पूजा
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सिद्धांतकोष से
राग प्रचुर होने के कारण गृहस्थों के लिए जिन पूजा प्रधान धर्म है। यद्यपि इसमें पंच परमेष्ठी की प्रतिमाओं का आश्रय होता है, पर तहाँ अपने भाव ही प्रधान हैं, जिनके कारण पूजक को असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा होती रहती है। नित्य नैमित्तिक के भेद से वह अनेक प्रकार की है और जल चंदनादि अष्ट द्रव्यों से की जाती है। अभिषेक व गायन नृत्य आदि के साथ की गयी पूजा प्रचुर फलप्रदायी होती है। सचित्त व अचित्त द्रव्य से पूजा, पंचामृत व साधारण जल से अभिषेक, चावलों की स्थापना करने व न करने आदि संबंधी अनेकों मतभेद इस विषय में दृष्टिगत हैं, जिनका समन्वय करना ही योग्य है।
- भेद व लक्षण
- पूजा सामान्य निर्देश व उसका महत्त्व
- सावद्य होते हुए भी पूजा करनी चाहिए। - देखें धर्म - 5.2।
- सम्यग्दृष्टि पूजा क्यों करें?-देखें विनय - 3।
- प्रोषधोपवास के दिन पूजा करे या न करें- देखें प्रोषध - 4।
- पूजा की कथंचित् इष्टता-अनिष्टता।- देखें धर्म - 4-6।
- सावद्य होते हुए भी पूजा करनी चाहिए। - देखें धर्म - 5.2।
- * जिन पूजा सम्यग्दर्शन का कारण है- देखें सम्यग्दर्शन - III.5।
- पूजा निर्देश व मूर्ति पूजा
- एक जिन या जिनालय की वंदना से सबकी वंदना हो जाती है।
- एक की वंदना से सबकी वंदना कैसे हो जाती है?
- देव व शास्त्र की पूजा में समानता।
- साधु व प्रतिमा भी पूज्य हैं।
- साधु की पूजा से पाप कैसे नाश होता है।
- सम्यग्दृष्टि गृहस्थ भी पूज्य नहीं - देखें विनय - 4।
- एक जिन या जिनालय की वंदना से सबकी वंदना हो जाती है।
- पूजा योग्य प्रतिमा - देखें चैत्य चैत्यालय - 1
- एक प्रतिमा में सर्व का संकल्प।
- पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर फण लगाने का विधि-निषेध।
- बाहुबलि की प्रतिमा संबंधी शंका समाधान।
- क्षेत्रपाल आदि की पूजा का निषेध- देखें मूढता ।
- पूजा योग्य द्रव्य विचार
- अष्ट द्रव्य से पूजा करने का विधान।
- अष्ट द्रव्य पूजा व अभिषेक का प्रयोजन व फल।
- पंचामृत अभिषेक निर्देश व विधि।
- सचित्त द्रव्यों आदि से पूजा का निर्देश।
- चैत्यालय में पुष्प वाटिका लगाने का विधान - देखें चैत्य चैत्यालय - 2।
- पूजा विधि
- एक दिन में अधिक बार भी वंदना करे तो निषेध नहीं - देखें वंदना ।
- रात्रि को पूजा करने का निषेध।
- चावलों में स्थापना करने का निषेध।
- स्थापना के विधि निषेध का समन्वय।
- पूजा के साथ अभिषेक व नृत्य गानादि का विधान।
- द्रव्य व भाव दोनों पूजा करने योग्य है।
- पूजा विधान में विशेष प्रकार का क्रियाकांड।
- पूजा विधान में प्रयोग किये जानेवाले कुछ मंत्र - देखें मंत्र ।
- पूजा में भगवान को कर्ता-हर्ता बनाना - देखें भक्ति - 1।
- पंच कल्याणक- देखें कल्याणक ।
- देव वंदना आदि विधि - देखें वंदना ।
- स्तव विधि - देखें भक्ति - 3।
- पूजा में कायोत्सर्ग आदि की विधि - देखें वंदना ।
- पूजा के प्रकरण में स्नान विधि- देखें स्नान - 4 ।
- भेद व लक्षण
- पूजा के पर्यायवाची नाम
महापुराण/67/193 यागो यज्ञः क्रतुः पूजा सपर्येज्याध्वरो मखः। मह इत्यपि पर्यायवचनान्यर्चनाविधेः। 193। = याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह ये सब पूजा विधि के पर्यायवाची शब्द हैं। 193।
- पूजा के भेद
- इज्या आदि की अपेक्षा
महापुराण/38/26 प्रोक्ता पूजार्हतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम्। चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमाश्चाष्टाह्निकोऽपि च। 26। = पूजा चार प्रकार की है सदार्चन (नित्यमह), चतुर्मुख (सर्वतोभद्र), कल्पद्रुम और अष्टाह्निक। ( धवला 8/3,42/92/4 ) (इसके अतिरिक्त एक ऐंद्रध्वज महायज्ञ भी है, जिसे इंद्र किया करता है तथा और भी जो पूजा के प्रकार हैं वे इन्हीं भेदों में अंतर्भूत हैं। ( महापुराण/38/32-33 ); ( चारित्रसार/43/1 ); ( सागार धर्मामृत/1/18; 2/25-29 )।
- निक्षेपों की अपेक्षा
वसुनंदी श्रावकाचार/381 णाम-ट्ठवणा-दव्वे-खित्ते काले वियाणाभावे य। छव्विहपूया भणिया समासओ जिणवरिंदेहिं। 381। = नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा संक्षेप से छह प्रकार की पूजा जिनेंद्रदेव ने कही है। 381। ( गुणभद्र श्रावकाचार/212 )।
- द्रव्य व भाव की अपेक्षा
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/159/20 पूजा द्विप्रकारा द्रव्यपूजा भावपूजा चेति। = पूजा के द्रव्यपूजा और भावपूजा ऐसे दो भेद हैं।
- इज्या आदि की अपेक्षा
- इज्या आदि पाँच भेदों के लक्षण
महापुराण/38/27-33 तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनग्रहं प्रति। स्वगृहान्नीयमानार्चा गंधपुष्पाक्षतादिका। 27। चैत्यचैत्यालयादीनां भक्त्या निर्मापणं च यत्। शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सदार्चनम्। 28। या च पूजाः मुनींद्राणां नित्यदानानुषंगिणी। स च नित्यमहो ज्ञेयो यथाशक्त्युपकल्पितः। 29। महामुकुटबद्धैश्च क्रियमाणो महामहः। चतुर्मुखः स विज्ञेयः सर्वतोभद्र इत्यपि। 30। दत्वा किमिच्छकं दानं सम्राड्भिर्यः प्रवर्त्यते। कल्पद्रुममहः सोऽयं जगदाशाप्रपूरणः। 31। आष्टाह्निको महः सार्वजनिको रूढ एव सः। महानैंद्रध्वजोऽंयस्तु सुरराजैः कृतो महः। 32। बलिस्नपनमित्यन्यः त्रिसंध्यासेवया समम्। उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच्च तादृशम्। 33। = प्रतिदिन अपने घर से गंध, पुष्प, अक्षत आदि ले जाकर जिनालय में श्री जिनेंद्र देव की पूजा करना सदार्चन अर्थात् नित्यमह कहलाता है। 27। अथवा भक्तिपूर्वक अर्हंत देव की प्रतिमा और मंदिर का निर्माण कराना तथा दानपत्र लिखकर ग्राम, खेत आदि का दान भी देना सदार्चन कहलाता है। 28। इसके सिवाय अपनी शक्ति के अनुसार नित्यदान देते हुए महामुनियों की जो पूजा की जाती है, उसे भी नित्यमह समझना चाहिए। 29। महामुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो महायज्ञ किया जाता है उसे चतुर्मुख यज्ञ जानना चाहिए। इसका दूसरा नाम सर्वतोभद्र भी है। 30। जो चक्रवर्तियों के द्वारा किमिच्छक दान देकर किया जाता है और जिसमें जगत् के सर्व जीवों की आशाएँ पूर्ण की जाती हैं, वह कल्पद्रुम नाम का यज्ञ कहलाता है। 31। चौथा अष्टाह्निक यज्ञ है जिसे सब लोग करते हैं और जो जगत् में अत्यंत प्रसिद्ध है। इनके सिवाय एक ऐंद्रध्वज महायज्ञ भी है जिसे इंद्र किया करता है। ( चारित्रसार/43/2 ); ( सागार धर्मामृत/2/25-29 )। बलि अर्थात् नैवेद्य चढ़ाना, अभिषेक करना, तीन संध्याओं में उपासना करना तथा इनके समान और भी जो पूजा के प्रकार हैं वे उन्हीं भेदों में अंतर्भूत हैं। 32-33।
- नाम, स्थापनादि पूजाओं के लक्षण
- नामपूजा
वसुनंदी श्रावकाचार/382 उच्चारिऊण णामं अरुहाईणंविसुद्धदेसम्मि। पुप्फाणि जं खिविज्जंति वण्णिया णामपूया सा। 382। = अरहंतादि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्प क्षेपण किये जाते हैं वह नाम पूजा जानना चाहिए। 382। ( गुणभद्र श्रावकाचार/213 )।
- स्थापना पूजा
