ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 41
From जैनकोष
तदनंतर समुद्रविजय आदि दशार्ह, महाभोज, वृष्णि, कृष्ण तथा नेमि जिनेंद्र आदि क्षत्रिय लहराते हुए समुद्र को देखने की इच्छा से उसके समीप गये ॥1॥ उस समय उस समुद्र में जहाँ-तहां जल के छींटे बिखर रहे थे । उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो मदोन्मत्त दिग्गज ही हो और मछलियों के बार-बार उछलने तथा नीचे आने की लीला से ऐसा जान पड़ता था मानो नेत्रों को कुछ-कुछ खोल रहा हो और बंद कर रहा हो ॥2॥ वह समुद्र ऊँची उठती हुई अपनी चंचल तरंगरूपी भुजाओं के समूह से ऐसा जान पड़ता था मानो विशाल आकाश से ईर्ष्या कर समस्त दिशाओं से युक्त आकाश का आस्फालन करने के लिए ही उद्यत हुआ हो ॥3॥ जो लहरों से चारों ओर घूम रहा था, जिसके भीतर बड़े-बड़े भयंकर मगर-मच्छ उछल-कूद कर रहे थे एवं जो मकरी-रूपी हस्तिनियों से घिरा हुआ था ऐसे समुद्र को उन सबने देखा ॥4॥ उस समय वह समुद्र, जिनेंद्र भगवान् के द्वारा निरूपित शास्त्र-रूपी सागर के समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार बुद्धिहीन मनुष्य उद्योग करने पर भी जिनेंद्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर का पार प्राप्त नहीं कर पाते हैं उसी प्रकार बुद्धिहीन (नौकानिर्माण आदि की बुद्धि से रहित) मनुष्य उद्यम करने पर भी उस समुद्र का पार नहीं प्राप्त कर पा रहे थे । जिस प्रकार जिनेंद्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर की अपनी स्थिति, अत्यंत गंभीरता के योग से अलंघित है अर्थात् उसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता है उसी प्रकार उस समुद्र की अपनी स्थिति भी अत्यधिक गंभीरता― गहराई के योग से अलंघित थी अर्थात् उसे लांघकर कोई नहीं जा सकता था । जिस प्रकार जिनेंद्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर उत्कृष्ट भंगरूपी तरंगों से युक्त अंग― द्वादशांगरूपी महाजल से युक्त है उसी प्रकार वह समुद्र भी ज्वार भाटा, तरंग तथा फेन आदि उठते हुए अंगों से पूर्ण महाजल से युक्त था । जिस प्रकार जिनेंद्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर पुराणों में निरूपित नाना मार्गों के समूहरूपी नदियों के अग्रभाग से मनोहर है उसी प्रकार वह समुद्र भी पुराण― जीर्ण-शीर्ण मार्ग को बहाकर लाने वाले नदियों के अग्रभाग से मनोहर था अर्थात् उसमें अनेक नदियां आकर मिल रही थीं । जिस प्रकार जिनेंद्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर सर्वश्रेष्ठ आत्मद्रव्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्̖चारित्ररूपी महारत्न तथा मुक्त जीवरूपी मुक्ताफलों का आकर― खान है उसी प्रकार वह समुद्र भी अमूल्य― श्रेष्ठगुणों से युक्त बड़े-बड़े रत्न तथा मुक्ताफलों का आकर― खान था । जिस प्रकार जिनेंद्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर अनादिक है― अर्थ सामान्य की दृष्टि से अनादि है उसी प्रकार वह समुद्र भी अनादिक― असदृश जल से युक्त है । जिस प्रकार जिनेंद्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर विशालता और निर्दोषता के संयोग से आकाश की लक्ष्मी को स्वीकृत करता है आकाश के समान जान पड़ता है उसी प्रकार वह समुद्र भी अपने विस्तार और स्वच्छता के