अवग्रह
From जैनकोष
इन्द्रिय ज्ञानकी उत्पत्तिके क्रममें सर्व प्रथम इन्द्रिय और पदार्थ का सन्निकर्ष होते ही जो एक झलक मात्र सी प्रतीत होती है, उसे अवग्रह कहते हैं। तत्पश्चात् उपयोगकी स्थिरताके कारण ईहा व अवायके द्वारा उसका निश्चय होता है। ज्ञानके ये तीनों अंग बड़े वेगसे बीच जानेके कारण प्रायः प्रतीति गोचर नहीं होते ।
- भेद व लक्षण
- अवग्रह सामान्यका लक्षण।
- अवग्रहके भेद ।
- विशद व अविशद २. अर्थ व व्यंजन
- विशद व अविशद अवग्रहके लक्षण ।
- अर्थ व व्यंजन अवग्रहके लक्षण ।
- अवग्रह निर्देश
- अवग्रह ईहा आदिका उत्पत्ति क्रम - देखे मतिज्ञान ३
- अवग्रह और संशयमें अन्तर।
- अवग्रह अप्रमाण नहीं ।
- अर्थावग्रह व व्यंजनावग्रहमें अन्तर ।
- अर्थावग्रह व व्यंजनाग्रहका स्वामित्व ।
- अप्राप्यकारी तीन इन्द्रियोंमें अवग्रह सिद्धि ।
- प्राप्यकारी व अप्राप्यकारी इन्द्रियाँ। - देखे इन्द्रिय २
- अवग्रह और दर्शनमें अन्तर। - देखे दर्शन २/९
- अवग्रह व ईहामें अन्तर।- देखे अवग्रह २/१/२
- अवग्रह व अवाय में अन्तर।
- भेद व लक्षण
- अवग्रह सामान्यका लक्षण
षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १३/५,५/सू.३७/२४२ ओग्गहे योदाणे साणे अवलंबणा मेहा ।।३७।।
= अवग्रह, अवधान, सान, अवलम्बना और मेधा ये अवग्रहके पर्यायवाची नाम हैं। (इन शब्दोंके अर्थ-देखे वह वह नाम)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या १/१५/१११ विषयविषयिसंनिपातसमनन्तरमाद्यं ग्रहणमवग्रहः विषयविषयिसंनिपाते सति दर्शनं भवति। तदनन्तरमर्थ ग्रहणमवग्रहः।
= विषय और विषयीके सम्बन्धके बाद होनेवाले प्रथम ग्रहणको अवग्रह कहते हैं। विषय और विषयीका सन्निपता होनेपर दर्शन होता है । उसके पश्चात् जो पदार्थ का ग्रहण होता है वह अवग्रह कहलाता है।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या १/२५/१/६०/२); (धवला पुस्तक संख्या १/१,११५/३५४/२); (धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-१,१४/१६/५); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,४५/१४४/५); (कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या १/१-१५/$३०२/३३२/३); (जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार संख्या १३/५७); (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या ३०८/६६३)।
धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,३७/२४२/२ अवगृह्यते अनेन घटाद्यर्था इत्यवग्रहः।
= जिसके द्वारा घटादि पदार्थ जाने जाते हैं वह अवग्रह है।
धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,२३/२१६/१३ विषयविषयिसंपातसमनन्तरमाद्य ग्रहणमवग्रहः। रसादयोऽर्थाः विषयः षडपीन्द्रियाणि विषयिणः, ज्ञानोत्पत्तेः पूर्वावस्था विषयविषयिसंपातः ज्ञानोत्पादनकारणपरिणामविशेषसंतत्युत्पत्त्युपलक्षितः अन्तर्मूहूर्तकालः दर्शनव्यपदेशभाक्। तदनन्तरमाद्यं वस्तुग्रहणमवग्रहः, यथा चक्षुषा घटोऽयं घटोऽयमिति। यत्र घटादिना विना रूपदिशाकारादिविशिष्टं वस्तुमात्रं परिच्छिद्यते ज्ञानेन अनध्यवसायरूपेण तत्राप्यवग्रह एव, अनवगृहीतेऽर्थे ईहाद्यनुत्पत्तेः।