वसुनंदी श्रावकाचार/383-384 सब्भावासब्भावा दुविहा ठवणा जिणेहि पण्णत्ता। सायारवंतवत्थुम्मि जं गुणारोवणं पढमा। 383। अक्खय-वराडओ वा अमुगो एसो त्ति णियबुद्धीए। संकप्पिऊण वयणं एसा विइया असब्भावा। 384। = जिन भगवान् ने सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना यह दो प्रकार की स्थापना पूजा कही है। आकारवान् वस्तु में अरहंतादि के गुणों का जो आरोपण करना, सो यह पहली सद्भाव स्थापना पूजा है। और अक्षत्, वराटक (कौड़ी या कमलगट्टा आदि में अपनी बुद्धि से यह अमुक देवता है, ऐसा संकल्प करके उच्चारण करना, सो यह असद्भाव पूजा जानना चाहिए। 383-384। ( गुणभद्र श्रावकाचार/214-215 )।
- द्रव्यपूजा
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/159/21 गंधपुष्पधूपाक्षतादिदानं अर्हदाद्युद्दिश्य द्रव्यपूजा। अभ्युत्थानप्रदक्षिणीकरण-प्रणमनादिका-कायक्रिया च। वाचा गुणसंस्तवनं च। = अर्हदादिकों के उद्देश्य से गंध, पुष्प, धूप, अक्षतादि समर्पण करना, यह द्रव्यपूजा है। तथा उठ करके खड़े होना, तीन प्रदक्षिणा देना, नमस्कार करना वगैरह शरीर क्रिया करना, वचनों से अर्हदादिक के गुणों को स्तवन करना, यह भी द्रव्य-पूजा है। ( अमितगति श्रावकाचार/12/12 )।
वसुनंदी श्रावकाचार/448-451 दव्वेण य दव्वस्स य जा पूजा जाण दव्वपूजा सा। दव्वेण गंध-सलिलाइपुव्वभणिएण कायव्वा। 448। तिविहा दव्वे पूजा सच्चित्ताचित्तमिस्सभेएण। पच्चक्खजिणाईणं सचित्तपूजा जहाजोग्गं। 449। तेसिं च सरीराणं दव्वसुदस्सवि अचित्तपूजा सा। जा पुण दोण्हं कीरइ णायव्वा मिस्सपूजा सा। 450। अहवा आगम-णोआगमाइभेएण बहुविहं दव्वं। णाऊण दव्वपूजा कायव्वा सुत्तमग्गेण। 451। = जलादि द्रव्य से प्रतिमादि द्रव्य की जो पूजा की जाती है, उसे द्रव्यपूजा जानना चाहिए। वह द्रव्य से अर्थात् जल गंधादि पूर्व में कहे गये पदार्थ समूह से करना चाहिए। 448। ( अमितगति श्रावकाचार/1213 ) द्रव्यपूजा, सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार की है। प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेंद्र भगवान और गुरु आदि का यथायोग्य पूजन करना सो सचित्तपूजा है। उनके अर्थात् जिन तीथकर आदि के शरीर की और द्रव्यश्रुत अर्थात् कागज आदि पर लिपिबद्ध शास्त्र की जो पूजा की जाती है, वह अचित्त पूजा है और जो दोनों की पूजा की जाती है, वह मिश्रपूजा जानना चाहिए। 449-450। अथवा आगमद्रव्य और नोआगमद्रव्य आदि के भेद से अनेक प्रकार के द्रव्य निक्षेप को जानकर शास्त्र प्रतिपादित मार्ग से द्रव्यपूजा करना चाहिए। 451। ( गुणभद्र श्रावकाचार/219-221 )।
- क्षेत्रपूजा
वसुनंदी श्रावकाचार/452 जिणजम्मण-णिक्खमणे णाणुप्पत्तीए तित्थचिण्हेसु। णिसिहीसु खेत्तपूजा पुव्वविहाणेण कायव्वा। = जिन भगवान् की जन्म कल्याणक भूमि, निष्क्रमण कल्याणक भूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिस्थान, तीर्थ चिह्न स्थान और निषीधिका अर्थात् निर्वाण भूमियों में पूर्वोक्त प्रकार से पूजा करना चाहिए यह क्षेत्रपूजा कहलाती है। 452। ( गुणभद्र श्रावकाचार/222 )।
- कालपूजा
वसुनंदी श्रावकाचार/453-455 गब्भावयार-जम्माहिसेय-णिक्खमण णाण-णिव्वाणं। जम्हि दिणे संजादं जिणण्हवणं तद्दिणे कुज्जा। 453। णंदीसरट्ठदिवसेसु तहा अण्णेसु उचियपव्वेसु। जं कीरइ जिणमहिमा विण्णेया कालपूजा सा। 455। = जिस दिन तीर्थंकरों के गर्भावतार, जन्माभिषेक, निष्क्रमणकल्याणक, ज्ञानकल्याणक और निर्वाणकल्याणक हुए हैं, उस दिन भगवान् का अभिषेक करें। तथा इस प्रकार नंदीश्वर पर्व के आठ दिनों में तथा अन्य भी उचित पर्वों में जो जिन महिमा की जाती है, वह कालपूजा जानना चाहिए। 455। ( गुणभद्र श्रावकाचार/223-224 )।
- भावपूजा
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/159/22 भावपूजा मनसा तद्गुणानुस्मरणं। = मन से उनके (अर्हंतादि के) गुणों का चिंतन करना भावपूजा है। ( अमितगति श्रावकाचार/12/14 )।
वसुनंदी श्रावकाचार/456-458 काऊणाणंतचउट्ठयाइ गुणकित्तणं जिणाईणं। जं वंदणं तियालं कीरइ भावच्चणं तं खु। 456। पंचणमोक्कारयएहिं अहवा जावं कुणिज्ज सत्तीए। अहवा जिणिंदथोत्तं वियाण भावच्चणं तं पि। 457। ...जं झाइज्जइ झाणं भावमहं तं विणिदिट्ठं। 458। = परम भक्ति के साथ जिनेंद्र भगवान के अनंत चतुष्टय आदि गुणों का कीर्तन करके जो त्रिकाल वंदना की जाती है, उसे निश्चय से भावपूजा जानना चाहिए। 456। अथवा पंच णमोकार पदों के द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार जाप करे। अथवा जिनेंद्र के स्तोत्र अर्थात् गुणगान को भाव-पूजन जानना चाहिए। 457। और... जो चार प्रकार का ध्यान किया जाता है, वह भी भावपूजा है। 458।
- नामपूजा
- निश्चय पूजा का लक्षण
समाधिशतक/ मूल/31 यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः। अहमेव मयो-पास्यो नान्यः कश्चिदितिस्थितिः। 31। = जो परमात्मा है वह ही मैं हूँ तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ वही परमात्मा है, इसलिए मैं ही मेरे द्वारा उपासना किया जाने योग्य हूँ, दूसरा कोई अन्य नहीं। इस प्रकार ही आराध्य-आराधक भाव की व्यवस्था है।
परमात्मप्रकाश/ मूल/1/123 मणु मिलियउ परमेसरहँ परमेसरु वि मणस्स। बीहि वि समरसि-हूबाहं पुज्ज चडावउँ कस्स। = विकल्परूप मन भगवान् आत्माराम से मिल गया और परमेश्वर भी मन से मिल गया तो दोनों ही को समरस होने पर किसकी अब मैं पूजा करूँ। अर्थात् निश्चयनय कर अब किसी को पूजना सामग्री चढ़ाना नहीं रहा। 123।
देखें परमेष्ठी - पाँचों परमेष्ठी आत्मा में ही स्थित हैं, अतः वही मुझे शरण है।
- पूजा के पर्यायवाची नाम
- पूजा सामान्य निर्देश व उसका महत्त्व
- पूजा करना श्रावक का नित्य कर्तव्य है
वसुनंदी श्रावकाचार/478 एसा छव्विहा पूजा णिच्चं धम्माणुरायरत्तेहिं। जह जोग्गं कायव्वा सव्वेहिं पि देसविरएहिं। 478। = इस प्रकार यह छह प्रकार (नाम, स्थापनादि) की पूजा धर्मानुरागरक्त सर्व देशव्रती श्रावकों को यथायोग्य नित्य ही करना चाहिए। 478।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/6/15-16 ये जिनेंद्रं न पश्यंति पूजयंति स्तुवंति न। निष्फलं जीवितं तेषां तेषां धिक् च गृहाश्रमम्। 15। प्रातरुत्थाय कर्तव्यं देवतागुरुदर्शनम्। भंक्त्या तद्वंदना कार्या धर्मश्रुतिरुपासकैः। 16। = जो जीव भक्ति से जिनेंद्र भगवान् का न दर्शन करते हैं, न पूजन करते हैं, और न ही स्तुति करते हैं, उनका जीवन निष्फल है, तथा उनके गृहस्थ को धिक्कार है। 15। श्रावकों को प्रातःकाल में उठ करके भक्ति से जिनेंद्रदेव तथा निर्ग्रंथ गुरु का दर्शन और उनकी वंदना करके धर्मश्रवण करना चाहिए। तत्पश्चात् अन्य कार्यों को करना चाहिए। 16।
बोध पाहुड/टीका/17/85 पर उद्धृत - उक्तं सोमदेव स्वामिना - अपूजयित्वा यो देवान् मुनीननुपचर्य च। यो भुंजीत गृहस्थः सन् स भुंजीत परं तमः। = आचार्य सोमदेव ने कहा है कि जो गृहस्थ जिनदेव की पूजा और मुनियों की उपचर्या किये बिना अन्न का भक्षण करता है वह सातवें नरक के कुंभीपाक बिल में दुःख को भोगता है। ( अमितगति श्रावकाचार/1/55 )।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/732-733 पूजामप्यर्हतां कुर्याद्यद्वा प्रतिमासु तद्धिया। स्वरव्यंजनानि संस्थाप्य सिद्धानप्यर्चयेत्सुधीः। 732। सूर्युपाध्याय-साधूनां पुरस्तत्पादयोः स्तुतिम्। प्राग्विधायाष्टधा पूजां विदध्यात्स त्रिशुद्धितः। 733। = उत्तम बुद्धिवाला श्रावक प्रतिमाओं में अर्हंत की बुद्धि से अर्हंत भगवान् की और सिद्ध यंत्र में स्वर व्यंजन आदि रूप से सिद्धों की स्थापना करके पूजन करे। 732। तथा आचार्य उपाध्याय साधु के सामने जाकर उनके चरणों की स्तुति करके त्रिकरण की शुद्धिपूर्वक उनकी भी अष्ट द्रव्य से पूजा करे। 733। (इस प्रकार नित्य होनेवाले जिनबिंब महोत्सव में शिथिलता नहीं करना चाहिए। (739)।
