन किया है उसपर शंकाकार कहता है-प्रश्न-जब द्रव्यकर्मोंका जीवके साथ संबंध पाया जाता है तो वे कषायरूप अपने कार्यको सर्वदा क्यों नहीं उत्पन्न करते हैं? उत्तर-सभी अवस्थाओंमें फल देनेरूप विशिष्ट अवस्थाको प्राप्त न होनेके कारण द्रव्य कर्म सर्वदा अपने कषायरूप कार्यको नहीं करते हैं। प्रश्न-द्रव्यकर्म फल देनेरूप विशिष्ट अवस्थाको सर्वदा प्राप्त नहीं होते, इसमें क्या कारण है, उसका कथन करना चाहिए। उत्तर-जिस कारणसे द्रव्यकर्म सर्वदा विशिष्टपनेको प्राप्त नहीं होते वह कारण प्रागभाव है। प्रागभावका विनाश हुए विना कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। और प्रागभावका विनाश द्रव्य क्षेत्र काल और भवकी अपेक्षा लेकर होता है। इसलिए द्रव्यकर्म सर्वदा अपने कार्यको उत्पन्न नहीं करते हैं, यह सिद्ध होता है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका 1170/1159/4 बाह्यद्रव्यं मनसा स्वीकृतं रागद्वेषयोर्बीजं तस्मिन्नसति सहकारिकारणे न च कर्ममात्राद्रागद्वेषवृत्तिर्यथा सत्यपि मृत्पिंडे दंडाद्यंतर कारणवैकल्ये न घटोत्पत्तिर्यथेति मन्यते।
= मनमें विचारकर जब जीव बाह्यद्रव्यका अर्थात् बाह्य परिग्रहका स्वीकार करता है, तब राग द्वेष उत्पन्न होते हैं। यदि सहकारीकारण न होगा तो केवल कर्ममात्रसे रागद्वेष उत्पन्न होते नहीं। जैसे कि मृत्पिंडसे उत्पन्न होते हुए भी दंडादि के अभावमें उत्पन्न नहीं होता है और भी देखें [[ ]](उदय 1/2/2,3); (उदय/2/4)
कषायपाहुड़ 3/22/ $430/244/9 उदयाभावेण उदयणिसेयट्ठिदी परसरूवेण गदाए।
= जिस प्रकृतिका उदय नहीं होता उसकी उदय निषेक स्थिति उपांत्य समयमें पररूपसे संक्रमित हो जाती है।
धवला 12/4,2,7,26/1 णिप्फलस्स परमाणुपुंजस्स समयं पडि परिसदंतस्स कधं उदयववएसो। ण, जीवकम्मविवेगमेत्तफलं दट्ठूण उदयस्स फलत्तब्भुवगमादो। जदि एवं तो असादवेदणीयोदयकाले सादावेदणीयस्स उदओ णत्थि, असादावेदणीयस्सेव उदओ अत्थि त्ति ण वक्तव्यं, सगफलाणुप्पायणेण दोण्णं पि सरिसत्तुवलंभादो ण असादपरमाणूणं ब्व सादपरमाणूणं सगसरूवेण णिंज्जराभावादो। सादपरमाणओ असादसरूवेण विणस्संतावत्थाए परिणमिदूण विस्संते दट्ठूण सादावेदणीयस्स उदओ णत्थि त्ति वुच्चदे ण च असादावेदणीयस्स एसो कमो अत्थि, [असाद] परमाणूणं सगसरूवेणेण णिज्जरुवलंभादो। तम्हा दुक्खरूवफलाभावे वि असादावेदणीयस्स उदयाभावो जुज्जदे त्ति सिद्धं।
= प्रश्न - बिना फल दिये ही प्रतिसमय निर्जीर्ण होनेवाले (ईर्यापथ रूप) परमाणु समूहकी उदय संज्ञा कैसे बन सकती है? उत्तर-नहीं, क्योंकि जीव व कर्मके विवेकमात्र फलको देखकर उदयको फलरूपसे स्वीकार किया गया है? प्रश्न-यदि ऐसा है तो `असातावेदनीयके उदयकालमें सातावेदनीयका उदय नहीं होता, केवल असाता वेदनीयका ही उदय रहता है' ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि, अपने फलको नहीं उत्पन्न करनेकी अपेक्षा दोनोंमें ही समानता पायी जाती है। उत्तर-नहीं क्योंकि, तब असातावेदनीयके परमाणुओंके समान सातावेदनीयके परमाणुओंकी अपने रूपसे निर्जरा नहीं होती। किंतु विनाश होनेकी अवस्थामें असातारूपसे परिणमकर उनका विनाश होता है, यह देखकर सातावेदनीयका उदय नहीं है, ऐसा कहा जाता है। परंतु असातावेदनीयका यह क्रम नहीं है, क्योंकि, तब असाताके परमाणुओंकी अपने रूपसे ही निर्जरा पायी जाती है। इस कारण दुःखरूप फलके अभावमें भी असातावेदनीयका उदय मानना युक्तियुक्त है, यह सिद्ध होता है।
गा. |
नाम प्रकृति |
नो कर्म द्रव्य |
70 |
मति ज्ञानावरण |
वस्त्रादि ज्ञानकी आवरक वस्तुएँ |
70 |
श्रुत ज्ञानावरण |
इंद्रिय विषय आदि |
71 |
अवधि व मनःपर्यय |
संक्लेशको कारणभूत वस्तुएँ |
71 |
केवल ज्ञानावरण |
X |
72 |
पाँच निद्रा दर्शनावरण |
दही, लशुन, खल इत्यादि |
72 |
चक्षु अचक्षु दर्शनावरण |
वस्त्र आदि |
73 |
अवधि व केवल दर्शनावरण |
उस उस ज्ञानावरणवत् |
73 |
साता असाता वेदनीय |
इष्ट अनिष्ट अन्नपान आदि |
74 |
सम्यक्त्व प्रकृति |
जिन मंदिर आदि |
74 |
मिथ्यात्व प्रकृति |
कुदेव, कुमंदिर, कुशास्त्रादि |
74 |
मिश्र प्रकृति |
सम्यक् व मिथ्या दोनों आयतन |
75 |
अनंतानुबंधी |
कुदेवादि |
75 |
अप्रत्याख्यादि 12 कषाय |
काव्यग्रंथ, कोकशास्त्र, पापीपुरुष आदि |
76 |
तीनों वेद |
स्त्री, पुरुष व नपुंसकके शरीर |
76 |
हास्य |
बहुरूपिया आदि |
76 |
रति |
सुपुत्रादि |
77 |
अरति |
इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग |
77 |
शोक |
सुपुत्रादिकी मृत्यु |
77 |
भय |
सिंहादिक |
77 |
जुगुप्सा |
निंदित वस्तु |
78 |
आयु |
तहाँ तहाँ प्राप्त इष्टानिष्ट आहारादि |
79 |
नाम कर्म |
तिसतिस गतिका क्षेत्र व इंद्रिय |
83 |
- |
शरीरादि के योग्य पुद्गल स्कंध |
84 |
ऊँच नीच गोत्र |
ऊँच नीच कुल |
84 |
अंतराय |
दानादि में विघ्नकारी पुरुष आदि |
कषायपाहुड़ सुत्त/वेदक अधिकार नं. 6/मू. गा. 59/465 कदि आवलियं पवेसेइ कदि च पविस्संति कस्स आवलियं।
= प्रयोग विशेषके द्वारा कितनी कर्मप्रकृतियोंको उदयावलीके भीतर प्रवेश करता है? तथा किस जीवके कितनी कर्मप्रकृतियोंको उदीरणाके बिना (यथा काल) ही स्थितिक्षयसे उदयावलीके भीतर प्रवेश करता है?
श्ल.वा. 2/सू. 53/वा. 2 कर्मणामयथाकाले विपाकोपपत्तेः च आम्रफलादिवत्।
= आम्र फलके अयथाकालपाककी भाँति कर्मोंका अयथाकाल भी विपाक हो जाता है।
ज्ञानार्णव 35/26-27 मंदवीर्याणि जायंते कर्माण्यतिबलान्यपि। अपक्कपाचानायोगात्फलानीव वनस्पतेः ।26। अपक्वपाकः क्रियतेऽस्ततंद्रैस्तपोभिरुग्रैर्वशुद्धियुक्तैः। क्रमाद्गुणश्रेणिसमाश्रयेण सुसंवृतांतःकरणैर्मुनींद्रैः ।27।
= पूर्वोक्त अष्ट कर्म अतिशय बलिष्ठ हैं, तथापि जिस प्रकार वनस्पतिके फल बिना पके भी पवनके निमित्तसे (पाल आदिसे) पक जाते हैं उसी प्रकार इन कर्मोंकी स्थिति पूरी होनेसे पहले भी तपश्चरणादिकसे मंदवीर्य हो जाते हैं ।26। नष्ट हुआ है प्रमाद जिनका और सम्यक् प्रकारसे संवररूप हुआ है चित्त जिनका ऐसे मुनींद्र उत्कृष्ट विशुद्धतासहित तपोंसे अनुक्रमसे गुणश्रेणी निर्जरा का आश्रय करके बिना पके कर्मोंको भी पकाकर स्थिति पूरी हुए बिना ही निर्जरा करते हैं ।27।
कषायपाहुड़ 1/ $250/291/3 बंधसंतोदयसरूवमेगं चेव दव्वं। तं जहा,......कसायजोगवसेण लोगमेत्तजीवपदेसेसु अक्कमेण आगंतूण सबंधकम्मक्खंधा अणंताणंतापरमाणुसमुदयसमागमुप्पण्णा कम्मपज्जाएण परिणयपढमसमए बंधववएसं पडिवज्जंति। ते चेव विदियसमयप्पहुडि जाव फलदाणहेट्ठिमसमओ त्ति ताव संतववएसं पडिवज्जंति। ते च्चेय फलदाणसमए उदयववएसं पडिवज्जंति। ण च णामभेदेण दव्वभेओ। ....ण कोहजणणाजणणसहावेण ट्ठिदिभेएण च भिण्णदव्वाणमेयत्तविरोहादो। ण च लक्खणभेदे संते दव्वाणमेयत्तं होदि तिहुवणस्स भिण्णलक्खणस्स एयत्तप्पसंगादो.....तम्हा ण बंधसंतदव्वाणं कम्मत्तमत्थि; जेण कोहोदयं पडुच्च जीवो कोहकसायो जादो तं कम्ममुदयगयं पच्चयकसाएण कसाओ त्ति सिद्धं ण च एत्थ दव्वकम्मस्स उवयारेण कसायत्तं; उजुसुदे उवयाराभावादो।
= प्रश्न-एक ही कर्म-द्रव्य बंध, सत्त्व और उदयरूप होता है। इसका खुलासा इस प्रकार है कि अनंतानंत परमाणुओंके समुदायके समागमसे उत्पन्न हुए कर्मस्कंध आकार कषाय और योगके निमित्तसे एक साथ लोकप्रमाण जीवके प्रदेशोंमें संबद्ध होकर कर्म पर्याय रूपसे परिणत होनेके प्रथम समयमें `बंध' इस संज्ञाको प्राप्त होते हैं। जीवसे संबद्ध हुए वे ही कर्मस्कंध दूसरे समयसे लेकर फल देनेसे पहले समय तक `सत्त्व' इस संज्ञाको प्राप्त होते हैं तथा जीवसे संबद्ध हुए वे ही कर्मस्कंध फल देनेके समयमें `उदय' इस संज्ञाको प्राप्त होते हैं। यदि कहा जाय कि द्रव्य एक ही है, फिर भी बंध आदि नाम भेदसे द्रव्यमें भेद हो ही जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, बंध उदय और सत्त्वरूप कर्मद्रव्यमें क्रोध (आदि) को उत्पन्न करने और न करने की अपेक्षा तथा स्थितिकी अपेक्षा भेद पाया जाता है। (अर्थात् उदयागत कर्म क्रोधको उत्पन्न करता है बंध व सत्त्व नहीं। तथा बंध व उदयकी स्थिति एक-एक समय है, जब कि सत्त्वकी स्थिति अपने-अपने कर्मकी स्थितिके अनुरूप है)। अतः उन्हें सर्वथा एक माननेमें विरोध आता है। यदि कहा जाय कि लक्षणकी अपेक्षा भेद होनेपर भी द्रव्यमें एकत्व हो सकता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर भिन्न-भिन्न लक्षणवाले (ऊर्ध्व, मध्य व अधो) तीनों लोकोंको भी एकत्वका प्रसंग प्राप्त हो जाता है। इसलिए ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा बंध और सत्त्वरूप द्रव्यके कर्मपना नहीं बनता है। अतः चूँकि क्रोधके उदयकी अपेक्षा करके जीव क्रोध कषायरूप होता है, इसलिए ऋजुसूत्र नयकी दृष्टिमें उदयको प्राप्त हुआ क्रोधकर्म ही प्रत्यय कषायकी अपेक्षा कषाय है यह सिद्ध होता है। यदि कहा जाय कि उदय द्रव्यकर्मका ही होता है अतः ऋजुसूत्र नय उपचारसे द्रव्यकर्मको भी प्रत्यय कषाय मान लेगा सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऋजुसूत्र नयमें उपचार नहीं होता है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 258/548/5 ननु एकैकसमये जीवेन बद्धैकसमयप्रबद्धस्य आबाधावर्जितस्थितिप्रथमसमयादारभ्य तच्चरमसमयपर्यंतं प्रतिसमयमेकैकनिषेक एवोदेति। कथमेकैकसमयप्रबद्ध उदेति प्रश्ने उच्यते-अनादिबंधनिबंधनबद्धविवक्षितसमयप्रबद्धनिषेकः 9. उदेति, तदा तदंतरसमये बद्धसमयप्रबद्धस्य द्विचरमनिषेकः उदेति 10. तदंतरसमये बद्धसमयप्रबद्धस्य त्रिचरमनिषेकः उदेति 11. एवं चतुर्थादिसमयेषु बद्धसमयप्रबद्धानां चतुश्चरमादिनिषेकोदयक्रमेण आबाधावर्जितविवक्षितसमयमात्रस्थानेषु गत्वा चरमतत्समयप्रबद्धस्य प्रथमनिषेकः उदेति, एवं विवक्षितसमये एकः समयप्रबद्धो बध्नाति एकः उदेति किंचिदूनद्व्यर्धगुणहानिमात्रसमयप्रबद्धसत्त्वं भवति।
= प्रश्न-एक समयविषै जीवकरि बांध्या जो एक समयप्रबद्ध ताके आबाधा रहित अपनी स्थितिका प्रथम समयतै लगाइ अंतसमय पर्यंत समय-समय प्रति एक-एक निषेक उदय आवै है। पूर्वे गाथाविषै समय प्रति एक-एक समयप्रबद्धका उदय आवना कैसे कह्या है। उत्तर-समय-समय प्रति बंधे समयप्रबद्धनिका एक-एक निषेक इकट्ठे होइ विवक्षित एक समयविषै समय प्रबद्ध मात्र हो है। कैसे। सो कहिए है-अनादि बंधनका निमित्तकरि बंध्या विवक्षित समयप्रबद्ध ताका जिस कालविषै अंतनिषेक उदय हो है तिस कालविषै, ताके अनंतर बंध्या समयप्रबद्धका उपांत्य निषेक उदय हो है, ताके भी अनंतर बंध्या समयप्रबद्धका अंतसे तीसरा निषेक उदय हो है। ऐसे चौथे आदिसमयनिविषै बंधे समयप्रबद्धनिका अंतते चौथा आदि निषेकनिका उदय क्रमकरि आबाधाकाल रहित विवक्षित स्थितिके जेते समय तितने स्थान जाय, अंतविषै जो समयप्रबद्ध बंध्या ताका आदि निषेक उदय हो हैं। ऐसे सबनिको जोड़ै विवक्षित एक समयविषै एक समय प्रबद्ध उदय आवै है। अंक संदृष्टि करि जैसे (स्थिति बंधकी निषेक रचनाके अनुसार (देखो आगे) 6 गुण हानियोंके 48 निषेकोंमें-से) जिन समयप्रबद्धनि के सर्व निषेक गलि गये तिनिका उदय तो है नाहीं। बहुरि जिस समयप्रबद्धके 47 निषेक पूर्वै गले ताका अंतिम 9 (प्रदेशों) का निषेक वर्तमान समयविषै उदय आवै है। बहुरि जाकै 46 निषेक पूर्वै गले ताका अंतिमसे पहला 10 (प्रदेशों) का निषेक उदय हो है। और ऐसे ही क्रमतै जाका एक हू निषेक पूर्वै न गला ताका प्रथम 512 का निषेक उदय हो है। ऐसे वर्तमान कोई एक समयविषै सर्व उदयरूप निषेकनिका उदय हो है। 9,10,11,12,13,14,15,16/18,20,22,24,26,28,30,32/36,40,44,48,52,56,60,64/72,80,88,96,104,112,120,128/144,160,176,192,208,224,240,256/288,320,352,384,416,448,480,512/ ऐसे इनिको जोड़ै संपूर्ण समयप्रबद्धमात्र प्रमाण हो है। आगामी कालविषै जैसे-जैसे नवीन समयप्रबद्धके निषेकनिके उदयका सद्भाव होता जायेगा, तैसे-तैसे पुराने समयप्रबद्धके निषेकनिके उदय अभाव होता जायेगा। जैसे-आगामी समयविषै नवीन समयप्रबद्धका प्रथम 512 का निषेक उदय आवेगा तहाँ वर्तमानविषै जिस समयप्रबद्धका 512 का निषेक उदय था ताका 512 वाले निषेकका अभाव होइ दूसरा 480 का (क्रमशः पृ. 371) (Kosh1_P0369_Fig0022) 5. सत्त्वगत निषेक रचनाका यंत्र- प्रमाण – (गो.क.943/4143) (Kosh1_P0370_Fig0023) निषेक उदय आवेगा। बहुरि जिस समयप्रबद्धका वर्तमानविषै 480 का निषेक उदय था ताका तिस निषेकका अभाव होइ 448 के निषेकका उदय होगा। ऐसै क्रमतै जिस समयप्रबद्धका वर्तमान विषै 9 का अंतिम निषेक उदय था ताका आगामी समय विषै सर्व अभाव होगा। ऐसे प्रति समय जानना।
गुण हानि आयाम |
||||||
निषेक सं. |
1 |
2 |
3 |
4 |
5 |
6 |
गुण हानि चय प्रमाण |
||||||
- |
312 |
16 |
8 |
4 |
2 |
1 |
8 |
288 |
144 |
72 |
36 |
18 |
9 |
7 |
320 |
160 |
80 |
40 |
20 |
10 |
6 |
352 |
176 |
88 |
44 |
22 |
11 |
5 |
384 |
192 |
96 |
48 |
24 |
12 |
4 |
416 |
208 |
104 |
52 |
26 |
13 |
3 |
448 |
224 |
112 |
56 |
28 |
14 |
2 |
480 |
240 |
120 |
60 |
30 |
15 |
1 |
512 |
256 |
128 |
64 |
32 |
16 |
कुल द्रव्य 6300 |
3200 |
1600 |
800 |
400 |
200 |
100 |
2. उदय गत- प्रत्येक समयप्रबद्ध या प्रत्येक समयका द्रव्य उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होता जाता है। क्योंकि उसमें अधिक-अधिक `सत्त्वगत' निषेक मिलते जाते हैं। सो प्रथम समयसे लेकर अंतिम समय पर्यंत विशेष वृद्धिका क्रम निम्न प्रकार है। यहाँ भी बराबर बराबर लिखी गुण हानियोंको एक दूसरीके ऊपर रखकर प्रथम निषेकसे अंतिम पर्यंत वृद्धि क्रम देखना चाहिए।
निषेक सं. |
गुण हानि आयाम |
|||||
- |
1 |
2 |
3 |
4 |
5 |
6 |
1 |
9 |
118 |
336 |
772 |
1644 |
3388 |
2 |
19 |
138 |
376 |
852 |
1804 |
3708 |
3 |
30 |
160 |
420 |
940 |
1980 |
4060 |
4 |
42 |
184 |
468 |
1036 |
2172 |
4444 |
5 |
55 |
210 |
520 |
1140 |
2380 |
4860 |
6 |
69 |
238 |
576 |
1252 |
2604 |
5308 |
7 |
84 |
268 |
636 |
1372 |
2844 |
5788 |
8 |
100 |
300 |
700 |
1500 |
3100 |
6300 |
कुल द्रव्य |
408 |
1616 |
4032 |
8864 |
18528 |
37856 |
इन उपरोक्त दोनों यंत्रोंको परस्परमें सम्मेल देखनेके लिए देखो यंत्र ( गोम्मटसार जीवकांड/ भाषा 258/5)