= विषय व विषयीका सम्पात होनेके अनन्तर जो प्रथम ग्रहण होता है, वह अवग्रह है। रस आदिक अर्थ विषय हैं, छहों इन्द्रियाँ विषयी है, ज्ञानोत्पत्तिकी पूर्वावस्था विषय व विषयीका सम्पात है, जो दर्शन नाम से कहा जाता है। यह दर्शन ज्ञानोत्पत्तिके कारणभूत परिणाम विशेषकी सन्ततिकी उत्पत्तिसे उपलक्षित होकर अन्तर्मूहूर्त कालस्थायी है। इसके बाद जो वस्तु का प्रथम ग्रहण होता है वह अवग्रह है। यथा-चक्षुके द्वारा `यह घट है, यह घट है' ऐसा ज्ञान होना अवग्रह है। जहाँ घटादिके बिना रूप, दिशा, और आकार आदि विशिष्ट वस्तुमात्र ज्ञानके द्वारा अनध्यवसाय रूपसे जानी जाती है, वहाँ भी अवग्रह ही है, क्योंकि, अनवगृहीत अर्थमें ईहादि ज्ञानोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है।
जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार संख्या १३/६१ सोदूण देवदेत्ति य सामण्णेण विचाररहिदेण। जस्सुप्पज्जइ बुद्धी अवग्गहं तस्स णिद्दिट्ठं ।।६१।।
= `देवता' इस प्रकार सुनकर जिसके विचार रहित सामान्य से बुद्धि उत्पन्न होती है, उसके अवग्रह निर्दिष्ट किया गया है।
न्यायदीपिका अधिकार २/$११/३१ तत्रेन्द्रियार्थ समवधानसमनन्तरसमुत्थसत्तालोचनान्तरभावो सत्तावान्तरजातिविशिष्टवस्तुग्राही ज्ञानविशेषोऽवग्रहः। यथाऽयं पुरुष इति।
= इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध होने के बाद उत्पन्न हुए सामान्य अवभास (दर्शन) के अन्तर होने वाले और अवान्तर सत्ताजाति से युक्त वस्तु को ग्रहण करनेवाले ज्ञानविशेष को अवग्रह कहतै हैं, जैसे - `यह पुरुष है'।
- अवग्रह के भेद
- विशय अवग्रह व अविशद अवग्रह
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,४५/१४५/३ द्विविधोऽवग्रही विशदाविशदावग्रहभेदेन।
= विशदावग्रह और अविशदावग्रह के भेद से अवग्रह दो प्रकार का है।
- अर्थ व व्यंजन अवग्रह
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,११५/३५४/७ अवग्रहो द्विविधोऽर्थोवग्रहो व्यञ्जनावग्रहश्चेति।
= अवग्रह दो प्रकारका होता है- अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह।
(धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-१,१४/१६/७), (जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार संख्या ११/६५)
गो.जी./जी.प्र/३०७/६६०/७ मतिज्ञानविषयो द्विविधः व्यंजनं अर्थश्चेति।...व्यञ्जनरूपे विषये स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रेः चतुर्भिरिन्द्रियैः अवग्रह एक एवोत्पद्यते नेहादयः। ईहादीनां ज्ञानानां देशसर्वाभिव्यक्तौ सत्यामेव उत्पत्तिसंभवात्।...इतिव्यञ्जनावग्रहश्चत्वार एव।
= मति ज्ञानका विषय दो भेद रूप है-व्यंजन व अर्थ। तहाँ व्यंजन जो अव्यक्त शब्दादि तिनि विषय स्पर्शन, रसन, घ्राण व श्रोत्र इन्द्रियनिकरि केवल अवग्रह हो है, ईहादिक न हो है, जाते ईहादिक तो एक देश वा सर्वदेश व्यक्त भए ही हो है।..तातै च्यार इन्द्रियनिकरिव्यंजनावग्रहके च्यार भेद हैं।
