अधिकरण
From जैनकोष
जिस धर्मी में जो धर्म रहता है उस धर्मी को उस धर्म का (न्याय विषयक) अधिकरण कहते हैं जैसे-घटत्व धर्म का अधिकरण घट है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 16/19 शुद्धानंतशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावस्याधारभूतत्वादधिकरणत्वमात्मसात्कुर्वाणः।
= शुद्ध अनंत शक्तियुक्त ज्ञान रूप से परिणमित होने के स्वभाव का स्वयं ही आधार होने से अधिकरणता को आत्मसात् करता हुआ (इस प्रकार) स्वयमेव (अधिकरण कारक) रूप होता है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 16/22 निश्चयशुद्धचैतन्यादिगुणस्वभावात्मनः स्वयमेवाधारत्वादधिकरणं भवति।
= यह आत्मा निश्चय से शुद्ध चैतन्यादि गुणों का स्वयमेव आधार होने से अधिकरण कारक को स्वीकार करता है।
समयसार / आत्मख्याति परिशिष्ट / शक्ति नं. 46 भाव्यमानभावाधारत्वमयी अधिकरणशक्तिः।
= भावन। में आता जो भाव इसके आधारपनमयी छयालीसवीं अधिकरण शक्ति है।
1. अधिकरण के भेद
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 6/7-19 अधिकरणं जीवाजीवाः ॥7॥ आद्यं संरंभसमारंभारंभयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः ॥8॥ निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परम् ॥9॥
= अधिकरण जीव और अजीव रूप हैं ॥7॥ पहला जीवाधिकरण संरंभ, समारंभ, आरंभ के भेद से तीन प्रकार का, कृत, कारित और अनुमत के भेद से तीन प्रकार का तथा कषायों के भेद से चार प्रकार का होता हुआ परस्पर मिलाने से 108 प्रकार का है ॥8॥ पर अर्थात् अजीवाधिकरण क्रम से दो, चार, दो और तीन भेद वाले निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग और निसर्गरूप है ॥9॥
( भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 811/954)
राजवार्तिक अध्याय 6/9,12-15/516/28 अजीवाधिकरणं निर्वर्तनालक्षणं द्वेधा व्यवतिष्ठते। कुतः। मूलोत्तरभेदात्। मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणम् उत्तर - गुणनिर्वर्तनाधिकरणं चेति। तत्र मूतं पंचविधानि शरीराणि वाङ्मनःप्राणापानाश्च। उत्तरं काष्ठपुस्तकचित्रकर्मादि। .....निक्षेपश्चतुर्धाभिद्यते। कुतः। अप्रत्यवेक्षदुष्प्रमार्जनसहसानाभोगभेदात्-अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरणं दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरणं, सहसानिक्षेपाधिकरणं, अनाभागनिक्षेपाधिकरणं चेति।....संयोगो द्विधा विभज्यते। कुतः। भक्तापानोपकरण भेदात्, भक्तपानसंयोगाधिकरणम्, उपकरणसंयोगाधिकरणं चेति। ....निसर्गस्त्रिधा कल्प्यते। कुतः। कायादिभेदात्। कायनिसर्गाधिकरणं वाङ्निसर्गाधिकरणं मनोनिसर्गाधिकरणं चेति। राजवार्तिक अध्याय 6/7,5/513/22 तदुभयमधिकरणं दशप्रकारम्-विषलवणक्षारकटुकाम्लस्नेहाग्नि-दुष्प्रयुक्तकायवाङ्मनोयोगभेदात्।