पं.सं./प्रा. /4/449-450 पच्चंति मूलपयडी णूणं समुहेण सव्वजीवाणं। समुहेण परमुहेण यमोहाउविवज्जिया सेसा ।449। पच्चइ णो मणुयाऊ णिरयाऊमुहेण समयणिद्दिट्ठं। तह चरियमोहणीयं दंसणमोहेण संजुत्तं ।450।
= मूल प्रकृतियाँ नियमसे सर्व जीवोंके स्वमुख द्वारा ही पचती हैं, अर्थात् स्वोदय द्वारा ही विपाकको प्राप्त होती हैं। किंतु मोह और आयुकर्मको छोड़कर शेष (तुल्य जातीय) उत्तर प्रकृतियाँ स्व-मुखसे भी विपाकको प्राप्त होती हैं और परमुखसे भी विपाकको प्राप्त होती हैं, अर्थात् फल देती हैं ।449। भुज्यमान मनुष्यायु नरकायुमुखसे विपाकको प्राप्त नहीं होती है, ऐसा परमागममें कहा है, अर्थात् कोई भी विवक्षित आयु किसी भी अन्य आयुके रूपसे फल नहीं देती है (देखें आयु - 5) तथा चारित्रमोहनीय कर्म भी दर्शनमोहनीयसे संयुक्त होकर अर्थात् दर्शनमोहनीय रूपसे फल नहीं देता है। इसी प्रकार दर्शनमोहनीय कर्म भी चारित्रमोहनीयके रूपसे फल नहीं देता है ।450। ( सर्वार्थसिद्धि 8/21/398/8 ), ( राजवार्तिक 821/583/16 ), (पं.सं./सं. 4/270-272)
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 546/708/14 क्रोधादीनामनंतानुबंध्यादिभेदेन चतुरात्मकत्वेऽपिजात्याश्रयेणै कत्वमभ्युपगतं शक्तिप्रधान्येन भेदस्याविवक्षितत्वात्। तद्यथा....अनंतानुबंध्यंयतमोदये इतरेषामुदयोऽस्त्येव तदुदयसहचरितेतरोदस्यापि सम्यक्त्वसंयमगुणघातकत्वात्। तथाअप्रत्याख्यानान्यतमोदये प्रत्याख्यानाद्युदयोऽस्त्येव तदुदयेन समं तद्द्वयोदयस्यापि देशसंयमघातकत्वात्, तथा प्रत्याख्यानान्यतमोदये संज्वलनोदयोऽस्त्येव प्रत्याख्यानवत्तरह्यापि सकलसंयमघातकत्वात्। न च केवलं संज्वलनोदये प्रत्याख्यानादीनामुदयोऽस्ति तत्स्पर्धकानां सकलसंयमविरोधित्वात्। नापि केवलप्रत्याख्यानसंज्वलनोदये शेषकषायोदयः तत्स्पर्धकानां देशसकलसंयमघातीत्वात्। नापि केवलअप्रत्याख्यानादित्रयोदयेऽनंतानुबंध्युदयः तत्स्पर्धकानां सम्यक्त्वदेशसकलसंयमघातकत्वात्।
= क्रोधादिकनिकैं अनंतानुबंधी आदि भेदकरि च्यार भेद हो हैं तथापि जातिका आश्रयकरि एकत्वपना ही ग्रह्या है जातै इहाँ शक्ति की प्रधानता करि भेद कहनेकी इच्छा नाहीं है। सोई कहिए है-अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, विषै (कोई) एकका उदय होतै संते अप्रत्याख्यानादि तीनोंका भी उदय है ही, जातै अनंतानुबंधीका उदय सहित औरनिका उदयकैं भी सम्यक्त्व व संयम गुणका घातकपणा है। बहुरि तैसे ही अप्रत्याख्यान क्रोधादिकविषै एकका उदय होतै प्रत्याख्यनादि दोयका भी उदय है ही जातै अप्रत्याख्यानका उदयकी साथि तिनि दोऊनिका उदय भी देशसंयमको घातै है। बहुरि प्रत्याख्यान क्रोधादिक विषै एकका उदय होतैं संज्वलनका भी उदय है ही जातै प्रत्याख्यानवत् संज्वलन भी सकलसंयमको घातै है। बहुरि संज्वलनका उदय होतैं प्रत्याख्यानादिक तीनका उदय नाहीं हो है। जातै और कषायनिके स्पर्धक सकल संयमके विरोधी हैं। बहुरि केवल प्रत्याख्यान संज्वलनका भी उदय होतैं शेष दो कषायनिका उदय नाहीं जातै अवशेष कषायनिके स्पर्धक देश-सकल-संयमको घातै हैं। बहुरि केवल अप्रत्याख्यानादिक तीनका उदय होतैं अनंतानुबंधीका उदय नाहीं है। जातै अनंतानुबंधीके स्पर्धक सम्यक्त्व देशसंयम सकलसंयमको घातै हैं।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 476/625/5 चतसृष्वेका कषायजातिः।
= अनंतानुबंध्यादिक च्यारि कषायनिकी क्रोध, मान, माया, लोभ, रूप च्यारि तहाँ (चारोंकी) एक जातिका उदय पाइये है। (गो.क. भाषा/794/965/7)
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 680/864/12 सम्यक्त्वमिश्रप्रकृतिकृतोद्वेल्लनत्वेनानंतानुबंध्युदयरहिंतत्वाभावात्।
= सम्यक्त्वमोहनीय मिश्रमोहनीयकी उद्वेलनायुक्तपनेते अनंतानुबंधी रहितपनैका अभाव है। (अर्थात् जिन्होंने सम्यक्प्रकृति मिश्रमोहनीयकी उद्वेलना कर दी है ऐसे जीवोंमें नियमसे अनंतानुबंधीका उदय होता है।)
गोम्मटसार कर्मकांड वा.टी. 478/632/1 अणसंजोजिदसम्मे मिच्छं पत्तेण आवलित्ति अणं।....478। अनंतानुबंधिविसंयोजितवेदकसम्यग्दृष्टौ मिथ्यात्वकर्मोदयान्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं प्राप्ते आवलिपर्यंतमनंत्वानुबंध्युदयो नास्ति।....तावत्कालमुदयावल्यां निक्षेप्तुमशक्यः।
= अनंतानुबंधीका जाकै विसंयोजन भया ऐसा वेदक सम्यग्दृष्टि सो मिथ्यात्व कर्मके उदयतै मिथ्यादृष्टि गुणस्थानकौ प्राप्त होइ ताके आवली काल पर्यंत अनंतानुबंधीका उदय नाहीं है। जातै मिथ्यात्वको प्राप्त होई पहिलै समय जा समय प्रबद्ध वांधै ताका अपकर्षण करि आवली प्रमाण काल पर्यंत उदयावली विषैं प्राप्त करनेकौ समर्थपना नाहीं, अर अनंतानुबंधीका बंध मिथ्यादृष्टि विषैं ही है। पूर्वै अनंतानुबंधी था ताका विसंयोजन कीया (अभाव किया)। तातैं तिस जीवकैं आवली काल प्रमाण अनंतानुबंधीका उदय नाहीं।
गोम्मटसार कर्मकांड व.टी. 776 मिच्छं मिस्सं सगुणोवेदगसम्मेव होदि सम्मत्तं .....।776। मोहनीयोदयप्रकृतिषु मिथ्यात्वं मिश्रं च स्वस्वगुणस्थाने एवोदेति। सम्यक्त्वप्रकृतिः वेदक सम्यग्दृष्टावेवासंयतादिचतुर्षूदेति।
= मोहनीयकी उदय प्रकृतिनिविषै मिथ्यात्व और मिश्र ये दोऊ मिथ्यादृष्टि और मिश्र (रूप जो) अपने-अपने गुणस्थान (तिनि) विषै उदय हो है। अर सम्यक्त्वमोहनीय है सो वेदकसम्यक्त्वी कै असंयतादिक च्यारि गुणस्थाननिविषैं उदय हो है।
गोम्मटसार कर्मकांड व.टी. 776-77/625......। एकाकसायजादी वेददुगलाणमेवकं च ।776। भयसहियं च जुगुच्छा सहियं दोहिंवि जुदं च ठाणाणि। मिच्छादि अपुव्वंते चत्तारि हवंति णियमेण ।477।
= अनंतानुबंध्यादिक च्यार कषायनिकी क्रोध, मान, माया, लोभ ये च्यारि जाति, तहाँ एक जातिको उदय पाइये (अर्थात् एक कालमें अनंतानुबध्यादि च्यारों क्रोध अथवा चारों मान आदिका उदय पाइये। इसी प्रकार प्रत्याख्यानादि तीनका अथवा प्रत्याख्यानादि दो का अथवा केवल संज्वलन एकका उदय पाइये) तीन वेदनविषै एक वेदका उदय पाइये, हास्य-शोकका युगल, अर रति-अरतिका युगल इन दोऊ युगलनिविषै एक एकका उदय पाइये है ।476। बहुरि एक जीवके एक काल विषै भय ही का उदय होइ, अथवा जुगुप्सा हीका उदय होइ, अथवा दोउनिका उदय होइ याते इनकी अपेक्षा च्यारि कूट (भंग) करने।
धवला 15/65/6 विग्गहगदीए वट्टमाणाणं संठाणुदयाभावादो। तत्थ संठाणाभावे जीवभावो किण्ण होदि। ण, आणुपुव्विणिव्वत्तिदसंठाणे अवट्ठियस्य जीवस्स अभावविरोहादो।
= विग्रहगतिमें रहनेवाले जीवोंके संस्थानका उदय संभव नहीं है। प्रश्न-विग्रहगतिमें संस्थानके अभावमें जीवका अभाव क्यों नहीं हो जाता? उत्तर-नहीं, क्योंकि, वहाँ आनुपूर्वीके द्वारा रचे गये संस्थानमें अवस्थित जीवके अभावका विरोध है।
धवला 13/5,5,120/378/4 आणुपुव्विउदयाभावेण उजुगदीए
= ऋजुगतिमें आनुपूर्वीका उदय नहीं होता। (इसका कारण यह है आनुपूर्वीयक उदय विग्रह गतिमें ही होनेका नियम है, क्योंकि तहाँ ही भवका प्रथमसमय उस अवस्थामें प्राप्त होता है)
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 285/412/14 विवक्षितभवप्रथमसमये एव तद्गतितदानुपूर्व्यतदायुष्योदयः सपदे सदृशस्थाने युगपदेवैकजीवे उदेतीत्यर्थः।
= विवक्षित पर्यायका पहिला समय ही तीहि विवक्षित पर्याय संबंधी गति वा आनुपूर्वीका उदय हो है। एक ही गतिका वा आनुपूर्वीका वा आयुका उदय युगपत् एक जीवके हो है (असमान का नहीं)।
धवला 8/3,138/199/11 आदाउज्जोवाणं परोदओ बंधो। होदु णाम वाउकाइएसु आदावुज्जोवाणमुदयाभावो, तत्थ तदणुवलंभादो। ण तेउकाइएसु तदभावो। पच्चक्खेणुवलंभमाणत्तादो। एत्थ परिहारो वुच्चदोण ताव तेउकाइएसु आदाओ अत्थि, उण्हप्पहाए तत्थाभावादो। तेउम्हि वि उण्हत्तमुवलंभइ च्चे उवलब्भउ णाम, [ण] तस्स आदाववएसो, किंतु तेजासण्णा; "मूलोष्णवती प्रभा तेजः, सर्वांगव्याप्युष्णवती प्रभा आतापः, उष्णरहिता प्रभोद्योतः," इति तिण्हं भेदोवलंभादो। तम्हा ण उज्जीवो वि तत्थत्थि, मूलुण्हज्जोवस्स तेजववएसादो।
= आतप व उद्योतका परोदय बंध होता है। प्रश्न-वायुकायिक जीवोंमें आतप व उद्योतका अभाव भले ही होवे, क्योंकि, उनमें वह पाया नहीं जाता किंतु तेजकायिक जीवोंमें उन दोनोंका उदयाभाव संभव नहीं है, क्योंकि, यहाँ उनका उदय प्रत्यक्षसे देखा जाता है? उत्तर यहाँ उक्त शंकाका परिहार करते हैं-तेजकायिक जीवोंमें आतपका उदय नहीं है, क्योंकि, वहाँ उष्ण प्रभाका अभाव है। प्रश्न-तेजकायमें तो उष्णता पायी जाती है, फिर वहाँ आतपका उदय क्यों न माना जाये? उत्तर-तेजकायमें भले ही उष्णता पायी जाती हो परंतु उसका नाम आतप [नहीं] हो सकता, किंतु तेज संज्ञा होगी; क्योंकि मूलमें उष्णवती प्रभाका नाम तेज है, सर्वांगव्यापी उष्णवती (सूर्य) प्रभाका नाम आतप और उष्णता रहित प्रभाका नाम उद्योत है, इस प्रकार तीनोंके भेद पाया जाता है। इसी कारण वहाँ उद्योत भी नहीं, क्योंकि, मूलोष्ण उद्योतका नाम तेज है [न कि उद्योत]। ( धवला 6/1,9-1,28/60/4 ) गो.क./भाषा 745/904/12 तेज, वात, साधारण, सूक्ष्म, अपर्याप्तनिकै ताका (आतप व उद्योतका) उदय नाहीं।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 119/111/15 स्त्रीषंडवेदयोरपि तीर्थाहारकबंधो न विरुध्यते उदयस्यैव पुंवेदिषु नियमात्।
= तीर्थंकर व आहारकद्विक इन तीन प्रकृतियोंका बंध तो स्त्री व नपुंसकवेदीको भी होनेमें कोई विरोध नहीं है, परंतु इनका उदय नियमसे पुरुषवेदीको ही होता है।
गोम्मटसार कर्मकांड 599-602/803-805 संठाणे संहडणे विहायजुम्मे य चरिमचदुजुम्मे। अविरुद्धे कदरोदो उदयट्ठाणेसु भंगा हु ।591। तत्थासत्था णारयसाहारणसुहुमगे अपुण्णे य। सेसेगविगलऽसण्णीजुदठाणे जसजुदे भंगा ।600। सण्णिम्मि मुणुसम्मि य ओघेक्कदरं तु केवले वज्जं। सुभगादेज्जसाणि य तित्थजुदे सत्थमेदींदि ।601। देवाहारे सत्थं कालावयप्पेसु भंगमाणेज्जो। वोच्छिण्णं जाणित्तं गुणपडिवण्णेसु सव्वेसु ।602।
= छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, सुभगयुगल, स्वरयुगल, आदेययुगल, यशःकीर्तियुगल, इन विषै अविरुद्ध एक-एक ग्रहण करते भंग हो हैं ।599। तिनि उदय प्रकृतिनिविषै नारकी और साधारण वनस्पति, सर्व ही सूक्ष्म, सर्व ही लब्धपर्याप्तक इन विषै अप्रशस्त प्रकृति ही का उदय है। तातैं तिनिके पाँच काल संबंधी सर्व उदयस्थाननिविषै एक-एक ही भंग है। अवशेष एकेंद्रिय (बादर, पृथिवी, अप्, तेज, वायु व प्रत्येक शरीर पर्याप्त) विकलेंद्रिय पर्याप्त, असैनी पंचेंद्रिय, इनविषै और तौ अप्रशस्त प्रकृतिनिका ही उदय है और यशस्कीर्ति और अयशस्कीर्ति इन दोऊनि विषै एक किसीका उदय है, तातै तिनिके उदयस्थाननि विषै दो-दो भंग जानने ।600। संज्ञी जीव विषै, मनुष्य विषै छह संस्थान, छह संहनन, विहायोगति आदिके उपरोक्त पाँच युगल इनि विषै अन्यतम (प्रशस्त या अप्रशस्त) एक-एकका उदय पाइये है। तातै सामान्यवत् 1152 भंग हैं। (6X6X2X2X2X2X2= 1152)। केवलज्ञानविषै वज्रऋषभनाराच, सुभग, आदेय, यशस्कीर्ति इनका ही उदय पाइये (शेष जो छः संस्थान व दो युगल उनमें-से अन्यतमका उदय है) तातै केवलज्ञान संबंधी स्थानविषै (6X2X2) चौबीस-चौबीस ही भंग जानने। तीर्थंकर केवलीके......सर्वप्रशस्त प्रकृतिका उदय हो है तातै ताकै उदयस्थाननि विषै एक-एक ही भंग है ।601। च्यारि प्रकार देवनिविषै वा आहारक सहित प्रमत्तविषै सर्व प्रशस्त प्रकृतिनि ही का उदय है, तातै तिनिके सर्व काल संबंधी उदय स्थाननि विषै एक-एक ही भंग है। बहुरि सासादनादिक गुणस्थाननिको प्राप्त भये तिनिविषै वा विग्रह गति वा कार्मणकालनिविषै व्युच्छित्ति भई प्रकृतिनि कौ जानि अवशेष प्रकृतिनिके यथा संभव भंग जानने।
क्रम |
नाम प्रकृति |
स्वामित्व |
1 |
स्त्यानगृद्धि आदि 3 निद्रा |
इंद्रिय पर्याप्ति पूरी कर चुकनेवाले केवल कर्म भूमिया मनुष्य व तिर्यंच। तिनमें भी आहारक व वैक्रियक ऋद्धिधारीको नहीं। |
2 |
स्त्रीवेद |
निवृत्त्यपर्याप्त असंयत गुणस्थानमें नहीं। |
3 |
नपुंसकवेदी असंयत सम्य. |
निवृत्त्यपर्याप्त दशामें केवल प्रथम नरकमें; पर्याप्त दशामें देवोंसे अतिरिक्त सबमें। |
4 |
गति |
विवक्षित पर्यायका पहला समय। |
5 |
आनुपूर्वी |
उपरोक्तवत्, परंतु स्त्री वेदी असंयतसम्यग्दृष्टिकी नहीं। |
6 |
आतप |
बादर पर्याप्त पृथिवीकायिकमें ही। |
7 |
उद्योत |
तेज, वात व साधारण शरीर तथा इनके अतिरिक्त शेष बादर पर्याप्त तिर्यंच। |
8 |
छह संहनन |
केवल मनुष्य व तिर्यंच। |
9 |
औदारिक द्वि. |
मनुष्य तिर्यंच। |
10 |
वैक्रियक द्वि. |
देव नारकी। |
11 |
उच्चगोत्र |
सर्व देव व कुछ मनुष्य। |
धवला 15/316/5 णिरय-देव-मणुसगईणं देव-णिरय-मणुस्साउआणमुच्चागोदस्स य कधमसण्णीसुदओ। ण, असण्णिपच्छायदाणं णेरइयादीणमुवयारेण असण्णित्तब्भुवगमादो।
= प्रश्न-नरकगति, देवगति, मनुष्यगति, देवायु, नरकायु, मनुष्यायु और उच्चगोत्रका उदय असंज्ञी जीवोंमें कैसे संभव है? उत्तर-नहीं क्योंकि असंज्ञी जीवोंमें-से पीछे आये हुये नारकी आदिकोंको उपचारसे असंज्ञी स्वीकार किया गया है।
धवला 6/1,9-2 102/126/2 देवेसुउज्जोवस्सुदयाभावे देवाणं देहदित्ती कुदो होदि। वण्णणामकम्मोदयादो।
= प्रश्न-देवोंमें उद्योत प्रकृतिका उदय नहीं होने पर देवोंके शरीरकी दीप्ति कहाँसे होती है? उत्तर-देवोंके शरीरमें दीप्ति वर्णनामकर्मके उदयसे होती है।
धवला 6/1,9-2,76/112/8 एइंदियाणमंगोवंगं किण्ण परूविदं। ण, तेसिं णलय-बाहू-णिदंब-पट्ठि-सीसो राणयभावादो तदभावा। एइंदियाणं छ संठाणाणि किण्ण परूविदाणि। ण पच्चवयवपरूविदलक्खणपंचसंठाणाणं समूहसरूवाण छसंठाणत्थित्तविरोहा।
= प्रश्न-एकेंद्रिय जीवोंमें अंगोपांग क्यों नहीं बतलाये? उत्तर-नहीं, क्योंकि, उनके पैर, हाथ, नितंब, पीठ, शिर और उर (उदर) का अभाव होनेसे अंगोपांग नहीं होते। प्रश्न-एकेंद्रियोंके छहों संस्थान क्यों नहीं बतलाये? उत्तर-नहीं, क्योंकि, प्रत्येक अवयवसे प्ररूपित लक्षणवाले पाँच संस्थानोंको समूहरूपसे धारण करनेवाले एकेंद्रियोंके पृथक्-पृथक् छह संस्थानोंके अस्तित्वका विरोध है।
