व्यंतर देव निर्देश
From जैनकोष
१. व्यंतरदेव निर्देश १. व्यंतरदेव का लक्षण स.सि./४/११/२४३/१० विविधदेशान्तराणि येषां निवासास्ते ‘व्यन्तराः’ इत्यन्वर्था सामान्यसंज्ञेयमष्टानामपि विक-ल्पानाम् । = जिनका नाना प्रकार के देशों में निवास है, वे व्यन्तरदेव कहलाते हैं । यह सामान्य संज्ञा सार्थक है जो अपने आठों ही भेदों में लागू है । (रा.वा./४/११/१/२५७/१५) । २. व्यंतरदेवों के भेद त.सू./४/११ व्यन्तराः किंनरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः ।११। = व्यन्तरदेव आठ प्रकार के हैं–किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच (ति.प./६/२५); (त्रि.सा./२५१) । ३. व्यंतरों के आहार व श्वास का अन्तराल ति.प./६/८८-८९ पल्लाउजुदे देवे कालो असणस्स पञ्च दिवसाणिं । दोण्णि च्चिय णादव्वो दसवाससहस्सआउम्मि ।८८। पलिदोवमाउजुत्तो पञ्चमुहुत्तेहिं एदि उस्सासो । सो अजुदाउजुदे वेंतरदवम्मि अ सत्त पाणेहिं ।८९। = पल्यप्रमाण आयु से युक्त देवों के आहार का काल ५ दिन और १०,००० वर्ष प्रमाण आयु वाले देवों के आहार का काल दो दिन मात्र जानना चाहिए ।८८। व्यन्तर देवों में जो पल्यप्रमाण आयु से युक्त हैं वे पाँच मुहूर्त्तों में और जो दश हजार प्रमाण आयु से संयुक्त हैं वे सात प्राणों (उच्छ्वास निश्वासपरिमित काल विशेष दे. गणित/I/१/४) में उच्छ्वास को प्राप्त करते हैं ।८९। (त्रि.सा./३०१) । ४. व्यंतरों के ज्ञान व शरीर की शक्ति विक्रिया आदि ति.प./६/गा.अवरा आहिधरित्ती अजुदाउजुदस्स पञ्चकोसाणिं । उक्किट्ठा पण्णासा हेट्ठोवरि पस्समाणस्स ।९०। पलिदोवमाउ जुत्तो वेंतरदेवो तलम्मि उवरिम्मि । अवधीए जोयणाणं एक्कं लक्खं पलोएदि ।९१। दसवास सहस्साऊ एक्कसयं माणुसाण मारेदुं । पोसेदुं पि समत्थो एक्केवको वेंतरो देवो ।९२। पण्णाधियसयदं डप्पमाणविक्खंभबहुलजुत्तं सो । खेत्तं णिय सत्तीए उक्खणिदूणं खवेदि अण्णत्थ ।९३। पल्लट्टदि भाजेहिं छक्खंडाणिं पि एक्कपल्लाऊ । मारेदुं पोसेदुं तेसु समत्थो ठिदं लोयं ।९४। उक्कस्से रूवसदं देवो विकरेदि अजुदमेत्ताऊ । अवरे सगरूवाणिं मज्झिमयं विविहरूवाणि ।९५। ऐसा वेंतरदेवा णियणिय ओहीण जेत्तियं खेत्तं । पूर ति तेत्तियं पि हु पत्तेक्कं विकरणबलेण ।९६। संखेज्जजोयणाणिं संखेज्जाऊ य एक्कसमयेण । जादि असंखेज्जाणिं ताणि असंखेज्जाऊ य ।९७। = नीचे व ऊपर देखने वाले दश हजार वर्ष प्रमाण आयु से युक्त व्यन्तर देवों के जघन्य अवधि का विषय पाँच कोश और उत्कृष्ट ५० कोश मात्र है ।९०। पल्योपमप्रमाण आयु से युक्त व्यन्तर देव अवधिज्ञान से नीचे व ऊपर एक लाख योजन प्रमाण देखते हैं ।९१। दश हजार प्रमाण आयु का धारक प्रत्येक व्यन्तर देव एक सौ मनुष्यों को मारने व पालने के लिए समर्थ है ।९२। वह देव एक सौ मनुष्यों को मारने व पालने के लिए समर्थ है ।९२। वह देव एक सौ पचास धनुषप्रमाण विस्तार व बाहल्य से युक्त क्षेत्र को अपनी शक्ति से उखाड़कर अन्यत्र फेंक सकता है ।९३। एक पल्यप्रमाण आयु का धारक प्रत्येक व्यन्तर देव अपनी भुजाओं से छह खण्डों को उलट सकता है और उनमें स्थित लोगों को मारने व पालने के लिए भी समर्थ है ।९४। दश हजार वर्ष मात्र आयु का धारक व्यंतर देव उत्कृष्ट रूप से सौ रूपों की और जघन्य रूप से सात रूपों की विक्रिया करता है । मध्यमरूप से वह देव सात से ऊपर और सौ से नीचे विविध रूपों की विक्रिया करता है ।९५। बाकी के व्यन्तर देवों में से प्रत्येक देव अपने-अपने अवधिज्ञानों का जितना क्षेत्र है । पेज सं.६११ से ६१५ तक टेबल का मैटर है । पेज सं.६१६ न्या.वि./वृ./१/३४/२५७/१४ अनभिव्यक्तिः अप्रतिपत्तिः । = अप्रतिपत्ति अर्थात् वस्तु के स्वरूप का ज्ञान न होना अनभिव्यक्ति है ।