- नंदीश्वर व पंचमेरु पूजा निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/5/83, 101, 103 वरिसे वरिसे चउविहदेवा णंदीसरम्मि दीवम्मि। आसाढकत्तिएसुं फग्गुणमासे समायंति। 83। पुव्वाए कप्पवासी भवणसुरा दक्खिणाए वेंतरया। पच्छिमदिसाए तेसुं जोइसिया उत्तरदिसाए। 100। णियणियविभूदिजोग्गं महिमं कुव्वंति थोत्त-बहलमुहा। णंदीसरजिणमंदिरजत्तासुं विउलभत्तिजुदा। 101। पुव्वण्हे अवरण्हे पुव्वणिसाए वि पच्छिमणिसाए। पहराणि दोण्णि-दोण्णिं वरभत्तीए पसत्तमणा। 102। कमसो पदाहिणेणं पुण्णिमयं जाव अट्ठमीदु। तदो देवा विविहं पूजा जिणिंदपडिमाण कुव्वंति। 103। = चारों प्रकार के देव नंदीश्वरद्वीप में प्रत्येक वर्ष आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन मास में आते हैं। 83। नंदीश्वरद्वीपस्थ जिन-मंदिरों की यात्रा में बहुत भक्ति से युक्त कल्पवासी देव पूर्व दिशा में, भवनवासी दक्षिण में, व्यंतर पश्चिम दिशा में और ज्योतिषदेव उत्तर दिशा में मुख से बहुत स्तोत्रों का उच्चारण करते हुए अपनी-अपनी विभूति के योग्य महिमा को करते हैं। 100-101 । ये देव आसक्त चित्त होकर अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक पूर्वाह्न, अपराह्न, पूर्वरात्रि और पश्चिमरात्रि में दो-दो पहर तक उत्तम भक्ति पूर्वक प्रदक्षिण क्रम से जिनेंद्र प्रतिमाओं की विविध प्रकार से पूजा करते हैं। 102-103।
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/5/112 एवं आगंतूणं अट्ठमिदिवसेसु मंदरगिरिस्स। जिण-भवणेसु य पडिमा जिणिंदइंदाण पूयंति। 112। = इस प्रकार अर्थात् बड़े उत्सव सहित आकर वे (चतुर्निकाय के देव) अष्टाह्निक दिनों में मंदर (सुमेरु) पर्वत के जिन भवनों में जिनेंद्र प्रतिमाओं की पूजा करते हैं। 112।
अनगारधर्मामृत/9/63 कुर्वंतु सिद्धनंदीश्वरगुरुशांतिस्तवैः क्रियामष्टौ। शुच्यूर्जतपस्यसिताष्टम्यादिदिनानि मध्याह्ने। = आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन शुक्ला अष्टमी से लेकर पूर्णिमा पर्यंत के आठ दिनों तक पौर्वाह्णिक स्वाध्याय ग्रहण के अनंतर सब संघ मिला कर, सिद्ध-भक्ति, नंदीश्वर चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति द्वारा अष्टाह्निक क्रिया करें। 63।
सर्व पूजा की पुस्तकों में अष्टाह्निकपूजा ‘संवौषडाहूय निवेश्य ठाभ्यां सांनिध्यमनीय वषड्पदेन। श्रीपंचमेरुस्थजिनालयानां यजाम्यशीति-प्रतिमाः समस्ताः। 1। आहूय संवौषडिति प्रणीत्य ताभ्यां प्रतिष्ठाप्य सुनिष्ठितार्थान्। वषड्पदेनैव च संनिधाय नंदीश्वरद्वीपजिनांसमर्चे। 2। = ‘संवौषट्’ पद के द्वारा बुलाकर, ‘ठः ठः’ पद के द्वारा ठहराकर, तथा ‘वषट्’ पद के द्वारा अपने निकट करके पाँचों मेरु-पर्वतों पर स्थित अस्सी चैत्यालयों की समस्त प्रतिमाओं की मैं पूजा करता हूँ। 1। इसी प्रकार ‘संवौषट्’ पद के द्वारा बुलाकर, ‘ठः ठः’ पद के द्वारा ठहराकर, तथा ‘वषट्’ के द्वारा अपने निकट करके हम नंदीश्वरद्वीप के जिनेंद्रों की पूजा करते हैं।
- पूजा में अंतरंग भावों की प्रधानता
धवला 9/4, 1,1/8/7 ण ताव जिणो सगवंदणाए परिणयाणं चेव जीवाणं पावस्स पणासओ, वीयरायत्तस्साभावप्पसंगादो। ...परिसेसत्तणेण जिणपरिणयभावो च पावपणासओ त्ति इच्छियव्वो, अण्णहा कम्म-क्खयाणुववत्तीदो। = जिन देव वंदन... जीवों के पाप के विनाशक नहीं हैं, क्योंकि ऐसा होने पर वीतरागता के अभाव का प्रसंग आवेगा। ...तब पारिशेष रूप से जिन परिणत भाव और जिनगुण परिणाम को पाप का विनाशक स्वीकार करना चाहिए।
- जिनपूजा का फल निर्जरा व मोक्ष
भगवती आराधना/746, 750 एया वि सा समत्था जिणभत्ती दुग्गइं णिवारेण। पुण्णाणि य पूरेदु आसिद्धिः परंपरसुहाणं। 746। बीएण विणा सस्सं इच्छदि सो वासमब्भएण विणा। आराधणमिच्छंतो आरा-धणभत्तिमकरंतो। 750। = अकेली जिनभक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है, इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है और मोक्ष-प्राप्ति होने तक इससे इंद्रपद, चक्रवर्तीपद, अहमिंद्रपद और तीर्थंकरपद के सुखों की प्राप्ति होती है। 746। आराधनारूप भक्ति न करके ही जो रत्नत्रय सिद्धिरूप फल चाहता है वह पुरुष बीज के बिना धान्य प्राप्ति की इच्छा रखता है, अथवा मेघ के बिना जलवृष्टि की इच्छा करता है। 750। ( भगवती आराधना/755 ), ( रयणसार/12-14 ); ( भावपाहुड़ टीका/8/132 पर उद्धृत); ( वसुनंदी श्रावकाचार/489-493 )।
भावपाहुड़/ मूल/153 जिणवरचरणंबुरुहं णमंति जे परमभत्तिराएण। ते जम्मवेलिमूलं खणंति वरभावसत्थेण। 153। = जे पुरुष परम भक्ति से जिनवर के चरणकूं नमें हैं ते श्रेष्ठ भावरूप शस्त्रकरि संसाररूप वेलि का जो मूल मिथ्यात्व आदिकर्म ताहिं खणैं है।
मूलाचार/506 अरहंतणमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण। 506। = जो विवेकी जीव भाव पूर्वक अरहंत को नमस्कार करता है वह अति शीघ्र समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। 506। ( कषायपाहुड़ 1/1/ गाथा 2/9), ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/79/100 पर उद्धृत)।
कषायपाहुड़ 1/1/9/2 अरहंतणमोक्कारो संपहियबंधादो असंखेज्जगुणकम्मक्खयकारओ त्ति। = अरहंत नमस्कार तत्कालीन बंध की अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा का कारण है। ( धवला 10/4,2,4,66/289/4 )। धवला 6/1,9 -9,22/गाथा 1/428 दर्शनेन जिनेंद्राणां पापसंघातकुंजरम्। शतधा भेदमायाति गिरिर्वज्रहतो यथा। धवला 6/1,9-9,22/427/9 जिणबिंबदसंणेण णिधत्तणिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदंसणादो। = जिनेंद्रों के दर्शन से पाप संघात रूपी कुंजर के सौ टुकड़े हो जाते हैं, जिस प्रकार कि वज्र के आघात से पर्वत के सौ टुकड़े हो जाते हैं। 1। जिन बिंब के दर्शन से निधत्त और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्म कलाप का क्षय देखा जाता है।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/10/42 नाममात्रकथया परात्मनो भूरिजन्मकृतपापसंक्षयः। 42। = परमात्मा के नाममात्र की कथा से ही अनेक जन्मों के संचित्त किये पापों का नाश होता है।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/6/14 प्रपश्यंति जिनं भक्त्या पूजयंति स्तुवंति ये। ते च दृश्याश्च पूज्याश्च स्तुत्याश्च भुवनत्रये। 14। = जो भव्य प्राणी भक्ति से जिन भगवान् का पूजन, दर्शन और स्तुति करते हैं वे तीनों लोकों में स्वयं ही दर्शन, पूजन और स्तुति के योग्य हो जाते हैं अर्थात् स्वयं भी परमात्मा बन जाते हैं।