धवला 6/1,9-2,68/108/7 विगलिंदियाणं बंधो उदओ वि हुंडसंठाणमेवेत्ति सुत्ते उत्तं। णेदं घडदे, विगलिंदियाणं छस्संठाणुवलंभा। ण एस दोसो, सव्वावयवेसु णियदसरूवपंचसंठाणेसु वे-तिण्णि-चदु-पंच-संठाणाणि संजोगेण हुंडसंठाणमणेयभेदभिण्णमुप्पज्जदि। ण च पंचसंठाणाणि पच्चवयवमेरिसाणि त्ति णज्जते, संपहि तथाविधोवदेसाभावा। ण च तेसु अविण्णादेसु एदेसिमेसो संजोगो त्ति णादुं सक्किज्जदे। तदो सव्वे वि विगलिंदिया हुंडसंठाणा वि होंता ण णज्जंति त्ति सिद्धं। विगलिंदियाणं बंधो उदओ वा दुस्सरं चेव होदि त्ति सुत्ते उत्तं। भमरादओ सुस्सरा वि दिस्संति, तदो कधमेगं घडदे। ण, भमरादिसु कोइलासु व्व महुरो व्व रुच्चइ, त्ति तस्स सरस्स महुरत्तं किण्ण इच्छिज्जदि। ण एस दोसो, पुरिसिच्छादो वत्थुपरिणामाणुवलंभा। ण च णिंबो केसिं पि रुच्चदि त्ति महुरत्तं पडिवज्जदे, अव्ववत्थावत्तीदो।
= 1. प्रश्न-`विकलेंद्रिय जीवोंके हुंडकसंस्थान इस एक प्रकृतिका ही बंध और उदय होता है' यह सूत्रमें कहा है। किंतु यह घटित नहीं होता, क्योंकि विकलेंद्रिय जीवोंके छह संस्थान पाये जाते हैं? उत्तर-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, सर्व अवयवोंमें नियत स्वरूपवाले पाँच संस्थानोंके होनेपर दो, तीन, चार और पाँच संस्थानोंके संयोगसे हुंडकसंस्थान अनेक भेदभिन्न उत्पन्न होता है। ये पाँच संस्थान प्रत्येक अवयवके प्रति इस प्रकारके आकार वाले होते हैं, यह नहीं जाना जाता है, क्योंकि, आज उस प्रकारके उपदेशका अभाव है। और उन संयोगी भेदोंके नहीं ज्ञात होनेपर इन जीवोंके `अमुक संस्थानोंके संयोगात्मक ये भंग हैं,' यह नहीं जाना जाता है। अतएव सभी विकलेंद्रिय जीव हुंडकसंस्थानवाले होते हुए भी आज नहीं जानेजाते हैं, यह बात सिद्ध हुई। 2. प्रश्न-`विकलेंद्रिय जीवोंके बंध भी और उदय भी दुःस्वर प्रकृतिका होता है' यह सूत्रमें कहा है। किंतु भ्रमरादिक कुछ विकलेंद्रिय जीव सुस्वरवाले भी दिखलाई देते हैं, इसलिए यह बात कैसे घटित होती है, कि उनके सुस्वर प्रकृतिका उदय व बंध नहीं होता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, भ्रमर आदिमें कोकिलाओंके समान स्वर नहीं पाया जाता है। प्रश्न-भिन्न रुचि होनेसे कितने ही जीवोंको अमधुर स्वर भी मधुरके समान रुचता है। इसलिए उसके अर्थात् भ्रमरके स्वरकी मधुरता क्यों नहीं मान ली जाती? उत्तर-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, पुरुषोंकी इच्छासे वस्तुका परिणमन नहीं पाया जाता है। नीम कितने ही जीवोंको रुचता है; इसलिए वह मधुरताको नहीं प्राप्त हो जाता है, क्योंकि, वैसा मानने पर अव्यवस्था प्राप्त होती है।
संकेत |
अर्थ |
निद्रा द्विक |
निद्रा, प्रचला |
स्त्यानत्रिक |
स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला |
निद्रापंचक |
निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि |
दर्शन चतु |
चक्षु, अचक्षु, अवधि व केवलदर्शनावरण |
2. मोहनीय
संकेत |
अर्थ |
मिथ्या. |
मिथ्यात्व |
मिश्र. |
मिश्र मोहनीय या सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति |
सम्य. |
सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व या सम्यग्मोहनीय |
अनंतचतु. |
अनंतानुबंधी चतुष्क |
अप्र.चतु. |
अप्रत्याख्यान चतुष्क |
प्र. चतु. |
प्रत्याख्यान चतुष्क |
सं. चतु. |
संज्वलन चतुष्क |
स्त्री. |
स्त्री वेद |
पु. |
पुरुष वेद |
नपुं. |
नपुंसक वेद |
वेदत्रिक |
स्त्री, पुरुष व नपुंसक वेद |
भयद्विक |
भय, जुगुप्सा |
हास्य द्विक |
हास्य, रति |
3. नामकर्म
संकेत |
अर्थ |
तिर्य. |
तिर्यंच गति |
मनु. |
मनुष्य गति |
नरक द्विक |
नरकगति व आनुपूर्वी |
तिर्य. द्विक |
तिर्यंचगति व आनुपूर्वी |
मनु. द्विक |
मनुष्यगति व आनुपूर्वी |
देव द्विक |
देवगति व आनुपूर्वी |
नरकादित्रिक |
नरकादि गति आनुपूर्वी व आयु |
देवादि चतु. |
गति, आनुपूर्वी, यथायोग्य शरीर व अंगोपांग |
औ. |
औदारिक शरीर |
वै. |
वैक्रियिक शरीर |
आ. |
आहारक शरीर |
औ.,वै., |
औदारिकादि शरीर |
आ.द्वि. |
व अंगोपांग |
औ.,वै., |
औदारिकादि शरीर |
आ.,चतु. |
अंगोपांग, बंधन, संघात |
वै. घटक |
नरक द्वि., देव द्वि., वैक्रियिक द्वि. |
आनु. |
आनुपूर्वी |
विहा. |
विहायोगति |
विहा.द्वि. |
प्रशस्ताप्रशस्त विहायोगति |
अगुरु. |
अगुरुलघु |
अगुरु. द्वि. |
अगुरुलघु, उपघात |
अगुरु. चतु. |
अगुरुलघु, उपघात परघात, उच्छ्वास |
वर्ण चतु. |
वर्ण, रस, गंध, स्पर्श |
त्रस चतु. |
त्रस, बादर, प्रत्येक, पर्याप्त |
त्रस दशक |
त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति |
स्थावरदशक |
स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति |
सुभग त्रय |
सुभग, आदेय, सुस्वर, |
सदर चउक्क |
तिर्यंचगति, आनुपूर्वी, आयु, उद्योत |
तिर्यगेकादश |
तिर्यक्द्विक (गति-आनुपूर्वी) आद्य जाति चतुष्क (1-4 इंद्रिय), आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण |
ध्रुव/12 |
ध्रुवोदयी 12 प्रकृतियाँ (तैजस, कार्माण, वर्णादि चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु, निर्माण) |
यु./8 |
8 युगलोंकी 21 प्रकृतियोंमें अन्यतम उदय योग्य 8 प्रकृति (चार गति; पाँच जाति; त्रस स्थावर; बादर सूक्ष्म; पर्याप्त-अपर्याप्त; सुभग-दुर्भग; आदेय अनादेय; यश-अयश) |
श./3 |
शरीर, संस्थान तथा प्रत्येक व साधारणमें से एक |
2. उदय योग्य पाँच काल
संकेत |
अर्थ |
वि.ग. |
विग्रह गति काल |
मि. श. |
मिश्र शरीर काल (आहार ग्रहण करनेसे शरीर पर्याप्ति की पूर्णता तक) |
श. प. |
शरीर पर्याप्ति काल (शरीर पर्याप्तिके पश्चात् आनपान पर्याप्तिकी पूर्णता तक) |
आलापपद्धति |
आनपान पर्याप्ति काल (आनपान पर्याप्तिके पश्चात् भाषा पर्याप्ति की पूर्णता तक) |
भा. प. |
भाषा पर्याप्ति काल (पूर्ण पर्याप्त होने के पश्चात् आयुके अंत तक) |
3. मार्गणा संबंधी
संकेत |
अर्थ |
पंचें. |
पंचेंद्रिय |
सा. |
सामान्य |
तिर्यं. |
तिर्यंच |
मनु. |
मनुष्य |
प. |
पर्याप्त |
अप. |
अपर्याप्त |
सू. |
सूक्ष्म |
बा. |
बादर |
ल. अप. |
लब्ध्यपर्याप्त |
नि. अप. |
निवृत्त्यपर्याप्त |
4. सारणीके शीर्षक
अनुदय |
उस स्थानमें इन प्रकृतियोंका उदय संभव नहीं। आगे जाकर संभव है। |
पुनः उदय |
पहले जिसका अनुदय था उन प्रकृतियोंका यहाँ उदय हो गया है। |
व्युच्छित्ति |
इस स्थान तक तो इन प्रकृतियोंका उदय है पर अगले स्थानोंमें संभव नहीं |
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उ. योग्य |
अनुदय |
पुनः उद. |
कुल उद. |
1. |
आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, मिथ्यात्व = 5 |
तीर्थ, आ. द्वि. मिश्र., सम्य. = 5 |
- |
122 |
5 |
- |
117 |
2. |
1-4 इंद्रिय, स्थावर, अनंतानुबंधी चतु. = 9 |
नरकानुपूर्वी = 1 |
- |
112 |
- |
- |
111 |
3. |
मिश्रमोहनीय = 1 |
मनु., ति., देवआनुपूर्वी = 3 |
मिश्रमोह = 1 |
102 |
3 |
1 |
100 |
4. |
अप्र. चतु., वैक्रि. द्वि., नरक त्रि., देव त्रि., मनुतिर्य-आनु., दुर्भग, अनादेय, अयश = 17 |
- |
चारों आनुपूर्वी, सम्य. = 5 |
99 |
- |
5 |
104 |
5. |
प्र.चतु., तिर्यं. आयु, नीच गोत्र, तिर्यं. गति, उद्योत = 8 |
- |
- |
87 |
- |
- |
87 |
6. |
आहारक द्विक, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला = 5 |
- |
आहारक द्वि = 2 |
79 |
- |
2 |
81 |
7. |
सम्यक्त्व मोहनीय, अर्ध नाराच, कीलित, सृपाटिका = 4 |
76 |
- |
- |
76 |
||
8/1. |
हास्य, रति, भय, जुगुप्सा = 4 |
- |
- |
72 |
- |
- |
72 |
8/अंत |
अरति, शोक = 2 |
- |
- |
68 |
- |
- |
68 |
9/1-5 |
(सवेद भाग) तीनों वेद = 3 |
- |
- |
66 |
- |
- |
66 |
9/6 |
क्रोध = 1 |
- |
- |
63 |
- |
- |
63 |
9/7 |
मान = 1 |
- |
- |
62 |
- |
- |
62 |
9/8 |
माया = 1 |
- |
- |
61 |
- |
- |
61 |
9/9 |
लोभ (बादर) = X |
- |
- |
60 |
- |
- |
60 |
10 |
लोभ (सूक्ष्म) = 1 |
- |
- |
60 |
- |
- |
60 |
11 |
वज्र नाराच, नाराच = 2 |
- |
- |
59 |
- |
- |
59 |
12/1 |
(द्विचरम समय) निद्रा, प्रचला = 2 |
- |
- |
57 |
- |
- |
57 |
12/2 |
(चरम समय) 5 ज्ञानावरण, 4 दर्शनावरण, 5 अंतराय = 14 |
- |
- |
55 |
- |
- |
55 |
13 |
(नाना जीवापेक्षया)-वज्र वृषभ नाराच, निर्माण, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुस्वर-दुःस्वर, प्रशस्त-अप्रशस्त विहायो., औदा., द्वि., तैजस-कार्माण, 6 संस्थान, वर्णादि चतु., अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रत्येक शरीर = 29 |
- |
तीर्थंकर = 1 |
41 |
- |
1 |
42 |
- |
(एक जीवापेक्षा) उपरोक्त 29+अन्यतम वेदनीय = 30 |
- |
तीर्थंकर = 1 |
41 |
- |
1 |
42 |
14 |
(नाना जीवापेक्षया) निम्न 12+1 वेदनीय = 13 (एक जीवापेक्षया) शेष अन्यतम एक वेदनीय, मनु. गति व आयु, पंचेंद्रिय जाति, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यशःकीर्ति, तीर्थंकर, उच्च गोत्र = 12 |
- |
- |
12 |
- |
- |
12 |
मार्गणा |
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
प्रथम पृथिवी |
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
मिश्र. सम्य. = 2 |
- |
76 |
2 |
- |
74 |
1 |
- |
2 |
अनंतानुबंधी चतुष्क = 4 |
नरकानुपूर्वी = 1 |
- |
73 |
1 |
- |
72 |
4 |
- |
3 |
मिश्र मोहनीय = 1 |
- |
मिश्र मोह = 1 |
68 |
- |
1 |
69 |
1 |
- |
4 |
अप्रत्या. चतु., दुर्भग, अनादेय, अयश, नरक त्रिक, वैक्र. द्वि. = 12 |
- |
नारकानुपूर्वी = 2 |
|||||
2-7 पृथिवी |
1 |
मिथ्यात्व, नारकानुपूर्वी = 2 |
मिश्र. सम्य. = 2 |
- |
76 |
2 |
- |
74 |
2 |
- |
2 |
अनंतानुबंधी चतुष्क = 4 |
- |
- |
72 |
- |
- |
72 |
4 |
- |
3 |
मिश्र मोह = 1 |
- |
मिश्र मोह = 1 |
68 |
- |
1 |
69 |
1 |
- |
4 |
नारकानुपूर्वी रहित प्रथम पृथिवीवत् = 11 |
- |
सम्य. मोह = 1 |
68 |
- |
1 |
69 |
11 |
2. तिर्यंच गति – ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 294-297/418-423 ) तिर्यंच सा - उदय योग्य - देव त्रिक, नारक त्रिक, मनु. त्रिक, वैक्रि. द्विक, आहा. द्विक, उच्च गोत्र, तीर्थंकर - इन 15 के बिना = 107
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण = 5 |
मिश्र. सम्य. = 2 |
- |
107 |
2 |
- |
105 |
5 |
2 |
अनंतानुबंधी चतु., 1-4 इंद्रिय, स्थावर = 9 |
- |
- |
100 |
- |
- |
100 |
9 |
3 |
मिश्र मोह = 1 |
तिर्यंचानुपूर्वी = 1 |
मिश्र मोह = 1 |
91 |
1 |
1 |
91 |
1 |
4 |
अप्रत्या. चतु., तिर्यगानुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति = 8 |
- |
तिर्यगानुपूर्वी व सम्य.मोह = 2 |
90 |
- |
2 |
92 |
8 |
5 |
प्रत्या. चतु., तिर्यगायु, तिर्यंच गति, नीच गोत्र, उद्योत = 8 |
- |
- |
84 |
- |
- |
84 |
8 |
चे.सा. - उदय योग्य - स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, आतप, 1-4 इंद्रिय इन 8 के बिना तिर्यंच सामान्यकी सर्व 107-8 = 99
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व, अपर्याप्तत्व = 2 |
मिश्र.सम्य. = 2 |
- |
99 |
2 |
- |
97 |
2 |
2 |
अनंतानुबंध चतुष्क = 4 |
- |
- |
95 |
- |
- |
95 |
4 |
3 |
मिश्र मोह. = 1 |
तिर्यगानुपूर्वी = 1 |
मिश्र. मोह = 1 |
91 |
1 |
1 |
91 |
1 |
4 |
तिर्यंच सामान्यवत् = 8 |
- |
सम्य. = 2 |
|||||
5 |
तिर्यंच सामान्यवत् = 8 |
- |
- |
84 |
- |
- |
84 |
8 |
पंचें. प. - उदय योग्य-स्त्री वेद व अपर्याप्त इन दो के बिना पंचेंद्रिय सामान्यवत् 99-2 = 97
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
मिश्र. सम्य. = 2 |
- |
97 |
2 |
- |
95 |
1 |
2 |
अनंतानुबंधी चतुष्क = 4 |
- |
- |
94 |
- |
- |
94 |
4 |
3 |
मिश्र. मोह. = 1 |
तिर्यगानुपूर्वी = 1 |
मिश्र मोह = 1 |
90 |
1 |
1 |
90 |
1 |
4 |
तिर्यंच सामान्यवत् = 8 |
- |
तिर्य. आनु., सम्य. = 2 |
89 |
- |
2 |
91 |
8 |
5 |
तिर्यंच सामान्यवत् = 8 |
- |
- |
83 |
- |
- |
83 |
8 |
तिर्य. योनिमति - उदय योग्य-अपर्याप्त, पुरुष वेद, नपुंसक वेद इन तीनोंके बिना पंचेंद्रिय सामान्यवत् 99-3 = 96
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
मिश्र.सम्य. = - |
96 |
2 |
- |
94 |
1 |
|
2 |
अनंतानुबंधी चतुष्क, तिर्यगानुपूर्वी = 5 |
- |
- |
93 |
- |
- |
93 |
5 |
(सम्यग्दृष्टि मरकर तिर्यंच योनीमें न उपजे) |
||||||||
3 |
मिश्र मोह = 1 |
- |
मिश्र मोह = 1 |
88 |
- |
1 |
89 |
1 |
4 |
तिर्यगानुपूर्वीके बिना तिर्यंच सामान्यवत् = 7 |
- |
सम्य. = 1 |
88 |
- |
1 |
89 |
7 |
5 |
तिर्यंच सामान्यवत् = 8 |
- |
- |
2 |
- |
- |
83 |
8 |
तिर्य. अप. - उदय योग्य-स्त्री व पुरुष वेद, स्त्यान, त्रिक, परघात, उच्छ्वास, पर्याप्त, उद्योत, सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्त-अप्रशस्त-विहायो., यश, आदेय, आदिके 5 संस्थान व संहनन, सुभग, सम्य., मिश्र इन 28 के बिना पंचे, सा. वत् = 71 - 1 मिथ्यात्व = 1 - - 71 - - 71 1 भोगभूमिजातिर्यं - उदय योग्य-भोगभूमिज मनुष्योंकी 78-मनुष्य त्रिक व उच्चगोत्र + तिर्य. त्रिक, नीच गोत्र व उद्योत = 79 - - प्रमाण :- (गो.क./भाषा 301/431/1)
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
सम्य.मिश्र. = 2 |
- |
79 |
2 |
- |
77 |
1 |
2 |
अनंतानुबंधी चतुष्क = 4 |
- |
- |
76 |
- |
- |
76 |
4 |
3 |
मिश्र मोह = 1 |
तिर्यगानुपूर्वी = 1 |
मिश्र. = 1 |
72 |
1 |
1 |
72 |
1 |
4 |
अप्रत्या. चतुष्क, तिर्यगानुपूर्वी = 5 |
- |
सम्य., तिर्यगानु. = 2 |
71 |
- |
2 |
73 |
5 |
3. मनुष्य गति - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 298-303/423-431 ) मनुष्य सामान्य - उदय योग्य-स्थावर, सूक्ष्म, तिर्य. त्रिक, नरक त्रिक, देव त्रिक, वैक्रि. द्विक, 1-4 इंद्रिय, आतप, उद्योत, साधाण इन 20 के बिना सर्व 122-20 = 102
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व, अपर्याप्त = 2 |
मिश्र.सम्य. आ. द्वि. तीर्थ = 5 |
- |
102 |
5 |
- |
97 |
2 |
2 |
अनंतानुबंधी चतुष्क = 4 |
- |
- |
95 |
- |
- |
95 |
4 |
3 |
मिश्र मोह = 1 |
मनुष्यानुपूर्वी = 1 |
91 |
1 |
1 |
91 |
1 |
|
4 |
अप्रत्या. चतु., मनु. आनु., दुर्भग, अनादेय, अयश = 8 |
- |
आनु. = 2 |
|||||
5 |