कारण आकाश की लक्ष्मी को स्वीकृत कर रहा था । जिस प्रकार जिनेंद्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर अपने भीतर अनंत जीवों की रक्षारूप दृढ़ व्रत को धारण करता है अर्थात् अनंत जीवों की रक्षा रूप सुदृढ़ व्रत को धारण करने का उपदेश देता है उसी प्रकार वह समुद्र भी अपने भीतर रहने वाले अनंत जीवों की रक्षारूप दृढव्रत को धारण करता था-अपने भीतर रहने वाले अनंत जीवों की रक्षा करता था । जिस प्रकार जिनेंद्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर, विजय की इच्छा रखने वाले समस्त वादियों के द्वारा अलंघित पद है अर्थात् समस्त वादी उसके एक पद का भी खंडन नहीं कर सकते हैं उसी प्रकार वह समुद्र भी बक-झक करने वाले समस्त विजयाभिलाषी लोगों के द्वारा अलंघित पद था अर्थात् उसके एक स्थान का भी कोई उल्लंघन नहीं कर सकता था । जिस प्रकार जिनेंद्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर अपने मुख अथवा स्पर्श से ही शरणागत मनुष्यों के अनंतानुबंधी संबंधी संताप को दूर करता है फिर अपने अवगाहन, मनन, चिंतन आदि के द्वारा तो कहना ही क्या है ? उसी प्रकार वह समुद्र भी अपने अग्रभाग अथवा स्पर्श से ही समीप में आये हुए मनुष्यों के अगणित एवं संतति बद्ध संताप को दूर करता था फिर अपने अवगाहन की तो बात ही क्या थी ? इस प्रकार जिनेंद्र भगवान् के द्वारा निरूपित शास्त्र-रूपी सागर के समान उस समुद्र को देखकर वह राजाओं का समूह अत्यंत प्रसन्न हुआ । उस समय वह समुद्र बिखरी हुई पुष्पांजलियों से सुशोभित हो रहा था, तरंगों से लहरा रहा था और शंखों के शब्द से व्याप्त था । इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान् नेमिनाथ के आगमन से उत्पन्न अत्यधिक हर्ष से ही उसने पुष्पांजलियाँ बिखेरी हों, तरंगरूपी भुजाओं को ऊपर उठाकर वह नृत्य कर रहा हो और शंखध्वनि के बहाने हर्षध्वनि कर रहा हो ।। 5-11॥ वह अपने तरंगरूपी हाथों के द्वारा मूंगा और मोतियों का अर्घ्य बिखेर रहा था तथा गर्जना से मुखर होने के कारण मानो कृष्ण के लिए स्वागत शब्द का उच्चारण ही कर रहा हो ।। 12 ।। उस समुद्र में मछलियाँ उछल रही थीं उससे ऐसा जान पड़ता था मानो वह मछलियांरूपी नेत्रों से युग के प्रधान श्री बलदेव को देखकर उछलते हुए जल से उठकर उनका सत्कार ही कर रहा हो ।। 13 ।। समुद्र में जो फेनों के समूह उठ रहे थे उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो समुद्रविजय, अक्षोभ्य तथा भाजक वृष्णि आदि राजाओं को देख उनके निमित्त से होने वाले अपने हर्ष को ही प्रकट कर रहा हो ॥14॥
तदनंतर किसी प्रशस्त तिथि में मंगलाचार की विधि को जानने वाले कृष्ण ने अपने बड़े भाई बलदेव के साथ स्थान प्राप्त करने की अभिलाषा से अष्टम भक्त अर्थात् तीन दिन का उपवास किया ॥15॥ तत्पश्चात् पंचपरमेष्ठियों का स्तवन करने वाले धीर-वीर कृष्ण, जब समुद्र के तट पर नियमों में स्थित होने के कारण डाभ की शय्या पर उपस्थित थे तब सौधर्मेंद्र को आज्ञा से गोतम नामक शक्तिशाली देव ने आकर समुद्र को शीघ्र ही दूर हटा दिया । वह समुद्र वहाँ कालांतर में आकर स्थित हो गया था ॥16-17॥ तदनंतर श्रीकृष्ण के पुण्य और श्री नेमिनाथ तीर्थकर की सातिशय भक्ति से कुबेर ने वहाँ शीघ्र ही द्वारिका नाम की उत्तम पुरी की रचना कर दी ॥18॥ वह नगरी बारह योजन लंबी, नो योजन चौड़ी, वज्रमय कोट के घेरा से युक्त तथा समुद्ररूपी परिखा से घिरी हुई थी ॥19॥ रत्न और स्वर्ण से निर्मित अनेक खंडों के बड़े-बड़े महलों से आकाश को रोकती हुई वह द्वारिकापुरी आकाश से च्युत अलकापुरी के समान सुशोभित हो रही थी ॥20॥ कमल तथा नीलोत्पलों आदि से आच्छादित, स्वादिष्ट जल से युक्त वापी, पुष्करिणी, बड़ी-बड़ी वापिकाएँ, सरोवर और ह्रदों से युक्त थी ॥21॥ देदीप्यमान कल्पलताओं से आलिंगित कल्प वृक्षों के समान सुशोभित पान-लौंग तथा सुपारी आदि के उत्तमोत्तम वनों से सहित थी ॥22॥ वहाँ सुवर्णमय प्राकार और गोपुरों से युक्त बड़े-बड़े महल विद्यमान थे तथा सभी स्थानों पर सुख देने वाले रंग-बिरंगे मणिमय फर्श शोभायमान थे ॥23॥ जिनके बीच-बीच में प्याऊ तथा सदावर्त आदि का प्रबंध था ऐसी लंबी-चौड़ी सड़कों से वह नगरी बहुत सुंदर जान पड़ती थी तथा वह राजाओं और समस्त प्रजा के निवास के योग्य सुशोभित थी ॥24॥ सब प्रकार के रत्नों से निर्मित प्राकार और तोरणों से युक्त एवं बाग-बगीचों से सहित ऊंचे-ऊंचे जिनमंदिरों से वह नगरी अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥25॥ इस नगरी के बीचोंबीच आग्नेय आदि दिशाओं में समुद्र विजय आदि दशों भाइयों के क्रम से महल सुशोभित हो रहे थे ।। 26 ।। उन सब महलों के बीच में कल्पवृक्ष और लताओं से आवृत, अठारह खंडों से युक्त श्रीकृष्ण का सर्वतोभद्र नाम का महल सुशोभित हो रहा था ꠰꠰27।। अंतःपुर तथा पुत्र आदि के योग्य महलों की पंक्तियां श्रीकृष्ण के भवन का आश्रय कर चारों ओर सुशोभित हो रही थीं ॥28॥ अंतःपुर के घरों की पंक्तियों से घिरा एवं वापि का तथा बगीचा आदि से विभूषित बलदेव का भवन सुशोभित हो रहा था ॥29॥ बलदेव के महल के आगे एक सभामंडप सुशोभित था जो इंद्र के सभामंडप के समान था और अपनी दीप्ति से सूर्य को किरणों का खंडन करने वाला था ॥30॥ उस नगरी में उग्रसेन आदि सभी राजाओं के योग्य महलों की पंक्तियाँ सुशोभित थीं जो आठ-आठ खंड की थीं ॥31॥ जिसका वर्णन करना शक्य नहीं था तथा जो अनेक द्वारों से युक्त थी ऐसी सुंदर नगरी की रचना कर कुबेर ने श्री कृष्ण से निवेदन किया अर्थात् नगरी रची जाने की सूचना श्रीकृष्ण को दी ॥32॥ उसी समय कुबेर ने श्रीकृष्ण के लिए मुकुट, उत्तम हार, कौस्तुभमणि, दो पीत-वस्त्र, लोक में अत्यंत दुर्लभ नक्षत्रमाला आदि आभूषण, कुमुद्वती नाम की गदा, शक्ति, नंदक नाम का खड̖ग, शांग नाम का धनुष, दो तरकश, वज्रमय बाण, सब प्रकार के शस्त्रों से युक्त एवं गरुड़ की ध्वजा से युक्त दिव्य रथ, चमर और श्वेत छत्र प्रदान किये ॥33-35॥ साथ ही बलदेव के लिए दो नील-वस्त्र, माला, मुकुट, गदा, हल, मुसल, धनुष-बाणों से युक्त दो तरकश, दिव्य अस्त्रों से परिपूर्ण एवं ताल की ऊँची ध्वजा से सबल रथ और छत्र आदि दिये ॥36-37॥ समुद्रविजय आदि दसों भाई तथा भोज आदि राजाओं का भी कुबेर ने वस्त्र, आभरण आदि के द्वारा खूब सत्कार किया ॥38॥ श्री नेमिनाथ तीर्थकर अपनी अवस्था के योग्य उत्तमोत्तम वस्तुओं के द्वारा पूजा को प्राप्त हुए ही थे । इस विषय का अधिक वर्णन करने से क्या प्रयोजन है ? ॥39॥ आप सब लोग नगरी में प्रवेश करें इस प्रकार सबसे कहकर और पूर्णभद्र नामक यक्ष को संदेश देकर कुबेर क्षणभर में अंतर्हित हो गया ॥40॥