सागार धर्मामृत/2/32 दृक्पूतमपि यष्टारमर्हतोऽभ्युदयश्रियः। श्रयंत्यहंपूर्विकया, किं पुनर्व्रतभूषितम्। 32। = अर्हंत भगवान् की पूजा के माहात्म्य से सम्यग्दर्शन से पवित्र भी पूजक को पूजा, आज्ञा, आदि उत्कर्षकारक संपत्तियाँ ‘मैं पहले, मैं पहले’ इस प्रकार ईर्ष्या से प्राप्त होती हैं, फिर व्रत सहित व्यक्ति का तो कहना ही क्या है। 32।
देखें धर्म - 7.9 (दान, पूजा आदि सम्यक् व्यवहारधर्म कर्मों की निर्जरा तथा परंपरा से मोक्ष का कारण है।)
- पूजा करना श्रावक का नित्य कर्तव्य है
- पूजा निर्देश व मूर्ति पूजा
- एक जिन व जिनालय की वंदना से सबकी वंदना हो जाती है
कषायपाहुड़ 1/1,1/§87/112/5 अणंतेसु जिणेसु एयवंदणाए सव्वेसिं पि वंदणुववत्तीदो। ...एगजिणवंदणाफलेण समाणफलत्तादो सेसजिणवंदणा फलवंता तदो सेसजिणवंदणासु अहियफलाणुवलंभादो एक्कस्स चेव वंदणा कायव्वा, अणंतेसु जिणेसु अक्कमेण छदुमत्थुपजोगपडतीए विसेसरूवाए असंभवादो वा एक्कस्सेव जिणस्स वंदणा कायव्वा त्ति ण एसो वि एयंतग्गहो कायव्वो; एयंतावहारणस्स सव्वहा दुण्णयत्तप्पसंगादो। = एक जिन या जिनालय की वंदना करने से सभी जिन या जिनालय की वंदना हो जाती है। प्रश्न - एक जिन की वंदना का जितना फल है शेष जिनों की वंदना का भी उतना ही फल होने से शेष जिनों की वंदना करना सफल नहीं है। अतः शेष जिनों की वंदना में फल अधिक नहीं होने के कारण एक ही जिन की वंदना करनी चाहिए। अथवा अनंत जिनों में छद्मस्थ के उपयोग की एक साथ विशेषरूप प्रवृत्ति नहीं हो सकती, इसलिए भी एक जिन की वंदना करनी चाहिए। उत्तर - इस प्रकार का एकांताग्रह भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार का निश्चय करना दुर्नय है।
- एक की वंदना से सबकी वंदना कैसे होती है
कषायपाहुड़/1/1,1/§86-87/111-112/5 एक्कजिण-जिणालय-वंदणा ण कम्मक्खयं कुणइ, सेसजिण-जिणालय-चासण...। §86। ण ताव पक्खवाओ अत्थि; एक्कं चेव जिणं जिणालयं वा वंदामि त्ति णियमा-भावादो। ण च सेसजिणजिणालयाणं णियमेण वंदणा ण कया चेव; अणंतणाण-दंसण-विरिय-सुहादिदुवारेण एयत्तमावण्णेसु अणंतेसु जिणेसु एयवंदणाए सव्वेसिं पि वंदणुववत्तीदो। §87। = प्रश्न - एक जिन या जिनालय की वंदना कर्मों का क्षय नहीं कर सकती है, क्योंकि इससे शेष जिन और जिनालयों की आसादना होती है? उत्तर - एक जिन या जिनालय की वंदना करने से पक्षपात तो होता नहीं है, क्योंकि वंदना करने वाले के ‘मैं एक जिन या जिनालय की वंदना करूँगा अन्य की नहीं’ ऐसा प्रतिज्ञा रूप नियम नहीं पाया जाता है। तथा वंदना करने वाले ने शेष जिन और जिनालयों की वंदना नहीं की ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अनंत ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख आदि के द्वारा अनंत जिन एकत्व को प्राप्त हैं। इसलिए उनमें गुणों की अपेक्षा कोई भेद नहीं है अतएव एक जिन या जिनालय की वंदना से सभी जिन या जिनालय की वंदना हो जाती है।
- देव व शास्त्र की पूजा में समानता
सागार धर्मामृत/2/44 ये यजंते श्रुतं भक्त्या, ते यजंतेऽंजसा जिनम्। न किंचिदंतरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयोः। 44। = जो पुरुष भक्ति से जिनवाणी को पूजते हैं, वे पुरुष वास्तव में जिन भगवान् को ही पूजते हैं, क्योंकि सर्वज्ञदेव जिनवाणी और जिनेंद्रदेव में कुछ भी अंतर नहीं करते हैं। 44।
- साधु व प्रतिमा भी पूज्य है
बोधपाहुड़/मूल/17 तस्य य करइ पणामं सव्वं पुज्जं च विणयवच्छल्लं। जस्स य दंसण णाणं अत्थि ध्रुवं चेयणा भावो। 17। = ऐसे जिनबिंब अर्थात् आचार्य कूँ प्रणाम करो, सर्व प्रकार पूजा करो, विनय करो, वात्सल्य करो, काहैं तैं-जाकैं ध्रुव कहिये निश्चयतैं दर्शन ज्ञान पाइये है बहुरि चेतनाभाव है।
बोधपाहुड़/ टीका/17/84/9 जिनबिंबस्य जिनबिंबमूर्तेराचार्यस्य प्रणामं नमस्कारं पंचांगमष्टांग वा कुरुत। चकारादुपाध्यायस्य सर्वसाधोश्च प्रणामं कुरुत तयोरपि जिनबिंबस्वरूपत्वात्। ...सर्वां पूजामष्टविधमर्चनं च कुरुत यूयमिति, तथा विनय... वैयावृत्यं कुरुत यूयं।... चकारात्पाषाणादिघाटितस्य जिनबिंबस्य पंचामृतैः स्नपनं, अष्टविधैः पूजाद्रव्यैश्च पूजनं कुरुत यूयं। = जिनेंद्र की मूर्ति स्वरूप आचार्य को प्रणाम, तथा पंचांग वा अष्टांग नमस्कार करो। ...च शब्द से उपाध्याय तथा सर्व साधुओं को प्रणाम करो, क्योंकि वह भी जिनबिंब स्वरूप हैं। ...इन सबकी अष्टविध पूजा, तथा अर्चना करो, विनय, एवं वैयावृत्य करो। ...चकार से पाषाणादि से उकेरे गये जिनेंद्र भगवान् के बिंब का पंचामृत से अभिषेक करो और अष्टविध पूजा के द्रव्य से पूजा करो, भक्ति करो। (और भी देखें पूजा - 2.1)।
देखें पूजा - 1.4 आकारवान व निराकार वस्तु में जिनेंद्र भगवान् के गुणों की कल्पना करके पूजा करनी चाहिए।
देखें पूजा - 2.1 (पूजा करना श्रावक का नित्य कर्तव्य है।)
- साधु की पूजा से पाप नाश कैसे हो सकता है
धवला 9/4, 1,1/11/1 होदु णाम सयलजिणणमोक्कारो पावप्पणासओ, तत्थ सव्वगुणाणमुवलंभादो। ण देसजिणाणभेदेसु तदणुवलंभादो त्ति। ण, सयलजिणेसु व देसजिणेसु तिण्हं रयणाणमुवलंभादो। ...तदो सयल-जिणणमोक्कारो व्व देसजिणणमोक्कारो वि सव्वकम्मक्खयकारओ त्ति दट्ठव्वो। सयलासयलजिणट्ठियतिरयणाणं ण समाणत्तं। ...संपुण्णतिरणकज्जमसंपुण्णतिरयणाणि ण करेंति, असमणत्तादो त्ति ण, णाण-दंसण-चरणाणमुप्पणसमाणत्तुवलंभादो। ण च असमाणाणं कज्जं असमाणमेव त्ति णियमो अत्थि, संपुण्णग्गिया कीरमाणदाह-कज्जस्स तदवयवे वि उवलंभादो, अभियघडसएण कीरमाण णिव्विसीकरणादि कज्जस्स अमियस्स चलुवे वि उवलंभादो वा। = प्रश्न - सकल जिन-नमस्कार पाप का नाशक भले ही हो, क्योंकि उनमें सब गुण पाये जाते हैं किंतु देशजिनों को किया गया नमस्कार पाप प्रणाशक नहीं हो सकता, क्योंकि इनमें वे सब गुण नहीं पाय जाते? उत्तर - नहीं, क्योंकि सकलजिनों के समान देशजिनों में भी तीन रत्न पाये जाते हैं। ...इसलिए सकलजिनों के नमस्कार के समान देशजिनों का नमस्कार भी सब कर्मों का क्षयकारक है, ऐसा निश्चय करना चाहिए। प्रश्न - सकलजिनों और देशजिनों में स्थित तीन रत्नों की समानता नहीं हो सकती... क्योंकि संपूर्ण रत्नत्रय का कार्य असंपूर्ण रत्नत्रय नहीं करते, क्योंकि वे असमान हैं। उत्तर - नहीं, क्योंकि ज्ञान, दर्शन और चारित्र के संबंध में उत्पन्न हुई समानता उनमें पायी जाती है। और असमानों का कार्य असमान ही हो ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि संपूर्ण अग्नि के द्वारा किया जानेवाला दाह कार्य उसके अवयव में भी पाया जाता है, अथवा अमृत के सैकड़ों घड़ों से किया जानेवाला निर्विषीकरणादि कार्य चुल्लू भर अमृत में भी पाया जाता है।
- देव तो भावों में है मूर्ति में नहीं
परमात्मप्रकाश/मूल/0/123 *1 देउ ण देउले णवि सिलए णवि लिप्पइ णवि चित्ति। अखउ णिरंजुण णाणमउ सिउ संठिउ सम-चित्ति। 123। = आत्मदेव देवालय में नहीं है, पाषाण की प्रतिमा में भी नहीं है, लेप में नहीं है, चित्राम की मूर्ति में भी नहीं है। वह देव अविनाशी है, कर्म अंजन से रहित है, केवलज्ञान कर पूर्ण है, ऐसा निज परमात्मा समभाव में तिष्ठ रहा है। 123। ( योगसार (योगेंदुदेव)/43-44 )
योगसार (योगेंदुदेव)/42 तिथहिं देवलि देउ णवि इम सुइकेवलि वुत्तु। देहा-देवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरुतु। 42 । = श्रुतकेवली ने कहा कि तीर्थों में, देवालयों में देव नहीं हैं, जिनदेव तो देह-देवालय में विराजमान हैं। 42।