प्रत्या चतु., नीच गोत्र = 5 |
- |
- |
84 |
- |
- |
84 |
5 |
मनुष्य पर्याप्त - उदय योग्य-स्त्री वेद व अपर्याप्तके बिना मनुष्य सामान्यवत् 102-2 = 100
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
मनु.सा.वत् = 5 |
- |
100 |
5 |
- |
95 |
1 |
2-8 |
मनुष्य सामान्यवत् |
|||||||
9 |
क्रोध, मान, माया, पुरुष व नपुँसक वेद = 5 |
- |
- |
65 |
- |
- |
65 |
5 |
10-14 |
मूलोघवत् |
मनुष्यणी पर्याप्त - उदय योग्य-अपर्याप्त, पुरुष व नपुंसक वेद, आहारक द्विक, तीर्थंकर इन 6 के बिना मनुष्य सामान्यवत् = 96
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
सम्य., मिश्र = 2 |
- |
96 |
2 |
- |
94 |
1 |
2 |
अनंतानुबंधी चतु., मनुष्यापूर्वी = 5 |
- |
- |
93 |
- |
- |
93 |
5 |
3 |
मिश्र मोह = 1 |
- |
मिश्र मोह = 1 |
88 |
- |
1 |
89 |
1 |
4 |
अप्रत्या.चतु., दुर्भग, अनादेय, अयश = 7 |
- |
सम्य. = 1 |
88 |
- |
1 |
89 |
7 |
5 |
प्रत्या. चतु., नीच गोत्र = 5 |
- |
- |
82 |
- |
- |
82 |
5 |
6 |
स्त्यानगृद्धि. निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला = 3 |
- |
- |
77 |
- |
- |
77 |
3 |
7-8 |
मूलोघवत् |
|||||||
9/1-5 (सवेद भाग) |
स्त्री वेद = 1 |
- |
- |
63 |
- |
- |
63 |
1 |
9-12 |
मूलोघवत् |
|||||||
13/14 |
तीर्थंकर बिना मूलोघवत् |
मनुष्य अप. - उदय योग्य :- तिर्यंच अप. वत् 71-तिर्यक् त्रिक + मनुष्य त्रिक = 76
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
- |
- |
1 |
- |
- |
71 |
1 |
भोगभूमिजमनु. - उदय योग्य :- दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश, नीच गोत्र, नपुंसक, स्त्यान-त्रिक, अप्रशस्तविहा., तीर्थ., अपर्याप्त, वज्र वृषभ नाराच बिना 5 संहनन, समचतुरस्र बिना 5 संस्थान, आहारकद्विक, इन 24 के बिना मनु. सा. वत् = 78
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
सम्य., मिश्र = 2 |
- |
78 |
2 |
- |
76 |
1 |
2 |
अनंतानुबंधी चतु. = 4 |
- |
- |
75 |
- |
- |
75 |
4 |
3 |
मिश्र मोह = 1 |
मनु.आनु. = 1 |
मिश्र मोह = 1 |
71 |
1 |
1 |
71 |
1 |
4 |
अप्रत्या.चतु., मनुष्यापूर्वी = 5 |
- |
सम्य., आन = 2 |
70 |
- |
2 |
72 |
5 |
4. देव गति- ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/304-305/432-434 ) देव सामान्य - उदय योग्य :- भोगभूगिया मनुष्यकी 78-मनुष्य त्रिक व औदा. द्वि. व वज्र वृषभ नाराच संहनन + देवत्रिक व वैक्रि. द्विक = 77
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
मिश्र., सम्य. = 2 |
- |
77 |
2 |
- |
75 |
1 |
2 |
अनंतानुबंधी चतु. = 4 |
- |
- |
74 |
- |
- |
74 |
4 |
3 |
मिश्र मोह = 1 |
देवानुपूर्वी = 1 |
मिश्र मोह = 1 |
70 |
1 |
1 |
70 |
1 |
4 |
अप्रत्या. चतु., दैवत्रिक, वैक्रि. द्वि. = 9 |
- |
सम्य.,आनु. = 2 |
69 |
- |
2 |
71 |
9 |
भवनत्रिक देव 1-4 उदय योग्य :- देव सामान्यवत् = 77 - - - - - - - सौधर्म-ऐशान 1-4 उदय योग्य :- = 77 - - - - - - - सनत्कु.-नवग्रैवेयक तकके देव 1-4 उदय योग्य :- स्त्रीवेद रहित देव सामान्यवत् = 76 - - - - - - - नव अनुदिश - उदय योग्य :- देव सामान्यकी 77-मिथ्यात्व, अनंत. चतु., मिश्र मोह, स्त्री वेद = 70 से सर्वार्थसिद्धिके देव
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
4 |
अप्रत्या. चतु., देवत्रिक, वैक्रिक, द्वि. = 9। |
- |
- |
70 |
- |
- |
70 |
9 |
भवनत्रिकसे सौधर्म ईशानकी देवियाँ - उदय योग्य :- पुरुष वेद बिना देव सामान्यकी 77-1 = 76
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
मिश्र., सम्य = 2 |
- |
76 |
2 |
- |
74 |
1 |
2 |
अनंतानुबंधी चतु., देवगत्यानुपूर्वी = 5 |
73 |
73 |
5 |
||||
3 |
मिश्र मोह = 1 |
- |
मिश्र मोह = 1 |
68 |
- |
1 |
69 |
1 |
4 |
अप्रत्या. चतु., देवगति व आयु वैक्रि. द्वि. = 8 |
- |
सम्य. = 1 |
68 |
- |
1 |
69 |
8 |
2. इंद्रिय मार्गणा-
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/306-308/436-437 एकेंद्रिय - उदय योग्य :- स्त्री व पुरुष वेद, सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्त व अप्रशस्त विहा., आदेय, छहों संहनन, हुंडक बिना 5 संस्थान सुभग, सम्य., मिश्र औ. अंगोपांग, त्रस, 2-5 इंद्रिय, देवत्रिक, नरक त्रिक, मनु, त्रिक, उच्चगोत्र, तीर्थंकर, आहा. द्विक, वैक्रि. द्विक, इन 42 के बिना सर्व 122-42 = 80
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1. मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त साधारण, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, परघात, उद्योत, उच्छ्वास = 11 |
- |
- |
80 |
- |
- |
80 |
11 |
|
2 |
अनंतानुबंधी चतु., एकेंद्रिय, स्थावर = 6 |
- |
- |
96 |
- |
- |
96 |
6 |
विकलेंद्रिय - उदय योग्य :- स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, एकेंद्रिय, आतप इन पांच रहित एकेंद्रियकी 80 अर्थात् कुल 75 + त्रस, अप्रशस्त विहा, दुःस्वर, औ. अंगोपांग, स्व-स्व 1 जाति, सृपाटिका संहनन यह 6 = 81
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व अपर्याप्त, स्त्यान-त्रिक परघात उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्त-विहा., दुःस्वर = 10 |
- |
- |
81 |
- |
- |
81 |
10 |
2 |
अनंतानुबंधी चतु., स्व स्व योग्य 1 जाति = 5 |
- |
- |
71 |
- |
- |
71 |
5 |
पंचेंद्रिय - उदय योग्य :- साधारण, 1-4 इंद्रिय, आतप, स्थावर, सूक्ष्म इन 8 रहित सर्व 122-8 = 114
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1. |
मिथ्यात्व, अपर्याप्त = 2 |
तीर्थ, आ.द्वि., सम्य., मिश्र = 5 |
- |
114 |
5 |
- |
109 |
2 |
2 |
अनंतानुबंधी चतु. = 4 |
नरकानु = 1 |
- |
107 |
1 |
- |
106 |
4 |
3-14 |
मूलोघवत् |
3. काय मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 309-310/439-441 ) स्थावर सामान्य बा.प.वनि.अप. - उदय योग्य :- एकेंद्रियवत् = 80 पृथिवीकाय - उदय योग्य :- साधारण रहित स्थावर सामान्यकी 80 अर्थात् 80-1 = 79 प. व. अप. 1 मिथ्यात्व, आतप, उद्योत, सूक्ष्म अपर्याप्त, स्त्यान, त्रिक, उच्छ्वास परघा = 10 - - 79 - - 79 10 नि. अप. 2 अनंतानुबंधी चतुष्क, एकेंद्रिय, स्थावर = 6 - - 69 - - 69 6 अप काय - उदय योग्य :- साधारण व आपातके बिना स्थावर सामान्यवत् 80-2 = 78 प.व. अप. 1 आपात बिना पृथिवी कायवत् = 9 - - 78 - - 78 9 नि. अप. 2 अनंतानुबंधी चतु., एकेंद्रिय स्थावर = 6 - - 69 - - 69 6 तेज काय व वात काय - उदय योग्य :- साधारण, आतप, उद्योत इन तीन बिना स्थावर सामान्य 80-2 = 78
- |
1 |
आतप, उद्योत बिना पृ. कायवत् = 8 |
- |
- |
77 |
- |
- |
77 |
8 |
वनस्पति काय अप्रति. प्रत्येक - उदय योग्य :- आपत रहित स्थावर सामान्यवत् 80-1 = 79
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
|
- |
1 |
मिथ्यात्व, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, स्त्यान, त्रिक, परघात, उच्छ्वास, उद्योत = 10 |
- |
- |
79 |
- |
- |
79 |
10 |
नि. अप. |
2 |
अनंतानुबंधी चतु., एकेंद्रिय, स्थावर = 6 |
- |
- |
69 |
- |
- |
69 |
6 |
शेष सर्व विकल्प - `सू.प.अप.' व. `बा.अप.' 1 मिथ्यादृष्टि पृथिवी कायवत् 4. योग मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 310-314/441/453 ) चारों मनोयोगी सत्य असत्य व उभय वचन योगी = 7 - उदय योग्य-आतप, 1-4 इंद्रिय, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, आनु. चतु. इन 13 बिना सर्व = 109
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
तीर्थ, आ.द्वि., मिश्र.सम्य. = 5 |
- |
109 |
5 |
- |
104 |
1 |
2 |
अनंतानुबंधी चतु. = 4 |
- |
- |
103 |
- |
- |
103 |
4 |
3 |
मिश्र मोह = 1 |
- |
मिश्रमोह = 1 |
99 |
- |
1 |
100 |
1 |
4 |
अप्रत्या. चतु., वैक्रि. द्वि., नरक गति व आयु, देवगति व आयु, दुर्भग, अनादेय, अयश = 13 |
- |
सम्य. = 1 |
99 |
- |
1 |
100 |
13 |
5-12 |
मूलोघवत् |
|||||||
13 |
ओघवत् 13वें की 30 तथा 14वें की 12 = 42 |
- |
तीर्थ = 1 |
41 |
- |
1 |
42 |
42 |
अनुभय वचन - उदय योग्य-आतप, एकेंद्रिय, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, आनुपूर्वी चतु. इन 10 के बिना सर्व = 112
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
तीर्थ, आ.द्वि. मिश्र. सम्य. = 5 |
- |
112 |
5 |
- |
107 |
1 |
2 |
अनंतानुबंधी चतु., 2-4 इंद्रिय = 7 |
- |
- |
106 |
- |
- |
106 |
7 |
3 |
मिश्र मोह = 1 |
- |
मिश्र मोह = 1 |
99 |
- |
1 |
100 |
1 |
4-12 |
मूलोघवत् |
|||||||
13 |
ओघवत् 13वें की 30 तथा 14वें की 12 = 42 |
- |
तीर्थ = 1 |
41 |
- |
1 |
42 |
42 |
औदारिक काय योग - उदय योग्य-आहा. द्वि., वैक्रि. द्वि., देव व नारक त्रिक, मनु. व तिर्य. आनु., अपर्याप्त इन 13 के बिना सर्व = 109
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्म साधारण = 4 |
तीर्थ., मिश्र, सम्य. = 3 |
- |
109 |
3 |
- |
106 |
4 |
2 |
अनंतानुबंधी चतु., 1-4 इंद्रिय स्थावर = 9 |
- |
- |
102 |
- |
- |
102 |
9 |
3 |
मिश्र मोह = 1 |
- |
मिश्र मोह = 1 |
93 |
- |
1 |
94 |
1 |
4 |
अप्रत्या. चतु., दुर्भग, अनादेय अयश = 7 |
- |
सम्य. = 1 |
93 |
- |
1 |
94 |
7 |
5 |
उद्योत, नीच गोत्र, तिर्य. गति व आयु, प्रत्या. चतु = 8 |
- |
- |
87 |
- |
- |
87 |
8 |
6 |
सत्यान त्रिक. = 3 |
- |
- |
79 |
- |
- |
79 |
3 |
7-12 |
मूलोघवत् |
|||||||
13 |
ओघवत् 13वें 14वें की मिलकर = 42 |
- |
तीर्थ = 1 |
41 |
- |
1 |
42 |
42 |
औदारिक मिश्र - उदय योग्य-आहा. द्विक, वैक्रि. द्विक, देवत्रिक, नारक त्रिक, मनु. ति. आनु., स्त्यान, त्रिक, सुस्वर, दुस्वर, प्रशस्ताप्रशस्त विहायो., परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, मिश्र. इन 24 के बिना सर्व 122-24 = 98
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व, सूक्ष्म, अपर्याप्त साधारण = 4 |
तीर्थ. सम्य. = 2 |
- |
98 |
2 |
- |
96 |
4 |
2 |
अनंतानुबंधी चतु., 1-4 इंद्रिय, स्थावर, अनादेय, दुर्भग, अयश, स्त्री नपुंसक वेद = 14 |
- |
- |
92 |
- |
- |
92 |
14 |
3 |
गुणस्थान संभव नहीं |
|||||||
4 |
अप्रत्या.चतु + आ.द्वि.स्त्यान.त्रिक, स्त्री नपुं. वेद, उद्योत इन 8 रहित 5-12 तक की 48 अर्थात् 40) = 44 |
- |
सम्य. = 1 |
78 |
- |
1 |
79 |
44 |
5-12 |
गुणस्थान संभव नहीं |
|||||||
13 समुद्धात केवली |
सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्ताप्रशस्त विहा. परघात, उच्छ्वास इन 6 के बिना 13 वें 14 वें की सर्व 42-6 = 36 |
- |
तीर्थंकर = 1 |
35 |
- |
1 |
36 |
36 |
वैक्रियक काय योग - उदय योग्य-स्थावर, सूक्ष्म, तिर्य. त्रिक, मनु. त्रिक, आतप, उद्योत, 1-4 इंद्रिय, साधारण, स्त्यान, त्रिक, तीर्थंकर अपर्याप्त, छहों संहनन, समचतुरस्र व हुंडक बिना 4 संस्थान, आहा. द्वि. औ. द्वि. नारक व देव आनु., इन 36 के बिना सर्व 122-36 = 86।
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
मिश्र, सम्य. = 2 |
- |
86 |
2 |
- |
84 |
1 |
2 |
अनंतानुबंधी चतुष्क = 4 |
- |
- |
83 |
- |
- |
83 |
4 |
3 |
मिश्र मोह = 1 |
- |
मिश्रमोह = 1 |
79 |
- |
1 |
80 |
1 |
4 |
अप्रत्या. चतु., देवगति आयु, नरकगति. आयु., वैक्रि. द्विक, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय = 13 |
- |
सम्य. = 1 |
79 |
- |
1 |
80 |
13 |
वैक्रियक मिश्रकाय - उदय योग्य - मिश्रमोह, परघात, उच्छ्वास, सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्ताप्रशस्त विहा. इन 7 रहित वैक्रियककाय योगवत् 86-7 = 79
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
सम्य. = 1 |
- |
79 |
1 |
- |
78 |
1 |
2 |
अनंतानुबंधी चतु., स्त्री वेद = 5 |
हुँडक, नपुंसक, दुर्भग, अनादेय, दुःस्वर, नरक गति व आयु, नीच गोत्र = 8 |
- |
77 |
8 |
- |
69 |
5 |
3 |
गुणस्थान संभव नहीं |
|||||||
4 |
अप्रत्या. चतु., वैक्रि., द्वि., देव नरक गति व आयु, दुर्भग, अनादेय दुःस्वर = 13 |
- |
सम्य., सासादन के अनुदय वाली 8 = 9 |
64 |
- |
9 |
73 |
13 |
आहारक काय योग - उदय योग - स्त्यान. त्रिक, स्त्री नपुं. वेद, अप्रशस्त विहायो., दुःस्वर, 6 संहनन, औदा.द्वि., समचतुरस्रके बिना 5 संस्थान इन 20 रहित ओघके 6 ठे गुणस्थानकी 81-20 = 61
6 |
आहारक द्विक = 2 |
- |
- |
61 |
- |
- |
61 |
2 |
आहारक मिश्र - उदय योग्य-सुस्वर, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहा. इन 4 रहित आहारक काय योगकी 61 = 57
6 |
आहारक द्विक = 2 |
- |
- |
57 |
- |
- |
57 |
2 |
कार्माण काययोग - उदय योग्य-सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्ताप्रशस्त विहायो., प्रत्येक, साधारण, आहारक द्वि., औदा. द्वि., वैक्रि. द्वि., मिश्र, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, स्त्यान, त्रिक, छह संस्थान, छह संहनन इन 33 के बिना सर्व 122-33 = 89
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व, सूक्ष्म, अपर्याप्त = 3 |
सम्य., तीर्थ = 2 |
- |
89 |
2 |
- |
87 |
3 |
2 |
अनंता. चतु., 1-4 इंद्रिय, स्थावर, स्त्रीवेद = 10 |
नरक त्रिक = 3 |
- |
84 |
3 |
- |
81 |
10 |
3 |
गुणस्थान संभव नहीं |
|||||||
4 |
वैक्रि. द्वि. बिना मूलोघके 4 थे वाली 15 + (उद्योत. आहा. द्वि., स्त्यान,. त्रिक स्त्री वेद प्रथम रहित 5 संहनन इन 12 के बिना ओघकी 5-12 गुणस्थान वाली 48-12 = 36) 36 + 15 = 51 |
- |
सम्य., नरकत्रिक |
71 |
- |
4 |
75 |
51 |
5-12 |
गुणस्थान संभव नहीं |
|||||||
13 |
(समुद्धात केवलीको) वज्रवृषभनाराच, स्वरद्विक, विहायो. द्विक, औ.द्वि. 6 संस्थान, उपघात परघात प्रत्येक उच्छ्वास इन 17 के बिना ओघके 13वें, 14वें गुणस्थानोंकी 42-17 = 25 |
- |
तीर्थंकर |
24 |
- |
1 |
25 |
25 |
