वेद
From जैनकोष
व्यक्ति में पाये जाने वाले स्त्रीत्व, पुरुषत्व व नपुंसकत्व के भाव वेद कहलाते हैं । यह दो प्रकार का है-भाव व द्रव्यवेद । जीव के उपरोक्त भाव तो भाववेद हैं और शरीर में स्त्री, पुरुष व नपुंसक के अंगोपांग विशेष द्रव्यवेद हैं । द्रव्यवेद जन्म पर्यन्त नहीं बदलता पर भाववेद कषाय विशेष होने के कारण क्षणमात्र में बदल सकता है । द्रव्य वेद से पुरुष को ही मुक्ति सम्भव है पर भाववेद से तीनों को मोक्ष हो सकता है ।
- [[ भेद, लक्षण व तद्गत शंका समाधान ]]
- [[भेद, लक्षण व तद्गत शंका समाधान#1.1 | वेद सामान्य का लक्षण ]]
- [[भेद, लक्षण व तद्गत शंका समाधान#1.1.1 | लिंग के अर्थ में । ]]
- [[भेद, लक्षण व तद्गत शंका समाधान#1.1.2 | शास्त्र के अर्थ में । ]]
- [[भेद, लक्षण व तद्गत शंका समाधान#1.1.1 | लिंग के अर्थ में । ]]
- [[भेद, लक्षण व तद्गत शंका समाधान#1.2 | वेद के भेद । ]]
- स्त्री आदि वेदों के लक्षण ।–दे. वह-वह नाम ।
- [[भेद, लक्षण व तद्गत शंका समाधान#1.3 | द्रव्य व भाववेद के लक्षण । ]]
- साधु के द्रव्यभाव लिंग ।–दे. लिंग ।
- [[भेद, लक्षण व तद्गत शंका समाधान#1.4 | अपगत वेद का लक्षण । ]]
- [[भेद, लक्षण व तद्गत शंका समाधान#1.5 | वेद के लक्षणों सम्बन्धी शंकाएँ । ]]
- [[भेद, लक्षण व तद्गत शंका समाधान#1.1 | वेद सामान्य का लक्षण ]]
- [[ वेद निर्देश ]]
- [[वेद निर्देश#2.1 | वेद मार्गणा में भाववेद इष्ट है ।]]
- [[वेद निर्देश#2.2 | वेद जीव का औदयिक भाव है ।]]
- वेद कषाय रागरूप है ।–दे. कषाय/४ ।
- जीव को वेद ब्यपदेश ।–दे. जीव/२/३ ।
- वेद व मैथुन संज्ञा में अन्तर ।–दे. संज्ञा ।
- [[वेद निर्देश#2.3 | अपगत वेद कैसे सम्भव है । ]]
- [[वेद निर्देश#2.4 | तीनों वेदों की प्रवृत्ति क्रम से होती है । ]]
- तीनों वेदों के बन्ध योग्य परिणाम ।–दे. मोहनीय/३/६ ।
- वेद मार्गणा में कर्मों का बंध उदय सत्त्व–दे. वह-वह नाम ।
- पुरुषादि वेद कर्मों का बन्ध उदय सत्त्व–दे. वह-वह नाम ।
- मार्गणा स्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम ।–दे. मार्गणा ।
- [[वेद निर्देश#2.1 | वेद मार्गणा में भाववेद इष्ट है ।]]
- [[ तीनों वेदों के अर्थ में प्रयुक्त शब्दों का परिचय ]]
- [[तीनों वेदों के अर्थ में प्रयुक्त शब्दों का परिचय #3.1 | स्त्री पुरुष व नपुंसक का प्रयोग ।]]
- [[तीनों वेदों के अर्थ में प्रयुक्त शब्दों का परिचय #3.2 | तिर्यंच व तिर्यंचनी का प्रयोग । ]]
- [[तीनों वेदों के अर्थ में प्रयुक्त शब्दों का परिचय #3.3 | तिर्यंच व योनिमती तिर्यंच का प्रयोग । ]]
- [[तीनों वेदों के अर्थ में प्रयुक्त शब्दों का परिचय #3.4 | मनुष्य मनुष्यणी व योनिमती मनुष्य का प्रयोग । ]]
- [[तीनों वेदों के अर्थ में प्रयुक्त शब्दों का परिचय #3.5 | उपरोक्त शब्दों के सैद्धान्तिक अर्थ । ]]
- [[तीनों वेदों के अर्थ में प्रयुक्त शब्दों का परिचय #3.1 | स्त्री पुरुष व नपुंसक का प्रयोग ।]]
- [[ द्रव्य व भाववेद में परस्पर सम्बन्ध ]]
- [[द्रव्य व भाववेद में परस्पर सम्बन्ध#4.1 | दोनों के कारणभूत कर्म भिन्न हैं । ]]
- [[द्रव्य व भाववेद में परस्पर सम्बन्ध#4.2 | दोनों कहीं समान होते हैं और कहीं असमान । ]]
- [[द्रव्य व भाववेद में परस्पर सम्बन्ध#4.3 | चारों गतियों की अपेक्षा दोनों में समानता और असमानता । ]]
- [[द्रव्य व भाववेद में परस्पर सम्बन्ध#4.4 | भाववेद में परिवर्तन सम्भव है । ]]
- [[द्रव्य व भाववेद में परस्पर सम्बन्ध#4.5 | द्रव्यवेद में परिवर्तन सम्भव नहीं । ]]
- [[द्रव्य व भाववेद में परस्पर सम्बन्ध#4.1 | दोनों के कारणभूत कर्म भिन्न हैं । ]]
- साधु के द्रव्य व भावलिंग सम्बन्धी चर्चा व समन्वय ।–दे. लिंग ।