बोधपाहुड़/टीका/162-302 पर उद्धृत - न देवो विद्यते काष्ठ न पाषाणे न मृण्मये। भावेषु विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणं। 1। भावविहूणउ जीव तुहं जइ जिणु बहहि सिरेण। पत्थरि कमलु कि निप्पजइ जइ सिंचहि अमिएण। 2। = काष्ठ की प्रतिमा में, पाषाण की प्रतिमा में अथवा मिट्टी की प्रतिमा में देव नहीं है। देव तो भावों में है। इसलिए भाव ही कारण है। 1। हे जीव! यदि भाव रहित केवल शिर से जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार करता है तो वह निष्फल है, क्योंकि क्या कभी अमृत से सींचने पर भी कमल पत्थर पर उत्पन्न हो सकता है। 2।
देखें पूजा - 1.5 (निश्चय से आत्मा ही पूज्य है।)
- फिर मूर्ति को क्यों पूजते हैं
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/160/13 अर्हदादयो भव्यानां शुभोपयोगकारणतामुपायंति। तद्वदेतान्यपि तदीयानि प्रतिबिंबानि। ...यथा...स्वपुत्रसदृशदर्शनं पुत्रस्मृतेरालंबनं। एवमर्हदादिगुणानुस्मरणनिबंधनं प्रतिबिंबं। तथानुस्मरणं अभिनवाशुभप्रकृतेः संवरणे, ...क्षममिति सकलाभिमतपुरुषार्थ सिद्धिहेतुतया उपासनीयानीति। = जैसे अर्हदादि भव्यों को शुभोपयोग उत्पन्न करने में कारण हो जाते हैं, वैसे उनके प्रतिबिंब भी शुभोपयोग उत्पन्न करते हैं। जैसे - अपने पुत्र के समान ही दूसरे का सुंदर पुत्र देखने से अपने पुत्र की याद आती है। इसी प्रकार अर्हदादि के प्रतिबिंब देखने से अर्हदादि के गुणों का स्मरण हो जाता है, इस स्मरण से नवीन अशुभ कर्म का संवरण होता है। ... इसलिए समस्त इष्ट पुरुषार्थ की सिद्धि करने में, जिन प्रतिबिंब हेतु होते हैं, अतः उनकी उपासना अवश्य करनी चाहिए।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/300/511/15 चेदियभत्ता य चैत्यानि जिनसिद्धप्रति-बिंबानि कृत्रिमाकृत्रिमाणि तेषु भक्ताः। यथा शत्रूणां मित्राणां वा प्रतिकृतिदर्शनाद्द्वेषो रागश्च जायते। यदि नाम उपकारोऽनुपकारो वा न कृतस्तया प्रतिकृत्या तत्कृतापकारस्योपकारस्य वा अनुसरणे निमित्ततास्ति तद्वज्जैनसिद्धगुणाः अनंतज्ञानदर्शनसम्यक्त्ववीतरागत्वादयस्तत्र यद्यपि न संति, तथापि तद्गुणानुस्मरणं संपादयंति सादृश्यात्तच्च गुणानुस्मरणं अनुरागात्मकं ज्ञानदर्शने संनिधापयति। ते च संवरनिर्जर महत्यौ संपादयतः। तस्माच्चैत्यभक्तिमुपयोगिनीं कुरुत। = हे मुनिगण! आप अर्हंत और सिद्ध की अकृत्रिम और कृत्रिम प्रतिमाओं पर भक्ति करो। शत्रुओं अथवा मित्रों की फोटो अथवा प्रतिमा दीख पड़ने पर द्वेष और प्रेम उत्पन्न होता है। यद्यपि उस फोटो ने उपकार अथवा अनुपकार कुछ भी नहीं किया है, परंतु वह शत्रुकृत उपकार और मित्रकृत उपकार का स्मरण होने में कारण है। जिनेश्वर और सिद्धों के अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, सम्यग्दर्शन, वीतरागादिक गुण यद्यपि अर्हत्प्रतिमा में और सिद्ध प्रतिमा में नहीं हैं, तथापि उन गुणों का स्मरण होने में वे कारण अवश्य होती हैं, क्योंकि अर्हत् और सिद्धों का उन प्रतिमाओं में सादृश्य है। यह गुण-स्मरण अनुरागस्वरूप होने से ज्ञान और श्रद्धान को उत्पन्न करता है, और इनसे नवीन कर्मों का अपरिमित संवर और पूर्व से बँधे हुए कर्मों की महानिर्जरा होती है। इसलिए आत्म स्वरूप की प्राप्ति होने में सहायक चैत्य भक्ति हमेशा करो। ( धवला 9/4,1,1/8/4 ); ( अनगारधर्मामृत/9/15 )।
- एक प्रतिमा में सर्व का संकल्प
रत्नकरंड श्रावकाचार/पं. सदासुख/119/173/3
एक तीर्थंकरकै हू निरुक्ति द्वारै चौबीस का नाम संभवै है। तथा एक हजार आठ नामकरि एक तीर्थंकर का सौधर्म इंद्र स्तवन किया है, तथा एक तीर्थंकर के गुणनि के द्वारे असंख्यात नाम अनंतकालतैं अनंत तीर्थंकर के हो गये हैं। ...तातैं हूँ एक तीर्थंकर में एक का भी संकल्प अर चौबीस का भी संकल्प संभवै है। ...अर प्रतिमा कै चिह्न है सो ... नामादिक व्यवहार के अर्थि हैं। अर एक अरहंत परमात्मा स्वरूपकरि एक रूप है अर नामादि करि अनेक स्वरूप है। सत्यार्थ ज्ञानस्वभाव तथा रत्नत्रय रूप करि वीतराग भावकरि पंच परमेष्ठी रूप ही प्रतिमा जाननी।
- पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर फण लगाने का विधि निषेध
रत्नकरंड श्रावकाचार/पं. सदासुख/23/39/10
तिनके (पद्मावती के) मस्तक ऊपर पार्श्वनाथ स्वामी का प्रतिबिंब अर ऊपर फणनि का धारक सर्प का रूप करि बहुत अनुराग करि पूजैं हैं, सो परमागमतैं जानि निर्णय करो। मूढलोकनिं का कहिवी योग्य नाहीं।
चर्चा समाधान/चर्चा नं.70
- प्रश्न - पार्श्वनाथजी के तपकाल विषै धरणेंद्र पद्मावती आये मस्तक ऊपर फण का मंडप किया। केवलज्ञान समय रहा नाहीं। अब प्रतिमा विषैं देखिये। सो क्यों कर संभवै?उत्तर - जो परंपरा सौं रीति चली आवै सो अयोग्य कैसे कही जावै।
- बाहुबलि की प्रतिमा संबंधी शंका समाधान
चर्चा समाधान/शंका नं. 69
= प्रश्न - बाहुबलि जी की प्रतिमा पूज्य है कि नहीं? उत्तर - जिनलिंग सर्वत्र पूज्य है। धातु में, पाषाण में जहाँ है तहाँ पूज्य है। याही तैं पाँचों परमेष्ठी की प्रतिमा पूज्य है।
- एक जिन व जिनालय की वंदना से सबकी वंदना हो जाती है
- पूजायोग्य द्रव्य विचार
- अष्ट द्रव्य से पूजा करने का विधान
तिलोयपण्णत्ति/3/223-226 भिंगारकलसदप्पणछत्तत्तयचमरपहुदिदव्वेहिं। पूजंति फलिहदंडोवमाणवरवारिधारेहिं। 223। गोसीरमलयचंदण-कुंकुमपंकेहिं परिमलिल्लेहिं। मुत्ताहल पूंजेहिं स लीए तंदुलेहिं सयलेहिं। 224। वरविविहकुसुममालासएहिं धूवंगरंगगंघेहिं। अमयादो मुहुरेहिं णाणाविहदिव्वभवखेहिं। 225। धूवेहिं सुगंधेहिं रयणपईवेहिं दित्तकरणेहिं। पक्केहिं फणसकदलीदाडिमदक्खादिय-फलेहिं। 226। = वे देव झारी, कलश, दर्पण, तीन छत्र और चामरादि द्रव्यों से, स्फटिक मणिमय दंड के तुल्य उत्तम जलधाराओं से, सुगंधित गोशीर, मलय, चंदन, और कुंकुम के पंकों से, मोतियों के पुंजरूप शालिधान्य के अखंडित तंदुलों से, जिनका रंग और गंध फैल रहा है ऐसी उत्तमोत्तम विविध प्रकार की सैकड़ों मालाओं से; अमृत से भी मधुर नाना प्रकार के दिव्य नैवेद्यों से, सुगंधित धूपों से, प्रदीप्त किरणों से युक्त रत्नमयी दीपकों से, और पके हुए कटहल, केला दाडिम एवं दाख इत्यादि फलों से पूजा करते हैं। 223-226। ( तिलोयपण्णत्ति/5/104-111; 7/49; 5/586 )।
धवला 8/3,42/92/3 चरु-वलि-पुप्फ-फल-गंधधूवदीवादीहि सगभत्तिप-गासो अच्चणा णाम। = चरु, बलि, पुष्प, फल, गंध, धूप और दीप आदिकों से अपनी भक्ति प्रकाशित करने का नाम अर्चना है। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/5/117 )।
वसुनंदी श्रावकाचार/420-421 ....अक्खयचरु-दीवेहि-य धूवेहिं फलेहिं विविहेहिं। 420। बलिवत्तिएहिं जावारएहिं य सिद्धत्थपण्णरुक्खेहिं। पुव्वुत्तु-वयरणेहि य रएज्जपुज्जं सविहवेण। 421। = (अभिषेक के पश्चात्) अक्षत - चरु, दीप से, विविध धूप और फलों से, बलि वर्तिकों से अर्थात् पूजार्थ निर्मित अगरबत्तियों से, जवारकों से, सिद्धार्थ (सरसों) और पर्ण वृक्षों से तथा पूर्वोक्त (भेरी, घंटादि) उपकरणों से पूर्ण वैभव के साथ या अपनी शक्ति के अनुसार पूजा रचे। 411-421। (विशेष देखें वसुनंदी श्रावकाचार (425-441) ; ( सागार धर्मामृत/2/25,31 ); ( बोधपाहुड़/ टीका/17/85/20)।