5. वेद मार्गणा- ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 320-321/454-458 ) पुरुष वेद - उदय योग्य-स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, नारक त्रिक, 1-4 इंद्रिय, स्त्री वेद, नपुंसक वेद, तीर्थंकर, आतप इन 15 रहित सर्व-122-15 = 107
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
|
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
आ. द्वि., सम्य. मिश्र = 4 |
- |
107 |
4 |
- |
103 |
1 |
|
2 |
अनंतानुबंधी चतु. = 4 |
- |
- |
102 |
- |
- |
102 |
4 |
|
3 |
मिश्र मोह = 1 |
देव, मनु. व तिर्य. गत्यानुपूर्वी = 3 |
मिश्र = 1 |
98 |
3 |
1 |
96 |
1 |
|
4 |
अप्रत्या. चतु., वैक्रि. द्वि., देवत्रिक, मनु. व तिर्य. आनु, दुर्भग, अनादेय अयश = 14 |
- |
देव, मनु. व तिर्य. आनु. |
95 सम्य. = 4 |
95 |
- |
4 |
99 |
14 |
5-8 |
मूलोघवत् = 23 |
आहा. द्वि. = 2 |
85 |
- |
2 |
87 |
23 |
||
9 |
पुरुषवेद, क्रोध, मान, माया = 4 |
- |
- |
64 |
- |
- |
64 |
4 |
|
10-14 |
गुणस्थान संभव नहीं |
स्त्री वेद - उदय योग्य-पुरुष वेद की 107(आहा. द्वि. पुरुष वेद) + स्त्री वेद = 105
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
सम्य. मिश्र = 2 |
- |
105 |
2 |
- |
103 |
1 |
2 |
अनंता. चतु., देव मनुष्य तिर्य. आनु. = 7 |
- |
- |
102 |
- |
- |
102 |
7 |
3 |
मिश्र मोह = 1 |
- |
मिश्रमोह = 1 |
95 |
- |
1 |
96 |
1 |
4 |
अप्रत्या.4, देवगति व आयु, वैक्रि. द्वि. दुर्भग, अनादेय, अयश = 11 |
- |
सम्य. = 1 |
95 |
- |
1 |
96 |
11 |
5 |
मूलोघवत् = 8 |
- |
- |
85 |
- |
- |
85 |
8 |
6 |
स्त्यानगृद्धि त्रिक = 3 |
- |
- |
77 |
- |
- |
77 |
3 |
7 |
सम्य. मोह, 3 अशुभ संहनन = 4 |
- |
- |
74 |
- |
- |
74 |
4 |
8 |
मूलोघवत् = 6 |
- |
- |
70 |
- |
- |
70 |
6 |
9 |
स्त्री वेद, क्रोध, मान, माया = 4 |
- |
- |
64 |
- |
- |
64 |
4 |
10-14 |
गुणस्थान संभव नहीं |
नपुंसक वेद - उदय योग्य-देवत्रिक आहा. द्वि., स्त्री-पुरुष वेद, तीर्थंकर इन 8 के बिना सर्व 122-8 = 114
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व, आतम, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण = 5 |
सम्य. मिश्र = 2 |
- |
114 |
2 |
- |
112 |
5 |
2 |
अनंता. चतु., 1-4 इंद्रिय, स्थावर, मनु. तिर्य आनु. = 11 |
नरकानु. = 1 |
- |
107 |
1 |
- |
106 |
11 |
3 |
मिश्रमोह = 1 |
- |
मिश्र मोह = 1 |
95 |
- |
1 |
96 |
1 |
4 |
अप्रत्या. चतु., वैक्रि. द्वि., नरक त्रिक, दुर्भग, दुःस्वर अयश = 12 |
- |
सम्य. नरकानु. = 2 |
95 |
- |
2 |
97 |
12 |
5 |
प्रत्या.चतु., तिर्य. आयु व गति, नीच गोत्र, उद्योत = 8 |
- |
- |
85 |
- |
- |
85 |
8 |
6 |
स्त्यान, त्रिक = 3 |
- |
- |
77 |
- |
- |
77 |
3 |
7 |
सम्य. मोह., 3 अशुभ संहनन = 4 |
- |
- |
74 |
- |
- |
74 |
4 |
8 |
हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा = 6 |
- |
- |
70 |
- |
- |
70 |
6 |
9 |
नपुंसक वेद, क्रोध, मान, माया = 4 |
- |
- |
64 |
- |
- |
64 |
4 |
10-14 |
गुणस्थान संभव नहीं |
6. कषाय मार्गणा- ( गोम्मटसार कर्मकांड 322-323/459-461 ) चतुर्विध क्रोध - उदय योग्य-शेष 12 कषाय (चारों प्रकार मान, माया, लोभ) और तीर्थंकर इन 13 के बिना सर्व-122-13 = 109
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
|||||||||
1 |
मिथ्यात्व, सूक्ष्म, अपर्याप्त, आतप, साधारण = 5 |
सम्य. मिश्र., आहा.द्वि. = 4 |
- |
109 |
4 |
- |
105 |
5 |
|||||||||
2 |
अनंता. क्रोध, 1-4 इंद्रिय स्थावर = 6 |
नाकानुपूर्वी = 1 |
- |
100 |
1 |
- |
99 |
6 |
|||||||||
3 |
मिश्र = 1 |
मनु. देव. तिर्य. आनु. = 3 |
मिश्रमोह = 1 |
93 |
3 |
1 |
91 |
1 |
|||||||||
4 |
वैक्रि. द्वि., देव त्रिक, नाक त्रिक, मनु. तिर्य. आनु., अप्रत्या. क्रोध, दुर्भग, अनादेय, अयश = 14 |
- |
सम्य., चारों आनु. = 5 |
90 |
- |
5 |
95 |
14 |
|||||||||
5 |
प्रत्या. क्रोध, तिर्य. गति व आयु, नीचगोत्र, उद्योत = 5 |
- |
- |
81 |
- |
- |
81 |
5 |
|||||||||
6-8 |
मूलोघवत् = 15 |
- |
आहा.द्वि. = 2 |
76 |
- |
2 |
78 |
15 |
|||||||||
9/1 |
तीनों वेद = 3 |
- |
- |
63 |
- |
- |
63 |
3 |
|||||||||
9/2 |
संज्वलन क्रोध = 1 |
- |
- |
60 |
- |
- |
60 |
1 |
|||||||||
आगे गुणस्थान संभव नहीं |
अप्रत्या., प्रत्या., व संज्वलन क्रोध - स्थान - अनंतानुबंधीका विसंयोजन करके मिथ्यादृष्टि गुणस्थान विषै प्राप्त भया, ताके केते इक काल अनंतानुबंधीका उदय न होय, ताकी अपेक्षा यह कथन है । - - उदय योग्य-1-4 इंद्रिय, चारों आनु., आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अनंता. क्रोध, चारों प्रकार मान-माया-लोभ, तीर्थंकर, मिश्र, सम्य, मोह, आहा. द्वि., इन 31 के बिना सर्व = 91 - 1-9 उपरोक्त चारों क्रोधवत्। विशेष इतना कि अपने उदयके अयोग्य प्रकृतियोंको व्युच्छित्तिमें न गिनाना। चतुर्विध मान माया लोभ - उदय योग्य - 1. चारों प्रकार क्रोधवाली 109 में स्व स्व कषाय चतुष्कको उदय योग्य करके शेष 12 का अनुदय है। - - 2. अप्रत्या., प्रत्या. व संज्वलन इन तीन कषायोंवाले विकल्पमें भी 91 में स्व स्व कषायका ही ग्रहण करके अन्यका अनुदय है । - - 3. लोभ कषायमें गुणस्थान 9 की बजाय 10 बताना । और सूक्ष्म लोभकी व्युच्छित्ति 10वें गुणस्थानमें मूलोघवत् करनी। - 1-9 क्रोधवत् - 10 केवल लोभ कषायमें मूलोघवत् सूक्ष्म लोभकी व्युच्छित्ति 7. ज्ञान मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड 323-324/462-465 ) मतिश्रुत अज्ञान - उदय योग्य-आहा. द्वि., तीर्थंकर, मिश्र, सम्य., इन 5 के बिना सर्व 122-5 = 117
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, नाक आनु. = 6 |
- |
- |
117 |
- |
- |
117 |
6 |
2 |
अनंतानुबंधी चतु., 1-4 इंद्रिय, स्थावर = 9 |
- |
- |
111 |
- |
- |
111 |
9 |
3-14 |
गुणस्थान संभव नहीं |
विभंग ज्ञान - उदय योग्य-14 इंद्रिय, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, आनु. चतु., आहा. द्वि., तीर्थंकर, मिश्र, सम्य. मोह इन 18 बिना सर्व 122-18 = 104
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
- |
- |
104 |
- |
- |
104 |
1 |
2 |
अनंतानुबंधी चतु. = 4 |
- |
- |
103 |
- |
- |
103 |
4 |
3-14 |
गुणस्थान संभव नहीं |
मति. श्रुत अवधिज्ञान - उदय योग्य :- मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, 1-4 इंद्रिय, स्थावर, अनंता. चतु. मिश्र मोह इन 15 के बिना सर्व-122-15 = 107
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
4 |
मूलोघवत् = 17 |
तीर्थ, आ. द्वि. = 3 |
- |
107 |
3 |
- |
104 |
17 |
5-12 |
मूलोघवत् |
मनःपर्यय ज्ञान - उदय योग्य :- 1-5 तक के गुण स्थानोंमें ओघवत् व्युच्छिन्न 40 + तीर्थंकर, आहा. द्वि. व स्त्री नपुंसक वेद इन 45 के बिना सर्व-122-45 = 77
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
6 |
स्त्यानगृद्धि त्रिक |
- |
- |
77 |
- |
- |
77 |
3 |
7-10 |
मूलोघवत्। विशेष इतना कि 9वें में एक पुरुषवेदकी ही व्युच्छित्ति कहना। |
केवल ज्ञान - उदय योग्य :- ओघ प्ररूपणाके 13वें 14वें गुणस्थानोंमें व्युच्छिन्न कुल 42
- |
13-14 |
मूलोघवत्। |
13वें में तीर्थंकर का पुनः उदय न कहना |
8. संयम मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 324/465-496 ) सामायिक छेदोप. - उदय योग्य :- ओघ प्ररूपणामें कथित 6ठें गुणस्थानमें उदय योग्य = 81
6-9 |
मूलोघवत् |
परिहार विशुद्धि - उदय योग्य :- स्त्री व नपुंसकवेद तथा आहारक द्वि. इन 4 के बिना सामायिक संयतवत् 81-4 = 77
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
6 |
स्त्यानत्रिक = 3 |
- |
- |
77 |
- |
- |
77 |
3 |
7 |
सम्य., 3 अशुभ संहनन = 4 |
- |
- |
74 |
- |
- |
74 |
4 |
सूक्ष्म सांपराय - उदय योग्य :- ओघ प्ररूपणाके 10वें गुणस्थान में उदय योग्य = 60
10 |
मूलोघवत् |
यथाख्यात - उदय योग्य :- ओघ प्ररूपणाके 11वें गुणस्थानमें उदय योग्य = 59
11-14 |
मूलोघवत् |
देश संयत - उदय योग्य :- ओघ प्ररूपणाके 5वें गुणस्थानमें उदय योग्य = 87
5 |
मूलोघवत् |
असंयत - उदय योग्य :- तीर्थंकर व आहा. द्वि. इन 3 के बिना सर्व 122-3 = 119
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, मिथ्या. = 5 |
मिश्र, सम्य = 2 |
- |
119 |
2 |
- |
117 |
5 |
2-4 |
मूलोघवत् |
9. दर्शन मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 625/469-470 ) चक्षुदर्शन - उदय योग्य :- साधारण, आतप, 1-3 इंद्रिय, स्थावर, सूक्ष्म, तीर्थंकर इन 8 के बिना सर्व 122-8 = 114
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व, अपर्याप्त = 2 |
सम्य., मिश्र. आ. द्वि = 4 |
- |
114 |
4 |
- |
110 |
2 |
2 |
अनंतानुबंधी 4, चतुरिंद्रिय = 5 |
नारकानुपूर्वी |
- |
108 |
1 |
- |
107 |
5 |
3-12 |
मूलोघवत् |
अचक्षु दर्शन - उदय योग्य :- तीर्थंकर बिना सर्व 122-1 = 121
1-12 |
मूलोघवत् |
अवधि दर्शन - सर्व विकल्प अवधिज्ञानवत् केवल दर्शन - सर्व विकल्प केवलज्ञानवत् 10. लेश्या मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 625/470-474 ) कृष्ण लेश्या - उदय योग्य :- तीर्थंकर, आहा., द्वि., इन 3 के बिना सर्व 122-3 = 119
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, नारकानुपूर्वी = 6 |
मिश्र. सम्य. = 2 |
- |
119 |
2 |
- |
117 |
6 |
2 |
अनंतानुबंधी चतु., 1-4 इंद्रिय, स्थावर, देवत्रिक, तिर्यगानुपूर्वी, = 13 नोट-अशुभ लेश्यावाले भवन त्रिकमें भी न उपजें |
- |
- |
111 |
- |
- |
111 |
13 |
3 |
मिश्र मोह = 1 |
मनुष्यानुपू. = 1 |
मिश्र. = 1 |
98 |
1 |
1 |
98 |
1 |
4 |
अप्रत्या. चतु. नरकगति व आयु., वैक्रि. द्वि. मनुष्यानुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय, अयश = 12 |
- |
मनुष्यानु., सम्य. = 2 |
97 |
- |
2 |
99 |
12 |
नील लेश्या - सर्व विकल्प कृष्ण लेश्यावत् कापोत लेश्या - उदय योग्य :- कृष्णवत् = 119
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्म साधारण, अपर्याप्त = 5 |
सम्य. मिश्र = 2 |
- |
119 |
2 |
- |
117 |
5 |
2 |
अनंता. चतु., 1-4 इंद्रिय, स्थावर, देवत्रिक = 12 |
नारकानु. = 1 |
- |
112 |
1 |
- |
111 |
12 |
3 |
मिश्र. = 1 |
मनु. तिर्य. आनु. = 2 |
मिश्र = 1 |
99 |
2 |
1 |
98 |
1 |
4 |
अप्रत्या चतु., नरक त्रिक, वैक्रि. द्वि., मनु. तिर्य., आनु., दुर्भग, अनादेय, अयश = 14 |
- |
मनु.तिर्य., नाक-आनु., सम्य = 4 |
97 |
- |
4 |
101 |
14 |
पीत व पद्मलेश्या - उदय योग्य :- आतप, 1-4 इंद्रिय, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, नरक त्रिक, तिर्यगानुपूर्वी, तीर्थंकर इन 14 के बिना सर्व 122-14 = 108
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
सम्य., मिश्र., आ. द्वि., मनु.आनु = 5 |
- |
108 |
5 |
- |
103 |
1 |
2 |
अनंतानुबंधी चतु., = 4 |
- |
- |
101 |
- |
- |
101 |
4 |
3 |
मिश्र. = 3 |
देवानुपूर्वी = 1 |
मिश्र. = 1 |
98 |
1 |
1 |
98 |
1 |
4 |
नरक त्रिक व तिर्य. आनु. इन 4 के बिना मूलोघवत् = 13 |
- |
सम्य. मनु.तिर्य. आनु.. = 4 |
97 |
- |
3 |
100 |
13 |
5-7 |
मूलोघवत् |
शुक्ल लेश्या - उदय योग्य :- आतप, 1-4 इंद्रिय, स्थावर, अपर्याप्त, साधारण, नारक त्रिक, तिर्य. आनु. इन 13 के बिना सर्व 122-13 = 109
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व = 1 |
सम्य., मिश्र., आ. द्वि. तीर्थ, मनु. आनु. = 6 |
- |
109 |
6 |
- |
103 |
1 |
2-4 |
पीत पद्मवत् |
|||||||
5-14 |
मूलोघवत् |
11. भव्यत्व मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 328/474 ) भव्य 14 सर्व विकल्प मूलोघवत् अभव्य - उदययोग्य-सम्य., मिश्र, आ. द्वि., तीर्थ, इन 5 के बिना सर्व 122-5 = 117
1 |
मूलोघवत् |
- |
अन्य गुणस्थान संभव नहीं |
12. सम्यक्त्व मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 328-331/475-481 ) क्षायिक सम्य. - उदय योग्य-मिथ्यात्व, सूक्ष्म, आतप, अपर्याप्त, साधारण, अनंतानुबंधी चतु., 1-4 इंद्रिय, स्थावर, मिश्र., सम्य.; इन 16 के बिना सर्व-122-16 = 106
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
4 |
अप्रत्या. चतु. वै. द्वि., नारक त्रिक, देव त्रिक, मनु. तिर्य आनु., तिर्य. गति व आयु, दुर्भग, अनादय, अयश, उद्योत = 20 |
आ. द्वि.तीर्थ = 3 |
- |
106 |
3 |
- |
103 |
20 |
5 |
प्रत्या.चतु., नीच गोत्र = 5 |
- |
- |
83 |
- |
- |
83 |
5 |
6 |
आ. द्वि. स्त्यान. त्रिक = 5 |
- |
आ.द्वि. 2 |
78 |
- |
2 |
80 |
5 |
7 |
तीन अशुभ संहनन = 3 |
- |
- |
75 |
- |
- |
75 |
3 |
8-14 |
मूलोघवत् |
वेदक सम्य. - उदय योग्य-मिथ्यात्व, सूक्ष्म, अपर्याप्त, आतप, साधारण, अनंतानुबंधी चतु., 1-4 इंद्रिय, स्थावर, मिश्र, तीर्थंकर; इन 16 के बिना सर्व-122-16 = 106
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
4 |
अप्र.चतु.वै.द्वि., नरक त्रिक, देव त्रिक, मनु. व तिर्य. आनु., दुर्भग, अनादेय, अयश = 17 |
आ.द्वि. = 2 |
- |
106 |
2 |
104 |
17 |
|
5-7 |
मूलोघवत् |
प्रथमोपशम सम्यक्त्व - उदय योग्य-मिथ्यात्व, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, आतप, अनंतानुबंधी चतु., 1-4 इंद्रिय, स्थावर, मिश्र, तीर्थंकर, आहा. द्विक, नारक-तिर्य.-मनु, आनु., सम्य.; इन 22 के बिना सर्व = 100
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
4 |
अप्रत्या. चतु., देव त्रिक, नरक गति व आयु, वैक्रि. द्वि., दुर्भग, अनादेय, अयश = 14 |
- |
- |
100 |
- |
- |
100 |
14 |
5 |
प्रत्या.चतु., तिर्य. गति व आयु, नीच गोत्र, उद्योत = 8 |
- |
- |
86 |
- |
- |
86 |
8 |
6 |
स्त्यान त्रिक = 3 |
- |
- |
78 |
- |
- |
78 |
3 |
7 |
अशुभ संहनन = 3 |
- |
- |
75 |
- |
- |
75 |
3 |
द्वितीयोपशम सम्यक्त्व - उदय योग्य-नरक-तिर्य, गति व आयु, नीच गोत्र, उद्योत इन 6 के बिना प्रथमोपशम की सर्व = 94