= अजीवाधिकरणों में निर्वर्तनालक्षण अधिकरण दो प्रकार का है। कैसे? मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरण और उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण। उसमें भी मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरण 8 प्रकार का है - पाँच प्रकार के शरीर, मन, वचन और प्राणापान। उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण काठ, पुस्तक व चित्रादि रूप से अनेक प्रकार का है ॥12॥ निक्षेपाधिकरण चार प्रकार का है। कैसे? अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण, दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण, सहसानिक्षेपाधिकरण और अनाभोगनिक्षेपाधिकरण ॥13॥ संयोगनिक्षेपाधिकरण दो प्रकार का है। कैसे? भक्तपानसंयोगाधिकरण और उपकरणसंयोगाधिकरण ॥14॥ निसर्गाधिकरण तीन प्रकार का है। कैसे? कायनिसर्गाधिकरण, वचननिसर्गाधिकरण और मनोनिसर्गाधिकरण ॥15॥ तदुभयाधिकरण दश प्रकार का है - विष, लवण, क्षार, कटुक, आम्ल, स्निग्ध, अग्नि और दुष्प्रयुक्त मन, वचन, काय ॥5॥
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय /6/9/327), ( भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 812/957)।
(Chitra-4)
अधिकरण
जीवाधिकरण अजीवाधिकरण
निर्वर्तना निक्षेप संयोग निसर्ग
अप्रत्यवेक्षित दुःप्रमृष्ट सहसा अनाभोग भक्तपान उपकरण मन वचन काय
मूलगुण उत्तरगुण
निर्वर्तना
निर्वर्तना
शरीर वचन मन प्राण अपान काष्ठकर्म वस्त्रकर्म चित्रकर्म
औदारिक वैक्रियक आहारक तैजस कार्मण
संरंभ, समारंभ, आरंभ X मन वचन काय X 4 कषाय X कृत, कारित, अनुमोदना = 108
2. निर्वर्तनधिकरण सामान्य-विशेष
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /6/9/326 निर्वर्त्यत इति निर्वर्तना निष्पादना। निक्षिप्यत इति निक्षेपःस्थापना। संयुज्यत इति संयोगो मिश्रीकृतम्। निसृज्यत इति निसर्गः प्रवर्तनम्।
= निर्वर्तना का अर्थ निष्पादना या रचना है। निक्षेप का अर्थ स्थापना अर्थात् रखना है। संयोग का अर्थ मिश्रित करना अर्थात् मिलाना है और निसर्ग का अर्थ प्रवर्तन है।
(राजवार्तिक अध्याय 6/9,2/516/1)।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 814/957.......निक्षिप्यत इति निक्षेपः। उपकरणं पुस्तकादि, शरीरं, शरीरमलानि वा सहसा शीघ्रं निक्षिप्यमाणानि भयात्। कुतश्चित्कार्यांतरकरणप्रयुक्तेन वा त्वरितेन षड्जीवनिकायसाधाधिकरणं प्रतिपद्यंते। असत्यामपि त्वरायां जीवाः संति न संतीति निरूपणामंतरेण निक्षिप्यमाणं तदेवोपकरणादिकं अनाभोगनिक्षेपाधिकरणमुच्यते। दुष्प्रमृष्टमुपकरणादिनिक्षिप्यमाणं दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरणं स्थाप्यमानाधिकरणं वा दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरणम्। प्रमार्जनोत्तरकाले जीवाः संति न संतीति अप्रत्यवेक्षितं यन्निक्षिप्यते तदप्रत्यवेक्षितं निक्षेपाधिकरणम्। निर्वर्तनाभेदमाचष्टे-देहो य दुप्पजुत्तो दुःप्रयुक्तं शरीरं हिंसोपकरणतया निर्वर्त्यत इति निर्वर्तनाधिकरणं भवति। उपकरणानि च सच्छिद्राणि यानि जीवबाधानिमित्तानि निर्वर्त्यंते तान्यपि निर्वर्तनाधिकरणं यस्मिन्सौवीरादिभाजने प्रविष्टानि म्रियंते ॥814॥ संजोजणमुवकरणाणं उपकरणानां पिच्छादीनां अन्योन्येन संयोजना। शीतस्पर्शस्य पुस्तकस्य कमंडल्वादेर्वा आतपादिपिच्छेन प्रमार्जनं इत्यादिकम्। तहा तथा। पाणभोजणाणं च पानभोजनयीश्च पानेन पानं, भोजनं भोजनेन, भोजनं पानेनेत्येवमादिकं संयोजनं। यस्य संमूर्छनं संभवति सा हिंसाधिकरणत्वेनात्रोपात्ता न सर्वा। दुट्ठणिसिट्ठा मणवचिकाया दुष्टुप्रवृत्ता मनोवाक्कायप्रभेदानिसर्गशब्देनोच्यंते।