- विशद व अविशद अवग्रह के लक्षण
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,४५/१४५/३ तत्र विशदो निर्णयरूपः अनियमेनेहावायधारणा। प्रत्ययोत्पत्तितिबन्धनः।...अविशदावग्रहो नाम अगृहीतभाषावयोरूपादिविशेषः गृहीतवव्यवहारनिबन्धनपुरुषमात्रसत्त्वादिविशेषः अनियमेनेहाद्युत्पत्तिहेतुः।
= विशद अवग्रह निर्णयरूप होता हुआ अनियमसे ईहा अवाय और धारणा ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है। ...भाषा, आयु व रूपादि विशेषोंको ग्रहण न करके व्यवहार के कारण भूत पुरुषमात्रके सत्त्वादि विशेषको ग्रहण करनेवाला तथा अनियमसे जो ईहा आदिकी उत्पत्तिमें कारण है वह अविशदाग्रह है।
- व्यंजनावग्रह व अर्थावग्रहका लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या १/१८/११७/६ व्यक्तग्रहणात् प्राग्व्यञ्जनाग्रहः व्यक्तग्रहणमर्थावग्रहः।
= व्यक्त ग्रहणसे पहिले पहिले व्यंजनावग्रह होता है और व्यक्त ग्रहणका नाम अर्थावग्रह है।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या १/१८/२/९७/५)
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,११५/पृ./पं. अप्राप्तार्थग्रहणमर्थावग्रहः ३५४/७...प्राप्तार्थ ग्रहणं व्यञ्जनावग्रहः। ।।३५५-१।।...योग्यदेशावस्थितेरेव प्राप्तेरभिधानात् ।।३५७-२।।
= अप्राप्त अर्थके ग्रहण करनेको अर्थावग्रह कहते हैं। (और) प्राप्त अर्थ के ग्रहण करने को व्यंजनावग्रह कहते हैं। इन्द्रियोंके ग्रहण करने के योग्य देशमें पदार्थोंकी अवस्थितिको प्राप्ति कहते हैं।
(धवला पुस्तक संख्या ६/१-९-१,१४/१६/७) (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,४५/१५६/८)
जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार संख्या १३/६६-६७ दूरेण य जं ग्रहणं इंदियणोइंदिएहिं अत्थिक्कं। अत्थावग्गहणाणं णायव्वं तं समासेण ।।६६।। फासित्ता जं गहणं रसफरसणसद्दगंधविसएहिं। वंजणवग्गहणाणं णिद्दिट्ठं तं वियाणाहि ।।६७।।
= दूसरे ही जो चक्षुरादि इन्द्रियों तथा मनके द्वारा विषयोंका ग्रहण होता है उसे सक्षेपसे अर्थावग्रहज्ञान जानना चाहिए ।।६६।। छूकर जो रस, स्पर्श, शब्द और गन्ध विषयका ग्रहण होता है, उसे व्यंजनावग्रह निर्दिष्ट किया गया है ।।६७।।
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ३/३०७/६६०/८ इन्द्रियैः प्राप्तार्थविशेषग्रहणं व्यंजनावग्रहः। तैरप्राप्तार्थविशेषग्रहणं अर्थावग्रहः इत्यर्थः। व्यंञ्जनं-अव्यक्तंशब्दादिजातं इति तत्त्वार्थविवरणेषु प्रोक्तं, कथमनेन व्याख्यानेन सह संगतिमिति चेदुच्यते विगतं-अञ्जनं-अभिव्यक्तिर्यस्य तद्व्यञ्जनं। व्यज्यते म्रक्ष्यते प्राप्यते इति व्यञ्जयनं अञ्जुगतिव्यक्तिम्रक्षणेष्विति व्यक्तिम्रक्षणार्थयोर्ग्रहणात्। शब्दाद्यर्थः श्रोत्रादीन्द्रियेण प्राप्तीऽपियावन्नाभिव्यक्तस्तावद् व्यञ्जनमित्युच्यते...पुनरभिव्यक्तौ सत्यां स एवार्थो भवति।