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
4 |
अप्रत्या चतु., देव त्रिक, वैक्रि. द्वि., दुर्भग, अनादेय, अयश = 12 |
- |
- |
94 |
- |
- |
94 |
12 |
5 |
प्रत्या. चतु. = 4 |
- |
- |
82 |
- |
- |
82 |
4 |
6 |
स्त्यान त्रिक = 3 |
- |
- |
78 |
- |
- |
78 |
3 |
7 |
तीनों अशुभ संहनन = 3 |
- |
- |
75 |
- |
- |
75 |
3 |
8-11 |
मूलोघवत् |
मिथ्यात्व 1 उदय योग्य 122, अनुदय 5, व्युच्छित्ति 5। विशेष देखें मूलोघ । सासादन 2 उदय योग्य 112, अनुदय 1, व्युच्छित्ति 9। विशेष देखें मूलोघ । सम्यग्मिथ्यात्व 3 उदय योग्य 102, अनुदय 3, व्युच्छित्ति 1। विशेष देखें मूलोघ । 13. संज्ञी मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 331/482/1 ) संज्ञी - उदय योग्य-आतप, साधारण, स्थावर, सूक्ष्म, 1-4 इंद्रिय, तीर्थंकर; इन 9 के बिना सर्व 122-9 = 113
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्यात्व, अपर्याप्त = 2 |
सम्य, मिश्र, आ.द्वि. = 4 |
- |
113 |
4 |
- |
109 |
2 |
2 |
अनंतानुबंधी चतु. = 4 |
नरकानुपूर्वी = 1 |
- |
107 |
1 |
- |
106 |
4 |
3-12 |
मूलोघवत् |
असंज्ञी - उदय योग्य-मनु, त्रिक, देव त्रिक, नरक त्रिक, वैक्रि. द्वि., सृपाटिका रहित 5 संहनन, प्रशस्त विहा., उच्च गोत्र, सुभग, सुस्वर, आदेय, तीर्थ, मिश्र, सम्य., आहा. द्वि., हुंडक रहित 5 संस्थान; इन 31 के बिना सर्व-122-31 = 91
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
मिथ्या., आतप, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, स्त्यान. त्रिक, परघात, उद्योत, उच्छ्वास, दुःस्वर, अप्रशस्त, विहा. (पर्याप्त के उदय योग्य) = 13 |
91 |
91 |
13 |
||||
2 |
मूलोघवत् |
14. आहारक मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 331/483/3 ) आहारक - उदय योग्य-चार आनुपूर्वी के बिना सर्व-122-4 = 118
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1 |
आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, मिथ्या. = 5 |
तीर्थ, आ.द्वि., मिश्र, से |
- |
118 |
5 |
- |
113 |
5 |
2 |
1-4 इंद्रिय, स्थावर, अनंता. चतु. = 9 |
- |
- |
108 |
- |
- |
108 |
9 |
3 |
मिश्र मोह = 1 |
- |
मिश्र मोह = 1 |
99 |
- |
1 |
100 |
1 |
4 |
आनु. चतु. के बिना मूलोघवत् = 13 |
- |
सम्य. = 1 |
99 |
- |
1 |
100 |
13 |
5-13 |
मूलोघवत् |
अनाहारक - उदय योग्य-निर्माण काय योगवत् = 89
गुणस्थान |
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ |
अनुदय |
पुनः उदय |
उदय योग्य |
अनुदय |
पुनः उदय |
कुल उदय |
व्युच्छित्ति |
1,2 |
कार्माण काय योगवत् |
- |
- |
- |
- |
- |
- |
- |
4 |
वै. द्वि., बिना मूलोघके 4थे वाली = 15 |
- |
सम्य., नरक = 4 |
71 |
- |
4 |
75 |
15 |
13 |
(समुद्घात केवलीको) अन्यतम वेदनी, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, तैजस, कार्माण, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श अगुरुलघु = 13 |
- |
तीर्थंकर = 1 |
24 |
- |
1 |
25 |
13 |
14 |
मूलोघवत् |
प्रकृति का नं. |
प्रकृति |
विशेषता |
प्रकृति |
उदय |
||
स्थिति |
अनुभाग |
प्रदेश |
||||
1 ज्ञानावरणी- |
||||||
1-5 |
पाँचों |
- |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
2 दर्शनावरणी- |
||||||
1-3 |
स्त्यान त्रिक |
- |
नहीं |
... |
... |
... |
4 |
निद्रा |
निद्रा व प्रचला में अन्यतम |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
5 |
प्रचला |
- |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
6-9 |
शेष चारों |
- |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
- |
3 वेदनीय |
|||||
1 |
साता |
दोनों में अन्यतम |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
2 |
असाता |
- |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
- |
4 मोहनीय- |
|||||
- |
(1) दर्शन मोह |
|||||
1 |
मिथ्यात्व |
- |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
2-3 |
सम्य., मिश्र |
- |
नहीं |
... |
... |
... |
- |
(2) चारित्र मोह |
|||||
1-16 |
16 कषाय |
अन्यतम |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
17-19 |
3 वेद |
अन्यतम |
||||
20-21 |
हास्य-रति |
दोनों युगलोंमें अन्यतम युगल |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
22-23 |
अरति-शोक |
दोनों युगलों में अन्यतम युगल |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
24-25 |
भय-जुगुप्सा |
है वा नहीं भी |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
- |
5 आयु |
- |
नहीं |
... |
... |
... |
1 |
नरक |
चारोंमें अन्यतम |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज |
2 |
तिर्यंच |
चारोंमें अन्यतम |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
3 |
मनुष्य |
चारोंमें अन्यतम |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
4 |
देव |
चारोंमें अन्यतम |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
- |
6 नाम |
|||||
1 |
गति :- |
|||||
- |
नरक-तिर्यंच |
- |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
- |
मनुष्य-देव |
- |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
2 |
जाति :- |
|||||
- |
1-4 इंद्रिय |
- |
नहीं |
... |
... |
... |
- |
पंचेंद्रिय |
चारों गतियोंमें |
हैं |
1 समय |
चतु. |
अज. |
3 |
शरीर :- |
|||||
- |
औदारिक |
मनुष्य व तिर्यंच गतिमें |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
- |
वैक्रियक |
देव व नरक गतिमें |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
- |
आहारक |
- |
नहीं |
... |
... |
... |
- |
तैजस |
चारों गतियोंमें |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
- |
कार्माण |
चारों गतियोंमें |
- |
1 समय |
चतु. |
अज. |
4 |
अंगोपांग |
- |
- |
स्व स्व |
शरीरवत् |
|
5 |
निर्माण |
चारों गतियोंमें |
है |
1 समय |
चतु |
अज. |
6 |
बंधन |
- |
- |
स्व स्व |
शरीरवत् |
- |
7 |
संघात |
- |
- |
स्व स्व |
शरीरवत् |
- |
8 |
संस्थान :- |
|||||
- |
समचतुरस्र |
देवगतिमें नियम से मनु. तिर्यं. गतिमें भाज्य |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
- |
हुंडक |
नरक गतिमें नियमसे मनु. तिर्यं. में भाज्य |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
- |
शेष चार |
मनु. तिर्य में अन्यतम |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
9 |
संहनन :- |
|||||
- |
वज्रवृषभनाराच |
मनु. तिर्य.में अन्यतम |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
- |
शेष पाँच |
मनु. तिर्य.में अन्यतम |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
10-13 |
स्पर्श, रस, गंध, वर्ण :- |
|||||
- |
प्रशस्त |
चार गतियोंमें |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
- |
अप्रशस्त |
चारों गतियोंमें |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
14 |
आनुपूर्वी चतु. |
- |
नहीं |
... |
... |
... |
15 |
अगुरुलघु |
चारों गतियोंमें |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
16 |
उपघात |
चारों गतियोंमें |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
17 |
परघात |
चारों गतियोंमें |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
18 |
आतप |
- |
नहीं |
... |
... |
... |
19 |
उद्योत |
तिर्य. गतिमें भाज्य |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
20 |
उच्छ्वास |
चारों गतियोंमें |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
21 विहायोगति :- |
||||||
- |
प्रशस्त |
देवगतिमें नियम से मनु. तिर्य. में भाज्य |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
- |
अप्रशस्त |
नरकगति में नियमसे मनु. तिर्य. में भाज्य |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
22 |
प्रत्येक |
चारों गतियोंमें |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
23 |
साधारण |
- |
नहीं |
... |
... |
... |
24 |
त्रस |
- |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
25. |
स्थावर |
- |
नहीं |
- |
- |
- |
26. |
सुभग |
देवगतिमें नियम से मनु. तिर्य. में भाज्य |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
27 |
दुर्भग |
नरकगतिमें नियमसे मनु. तिर्य. में भाज्य |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
28 |
सुस्वर |
सुभगवत् |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
29. |
दुःस्वर |
दुर्भगवत् |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
30. |
आदेय |
सुभगवत् |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
31. |
अनादेय |
दुर्भगवत् |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
32. |
शुभ |
चारों गतियोंमें अन्यतम |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
33. |
अशुभ |
चारों गतियोंमें अन्यतम |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
34 |
बादर |
चारों गतियोंमें |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
35 |
सूक्ष्म |
- |
नहीं |
- |
- |
- |
36 |
पर्याप्त |
चारों गतियोंमें |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
37 |
अपर्याप्त |
- |
नहीं |
- |
- |
- |
38 |
स्थिर |
चारों गतियोंमें अन्यतम |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
39 |
अस्थिर |
चारों गतियोंमें अन्यतम |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
40 |
यशःकीर्ति |
सुभगवत् (देखो नं. 26) |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
41 |
अयशःकीर्ति |
दुर्भगवत् (देखो नं. 27) |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
42 |
तीर्थंकर |
- |
नहीं |
- |
- |
- |
- |
7 गोत्र- |
|||||
1 |
उच्च |
देवोंमें नियमसे मनु. में भाज्य |
है |
1 समय |
चतु. |
अज. |
2 |
नीच |
नरक. तिर्य. में नियमसे मनु. में भाज्य |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
- |
8 अंतराय- |
|||||
1-5 |
पाँचों |
चारों गतियोंमें |
है |
1 समय |
द्वि. |
अज. |
क्रम |
नाम प्रकृति |
कुल स्थान |
प्रति स्थान प्रकृति |
प्रति स्थान भंग |
विशेष विवरण |
1 |
ज्ञानावरण |
1 |
5 |
1 |
पाँचोंका सर्वदा उदय रहता है |
2 |
दर्शनावरण |
2 |
4 |
1 |
चक्षु-अचक्षु, अवधि व केवल चारोंका उदय |
- |
- |
- |
5 |
5 |
अन्यतम पाँच निद्रा सहित उपरोक्त 4 |
- |
- |
- |
- |
- |
इस प्रकार पाँच प्रकृति सहित 5 भंग हैं |
3 |
वेदनीय |
1 |
1 |
2 |
दोनों वेदनीयमें-से अन्यतम 1 का उदय होनेसे 1 प्रकृतिके दो भंग हैं |
4 |
मोहनीय |
- |
- |
- |
देखो आगे नं. 6 वाली पृथक् प्ररूपणा- |
5 |
आयु |
1 |
1 |
7 |
1-4 गुणस्थानमें अन्यतम आयु से 4 भंग |
- |
- |
- |
- |
- |
5 गुणस्थानमें मनु. तिर्य, आयु से 2 भंग |
- |
- |
- |
- |
- |
6-14 गुणस्थानमें मनु. आयुसे 1 भंग |
6 |
नाम |
- |
- |
- |
देखें आगे नं - 7 पृथक् प्ररूपणा- |
7 |
गोत्र |
1 |
1 |
3 |
1-5 गुणस्थानमें अन्यतम के उदयसे 2 भंग |
- |
- |
- |
- |
- |
6-14 गुणस्थानमें केवल उच्च का 1 भंग |
8 |
अंतराय |
1 |
5 |
1 |
पाँचों का निरंतर उदय |
2. मूल प्रकृति ओघ प्ररूपणा (पं.सं./प्रा.3/5 व 13), (पं.सं./सं.4/86 व 221)
गुणस्थान |
कुल स्थान |
प्रति स्थान प्रकृति |
प्रति स्थान भंग |
प्रकृतियोंका विवरण |
भंगोंका विवरण |
1 |
1 |
8 |
1 |
सर्व प्रकृति |
x |
2 |
1 |
8 |
1 |
सर्व प्रकृति |
x |
3 |
1 |
8 |
1 |
सर्व प्रकृति |
x |
4 |
1 |
8 |
1 |
सर्व प्रकृति |
x |
5 |
1 |
8 |
1 |
सर्व प्रकृति |
x |
6 |
1 |
8 |
1 |
सर्व प्रकृति |
x |
7 |
1 |
8 |
1 |
सर्व प्रकृति |
x |
8 |
1 |
8 |
1 |
सर्व प्रकृति |
x |
9 |
1 |
8 |
1 |
सर्व प्रकृति |
x |
10 |
1 |
8 |
1 |
सर्व प्रकृति |
x |
11 |
1 |
7 |
1 |
मोहनीय रहित सर्व = 7 |
x |
12 |
1 |
7 |
1 |
मोहनीय रहित सर्व = 7 |
x |
13 |
1 |
4 |
1 |
आयु, नाम, गोत्र, वेदनीय = 4 |
x |
14 |
1 |
4 |
1 |
आयु, नाम, गोत्र, वेदनीय = 4 |
x |
3. उत्तर प्रकृति ओघ प्ररूपणा
1. ज्ञानावरणीय-
(पं.सं./प्रा.5/8), ( धवला 15/81 ), (गो.क.630/831), (पं.सं./सं.5/9)
गुणस्थान |
कुल स्थान |
प्रति स्थान प्रकृति |
प्रति स्थान भंग |
प्रकृतियोंका विवरण |
भंगोंका विवरण |
1-12 |
1 |
5 |
1 |
पाँचों प्रकृतियोंका उदय |
निरंतर उदय |
2. दर्शनावरणी- (पं.सं./प्रा.5/9); ( धवला 15/81 ); (गो.क./630/831); (पं.सं./सं.5/9)
गुणस्थान |
कुल स्थान |
प्रति स्थान प्रकृति |
प्रति स्थान भंग |
प्रकृतियोंका विवरण |
भंगोंका विवरण |
1-12 जागृत |
1 |
4 |
1 |
चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल |
चारों का उदय निरंतर उदय |
सुप्त |
1 |
5 |
5 |
चक्षुरादि चार + अन्यतम निद्रा = 5 |
अन्यतम निद्रा के उदसे 5 प्रकृतिके 5 भंग |
3. वेदनीय- (पं.सं./प्रा.5/19-20); ( धवला 15/81 ); गो.क.633-634/832); (पं.सं./सं.5/23-24)
गुणस्थान |
कुल स्थान |
प्रति स्थान प्रकृति |
प्रति स्थान भंग |
प्रकृतियोंका विवरण |
भंगोंका विवरण |
1-13 |
1 |
1 |
2 |
साता असातामें अन्यतमका ही उदय = 1 |
अन्यतमोदयसे 1 प्रकृतिके 2 भंग |
4. मोहनीय- नोट : देखो आगे नं. 6 वाली पृथक् प्ररूपणा- 5. आयु- (पं.सं./प्रा.5/21-24); ( धवला 15/86 ); (गो.क.644/838); (पं.सं./सं.5/25-30)
गुणस्थान |
कुल स्थान |
प्रति स्थान प्रकृति |
प्रति स्थान भंग |
प्रकृतियोंका विवरण |
भंगोंका विवरण |
1-4 |
1 |
1 |
4 |
अन्यतम एकका उदय |
चारोंमें-से अन्यतमका उदय होनेसे 4 भंग |
5 |
1 |
1 |
2 |
मनु. व तिर्य. मेंसे अन्यतम का उदय |
दोनोंमें-से अन्यतमका उदय होनेसे 2 भंग |
6-14 |
1 |
1 |
1 |
केवल मनु. आयुका उदय |
- |
6. नाम- नोट : देखो आगे सं. 7 वाली पृथक् प्ररूपणा- 7. गोत्र- (पं.सं./प्रा.5/15-18); ( धवला 15/97 ); (गो.क./635/833); (पं.सं./सं./5/18-22)
