स्थिति भेद व लक्षण
From जैनकोष
1. स्थिति सामान्य का लक्षण
1. स्थिति का अर्थ गमनरहितता
राजवार्तिक/5/17/2/460/24 तद्विपरीता स्थिति:।2। द्रव्यस्य स्वदेशादप्रच्यवनहेतुर्गतिनिवृत्तिरूपा स्थितिरवगंतव्या। = गति से विपरीत स्थिति होती है। अर्थात् गति की निवृत्ति रूप स्वदेश से अपच्युति को स्थिति कहते हैं। ( सर्वार्थसिद्धि/5/17/281/12 )।
राजवार्तिक/5/8/16/451/12 जीवप्रदेशानाम् उद्धवनिधवपरिस्पंदस्याप्रवृत्ति:। = जीव के प्रदेशों की उथल-पुथल को अस्थिति तथा उथल-पुथल न होने को स्थिति कहते हैं।
2. स्थिति का अर्थ काल
सर्वार्थसिद्धि/1/7/22/4 स्थिति: कालपरिच्छेद:। = जितने काल तक वस्तु रहती है वह स्थिति है। ( राजवार्तिक/1/7/-/38/3 )
राजवार्तिक/1/8/6/42/3 स्थितिमतोऽवधिपरिच्छेदार्थं कालोपादानम् ।6। = किसी क्षेत्र में स्थित पदार्थ की काल मर्यादा निश्चय करना काल (स्थिति) है।
कषायपाहुड़/3/358/192/9 कम्मसरूवेण परिणदाणं कम्मइयपोग्गलक्खंधाणं कम्मभावमछंडिय अच्छाणकालो ट्ठिदीणाम। = कर्म रूप से परिणत हुए पुद्गल कर्मस्कंधों के कर्मपने को न छोड़कर रहने के काल को स्थिति कहते हैं।
कषायपाहुड़ 3/3-22/514/292/5 सयलणिसेयगयकालपहाणो अद्धाछेदो, सयलणिसेगपहाणा ट्ठिदि त्ति। = सर्वनिषेकगत काल प्रधान अद्धाच्छेद होता है और सर्वनिषेक प्रधान स्थिति होती है।
गोम्मटसार जीवकांड/ भाषा/पृष्ठ 310/2 अन्य काय तै आकर तैजसकाय विषै जीव उपज्या तहाँ उत्कृष्टपने जेते काल और काय न धरै, तैजसकायनिकों धराकरै तिस काल के समयनि का प्रमाण (तेजसकायिक की स्थिति) जानना।
3. स्थिति का अर्थ आयु
सर्वार्थसिद्धि/4/20/251/7 स्वोपात्तस्यायुष उदयात्तस्मिन्भवे शरीरेण सहावस्थानं स्थिति:। = अपने द्वारा प्राप्त हुई आयु के उदय से उस भव में शरीर के साथ रहना स्थिति कहलाती है। ( राजवार्तिक/4/20/1/235/11 )
2. स्थिति बंध का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/3/379/4 तत्स्वभावादप्रच्युति: स्थिति:। यथा-अजागोमहिष्यादिक्षीराणां माधुर्यस्वभावादप्रच्युति: स्थिति:। तथा ज्ञानावरणादीनामर्थावगमादिस्वभावादप्रच्युति: स्थिति:। = जिसका जो स्वभाव है उससे च्युत न होना स्थिति है। जिस प्रकार बकरी, गाय और भैंस आदि के दूध का माधुर्य स्वभाव से च्युत न होना स्थिति है। उसी प्रकार ज्ञानावरण आदि कर्मों का अर्थ का ज्ञान न होने देना आदि स्वभाव से च्युत न होना स्थिति है। (पंचसंग्रह/प्राकृत/4/514-515); ( राजवार्तिक/8/3/5/567/7 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/33/93/5 ); (पंचसंग्रह/संस्कृत/4/366-367)
धवला 6/1,9-6,2/146/1 जोगवसेण कम्मस्सरूवेण परिणदाणं पोग्गलखंधाणं कसायवसेण जीवे एगसरूवेणावट्ठाणकालो ट्ठिदी णाम। = योग के वश से कर्मस्वरूप से परिणत पुद्गल स्कंधों का कषाय के वश से जीव में एक स्वरूप से रहने के काल को स्थिति कहते हैं।
3. उत्कृष्ट व सर्व स्थिति के लक्षण
कषायपाहुड़ 3/3-22/20/15/2 तत्थतणसव्वणिसेयाणं समूहो सव्वट्ठिदी णाम। = (बद्ध कर्म के) समस्त निषेकों के या समस्त निषेकों के प्रदेशों के काल को उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति कहते हैं।
देखें स्थिति - 1.6 वहाँ पर (उत्कृष्ट स्थिति में) रहने वाले (बद्ध कर्म के) संपूर्ण निषेकों का जो समूह वह सर्व स्थिति है।