तदनंतर यादवों के संघ ने समुद्र के तट पर श्रीकृष्ण और बलदेव का अभिषेक कर हर्षित हो उनकी जय-जयकार घोषित की ॥41॥ तत्पश्चात् जिन्होंने पुण्य का संचय किया था ऐसे श्रीकृष्ण आदि ने चतुरंग सेना और समस्त प्रजा के साथ प्राप्त हुए स्वर्ग के समान उस द्वारिकापुरी में बड़े वैभव से प्रवेश किया ॥42॥ पूर्णभद्र यक्ष के द्वारा बतलाये हुए मंगलमय भवनों में प्रजा के सब लोग अपने परिवार के साथ यथायोग्य सुख से ठहर गये ।। 43 ।। मथुरा, सूर्यपुर और वीर्यपुर के निवासी लोग अपने-अपने मोहल्लों के पूर्व-जैसे ही नाम रखकर यथायोग्य संतोष को प्राप्त हुए ॥44॥ कुबेर की आज्ञा से यक्षों ने इस नगरी के समस्त भवनों में साढ़े तीन दिन तक अटूट धन-धान्यादि की वर्षा की थी ॥45॥ जब श्रीकृष्ण वहाँ रहने लगे तब उनके प्रताप से वशीभूत हो पश्चिम के राजा उनकी आज्ञा मानने लगे ॥46॥ तदनंतर द्वारिकापुरी के स्वामी श्रीकृष्ण अनेक राजाओं की हजारों कन्याओं के साथ विवाह कर वहाँ इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगे ॥47॥
जिनका शरीर समस्त कलाओं का स्थान था ऐसे नेमिकुमार भी वहाँ बालचंद्रमा के समान दिनों-दिन बढ़ने लगे ॥48।। जिनका उदय यादवों के मुख-कमल को विकसित करने वाला था एवं जिन्होंने अपनी ज्योति से अंधकार के समूह को नष्ट कर दिया ऐसे नेमिकुमाररूपी बालसूर्य अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥49॥ प्रतिदिन बलभद्र और श्रीकृष्ण के आनंद को बढ़ाते हुए नेमिकुमार बाल्य अवस्था में नगरनिवासी लोगों के नेत्र और मन को हरण करने वाली क्रीड़ा करते थे ॥50॥ अतिशय रूप के धारक भगवान् नेमिनाथ जहां-तहाँ समस्त यादवों की स्त्रियों के एक हाथ से दूसरे हाथ को सुशोभित करते हुए यौवन अवस्था को प्राप्त हुए ॥51॥ जिनके शरीर में अनेक शुभ लक्षण प्रकट थे तथा जिनके नेत्र नील कमल के समान थे ऐसे युवा नेमिकुमार पर लगी दृष्टि को स्त्रियाँ दूसरी जगह ले जाने में समर्थ न हो सकी ॥52॥ भगवान् के रूपरूपी बाण ने दूर से ही जगत् के जीवों की हृदयस्थली को भेद दिया था परंतु उनकी हृदयस्थली को दूसरों का रूपरूपी बाणों का समूह नहीं भेद सका था । भावार्थ― यौवन प्रकट होनेपर भी भगवान् के हृदय में काम की बाधा उत्पन्न नहीं हुई थी ॥53॥ चूंकि पृथिवीतल पर भगवान् के रूप की न उपमा थी न उपमेय ही था इसलिए भगवान् के रूप के विषय में उपमान और उपमेय के लिए इंद्र को खेद खिन्न होना पड़ा ॥54॥ क्रीड़ाओं के समय अपने कुटुंबी जनों के द्वारा अपने विवाह की चर्चा की जाने पर नेमिजिनेंद्र मंद-मंद मुसकराते हुए स्वयं लज्जित हो उठते थे ॥55॥ तीन ज्ञानरूपी जल के द्वारा जिसके भीतर का मोहरूपी कलंक धुल गया था ऐसा भगवान् का अंतःकरण वैभव रूपी धूल से धूसर नहीं हुआ ॥56॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जो नेमिजिनेंद्र, भोजकवृष्णि, कृष्ण और बलभद्र के उत्तम गुणों के समूहरूपी प्रकट चांदनी से स्पृष्ट थी, जिसमें हर्ष से भरे लोग तरंगों के समान उछल रहे थे तथा जो द्वारों से सुंदर थी ऐसी द्वारिकापुरी समुद्र की वेला के समान अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥57॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराण में द्वारिकापुरी का वर्णन करने वाला इकतालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥4॥