गुणस्थान |
कुल स्थान |
प्रति स्थान प्रकृति |
प्रति स्थान भंग |
प्रकृतियोंका विवरण |
भंगोंका विवरण |
1-5 |
1 |
1 |
2 |
दोनोंमें अन्यतमका उदय |
अन्यतमोदयसे 2 भंग |
6-14 |
1 |
1 |
1 |
केवल उच्च गोत्रका उदय |
x |
8. अंतराय- (पं.सं./प्रा.5,8); ( धवला 15/81 ); (गो.क.630/831); (पं.सं./5/9)
गुणस्थान |
कुल स्थान |
प्रति स्थान प्रकृति |
प्रति स्थान भंग |
प्रकृतियोंका विवरण |
भंगोंका विवरण |
1-12 |
1 |
5 |
1 |
पाँचों का निरंतर उदय |
x |
स्थान भंग |
उपाय |
12 |
क्रोधादि चार कषायोंमें अन्यतम उदयके साथ अन्यतम वेदका उदय 4x3 = 12 |
24 |
उपरोक्तवत् 12 भंग या तो हास्य रति युगल सहित हों या अरति शोक युगल सहित हों 12x2 = 24 |
48 |
उपरोक्त 24 भंग या तो भय प्रकृति सहित हो या जुगुप्सा प्रकृति सहित हों 24x2 = 48 |
संकेत-
1. |
अनंता. आदि 4 = अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान व संज्वलन ये चार प्रकार क्रोध या मान या माया या लोभ। |
2. |
अप्रत्या. आदि 3 = अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन ये तीन प्रकार क्रोध या मान या माया या लोभ। |
3. |
अप्रत्या. आदि 2 = प्रत्याख्यान व संज्वलन ये दो प्रकार क्रोध या मान या माया या लोभ। |
4. |
संज्वलन 1 = संज्वलन यह एक प्रकार क्रोध या मान या माया या लोभ। |
5. |
कषाय चतुष्क = क्रोध, मान, माया, लोभ ये चारों। |
6. |
दो युगल = हास्य-रति व अरति-शोक। |
7. |
उप. = उपशम सम्यग्दृष्टि, क्षा. = क्षायिक सम्यग्दृष्टि । |
8. |
वेदक = वेदक सम्यग्दृष्टि । |
2. कुल स्थान व भंग कुल स्थान-9 (पं.सं./प्रा.5/30-32); ( धवला 15/81 ); (गो.क.655-659/846-848); (पं.सं./सं.5/38-41) । विवरण
प्रति स्थान प्रकृति |
प्रति स्थान भंग |
गुणस्थान |
सम्यक्त्व विशेष |
प्रकृति |
भंग |
विशेषता |
1 |
4 |
9 |
अवेदभाग |
1 |
4 |
संज्वलन कषाय चतु. में अन्यतम |
- |
- |
10 |
- |
1 |
1 |
केवल संज्वलन लोभ (यह भंग ऊपर वालों में ही गर्भित है) |
2 |
12 |
9 |
संवेदभाग |
2 |
12 |
उपरोक्त 4xअन्यतम वेद 4x3 = 13 |
4 |
24 |
6-8 |
क्षा. व. उप. सम्यक्त्वी |
4 |
24 |
देखो ऊपर नं. 1 में उपाय |
5 |
96 |
5 |
सम्यक्त्वी |
5 |
24 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
6-7 |
वेदक सम्य. |
5 |
24 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
6-8 |
क्षा. उप. सम्य. |
5 |
48 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
6 |
168 |
4 |
क्षा. उप. सम्य. |
6 |
24 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
5 |
वेदक |
6 |
24 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
5 |
क्षा. उप. सम्य |
6 |
48 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
6-7 |
वेदक |
6 |
48 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
6-7 |
क्षा. उप. सम्य |
6 |
24 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
7 |
240 |
1 |
... |
7 |
24 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
2 |
... |
7 |
24 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
3 |
... |
7 |
24 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
4 |
वेदक |
7 |
24 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
4 |
क्षा. उप. सम्य |
7 |
48 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
5 |
वेदक |
7 |
48 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
5 |
क्षा. उप. |
7 |
24 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
6-7 |
वेदक |
7 |
24 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
8 |
216 |
1 |
... |
8 |
24 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
2 |
... |
8 |
48 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
3 |
... |
8 |
48 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
4 |
वेदक |
8 |
48 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
4 |
क्षा. उप. |
8 |
24 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
5 |
वेदक |
8 |
24 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
9 |
144 |
1 |
... |
9 |
48 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
2 |
... |
9 |
24 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
3 |
... |
9 |
24 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
- |
4 |
वेदक |
9 |
24 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
10 |
24 |
1 |
... |
10 |
24 |
देखें ओघ प्ररूपणा |
- |
128 |
3. मोहनीयके उदयस्थानोंकी ओघ प्ररूपणा (पं.सं./प्रा.5/303-318); ( धवला 15/82 ); (गो.क.655-659/846-848); (पं.सं./सं.5/330-346) संकेत : (देखो भंग निकालनेके उपाय)
गुणस्थान |
कुल उदय स्थान |
प्रति स्थान प्रकृति |
प्रति स्थान भंग |
प्रकृतियोंका विवरण |
भंगोंका विवरण |
1 |
4 |
7 |
24 |
मिथ्यात्व, अप्रत्या, आदि तीन, हास्य-रति या अरति शोकमें से 1 युगल 2, अन्यतम वेद 1 = 7 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
8 |
24 |
उपरोक्त 7 + अनंता. चतुष्कमें अन्यतम 1 = 8 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
9 |
48 |
उपरोक्त 8 + भय जुगुप्सामें-से अन्यतम 1 = 9 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
10 |
24 |
उपरोक्त8 + भय और जुगुप्सा दोनों = 10 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
2 |
3 |
7 |
24 |
अनंता, आदि चतुष्क, अन्यतम वेद 1, अन्यतम युगल 2 = 7 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
8 |
48 |
उपरोक्त 7 + भय या जुगुप्सा = 8 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
9 |
24 |
उपरोक्त 7 + भय और जुगुप्सा = 9 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
3 |
3 |
7 |
24 |
मिश्र, 1, अप्रत्या. आदि 3, अन्यतम वेद 1, अन्यतम युगल 2 = 7 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
8 |
48 |
उपरोक्त 7 + भय या जुगुप्सा = 8 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
9 |
24 |
उपरोक्त 7 + भय और जुगुप्सा = 9 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
4 वेदक |
3 |
7 |
24 |
सम्य. 1, अप्रत्या आदि 3, अन्यतम वेद 1, अन्यतम युगल 2 = 7 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
8 |
48 |
उपरोक्त 7 + भय या जुगुप्सा = 8 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
9 |
24 |
उपरोक्त 7 + भय और जुगुप्सा = 9 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
4 औप या क्षा. |
3 |
6 |
24 |
अप्रत्या. आदि 3 अन्यतम वेद 1, अन्यतम युगल 2 = 6 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
7 |
48 |
उपरोक्त 6 + भय या जुगुप्सा = 7 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
8 |
24 |
उपरोक्त 6 + भय और जुगुप्सा = 8 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
5 वेदक |
3 |
6 |
24 |
प्रत्या. आदि 2, अन्यतम वेद 1 अन्यतम युगल 2, सम्य. 1 = 6 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
7 |
48 |
उपरोक्त 6 + भय या जुगुप्सा = 7 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
8 |
24 |
उपरोक्त 6 + भय और जुगुप्सा = 8 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
5 औ. क्षा. |
3 |
5 |
24 |
प्रत्या. आदि 2, अन्यतम वेद 1 अन्यतम युगल 2 = 5 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
6 |
48 |
उपरोक्त 5 + भय या जुगुप्सा = 6 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
7 |
24 |
उपरोक्त 5 + भय और जुगुप्सा = 7 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
6 वेदक |
3 |
5 |
24 |
सम्य. 1, संज्वलन 1, अन्यतम वेद 1, अन्यतम युगल 2 = 5 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
6 |
48 |
उपरोक्त 5 + भय या जुगुप्सा = 6 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
7 |
24 |
उपरोक्त 5 + भय और जुगुप्सा = 7 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
6 उप. क्षा. |
3 |
4 |
24 |
संज्वलन 1, अन्यतम वेद 1, अन्यतम युगल 2 = 4 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
5 |
48 |
उपरोक्त 4 + भय या जुगुप्सा = 5 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
6 |
24 |
उपरोक्त 4 + भय और जुगुप्सा = 6 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
7-8 |
3 |
4 |
24 |
उपरोक्त वत् |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
5 |
48 |
उपरोक्त वत् |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
6 |
24 |
उपरोक्त वत् |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
9 सवेद अवेद |
2 |
2 |
12 |
संज्वलन 1, अन्यतम वेद 1 = 2 |
देखो भंग निकालनेके उपाय |
- |
- |
1 |
4 |
संज्वलन 1, = 1 |
अन्यतम कषाय |
10 |
1 |
1 |
1 |
संज्वलन लोभ = 1 |
x |
क्रम |
संकेत |
अर्थ |
विवरण |
1. |
ध्रु./12 |
ध्रुवोदयी 12 |
तैजस, कार्माण, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ अगुरुलघु, निर्माण = 12 |
2. |
यु/8 |
युगल 8 |
चारगति, पाँच जाति, त्रस-स्थावर बादर-सूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त, सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय, यश-अयश (इन 8 युगलोंकी 21 प्रकृतियों में से प्रत्येक युगलकी अन्यतम एक-एक करके युगपत् 8 ही उदयमें आती हैं) = 21 |
3. |
आनु/1 |
आनुपूर्वी 1 |
विग्रह गतिमें चारों आनुपूर्वियोंमेंसे अन्यतम एक ही उदयमें आती है = 4 |
4 |
श/3 |
शरीर आदि की तीन |
औदा., वैक्रि., आहा., यह तीन शरीर, 6 संस्थान, प्रत्येक-साधारण इन 3 समूहोंकी 11 प्रकृतियोंमें से प्रत्येक समूहकी अन्यतम एक एक करके युगपत् 3 का ही उदय होता है = 11 |
5 |
उप./1 |
उपघातादि 1 |
उपघात व परघात इन दोनोंमें-से अन्यतम एकका ही उदय आवे = 2 |
6 |
अंग/2 |
अंगोपांग आदि 2 |
तीन अंगोपाँग तथा छह संहननमेंसे अन्यतम अंगोपांग तथा अन्यतम एक संहनन इस प्रकार इन 9 प्रकृतियोंमें-से युगपत् 2 का ही उदय होता है = 9 |
7 |
आतप/2 |
आतपादि 2 |
आतप-उद्योत, प्रशस्त-अप्रशस्त विहायो, इन दो युगलोंकी चार प्रकृतियोंमें-से प्रत्येक युगलकी अन्यतम एक-एक करके युगपत् 2 ही का उदय होय = 4 |
8 |
उच्छ/2 |
उच्छ्वासादि 2 |
उच्छ्वास, सुस्वर, दुःस्वर, इन तीन प्रकृतियोंमेंसे एक उच्छ्वास तथा अगली दो में अन्यतम एक करके युगपत् 2 ही का उदय होय = 3 |
9 |
तीर्थं/1 |
तीर्थंकर/1 |
तीर्थंकर प्रकृति किसीको उदय आये किसीको नहीं = 1 |
- |
- |
- |
67 |
नोट-वर्ण, रस, गंध, स्पर्श इनके 20 भेदोंका ग्रहण न करके केवल मूल 4 का ही ग्रहण है, अतः 16 तो ये कम हुईं । बंधन 5 व संघात 5 ये 10 स्व-स्व शरीरोंमें गर्भित हो गयीं, अतः 10 ये कम हुई । नाम कर्मकी कुल 93 प्रकृतियोंमें से 26 कम कर देनेपर कुल उदय योग्य 67 रहती हैं, जिनके उदयके उपरोक्त 9 विकल्प हैं ।
विकल्प सं. |
प्रति स्थान प्रकृति |
प्रति स्थान भंग |
स्वामित्व |
प्रकृति |
भंग |
प्रकृतियोंका विवरण |
भंगोंका विवरण |
|
1 |
20 |
1 |
सामान्य समुद्घात केवली के प्रतर व लोकपूर्णका कार्माण काल |
20 |
1 |
ध्रुव/12 + यु./8 (मनु. गति, पंचें, जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यश) = 20 |
||
2 |
21 |
5 |
चारों गतियों संबंधी वक्रविग्रहगतिका कार्माण काल |
21 |
4 |
ध्रुव/12 + यु./8 + आनुपूर्वी/1(अन्यतम आनु) = 21 |
4 आनुपूर्वीमें अन्यतम |
|
3 |
- |
- |
तीर्थंकर केवलीका कार्माण काल |
21 |
1 |
ध्रुव/12 + यु./8 + तीर्थ/1 = 21 |
||
4 |
24 |
1 |
एकेंद्रिय अपर्याप्तके मिश्र शरीरका काल |
24 |
1 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उ./1 = 24 |
||
5 |
25 |
3 |
एकेंद्रियका शरीर पर्याप्ति काल |
25 |
1 |
उपरोक्त 24 + परघात = 25 |
||
6 |
- |
- |
आहारक शरीरका मिश्र काल |
25 |
1 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात + अंग/1 (आहा.) = 25 |
||
7 |
- |
- |
देव नारकके शरीरोंका मिश्रकाल |
25 |
1 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात + अंग/1 (वैक्रि.) = 25 |
||
8 |
26 |
9 |
एकेंद्रियका शरीर पर्याप्ति काल |
26 |
2 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात + परघात + आतप या उद्योत |
आतप उद्योतमें अन्यतम |
|
9 |
- |
- |
एकेंद्रियका उच्छ्वासपर्याप्तिकाल |
26 |
1 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात + परघात + उच्छ्वास |
||
10 |
- |
- |
2-5 |
इंद्रिय सामान्य तिर्य. मनु व निरतिशय केवलीका औदारिक मिश्र काल |
26 |
6 |
ध्रुव/12 + यु.8 + श/3 + उपघात + औदा. अंगोपांग + अन्यतम संहन = 26 |
अन्यतम संहननसे 6 भंग होते हैं |
11 |
27 |
6 |
आहारक शरीर पर्याप्ति काल |
27 |
1 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात + परघात + आहा. अंग + प्रशस्त विहायो = 27 |
||
12 |
- |
- |
तीर्थंकर समुद्घात केवलीका औ. मिश्र काल |
27 |
1 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात = औ. अंग + वज्रऋषभ नाराचसंहनन + तीर्थंकर = 27 |
||
13 |
- |
- |
देव नारकीका शरीर पर्याप्ति काल |
27 |
2 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उप. + पराघात + वैक्रि. अंग + देवके प्रशस्त व नारकीके अप्रशस्त विहायो. |
प्रशस्त अप्रशस्त विहायो. में अन्यतम |
|
14 |
- |
- |
एकेंद्रियका उच्छ. पर्याप्तिकाल |
27 |
2 |
ध्रुव/12 + यु.8 + श/3 + उपघात + परघात + उच्छ्वास + आतप या उद्योत = 27 |
आतप उद्योतमें अन्यतम |
|
15 |
28 |
17 |
सामान्य मनुष्य और मूलशरीरमें प्रवेश करता सामान्य केवलीका शरीर पर्याप्ति काल |
28 |