= जो विषय इन्द्रियनिकरि प्राप्त होई, स्पर्शित होई सो व्यंजन कहिए। जो प्राप्त न होई सो अर्थ कहिए।
प्रश्न - तत्त्वार्थ सूत्रकी टीका विषै तो अर्थ ऐसा कीया है, जो व्यंजन नाम अव्यक्त शब्दादिकका है। इहाँ प्राप्त अर्थको व्यंजन कह्या सो कैसे है? उत्तर-व्यंजन शब्दके दोऊ अर्थ हो हैं। `विगतं अञ्जनंव्यञ्जन' दूर भया है अंजन कहिए व्यक्तभाव जाकै सो व्यंजन कहिए। सो तत्त्वार्थ सूत्रकी टीका विषै तौ इस अर्थका मुख्य ग्रहण किया है। अर `व्यज्यते म्रक्ष्यते प्राप्यते इति व्यंजनं' जो प्राप्त होइ ताकौ व्यंजन कहिए सो इहाँ यहु अर्थ मुख्य ग्रहण कीया है। जातै `अंजु' धातु गति, व्यक्ति, म्रक्षण अर्थ विषै प्रवर्तै है। तातै व्यक्ति अर्थका अर म्रक्षण अर्थका ग्रहण करनेतै करणादिक इन्द्रियनिकरि शब्ददिक अर्थ प्राप्त हुवै भी यावत् व्यक्त न होई, तावत् व्यंजनावग्रह है, व्यक्त भए अर्थावग्ह हो है।
(विशेष देखो आगे अर्थ व व्यंजनावग्रहमें अन्तर)।
- अवग्रह निर्देश
- अवग्रह और संशयमें अन्तर
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/१४/७-१०/६०/२१ अवग्रहे ईहाद्यपेक्षत्वात् संशयानितिवृत्तेः। उच्यते-लक्षणभेदादन्यत्वमग्निजलवत्। ।।८।।...कोऽसौ लक्षणभेदः। उच्यते ।।८।। स्थाणुपुरुषाद्यनेकार्थालम्बनसंनिधानादनेकार्थात्मकः संशयः, एकपुरुषाद्यान्यतमात्मकोऽवग्रहः। स्थाणुपुरुषानेकधर्मानिश्चितात्मकः संशयः, यतो न स्थाणुधर्मान् पुरुषधर्मांश्च निश्चिनोति, अवग्रहस्तु पुरुषाद्यन्यतमैकधर्मनिश्चयात्मकः। स्थाणुपुरुषानेकधर्मापर्युदासात्मकः संशयः यतो न प्रतिनियतान्स्थाणुपुरुष धर्मान् पर्युदस्यति संशयः, अवग्रहः पुनः पर्युदासात्मकः, स ह्यन्यान् ध्रुवादीन् पर्यायान् पर्युदस्य `पुरुषः' इत्येकपर्यायालम्बनः ।।९।। स्यादेतत्-संशयतुल्यऽवग्रहः कुतः। अपर्युदासात्।...तन्न, किं कारणम्। निर्णयविरोधात् संशयस्य। संशयो हि निर्णयविरोधी न त्ववग्रहः निर्णयदर्शनात् ।।१०।।
= प्रश्न-अवग्रहमें ईहाकी अपेक्षा होनेसे करीब-करीब संशयारूपता ही है? उत्तर-अवग्रह और संशयके लक्षण जल और अग्निकी तरह अत्यन्त भिन्न हैं, अतः दोनों जुदे जुदे हैं। इनके लक्षणो में क्या भेद हैं, वही बताते हैं-संशय स्थाणु पुरुष आधि अनेक पदार्थोंमें दोलित रहता है, अनिश्चयात्मक होता है और स्थाणु पुरुषादिमें-से किसीका निराकरण नहीं करता जब कि अवग्रह एक ही अर्थको विषय करता है, निश्चयात्मक है और स्व विशेषमें भिन्न पदार्थोंका निराकरण करता है। सारांश यह संशय निर्णयका विरोधी होता है, अवग्रह नहीं है।
(धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,४५/१४५/९) (न्याय.दी.२/$११/३१)
धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,२३/२१७/८ संशयप्रत्ययः क्वान्तः पतितः। ईहायाम्। कुतः। ईहाहेतुत्वात्। तदपि कुतः। कारणे कार्योंपचारात्। वस्तुतः पुनरवग्रह एव। का ईहा नाम। संशयादूर्ध्वमवायादधस्तात् मध्यावस्थायां वर्तमानः विमर्शात्मकः प्रत्ययः हेत्ववष्टम्भबलेन ससुत्पद्यमानः इहेति भण्यते।