- [[ गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व ]]
- वेद मार्गणा में गुणस्थान मार्गणास्थान आदि रूप २० प्ररूपणाएँ ।–दे. सत् ।
- वेद मार्गणा के स्वामी सम्बन्धी सत् संख्या क्षेत्रकाल भाव व अल्पबहुत्व रूप ८ प्ररूपणाएँ ।–दे. वह-वह नाम ।
- [[गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व #5.1 | नरक में केवल नपुंसकवेद होता है । ]]
- [[गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व #5.2 | भोगभूमिज तिर्यंच मनुष्यों में तथा सभी देवों में दो ही वेद होते हैं । ]]
- [[गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व #5.3 | कर्मभूमिज विकलेंद्रिय व सम्मूच्छम तिर्यंचों में केवल नपुंसकवेद होता है । ]]
- [[गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व #5.4 | कर्मभूमिज संज्ञी असंज्ञी तिर्यंच व मनुष्य तीनों वेद वाले होते हैं । ]]
- [[गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व #5.5 | एकेन्द्रियों में वेदभाव की सिद्धि । ]]
- [[गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व #5.6 | चींटी आदि नपुंसकवेदी ही कैसे ।]]
- [[गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व #5.7 | विग्रहगति में अव्यक्त वेद होता है । ]]
- वेद मार्गणा में गुणस्थान मार्गणास्थान आदि रूप २० प्ररूपणाएँ ।–दे. सत् ।
- [[ वेदमार्गणा में सम्यक्त्व व गुणस्थान ]]
- [[वेदमार्गणा में सम्यक्त्व व गुणस्थान#6.1 | सम्यक्त्व व गुणस्थान स्वामित्व निर्देश । ]]
- [[वेदमार्गणा में सम्यक्त्व व गुणस्थान#6.2 | अप्रशस्त वेदों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि अत्यन्त अल्प होते हैं । ]]
- सम्यग्दृष्टि मरकर स्त्रियों में भी उत्पन्न नहीं होते हैं ।–दे. जन्म/३ ।
- मनुष्यणी में १४ गुणस्थान कैसे ।–दे. वेद/७/६ ।
- ऊपर के गुणस्थानों में वेद का उदय कैसे ।–दे. संज्ञा ।
- [[वेदमार्गणा में सम्यक्त्व व गुणस्थान#6.3 | अप्रशस्त वेद के साथ आहारक आदि ॠद्धियों का निषेध । ]]
- [[वेदमार्गणा में सम्यक्त्व व गुणस्थान#6.1 | सम्यक्त्व व गुणस्थान स्वामित्व निर्देश । ]]
- [[ स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध ]]
- [[स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध#7.1 | स्त्री को तद्भव से मोक्ष नहीं । ]]
- [[स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध#7.2 | फिर भी भवान्तर में मुक्ति की अभिलाषा से जिनदीक्षा लेती है ।]]
- [[स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध#7.3 | तद्भव मुक्तिनिषेध में हेतु उसका चंचल व प्रमादबहुल स्वभाव ।]]
- [[स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध#7.4 | तद्भव मुक्तिनिषेध में हेतु सचेलता ।]]
- स्त्री को भी कदाचित् नग्न रहने की आज्ञा ।–दे. लिंग/१/४ ।
- [[स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध#7.5 | आर्यिका को महाव्रती कैसे कहते हो । ]]
- [[स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध#7.6 | फिर मनुष्यणी को १४ गुणस्थान कैसे कहे गये । ]]
- [[स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध#7.7 | स्त्री के सवस्त्रलिंग में हेतु । ]]
- [[स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध#7.8 | मुक्तिनिषेध में हेतु उत्तम संहननादि का अभाव ।]]
- मुक्ति निषेध में हेतु शुक्लध्यान का अभाव ।–दे. शुक्लध्यान /३ ।
- [[स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध#7.9 | स्त्री को तीर्थंकर कहना युक्त नहीं । ]]
- [[स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध#7.1 | स्त्री को तद्भव से मोक्ष नहीं । ]]