वीर्य
From जैनकोष
- वीर्य
स.सि./६/६/३२३/१२ द्रव्यस्य स्वशक्तिविशेषो वीर्यम्। = द्रव्य की अपनी शक्ति विशेष वीर्य है। (रा.वा./६/६/६/ ५१२/७)।
ध.१३/५, ५, १३८/३९०/३ वीर्यं शक्तिरित्यर्थः। = वीर्य का अर्थ शक्ति है।
मोक्ष पञ्चाशत/४७ आत्मनो निर्विकारस्य कृतकृत्यत्वधीश्च या। उत्साहो वीर्यमिति तत्कीर्तितं मुनिपुंगवैः।४७। = निर्विकार आत्मा का जो उत्साह या कृतकृत्यत्वरूप बुद्धि, उसे ही मुनिजन वीर्य कहते हैं।
स.सा./आ./परि./शक्ति नं.६ स्वरूपनिर्वर्तनसामर्थ्यरूपा वीर्यशक्तिः। = स्वरूप (आत्मस्वरूप की) रचना की सामर्थ्य रूप वीर्य शक्ति है।
- वीर्य के भेद
न.च.वृ./१४ की टिप्पणी-क्षयोपशमिकी शक्तिः क्षायिकीं चेति शक्तेर्द्वौ भेदौ। = क्षायोपशमिकी व क्षायिकी के भेद से शक्ति दो प्रकार है।
- क्षायिक वीर्य का लक्षण
स.सि./२/४/१५४/१० वीर्यान्तरायस्य कर्मणोऽत्यन्तक्षयादाविर्भूतमनन्तवीर्यं क्षयिकम्। = वीर्यान्तराय कर्म के अत्यन्त क्षय से क्षायिक अनन्त वीर्य प्रगट होता है। (रा.वा./२/४/६/१०६/९)।
रा.वा./२/४/७/१५४/१५ केवलज्ञानरूपेण अनन्तवीर्यवृति। = सिद्धभगवान् में केवलज्ञानरूप से अनन्त वीर्य की वृत्ति है।
प.प्र./टी./१/६१/६१/१२ केवलज्ञानविषये अनन्तपरिच्छित्तिशक्तिरूपमनन्तवीर्यं भण्यते। = केवलज्ञान के विषय में अनन्त पदार्थों को जानने की जो शक्ति है वही अनन्तवीर्य है। (द्र. सं./टी./१४/४२/११)।
- वीर्यगुण जीव व अजीव दोनों में होता है
गो.क./जी.प्र./१६/११/१० वीर्यं तु जीवाजीवगतमिति। = वीर्य जीव तथा अजीव दोनों में पाया जाता है।
- वीर्य सर्व गुणों का सहकारी है
द्र.सं./टी./५/१५/७ छद्मस्थानां वीर्यान्तरायक्षयोपशमः केवलिनां तु निरवशेषक्षयो ज्ञानचारित्राद्युत्फ्त्तौ सहकारी सर्वत्र ज्ञातव्यः। = छद्मस्थानों के तो वीर्यान्तराय का क्षयोपशम और केवलियों के उसका सर्वथा क्षय ज्ञान चारित्र आदि की उत्पत्ति में सर्वत्र सहकारी कारण है।
- सिद्धों में अनन्त वीर्य क्या–दे. दान/२।