= निक्षेप किया जाये उसे निक्षेप कहते हैं। पिच्छी कमंडलु आदि उपकरण, पुस्तकादि, शरीर और शरीर का मल इनको भय से सहसा जल्दी फैंक देना, रखना। किसी कार्य में तत्पर रहने से अथवा त्वरा से पिच्छी कमंडल्वादिक पदार्थ जब जमीन पर रखे जाते हैं तब षट्काय जीवों को बाधा देने में आधाररूप होते हैं अर्थात् इन पदार्थों से जीवों को बाधा पहुँचती हैं। त्वरा नहीं होने पर भी जीव है अथवा नहीं है इसका विचार न करके, देख भाल किये बिना ही उपकरणादि जमीन पर रखना, फैंकना, उसको अनाभोगनिक्षेपाधिकरण कहते हैं।
उपकरणादिक वस्तु बिना साफ किये ही जमीन पर रख देना अथवा जिस पर उपकरणादिक रखे जाते हैं उसको अर्थात् चौकी जमीन वगैरह को अच्छी तरह साफ न करना, इसको दुष्प्रमृष्ट निक्षेपाधिकरण कहते हैं। साफ करने पर जीव हैं अथवा नहीं हैं, यह देखे बिना उपकरणादिक रखना अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण है। शरीर की असावधानता पूर्वक प्रवृत्ति करना दुःप्रयुक्त कहा जाता है, ऐसा दुःप्रयुक्त शरीर हिंसा का उपकरण बन जाता है। इसलिए इसको देहनिर्वर्तनाधिकरण कहते हैं। जीव-बाधाको कारण ऐसे छिद्र सहित उपकरण बनाना, इसको भी निर्वर्तनाधिकरण कहते हैं। जैसे-कांजी वगैरह रखे हुए पात्र में जंतु प्रवेश कर मर जाते हैं। पिच्छी-कमंडलु आदि उपकरणों का संयोग करना, जैसे ठंडे स्पर्शवाले पुस्तक का धूप से संतप्त कमंडलु और पिच्छी के साथ संयोग करना अथवा धूप से तपी हुई पिच्छी से कमंडलु, पुस्तक को स्वच्छ करना आदि को उपकरण संयोजना कहते हैं। जिनसे सम्मूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति होगी ऐसे पेयपदार्थ दूसरे पेयपदार्थ के साथ संयुक्त करना, अथवा भोज्य पदार्थ के साथ पेय पदार्थ को संयुक्त करना। जिनसे जीवों की हिंसा होती है ऐसा ही पेय और भोज्य पदार्थों का संयोग निषिद्ध है, इससे अन्य संयोग निषिद्ध नहीं है। ऐसा भक्तपानसंयोजना है। मन, वचन और शरीर के द्वारा दुष्ट प्रवृत्ति करना उसको निसर्गाधिकरण कहते हैं।
3. असमीक्ष्याधिकरण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/32/37 असमीक्ष्यप्रयोजनमाधिक्येन करणमसमीक्ष्याधिकरणम्।
= प्रयोजन का विचार किये बिना मर्यादा के बाहर अधिक काम करना असमीक्ष्याधिकरण है।
राजवार्तिक अध्याय 7/32,4-5/556/22 असमीक्ष्य प्रयोजनमाधिक्येन करणमधिकरणम् ॥4॥ अधिरुपरिभावे वर्तते, करोति चापूर्वप्रादुर्भावे प्रयोजनमसमीक्ष्य आधिक्येन प्रवर्तनमधिकरणम्। तत्त्रेधा कायवाङ्मनोविषयभेदात् ॥5॥ तदधिकरणं त्रेधा व्यवतिष्ठते। कुतः कायवाङ्मनो विषयभेदात्। तत्र मानसं परानर्थककाव्यादिचिंतनम्, वाग्गतं निष्प्रयोजनकथाख्यानं परपीडाप्रधानं यत्किंचनवक्तृत्वम्, कायिकं च प्रयोजनमंतरेण गच्छंस्तिष्ठन्नासीनो वा सचित्तेतरपत्रपुष्पफलच्छेदनभेदनकुट्टनक्षेपणादीनि कुर्यात्। अग्निविषक्षारादिप्रदानं चारभेत इत्येवमादि, तत्सर्वमसमीक्ष्याधिकरणम्।
= प्रयोजन के बिना ही आधिक्य रूप से प्रवर्तन अधिकरण कहलाता है। मन, वचन और काय के भेद से वह तीन प्रकार का है। निरर्थक काव्य आदि का चिंतन मानस अधिकरण है। निष्प्रयोजन परपीड़ादायक कुछ भी बकवास वाचनिक अधिकरण है। बिना प्रयोजन बैठे या चलते हुए सचित्त या अचित्त पत्र, पुष्प, फलों का छेदन, भेदन, मर्दन, कुट्टन या क्षेपण आदि करना तथा अग्नि, विष, क्षार आदि देना कायिक असमीक्ष्याधिकरण है।
( चारित्रसार पृष्ठ 18/4)