- अष्ट द्रव्य पूजा व अभिषेक का प्रयोजन व फल
वसुनंदी श्रावकाचार/483-492 जलधारणिक्खेवेण पावमलसोहणं हवे णिय। चंदणवेवेण णरो जावइ सोहग्गसंपण्णो। 483। जायइ अक्खयणिहि-रयणसामियो अक्खएहि अक्खोहो। अक्खीणलद्धिजुत्तो अक्खयसोक्खं च पावेइ। 484। कुसुमेहिं कुसेसयवयणु तरुणीजणजयण कुसुमवरमाला। बलएणच्चियदेहो जयइ कुसुमाउहो चेव। 485। जायइ णिवि-ज्जदाणेण सत्तिगो कंति-तेय संपण्णो। लावण्णजलहिवेलातरंगसंपा-वियसरीरो। 486। दीवेहिं दीवियासेसजीव-दव्वाइतच्चसब्भावो। सब्भावजणियकेवलपईवतेएण होइ णरो। 487। धूवेण सिसिरयर-धवलकित्तिधवलियजयत्तओ पुरिसो। जायइ फलेहि संपत्तपरम-णिव्वाणसोक्खफलो। 488। घंटाहिं घंटसद्दाउलेसु पवरच्छराणमज्झम्मि। संकीडइ सुरसंघायसेविओ वरविमाणेसु। 489। छत्तेहिं एयछत्तं भुंजइ पुहवी सवत्तपरिहीणो। चामरदाणेण तहा विज्जिज्जइ चमरणिवहेहिं। 490। अहिसेयफलेण णरो अहिसिंचिज्जइ सुदंसण-स्सुवरिं खीरोयजलेण सुरिंदप्पसुहदेवेहिं भत्तीए। 491। विजयपडाएहिं णरो संगाममुहेसु विजइओ होइ। छक्खंडविजयणाहो णिप्पडिवक्खो जसस्सी य। 499। = पूजन के समय नियम से जिन भगवान के आगे जलधारा के छोड़ने से पापरूपी मैल का संशोधन होता है। चंदन रस के लेप से मनुष्य सौभाग्य से संपन्न होता है। 483। अक्षतों से पूजा करनेवाला मनुष्य अक्षय नौ निधि और चौदह रत्नों का स्वामी चक्रवर्ती होता है, सदा अक्षोभ और रोग शोक रहित निर्भय रहता है, अक्षीण लब्धि से संपन्न होता है, और अंत में अक्षय मोक्ष सुख को पाता है। 484। पुष्पों से पूजा करनेवाला मनुष्य कमल के समान सुंदर मुखवाला, तरुणीजनों के नयनों से और पुष्पों की उत्तम मालाओं के समूह से समर्चित देह वाला कामदेव होता है। 485। नैवेद्य के चढ़ाने से मनुष्य शक्तिमान, कांति और तेज से संपन्न, और सौंदर्य रूपी समुद्र की वेलावर्ती तरंगों से संप्लावित शरीरवाला अर्थात् अति सुंदर होता है। 486। दीपों से पूजा करनेवाला मनुष्य, सद्भावों के योग से उत्पन्न हुए केवलज्ञानरूपी प्रदीप के तेज से समस्त जीव द्रव्यादि तत्त्वों के रहस्य को प्रकाशित करनेवाला अर्थात् केवलज्ञानी होता है। 487। धूप से पूजा करनेवाला मनुष्य चंद्रमा के समान त्रैलोक्यव्यापी यशवाला होता है। फलों से पूजा करनेवाला मनुष्य परम निर्वाण का सुखरूप फल पानेवाला होता है। 488। जिन मंदिर में घंटा समर्पण करनेवाला पुरुष घटाओं के शब्दों से व्याप्त श्रेष्ठ विमानों में सुर समूह से सेवित होकर अप्सराओं के मध्य क्रीड़ा करता है। 489। छत्र प्रदान करने से मनुष्य, शत्रु रहित होकर पृथ्वी को एक-छत्र भोगता है। तथा चमरों के दान से चमरों के समूहों द्वारा परिवीजित किया जाता है। जिन भगवान् के अभिषेक करने से मनुष्य सुदर्शन मेरु के ऊपर क्षीर-सागर के जल से सुरेंद्र प्रमुख देवों के द्वारा अभिषिक्त किया जाता है। 491। जिन मंदिर में विजय पताकाओं के देने से संग्राम के मध्य विजयी होता है तथा षट्खंड का निष्प्रतिपक्ष स्वामी और यशस्वी होता है। 492।
सागार धर्मामृत/2/30-31 वार्धाराः रजसः शमाय पदयोः, सम्यक्प्रयुक्तार्हतः सद्गंधस्तनुसौरभाय विभवा-च्छेदाय संत्यक्षताः। यप्टुः स्रग्दिविजस्रजे चरुरुमा-स्वाम्याय दीपस्त्विवे। धूपो विश्वदृगुत्सवाय फलमिष्टार्थाय चार्घाय सः। 30। ...नीराद्यैश्चारुकाव्यस्फुरदनणुगुण-ग्रामरज्यन्मनोभि-र्भव्योऽर्चंदृग्विशुद्धिं प्रबलयतु यया, कल्पते तत्प-दाय। 31। = अरहंत भगवान् के चरण कमलों में विधि पूर्वक चढ़ाई गयी जल की धारा पूजक के पापों के नाश करने के लिए, उत्तम चंदन शरीर में सुगंधि के लिए, अक्षत विभूति की स्थिरता के लिए, पुष्पमाला मंदरमाला की प्राप्ति के लिए, नैवेद्य लक्ष्मीपतित्व के लिए, दीप क्रांति के लिए, धूप परम सौभाग्य के लिए, फल इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए और वह अर्घ अनर्घपद की प्राप्ति के लिए होता है। 30। ...सुंदर गद्य पद्यात्मक काव्यों द्वारा आश्चर्यान्वित करनेवाले बहुत से गुणों के समूह से मन को प्रसन्न करनेवाले जल चंदनादिक द्रव्यों द्वारा जिनेंद्रदेव को पूजनेवाला भव्य सम्यग्दर्शन की विशुद्धि को पुष्ट करे है, जिस दर्शनविशुद्धि के द्वारा तीर्थंकरपद की प्राप्ति के लिए समर्थ होता है। 31।
- पंचामृत अभिषेक निर्देश व विधि
सागार धर्मामृत/6/22 आश्रुत्य स्नपनं विशोध्य तदिलां, पीठयां चतुष्कुंभयुक कोणायां सकुशश्रियां जिनपतिं न्यस्तांतमाप्येष्टदिक्-नीराज्या-म्बुरसाज्यदुग्धदधिभिः, सिक्त्वा कृतोद्वर्तनं, सिक्तं कुंभजलैश्च गंधसलिलै: संपूज्य नुत्वा स्मरेत्। 22। = अभिषेक की प्रतिज्ञा कर अभिषेक स्थान को शुद्ध करके चारों कोनों में चार कलश सहित सिंहासन पर जिनेंद्र भगवान् को स्थापित करके आरती उतारकर इस दिशा में स्थित होता हुआ जल, इक्षुरस, घी, दुग्ध, और दही के द्वारा अभिषिक्त करके चंदनानुलेपन युक्त तथा पूर्व स्थापित कलशों के जल से तथा सुगंध युक्त जल से अभिषिक्त जिनराज की अष्टद्रव्य से पूजा करके स्तुति करके जाप करे। 22। ( बोधपाहुड़/ टीका/17/85/19) (देखें सावद्य - 7)।
- सचित्त द्रव्यों आदि से पूजा का निर्देश
- विलेपन व सजावट आदि का निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/5/105 कुंकुमकप्पूरेहिं चंदणकालागरुहिं अण्णेहिं। ताणं विले-वणाइं ते कुव्वंते सुगंधेहिं। 105। = वे इंद्र कुंकुम, कर्पूर, चंदन, कालागुरु और अन्य सुगंधित द्रव्यों से उन प्रतिमाओं का विलेपन करते हैं। 105। ( वसुनंदी श्रावकाचार/427 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/5/115 ); (देखें सावद्य - 7)।
वसुनंदी श्रावकाचार/398-400 पडिचीणणेत्तपट्टाइएहिं वत्थेहिं बहुविहेहिं तहा। उल्लोविऊण उवरिं चंदोवयमणिविहाणेहिं। 398। संभूसिऊण चंदद्ध-चंदबुव्वुयवरायलाईहिं। मुत्तादामेहिं तहा किंकिणिजालेहिं विवि-हेहिं। 399। छत्तेहिं चामरेहिं य दप्पण-भिंगार तालवट्टेहिं। कलसेहिं पुप्फवडिलिय-सुपइट्ठयदीवणिवहेहिं। 400। = (प्रतिमा की प्रतिष्ठा करते समय मंडप में चबूतरा बनाकर वहाँ पर) चीनपट्ट (चाइना सिल्क) कोशा आदि नाना प्रकार के नेत्राकर्षक वस्त्रों से निर्मित चंद्रकांत मणि तुल्य चतुष्कोण चंदोवे को तानकर, चंद्र, अर्धचंद्र, बुद्बु, वराटक (कौड़ी) आदि से तथा मोतियों की मालाओं से, नाना प्रकार की छोटी घंटियों के समूह से, छत्रों से, चमरों से, दर्पणों से भृंगार से, तालवृंतों से, कलशों से, पुष्प पटलों से सुप्रतिष्ठक (स्वस्तिक) और दीप समूहों से आभूषित करें। 398-340।
- हरे पुष्प व फलों से पूजन
तिलोयपण्णत्ति /5/107, 111 सयवंतगा य चंपयमाला पुण्णायणायपहुदीहिं। अच्चंति ताओ देवा सुरहीहिं कुसुममालाहिं। 107। दक्खादाडिम-कदलीणारंगयमाहुलिंगचूदेहिं। अण्णेहिं वि पक्केहिं फलेहिं पूजंति जिणणाहं। 111। = वे देव सेवंती, चंपकमाला, पुंनाग और नाग प्रभृति सुगंधित पुष्पमालाओं से उन प्रतिमाओं की पूजा करते हैं। 107। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/5/115 ); ( बोधपाहुड़/ टीका/9/78/ पर उद्धृत), (देखें सावद्य - 7)। दाख, अनार, केला, नारंगी, मातुलिंग, आम तथा अन्य भी पके हुए फलों से वे जिननाथ की पूजा करते हैं। 111। ( तिलोयपण्णत्ति/3/226 )