कषायपाहुड़/3/3-22/20/15 पर विशेषार्थ-(बद्ध कर्म में) अंतिम निषेक का जो काल है वह (उस कर्म की) उत्कृष्ट स्थिति है। इसमें उत्कृष्ट स्थितिबंध होने पर प्रथम निषेक से लेकर अंतिम निषेक तक की सब स्थितियों का ग्रहण किया है। उत्कृष्ट स्थितिबंध होने पर जो प्रथम निषेक से लेकर अंतिम निषेक तक निषेक रचना होती है वह सर्व स्थिति विभक्ति है।
4. अग्र व उपरितन स्थिति के लक्षण
1. अग्र स्थिति
धवला 14/5,6,320/367/4 जहण्णणिव्वत्तीए चरिमणिसेओ अग्गं णाम। तस्स ट्ठिदी जहण्णिया अग्गट्ठिदि त्ति घेत्तव्वा। जहण्णणिव्वत्ति त्ति भणिदं होदि। = जघन्य निर्वृत्ति के अंतिम निषेक की अग्रसंज्ञा है। उसकी स्थिति जघन्य अग्रस्थिति है।...जघन्य निवृत्ति (जघन्य आयुबंध) यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
2. उपरितन स्थिति
गोम्मटसार जीवकांड/ भाषा./67/176/10
वर्तमान समय तै लगाइ उदयावली का काल, ताकै पीछे गुण श्रेणी आयाम काल, ताके पीछे अवशेष सर्व स्थिति काल, अंत विषै अतिस्थापनावली बिना सो उपरितन स्थिति का काल, तिनिके निषेक पूर्वै थे तिनि विषै मिलाइए है। सो यह मिलाया हुआ द्रव्यपूर्वं निषेकनि के साथ उदय होइ निर्जरै है, ऐसा भाव जानना। ( लब्धिसार/ भाषा./69/104)।
गोम्मटसार जीवकांड/ अर्थ संदृष्टि/पृष्ठ 24
ताके (उदयावली तथा गुणश्रेणी के) ऊपर (बहुत काल तक उदय आने योग्य) के जे निषेक तिनिका समूह सो तो उपरितन स्थिति है।
5. सांतर निरंतर स्थिति के लक्षण
गोम्मटसार कर्मकांड/ भाषा/945,946/2054-2055
सांतरस्थिति उत्कृष्ट स्थिति तै लगाय-जघन्य स्थिति पर्यंत एक-एक समय घाटिका अनुक्रम लिये जो निरंतर स्थिति के भेद...(945/2054)। सांतर स्थिति-सांतर कहिए एक समय घाटिके नियम करि रहित ऐसे स्थिति के भेद।
क्षपणासार/ भाषा/583/695/16
गुणश्रेणि आयाम के ऊपरवर्ती जिनि प्रदेशनिका पूर्वै अभाव किया था तिनिका प्रमाण रूप अंतरस्थिति है।
6. प्रथम व द्वितीय स्थिति के लक्षण
क्षपणासार/ भाषा/583/695/17
ताके ऊपरिवर्ती (अंतर स्थिति के उपरिवर्ती) अवशेष सर्व स्थिति ताका नाम द्वितीय स्थिति है।
देखें अंतरकरण - 1.2 अंतरकरण से नीचे की अंतर्मुहूर्तप्रमित स्थिति को प्रथम स्थिति कहते हैं और अंतरकरण से ऊपर की स्थिति को द्वितीय स्थिति कहते हैं।
7. सादि अनादि स्थिति के लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत/टीका/4/390/243/16 सादिस्थितिबंध:, य: अबंधं स्थितिबंधं बध्नाति स सादिबंध:। अनादिस्थितिबंध:, जीवकर्मणोरनादिबंध: स्यात् । = विवक्षित कर्म की स्थिति के बंध का अभाव होकर पुन: उसके बँधने को सादि स्थितिबंध कहते हैं। गुणस्थानों में बंध व्युच्छित्ति के पूर्व तक अनादि काल से होने वाले स्थितिबंध को अनादिस्थितिबंध कहते हैं।
8. विचार स्थान का लक्षण
धवला 6/1,9-6,5/150 पर उदाहरण
वीचारस्थान=(उत्कृष्ट स्थिति-जघन्य स्थिति) या अबाधा के भेद-1
जैसे यदि उत्कृष्ट स्थिति=64; जघन्य स्थिति=45;
उत्कृष्ट आबाधा 16; आबाधा कांडक= =4
तो 64-61 तक 4 स्थिति भेदों का एक आबाधा कांडक
(ii) 60-57 तक 4 स्थिति भेदों का एक आबाधा कांडक
(iii) 56-53 तक 4 स्थिति भेदों का एक आबाधा कांडक
(iv) 52-49 तक 4 स्थिति भेदों का एक आबाधा कांडक
(v) 48-45 तक 4 स्थिति भेदों का एक आबाधा कांडक
यहाँ आबाधा कांडक=5; आबाधा कांडक आयाम=4 आबाधा के भेद=5x4=20
वीचार स्थान=20-1=19 या 64-45=19