12 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात + परघात + औ. अंग + अन्यतम संहनन + अन्यतम विहायो. = 28 |
6 संहननx2 विहायोमें अन्यतम युगल |
|
16 |
- |
- |
2-5 इंद्रियका शरीर पर्याप्ति काल |
28 |
2 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उप. + परघात + औ. अंग + असंप्राप्त सृपाटिकासंहनन + अन्यतम विहायो |
2 विहायोगति में अन्यतम |
|
17 |
- |
- |
आहारकका उच्छ्वास पर्याप्ति काल |
28 |
1 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात + परघात + आहा अंग + उच्छ्वास + प्रशस्त विहायो. |
||
18 |
- |
- |
देव नारकीका उच्छ्वास पर्याप्ति काल |
28 |
2 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात + परघात + वैक्रि. अंग + उच्छ्वास + देवकी प्रशस्त और नारकीकी अप्रशस्त विहायो = 28 |
2 विहायों में अन्यतम |
|
19 |
29 |
20 |
सामान्य मनुष्य व मूल शरीरमें प्रवेश करते केवलीका उच्छ्वास पर्याप्ति काल |
29 |
12 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात + परघात औ. अंग + अन्यतम संहनन + अन्यतम विहायो. + उच्छ्वास = 29 |
6 संहननx2 विहायोमें अन्यतम युगल |
|
20 |
- |
- |
2-5 |
इंद्रियका शरीरपर्याप्ति काल |
29 |
2 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात + परघात + उद्योत + औ. भंग + असंप्राप्त सृपाटिका संहनन + अन्यतम विहायो. = 29 |
2 विहायोंमें अन्यतम |
21 |
- |
- |
2-5 इंद्रियका उच्छ्वासपर्याप्ति काल |
29 |
2 |
उपरोक्त 29-उद्योत + उच्छ्वास = 29 |
2 विहायोमें अन्यतम |
|
22 |
- |
- |
समुद्घात तीर्थंकरका शरीर पर्याप्तकाल |
29 |
1 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात + परघात + औ.अंग + वज्र ऋषभ नाराच संहनन + प्रशस्त विहायो. + तीर्थंकर = 29 |
||
23 |
- |
- |
आहारक शरीरका भाषा पर्याप्ति काल |
29 |
1 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात + परघात + आहा. अंग + उच्छ्वास + प्रशस्त विहायो. + सुस्वर = 29 |
||
24 |
- |
- |
देव नारकीका भाषा पर्याप्ति काल |
29 |
2 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात + परघात + वैक्रि. अंग + उच्छ्वास + देवकी प्रशस्त और नारकीकी अप्रशस्त विहायो. + देवका सुस्वर और नारकीका दुःस्वर = 29 |
देव व नारकीके दो विकल्प |
|
25 |
30 |
9 |
2-5 |
इंद्रियका उच्छ्वास पर्याप्ति काल |
30 |
2 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात + परघात + उद्योत + औ. अंग + असंप्राप्त सृपाटिका संहनन + अन्यतम विहायो. + उच्छ्वास = 30 |
2 विहायो. में अन्यतम |
26 |
- |
- |
2-4 |
इंद्रिय तथा सामान्य पंचेंद्रिय व सामान्य मनुष्यका भाषा पर्याप्ति काल |
30 |
4 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात + परघात औ. अंग + सृपाटिका संहनन + अन्यतम-विहायो + उच्छ्वास + अन्यतम स्वर = 30 |
2 विहायो व 2 स्वर में अन्यतम |
27 |
- |
- |
समुद्घात तीर्थंकरका उच्छ्वास पर्याप्ति काल |
30 |
1 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात + परघात + औ. अंग + वज्र ऋषभ नाराच + प्रशस्त विहायो. + तीर्थ. + उच्छ्वास = 30 |
||
28 |
- |
- |
सामान्य समुद्घात केवलीका भाषा पर्याप्ति काल |
30 |
2 |
उपरोक्त विकल्पकी 30-तीर्थंकर + अन्यतम स्वर = 30 |
2 स्वरों में अन्यतम |
|
29 |
31 |
5 |
तीर्थंकर केवलीका भाषा पर्याप्ति काल |
31 |
1 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात + परघात + औ. अंग + वज्रऋषभ नाराच + प्रशस्त विहायो. + तीर्थंकर + उच्छ्वास + सुस्वर = 31 |
||
30 |
- |
- |
2-5 इंद्रियका भाषा पर्याप्ति काल |
31 |
4 |
ध्रुव/12 + यु./8 + श/3 + उपघात + परघात + उद्योत + औ. अंग + सृपाटिका + अन्यतम-विहायो. + उच्छ्वास + अन्यतम स्वर = 31 |
2 विहायो. व 2 स्वरोंमें अन्यतम युगल |
|
31 |
8 |
1 |
अयोग केवली सामान्यके उदय योग्य |
8 |
1 |
मनु. गति + पंचेंद्रिय जाति + सुभग + आदेय + यशःकीर्ति + त्रस + बादर पर्याप्त = 8 |
||
32 |
9 |
1 |
अयोग केवली तीर्थंकरके उदय योग्य |
9 |
1 |
उपरोक्त विकल्पकी 8 + तीर्थंकर = 9 |
क्रम |
गुणस्थान |
कुल स्थान |
स्थान विशेष |
1 |
मिथ्यात्व |
9 |
21,24,25,26,27,28,29,30,31 |
2 |
सासादन |
7 |
21,24,25,26,29,30,31 |
3 |
सम्यग्मिथ्यात्व |
3 |
29,30,31 |
4 |
अविरत सम्य. |
8 |
21,25,26,27,28,29,30,31 |
5 |
विरताविरत |
2 |
30,31 |
6 |
प्रमत्त संयत |
5 |
25,27,28,29,30 |
7 |
अप्रमत्त संयत |
1 |
30 |
8 |
अपूर्व करण |
1 |
30 |
9 |
अनिवृत्ति करण |
1 |
30 |
10 |
सूक्ष्म सांपराय |
1 |
30 |
11 |
उपशांत कषाय |
1 |
30 |
12 |
क्षीण कषाय |
1 |
30 |
13 |
सयोग केवली सामान्य |
1 |
30 |
- |
सयोग केवली तीर्थंकर |
1 |
31 |
14 |
अयोग केवली सामान्य |
1 |
8 |
- |
अयोग केवली तीर्थंकर |
1 |
9 |
क्रम जीव समास कुल स्थान स्थान विशेष
क्रम |
जीव समास |
कुल स्थान |
स्थान विशेष |
1 |
लब्ध्यपर्याप्त : |
||
- |
सूक्ष्म बादर एकेंद्रिय |
2 |
21,24 |
- |
विकलेंद्रिय |
2 |
21,26 |
- |
संज्ञी असंज्ञी पंचे, |
2 |
21,26 |
2 |
पर्याप्त : |
||
- |
सूक्ष्म एकेंद्रिय |
4 |
21,24,25,26 |
- |
बादर एकेंद्रिय |
5 |
21,24,25,26,27 |
- |
विकलेंद्रिय |
5 |
21,26,28,29,31 |
- |
असंज्ञी पंचेंद्रिय |
5 |
21,26,28,29,31 |
- |
संज्ञी पंचेंद्रिय |
8 |
21,25,26,27,28,29,30,31 |
क्रम |
मार्गणा स्थान |
कुल स्थान |
स्थान विशेष |
1. |
नरक गति |
5 |
21,25,27,28,29 |
2 |
तिर्यंच गति |
9 |
21,24,25,26,27,28,29,30,31 |
3 |
मनुष्य गति |
11 |
20,21,25,26,27,28,29,30,31,8,9 |
4 |
देव गति |
5 |
21,25,27,28,29 |
2. इंद्रिय मार्गणा- (पं.सं./प्रा.5/192-194; 426-431); (पं.सं./सं.5/437-441)
क्रम |
मार्गणा स्थान |
कुल स्थान |
स्थान विशेष |
1 |
एकेंद्रिय सामान्य |
5 |
21,24,25,26,27 |
2 |
विकलेंद्रिय सामान्य |
6 |
21,26,28,29,30,31 |
3 |
पंचेंद्रिय सामान्य |
10 |
21,25,26,27,28,29,30,31,9,8 |
3. काय मार्गणा- (पं.सं./प्रा.5/195; 432-434)
क्रम |
मार्गणा स्थान |
कुल स्थान |
स्थान विशेष |
1 |
पृथिवी, अप, वनस्पति |
5 |
21,24,25,26,27 |
2 |
तेज वायु कायिक |
4 |
21,24,25,26 |
3 |
त्रस |
10 |
21,25,26,27,28,29,30,31,9,8 |
4. योग मार्गणा- (पं.सं./प्रा.5/196-199; 435-440)
क्रम |
मार्गणा स्थान |
कुल स्थान |
स्थान विशेष |
1 |
चारों मनोयोग |
3 |
29,30,31 (पंचेंद्रिय संज्ञी पर्याप्त वत्) |
2 |
सत्य असत्य उभय वचन |
3 |
29,30,31 (पंचेंद्रिय संज्ञी पर्याप्त वत्) |
3 |
अनुभव वचन योग |
3 |
29,30,31 (त्रस पर्याप्त वत्) |
4 |
औदारिक काय योग |
7 |
25,26,27,28,29,30,31 (त्रस पर्याप्त वत्) |
5 |
औदारिक मिश्र काययोग |
3 |
24,26,27 (सातों अपर्याप्त वत्) |
6 |
कार्माण काय योग |
2 |
20,21 |
7 |
वैक्रियक काय योग |
3 |
27,28,29 |
8 |
वैक्रिय, मिश्रकाय योग |
1 |
25 |
9 |
आहारक काय योग |
3 |
27,28,29 |
10 |
आहारक मिश्र योग |
1 |
25 |
5. वेद मार्गणा- (पं.सं./प्रा.5/200; 441)
क्रम |
मार्गणा स्थान |
कुल स्थान |
स्थान विशेष |
1 |
स्त्री वेद |
8 |
21,25,26,27,28,29,30,31 |
2 |
पुरुष वेद |
8 |
21,25,26,27,28,29,30,31 |
3 |
नपुंसक वेद |
9 |
21,24,25,26,27,28,29,30,31 |
6. कषाय मार्गणा - (पं.सं./प्रा.5/200; 442)
क्रम |
मार्गणा स्थान |
कुल स्थान |
स्थान विशेष |
1 |
क्रोधादि चारों कषाय |
9 |
21,24,25,26,27,28,29,30,31 |
7. ज्ञान मार्गणा- (पं.सं./प्रा.5/201; 443-446)
क्रम |
मार्गणा स्थान |
कुल स्थान |
स्थान विशेष |
1 |
मति श्रुत अज्ञान |
9 |
21,24,25,26,27,28,29,30,31 |
2 |
विभंग ज्ञान |
3 |
29,30,31 |
3 |
मति श्रुत अवधि ज्ञान |
8 |
21,25,26,27,28,29,30,31 |
4 |
मनःपर्यय ज्ञान |
1 |
30 |
5 |
केवल ज्ञान |
10 |
20,21,26,27,28,29,30,31,9,8 |
8. संयम मार्गणा- (पं.सं./प्रा.5/202-203; 447-453)
क्रम |
मार्गणा स्थान |
कुल स्थान |
स्थान विशेष |
1. |
सामायिक छेदोपस्था. |
5 |
25,27,28,29,30 |
2 |
परिहार विशुद्धि |
1 |
30 |
3 |
सूक्ष्म सांपराय |
1 |
30 |
4 |
यथाख्यात (दृष्टि नं. 1) |
4 |
30,31,9,8 |
- |
(दृष्टि नं. 2) |
10 |
20,21,26,27,28,29,30,31,9,8 |
5 |
देश संयम |
2 |
30,31 |
6 |
असंयम |
9 |
21,24,25,26,27,28,29,30,31 |
9. दर्शन मार्गणा- (पं.सं./प्रा.5/203-204; 454)
क्रम |
मार्गणा स्थान |
कुल स्थान |
स्थान विशेष |
1 |
चक्षु दर्शन |
8 |
21,25,26,27,28,29,30,31 |
2 |
अचक्षु दर्शन |
9 |
21,24,25,26,27,28,29,30,31 |
3 |
अवधि दर्शन |
8 |
21,25,26,27,28,29,30,31 |
4 |
केवल दर्शन |
10 |
20,21,26,27,28,29,30,31,9,8 |
10. लेश्या मार्गणा- (पं.सं./प्रा.204; 455-458)
क्रम |
मार्गणा स्थान |
कुल स्थान |
स्थान विशेष |
1. |
कृष्ण नील कापोत |
9 |
21,24,25,26,27,28,29,30,31 |
2 |
पीत, पद्म |
7 |
21,25,27,28,29,30,31 |
3 |
शुक्ल लेश्या सामान्य |
7 |
21,25,27,28,29,30,31 |
- |
शुक्ललेश्या (केवली समुद्घात) |
8 |
20,21,25,26,27,28,29,30,31 |
11. भव्य मार्गणा- (पं.सं./प्रा.5/205; 459-460)
क्रम |
मार्गणा स्थान |
कुल स्थान |
स्थान विशेष |
1 |
भव्य |
12 |
20,21,24,25,26,27,28,29,30,31,9,8 |
2 |
अभव्य |
9 |
21,24,25,26,27,28,29,30,31 |
12. सम्यक्त्व मार्गणा- (पं.सं./प्रा.5/205-206; 461-466)
क्रम |
मार्गणा स्थान |
कुल स्थान |
स्थान विशेष |
1 |
क्षायिक सम्यक्त्व |
11 |
20,21,25,26,27,28,29,30,31,9,8 |
2 |
वेदक सम्यक्त्व |
8 |
21,25,26,27,28,29,30,31 |
3 |
उपशम सम्यक्त्व |
5 |
21,25,29,30,31 |
4 |
सम्यग्मिथ्यात्व |
3 |
29,30,31 |
5 |
सासादन |
7 |
21,24,25,26,29,30,31 |
6 |
मिथ्यादृष्टि |
9 |
21,24,25,26,27,28,29,30,31 |
13. संज्ञी मार्गणा- (पं.सं./प्रा.5/206; 467-469)
क्रम |
मार्गणा स्थान |
कुल स्थान |
स्थान विशेष |
1 |
संज्ञी |
8 |
21,25,26,27,28,29,30,31 |
2 |
असंज्ञी |
7 |
21,24,26,28,29,30,31 |
14. आहारक मार्गणा- (पं.सं./प्रा.5/207; 470-472)
क्रम |
मार्गणा स्थान |
कुल स्थान |
स्थान विशेष |
1. |
आहारक |
8 |
24,25,26,27,28,29,30,31 |
2 |
अनाहार सयोगी |
2 |
20,21 |
- |
अयोगी |
2 |
9,8 |
6. पाँच उदय कालों की अपेक्षा नामकर्मोदय स्थानोंकी चतुर्गति प्ररूपणा (पं.सं./प्रा.5/97-190); ( धवला 2,1,11/7/33-59 ); ( धवला 15/81-97 ); (गो.क.692-738/881-894); (पं.सं./सं.5/112-220) प्रमाण पं.सं./गा. मार्गणा उदय काल स्थान भंग प्रकृतियोंका विवरण भंगों का विवरण 1 नरक गति युक्त- उदय योग्य = 30; उदय स्थान = 5 (21,25,27,28,29); कुल भंग = 5
प्रमाण पं.सं./गा. |
मार्गणा |
उदय काल |
स्थान |
भंग |
प्रकृतियों का विवरण |
99 |
नारक सामान्य |
कार्माण काल |
21 |
1 |
नरक गति, पंचे जाति, तैजस कार्माण शरीर, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण = 20 + नारकानुपूर्वी = 21 |
101 |
- |
मिश्र शरीर काल |
25 |
1 |
उपरोक्त 20 + वैक्रि. द्वि., उपघात, हुंडक, प्रत्येक = 25 |
103 |
- |
शरीर पर्यायकाल |
27 |
1 |
उपरोक्त 25 + परघात, अप्रशस्त विहायो = 27 |
104 |
- |
उच्छ्वास काल |
28 |
1 |
उपरोक्त 27 + उच्छ्वास = 28 |
105 |
- |
भाषा पर्याय काल |
29 |
1 |
उपरोक्त 28 + दुःस्वर = 29 |
2. तिर्यंच गति युक्त- उदय योग्य = 53; उदय स्थान = 9 (21,24,25,26,27,28,29,30,31); कुल भंग = 4992
प्रमाण पं.सं./गा. |
मार्गणा |
उदय काल |
स्थान |
भंग |
प्रकृतियों का विवरण |
भंगों का विवरण |
192 |
एकेंद्रिय सामान्य-उदय योग्य = 32; उदय स्थान = 5 (21,24,25,26,27); कुल भंग = 24 + 8 = 32 |
|||||
- |
आतप उद्योत रहित एकेंद्रिय-उदय योग्य = 31; उदय स्थान = 4 (21,24,25,26); कुल भंग = 24 |
|||||
110 |
उपरोक्त सामान्य |
कार्माण काल |
21 |
5 |
तिर्य. गति, एकें, जाति, तैजस कार्माण शरीर, अगुरुलघु, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, निर्माण = 16 + (सूक्ष्म-बादर, पर्याप्त-अपर्याप्त, यश-अयश) इन 3 युगलों में अन्यतम एक-एक तथा स्थावर यह 4। 16 + 4 = 20 + तिर्यगानुपूर्वी = 21 |
यश के साथ केवल बादर = 1 अयश के साथ बादर, सूक्ष्मके पर्याप्त अपर्याप्त इस प्रकार = 4 1 + 4 = 5 |
113 |
- |
मिश्र शरीर काल |
24 |
9 |
उपरोक्त 20 + औ. शरीर, हुंडक, उपघात, प्रत्येक या साधारण = 24 |
अयशकी उपरोक्त 4xप्रत्येक व साधारण 8 + यश के साथ केवल प्रत्येक = 9 |
115 |
- |
शरीर पर्या. काल |
25 |
5 |
उपरोक्त 16 + पर्याप्त, (सूक्ष्म बादर, यश-अयश) इन 2 युगलोंमें अन्यतम एक-एक, स्थावर, औदा. शरीर, हंडक, उपघात, परघात, प्रत्येक या साधारण = 25 |
अयशके साथ सूक्ष्म बादर, प्रत्येक साधारणके 4 भंग तथा यशके साथ बादर प्रत्येकका केवल एक भंग = 5 |
116 |
- |
उच्छ्वास काल |
26 |
5 |
उपरोक्त 25 + उच्छ्वास = 26 |
अयशके साथ सूक्ष्म बादर, प्रत्येक साधारणके 4 भंग तथा यशके साथ बादर प्रत्येकका केवल एक भंग = 5 |
- |
- |
- |
- |
24 |
उदय योग्य = 30; उदय स्थान = 4 (11,24,26,27); कुल भंग = 8 + 4 पुनरुक्त = 12
प्रमाण पं.सं./गा. |
मार्गणा |
उदय काल |
स्थान |
भंग |
प्रकृतियों का विवरण |
भंगों का विवरण |
118 |
आतप उद्योत सहित एकेंद्रिय |
कार्माण काल |
21 |
2* |
उद्योत रहित की उपरोक्त 16 + बादर, पर्याप्त, स्थावर, तिर्यगानुपूर्वी = 20 |
यश या अयश |
- |
सामान्य |
- |
- |
- |
यश या अयश = 21 |
(ये भंग ऊपर कहे जा चुके हैं) |
118 |
- |
मिश्र शरीर काल |
24 |
2* |
उपरोक्त 21 + औ. शरीर, हुंडक, उपघात, प्रत्येक = 25-तिर्य. आनु. = 24 |
(ये भंग ऊपर कहे जा चुके हैं) |
119 |
- |
शरीर पर्याय काल |
26 |
4 |
उपरोक्त 24 + परघात, आतप या उद्योत = 26 |
यश, अयशxआतप, उद्योत |
120 |
- |
उच्छ्वास पर्याय काल |
27 |
4 |
उपरोक्त 26 + उच्छ्वास = 27 |
यश, अयशxआतप, उद्योत |
- |
- |
- |
- |
8 |
||
*नोट-21 व 24 के दो दो भंग आतप उद्योत सहित एकेंद्रियमें गिने जा चुके हैं अतः पुनरुक्त हैं। |