पद्मपुराण/11/345 जिनेंद्रः प्रापितः पूजाममरैः कनकांबुजैः। द्रुमपुष्पा-दिभिः किं न पूज्यतेऽस्मद्विधैर्जनैः। 345। = देवों ने जिनेंद्र भगवान् की सुवर्ण कमल से पूजा की थी, तो क्या हमारे जैसे लोग उनकी साधारण वृक्षों के फूलों से पूजा नहीं करते हैं? अर्थात् अवश्य करते हैं। 345।
महापुराण/17/252 परिणतफलभेदैरांरजंबूककपित्थैः पनसलकुचमोचै-र्दाडिमैर्मातुल्ंगिैः। क्रमुकरुचिरगुच्छैर्नालिकेरैश्च रम्यैः गुरुचरण-सपर्यामातनोदाततश्रीः। 252। महापुराण/78/409 तद्विलोक्य समुत्पन्नभक्तिः स्नानविशुद्धिभाक्। तत्सरो-वरसंभूतप्रसवैर्बहुभिर्जिनान्। 499। (अभ्यर्च्य) = जिनकी लक्ष्मी बहुत विस्तृत है ऐसे राजा भरत ने पके हुए मनोहर आम, जामुन, कैंथा, कटहल, बड़हल, केला, अनार, बिजौरा, सुपारियों के सुंदर गुच्छे और नारियलों से भगवान के चरणों की पूजा की थी। 252। (जिन मंदिर के स्वयमेव किवाड़ खुल गये) यह अतिशय देख, जीवंधर कुमार की भक्ति और भी बढ़ गयी, उन्होंने उसी सरोवर में स्नान कर विशुद्धता प्राप्त की और फिर उसी सरोवर में उत्पन्न हुए बहुत से फूल ले जिनेंद्र भगवान की पूजा की। 409।
वसुनंदी श्रावकाचार/431-441 मालइ कयंब-कणयारि-चंपयासोय-वउल-तिलएहिं। मंदार-णायचंपय-पउमुप्पल-सिंदुवारेहिं। 431। कणवीर-मल्लियाहिं कचणारमचकुंद-किंकराएहिं। सुरवणज जूहिया-पारिजातय-जासवण-टगरेहिं। 432। सोवण्ण-रुप्पि-मेहिय-मुत्तादामेहिं बहुवियप्पेहिं। जिणपय-पंकयजुयलं पुज्जिज्ज सुरिंदसममहियं। 433। जंबीर-मोच-दाडिम-कवित्थ-पणस-णालिएरेहिं। हिंताल-ताल-खज्जूर-णिंबु-नारंग-चारेहिं। 440। पूईफल-तिंदु-आमलय-जंबु-विल्लाइसुरहि-मिट्ठेहिं। जिणपयपुरओ रयणं फलेहि कुज्जा सुपक्केहिं। 441। = मालती, कदंब, कर्णकार (कनैर), चंपक, अशोक, बकुल, तिलक, मंदार, नागचंपक, पद्म (लाल कमल) उत्पल (नील कमल) सिंदूवार (वृक्ष विशेष या निर्गुंडी) कर्णवीर (कर्नेर), मल्किा, कचनार, मचकुंद, किंकरात (अशोक वृक्ष) देवों के नंदन वन में उत्पन्न होनेवाले कल्पवृक्ष, जुही, पारिजातक, जपाकुसुम और तगर (आदि उत्तम वृक्षों से उत्पन्न) पुष्पों से, तथा सुवर्ण चाँदी से निर्मित फलों से और नाना प्रकार के मुक्ताफलों की मालाओं के द्वारा, सौ जाति के इंद्रों से पूजित जिनेंद्र के पद-पंकज युगल को पूजे। 431-433। जंबीर (नींबू विशेष), मोच (केला), अनार, कपित्थ (कवीट या कैंथ), पनस, नारियल, हिंताल, ताल, खजूर, निंबू, नारंगी, अचार (चिरौंजी), पूगीफल (सुपारी), तेंदु, आँवला, जामुन, विल्वफल आदि अनेक प्रकार के सुगंधित मिष्ट और सुपक्व फलों से जिन चरणों की पूजा करे। 440-441। ( रत्नकरंड श्रावकाचार/- पं.सदासुख दास/119/170/9)।
सागार धर्मामृत/2/40/116 पर फुटनोट
-पूजा के लिए पुष्पों की आवश्यकता पड़ती है। इससे मंदिर में वाटिकाएँ होनी चाहिए।
- भक्ष्य नैवेद्य से पूजन
तिलोयपण्णत्ति/5/108 बहुविहरसवंतेहिं वरभक्खेहिं विचित्तरूवेहिं। अमय-सरिच्छेहिं सुरा जिणिंदपडिमाओ महयंति। 108। = ये देवगुण बहुत प्रकार के रसों से संयुक्त, विचित्र रूप वाले और अमृत के सदृश उत्तम भोज्य पदाथो से (नैवेद्य से) जिनेंद्र प्रतिमाओं की पूजा करते हैं। 108। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/5/116 )।
वसुनंदी श्रावकाचार/434-435 दहि-दुद्धसप्पिमिस्सेहिं कलमभत्तेहिं बहुप्पया-रेहिं। तेवट्ठि-विंजणेहिं य बहुविहपक्कण्णभेएहिं। 434। रुप्पय-सुवण्ण-कंसाइथालि णिहिएहिं विविहभक्खेहिं। पुज्जं वित्थारिज्जो भत्तीए जिणिंदपयपुरओ। 435। = चाँदी, सोना और काँसे आदि की थालियों में रखे हुए दही, दूध और घी से मिले हुए नाना प्रकार के चावलों के भात से, तिरेसठ प्रकार के व्यंजनों से तथा नाना प्रकार की जातिवाले पकवानों से और विविध भक्ष्य पदाथो से भक्ति के साथ जिनेंद्र चरणों के सामने पूजन करे। 434-435।
रत्नकरंड श्रावकाचार/ पं. सदासुख/119/169/17
कोई अष्ट प्रकार सामग्री बनाय चढ़ावै, केई सूका जव, गेहूँ, चना, मक्का, बाजरा, उड़द, मूँग, मोठ इत्यादि चढ़ावै, केई रोटी, राबड़ी, बावड़ी के पुष्प, नाना प्रकार के हरे फल, तथा दाल-भात अनेक प्रकार के व्यंजन चढ़ावैं। केई मेवा, मोतिनी के पुष्प, दुग्ध, दही, घी, नाना प्रकार के घेवर, लाडू, पेड़ा, बर्फी, पूड़ी, पूवा इत्यादि चढ़ावै हैं।
- विलेपन व सजावट आदि का निर्देश
- सचित्त व अचित्त द्रव्य पूजा का समन्वय
तिलोयपण्णत्ति/3/225 ....। अमयादो मुहुरेहिं णाणाविहदिव्वभक्खेहिं। 225। = अमृत से भी मधुर दिव्य नैवेद्यों से। 225।
नियमसार/975 दिव्वफलपुष्फहत्था.....। 975। = दिव्य फल पुष्पादि पूजन द्रव्य हस्त विषैं धारैं हैं। (अर्थात् देवों के द्वारा ग्राह्य फल पुष्प दिव्य थे।)
रत्नकरंड श्रावकाचार/ पं. सदासुख दास/119/170/9
यहाँ जिनपूजन सचित्त-द्रव्यनितैं हूँ अर अचित्त द्रव्यनितैं हूँ... करिये है। दो प्रकार आगम की आज्ञा-प्रमाण सनातन मार्ग है अपने भावनि के अधीन पुण्यबंध के कारण हैं। यहाँ ऐसा विशेष जानना जो इस दुषमकाल में विकलत्रय जीवनि की उत्पत्ति बहुत है। ...तातैं ज्ञानी धर्मबुद्धि हैं ते तो... पक्षपात छांड़ि जिनेंद्र का प्ररूपण अहिंसा धर्म ग्रहण करि जेता कार्य करो तेता यत्नाचार रूप जीव-विराधना टालि करो इस कलिकाल में भगवान का प्ररूपण नयविभाग तो समझे नाहीं... अपनी कल्पना ही तै यथेष्ट प्रवर्ते हैं।
- निर्माल्य द्रव्य के ग्रहण का निषेध
नियमसार/32 जिणुद्धारपत्तिट्ठा जिणपूजातित्थवंदण विसयं। धणं जो भुंजइ सो भुंजइ जिणदिट्ठं णरयगयदुक्खं। 32। = श्री जिन मंदिर का जीर्णोद्धार, जिनबिंब प्रतिष्ठा, मंदिर प्रतिष्ठा, जिनेंद्र भगवान की पूजा, जिन यात्रा, रथोत्सव और जिन शासन के आयतनों की रक्षा के लिए प्रदान किये हुए दान को जो मनुष्य लोभवश ग्रहण करे, उससे भविष्यत् में होनेवाले कार्य का विध्वंस कर अपना स्वार्थ सिद्ध करे तो वह मनुष्य नरकगामी महापापी है।
राजवार्तिक/6/22/4/528/23 चैत्यप्रदेशगंधमाल्यधूपादिमोषण.... अशुभस्य नाम्न आस्रवः। राजवार्तिक/6/2/1/531/33 देवतानिवेद्यानिवेद्यग्रहण (अंतरायस्यास्रवः)। =- मंदिर के गंध माल्य धूपादि का चुराना, अशुभ नामकर्म के आस्रव का कारण है।
- देवता के लिए निवेदित किये या अनिवेदित किये गये द्रव्य का ग्रहण अंतराय कर्म के आस्रव का कारण है। ( तत्त्वसार/4/56 )।
- अष्ट द्रव्य से पूजा करने का विधान
- पूजा-विधि
- पूजा के पाँच अंग होते हैं
रत्नकरंड श्रावकाचार/पं.सदासुखदास/119/173/15
व्यवहार में पूजन के पाँच अंगनि की प्रवृत्ति देखिये हैं - आह्वानन 1; स्थापना 2; संनिधिकरण 3; पूजन 4; विसर्जन 5।
- पूजा दिन में तीन बार करनी चाहिए
सागार धर्मामृत/2/25 ...भक्त्या ग्रामगृहादिशासनविधा दानं त्रिसंध्याश्रया सेवा स्वेऽपि गृहेऽर्चनं च यमिनां, नित्यप्रदानानुगम्। 25। = शास्त्रोक्त विधि से गाँव, घर, दुकान आदि का दान देना, अपने घर में भी अरिहंत की तीनों संध्याओं में की जानेवाली तथा मुनियों को भी आहार दान देना है बाद में जिसके, ऐसी पूजा नित्यमह पूजा कही गयी है। 25।
- रात्रि को पूजा करने का निषेध
लाठी संहिता/6/187 तत्रार्द्ध रात्र के पूजां न कुर्यादर्हतामपि। हिंसाहेतोरवश्यं स्याद्रात्रौ पूजाविवर्जनम्। 187। = आधी रात के समय भगवान् अरहंत देव की पूजा नहीं करनी चाहिए क्योंकि आधी रात के समय पूजा करने से हिंसा अधिक होती है। रात्रि में जीवों का संचार अधिक होता है, तथा यथोचित रीति से जीव दिखाई नहीं पड़ते, इसलिए रात्रि में पूजा करने का निषेध किया है ( रत्नकरंड श्रावकाचार/पं. सदासुख दास/119/171/1 )।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/6/280/2
पाप का अंश बहुत पुण्य समूह विषै दोष के अर्थ नाहीं, इस छलकरि पूजा प्रभावनादि कार्यनिविषैं रात्रिविषैं दीपकादिकरि वा अनंतकायादिक का संग्रह करि वा अयत्नाचार प्रवृत्तिकरि हिंसादिक रूप पाप तौ बहुत उपजावैं, अर स्तुति भक्ति आदि शुभ परिणामनिविषैं प्रवर्तै नाहीं, वा थोरे प्रवर्ते, सो टोटा घना नफा थोरा वा नफा किछू नाहीं। ऐसा कार्य करने में तो बुरा ही दीखना होय।
- चावलों में स्थापना करने का निषेध
वसुनंदी श्रावकाचार/385 हुंडावसप्पिणोए विइया ठवणा ण होदि कायव्वा। लोए कुलिंगमइमोहिए जदो होइ संदेहो। 385। = हुंडावसर्पिणी काल में दूसरी असद्भाव स्थापना पूजा नहीं करना चाहिए, क्योंकि, कुलिंग-मतियों से मोहित इस लोक में संदेह हो सकता है। ( रत्नकरंड श्रावकाचार/ पं.सदासुखदास/119/173/7)।
रत्नकरंड श्रावकाचार/ पं. सदासुख दास/119/172/21
स्थापना के पक्षपाती स्थापना बिना प्रतिमा का पूजन नाहीं करें। ....बहुरि जो पीत तंदुलनिकी अतदाकार स्थापना ही पूज्य है तो तिन पक्षपातीनिके धातु पाषाण का तदाकार प्रतिबिंब स्थापन करना व्यर्थ है तथा अकृत्रिम चैत्यालय के प्रतिबिंब अनादि निधन है जिनमें हू पूज्यपना नाहीं रहा।
- स्थापना के विधि-निषेध का समन्वय
रत्नकरंड श्रावकाचार/ पं. सदासुख/119/173/24
भावनिके जोड़ के अर्थि आह्वाननादिक में पुष्प क्षेपण करिये है, पुष्पनि कूँ प्रतिमा नहीं जानै। ए तो आह्वाननादिकनिका संकल्पतैं पुष्पांजलि क्षेपण करिये है। पूजन में पाठ रच्या होय तो स्थापना कर ले नहीं होय तो नाहीं करै। अनेकांतिनिकै सर्वथा पक्ष नाहीं।
- पूजा के साथ अभिषेक व नृत्य गान आदि का विधान
तिलोयपण्णत्ति/8/584-587 खीरद्धिसलिलपूरिदकंचणकलसेहिं अट्ठ सहस्सेहिं। देवा जिणाभिसेयं महाविभूदीए कुव्वंति। 584। वज्जंतेसु मद्दलजयघंटापडहकालादीसुं दिव्वेसुं तूरेसुं ते तिणपूजं पकुव्वंति। 585। भिंगारकलसदप्पणछत्तत्तयचमर-पहुदिदव्वेहिं। पूजं कादूण तदो जलगंधादीहि अच्चंति। 586। तत्तो हरिसेण सुरा णाणाविहणाडयाइं दिव्वाइं। बहुरसभावजुदाइं णच्चंति विचित्त भंगीहिं। 587। = उक्त (वैमानिक) देव क्षीरसागर के जल से पूर्ण एक हजार आठ सुवर्ण कलशों के द्वारा महाविभूति के साथ जिनाभिषेक करते हैं। 584। मर्दल, जयघटा, पहट और काहल आदिक दिव्य वादित्रों के बजते रहते वे देव जिनपूजा को करते हैं। 585। उक्त देव भृंगार, कलश, दर्पण, तीन छत्र और चामरादि द्रव्यों से पूजा करके पश्चात् जल, गंधादिक से अर्चना करते हैं। 586। तत्पश्चात् हर्ष से देव विचित्र शैलियों से बहुत रस व भावों से युक्त दिव्य नाना प्रकार के नाटकों को करते हैं। उत्तम रत्नों से विभूषित दिव्य कन्याएँ विविध प्रकार के नृत्यों को करती हैं। अंत में जिनेंद्र भगवान् के चरितों का अभिनय करती हैं। (5/114); ( तिलोयपण्णत्ति/3/218-227 ); ( तिलोयपण्णत्ति/5/104-116 ); (और भी देखें पूजा - 4.3)।
- द्रव्य व भाव दोनों पूजा करनी योग्य हैं
अमितगति श्रावकाचार/12/15 द्वेधापि कुर्वतः पूजां जिनानां जितजन्मनाम्। न विद्यते द्वये लोके दुर्लभं वस्तु पूजितम्। 15। = जीता है संसार जिनने ऐसे जिन देवनि की द्रव्य भावकरि दोऊ ही प्रकार पूजा कौं करता जो पुरुष ताकौं इसलोक परलोक विषैं उत्तम वस्तु दुर्लभ नाहीं। 15।
- पूजा विधान में विशेष प्रकार का क्रियाकांड
महापुराण/38/71-75 तत्रार्चनाविधै चक्रत्रयं छत्रत्रयान्वितम्। जिनार्चा-मभितः स्थाप्य समं पुण्याग्निभिस्त्रिभिः। 71। त्रयोऽग्नयोऽर्हद्गण-भृच्छेषकेवलिनिर्वृतौ। ये हुतास्ते प्रणेतव्याः सिद्धार्चावेद्युपाश्रयाः। 72। तेष्वर्हदिज्याशेषांशैः आहुतिर्मंत्रपूर्विका। विधेया शुचिभि-र्द्रव्यैः पुंस्पुत्रीत्पत्तिकाम्यया। 73। तंमंत्रास्तु यथाम्नायं वक्ष्यंते-ऽन्यत्र पर्वणि। सप्तधा पीठिकाजातिमंत्रादिप्रविभागतः। 74। विनियोगस्तु सर्वासु क्रियास्वेषां मतो जिनैः। अव्यामोहादतस्तज्ज्ञैः प्रयोज्यास्त उपासकैः। 75। = इस आधान (गर्भाधान) क्रिया की पूजा में जिनेंद्र भगवान् की प्रतिमा के दाहिनी ओर तीन चक्र, बाँयीं ओर तीन छत्र और सामने तीन पवित्र अग्नि स्थापित करें। 71। अर्हंत भगवान् के (तीर्थंकर) निर्वाण के समय, गणधर देवों के निर्वाण के समय और सामान्य केवलियों के निर्वाण के समय जिन अग्नियों में होम किया गया था ऐसी तीन प्रकार की पवित्र अग्नियाँ सिद्ध प्रतिमा की वेदी के समीप तैयार करनी चाहिए। 72। प्रथम ही अर्हंतदेव की पूजा कर चुकने के बाद शेष बचे हुए द्रव्य से पुत्र उत्पन्न होने की इच्छा कर मंत्रपूर्वक उन तीन अग्नियों में आहुति करनी चाहिए। 73। उन आहुतियों के मंत्र पीठिका मंत्र, जातिमंत्र आदि के भेद से सात प्रकार के हैं। 74। श्री जिनेंद्र देव ने इन्हीं मंत्रों का प्रयोग समस्त क्रियाओं में (पूजा विधानादि में) बतलाया है। इसलिए उस विषय के जानकार श्रावकों को व्यामोह (प्रमाद) छोड़कर उन मंत्रों का प्रयोग करना चाहिए। 75। (और भी देखो यज्ञ में आर्ष यज्ञ); ( महापुराण/47/347-354 )।
महापुराण/40/80-81 सिद्धार्च्चासंनिधौ मंत्रां जपेदष्टोत्तरं शतम्। गंधपुष्पाक्षतार्घादिनिवेदनपुरः सरम्। 80। सिद्धविद्यस्ततो मंत्रैरेभिः कर्म समाचरेत्। शुक्लवासाः शुचिर्यज्ञोपवीत्यव्यग्रमानसः। 81। = सिद्ध भगवान् की प्रतिमा के सामने पहले गंध, पुष्प, अक्षत और अर्घ आदि समर्पण कर एक सौ आठ बार उक्त मंत्रों का जप करना चाहिए। 8॥ तदनंतर जिसे विद्याएँ सिद्ध हो गयी हैं, जो सफेद वस्त्र पहने हैं, पवित्र है, यज्ञोपवीत धारण किये हुए है, जिसका चित्त आकुलता से रहित है ऐसा द्विज इन मंत्रों से समस्त क्रियाएँ करे। 81।
देखें अग्नि - 3 गार्हपत्य आदि तीन अग्नियों का निर्देश व उनका उपयोग।
- गृहस्थों को पूजा से पूर्व स्नान अवश्य करना चाहिए
यशस्तिलक चंपू/328 स्नानं विधाय विधिवत्कृतदेवकार्यः। = विवेकी पुरुष को स्नान करने के पश्चात् शास्त्रोक्त विधि से ईश्वर-भक्ति (पूजा-अभिषेकादि) करनी चाहिए। ( रत्नकरंड श्रावकाचार/पं. सदासुख दास/119/168/19 )।
चर्चा समाधान/शंका नं. 73
केवलज्ञान की साक्षात्पूजा विषैं न्होन नाहीं, प्रतिमा की पूजा न्हवन पूर्वक ही कही है। (और भी देखें स्नान )।
- पूजा के पाँच अंग होते हैं
पुराणकोष से
गृहस्थ के चार प्रकार के धर्मों में एक धर्म । यह अभिषेक के पश्चात् जल, गंध, अक्षत, पुष्प, अमृतपिंड (नैवेद्य), दीप, धूप और फल द्रव्यों से की जाती है । याग, यज्ञ, क्रतु, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह इसके अपरनाम है । महापुराण 67.193 यह चार प्रकार की होती है । सदार्चन, चतुर्मुख, कल्पद्रुम और आष्टाह्निक । इनके अतिरिक्त एक ऐंद्रध्वज पूजा भी होती है जिसे इंद्र किया करता है । पूजा के और भी भेद हैं जो इन्हीं चार पूजा-भेदों में अंतर्भूत हो जाते हैं । महापुराण 8.173-178, 13.201, 23.106, 38.26-33, 41. 104, 67.193