= प्रश्न-संशय प्रत्ययक अन्तर्भाव किस ज्ञान में होता है? उत्तर-ईहामें, क्योंकि वह इहाका कारण है। प्रश्न-यह भी क्यों? उत्तर-क्योंकि कारणमें कार्यका उपचार किया जाता है। वस्तुतः वह संशय प्रत्यय अवग्रह ही है। प्रश्न-ईहाका क्या स्वरूप है? उत्तर-संशयके बाद और अवाय पहले बीचकी अवस्थामें विद्यमान तथा हेतुके अवलम्बनसे उत्पन्न हुए विमर्शरूप प्रत्ययको ईहा कहते हैं।
- अवग्रह अप्रमाण नहीं
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/१५/६/६०/१३ यता चक्षुषि न निर्णयः सत्येव तस्मिन् `किमयं स्थाणुपुराहोस्वित् पुरुषः' इति संशयदर्शनात् तथा अवग्रहेऽपि सति न निर्णय ईहादर्शनात्, ईहायां च न निर्णयः, यतो निर्णयार्थमीहा न त्वीहैव निर्णयः। यश्च निर्णयो न भवति स संशयजातीय इत्यप्रमाण्यमनयोरिति ।।६।। स्यादेतत् न अवग्रह-संशयः। कृतः। अवग्रहवचनात्। यत् उक्तः पुरुषः `पुरुषोऽयम्' इत्यवग्रहः, तस्य `भाषावयोरूपादीविशेषाकांक्षणमीहां' इति।
= प्रश्न-जैसे चक्षु होते हुए संशय होता है अतः उसे निर्णय नहीं कह सकते उसी तरह अवग्रहके होते हुए ईहा देखी जाती है। ईहा निर्णय रूप नहीं है, क्योंकि निर्णयके लिए ईहा है न कि स्वयं निर्णय रूप, और जो स्वयं निर्णय रूप नहीं है वह स्वयं की ही कोटि मे होता है, अतः अवग्रह और ईहाको प्रमाण नहीं कह सकते? उत्तर-अवग्रह संशय नहीं है, क्योंकि `अवग्रह' अर्थात् निश्चय ऐसा कहा गया है। जो कि उक्त पुरुषमें `यह पुरुष है' ऐसा ग्रहण तो अवग्रह है और उसकी भाषा, आयु व रूपादि विशेषोंको जाननेकी इच्छाका नाम ईहा है।
(विशेष देखे अवग्रह २/१)
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,४५/१४५/२ न प्रमाणमवग्रह, तस्य संशयविपर्ययानध्यवसायेष्वन्तर्भावादिति। न अवग्रहस्य द्वैविध्यात्। ...विशदाविशदावग्रहभेदेन। तत्र विशदो निर्णयरूपः।... तत्राविशदावग्रहो नाम अगृहीतभाषावयोरूपादिविशेषः गृहीतव्यवहारनिबन्धनपुरुषमात्रत्त्वादि विशेषः। ...अप्रमाण्यमविशदावग्रहः अनध्यवसायरूपत्वादिति चेन्न अध्यवसितकतिपरयविशेषत्वात्। न विपर्ययरूपत्वादप्रमाणम्. तत्र वैपरीत्यानुपलम्भात्। न विपर्ययज्ञानोत्पादनकत्वादप्रमाणम्, तस्मात्तदुत्पत्तेर्नियमाभावत्। न संशयहेतुत्वादप्रमाणम्, कारणानुगुणकार्यनियमानुपलम्भात्, संशयादप्रमाणात्प्रमाणीभूतनिर्णयप्रत्ययोत्पत्तितोऽनेकान्ताच्च।..ततो गृहीतवस्त्वं शं प्रति अविशदावग्रहस्य प्रमाणण्यमभ्युपगन्तव्यम्, व्यवहारयोग्यत्वात्। व्यवहारायोग्योऽपि अविशदावग्रहाऽस्ति, कथं तस्य प्रमाण्यम्। न, किंचिन्मया दृष्टमिति व्यवहारस्य तत्राप्युपलम्भात्। वास्तवव्यवहारायोग्यत्वं प्रति पुनरप्रमाणम्।
= प्रश्न-(अनिर्णय स्वरूप होनेके कारण) अवग्रह प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होनपर उसका संशय, विपर्यय व अनध्यवसायमें अन्तर्भाव होगा? उत्तर-नहीं, क्योंकि, अवग्रह दो प्रकारका है-विशदावग्रह और अविशदावग्रह। उनमें विशदावग्रह निर्णयरूप होता है और भाषा, आयु व रूपादि विशेषोंको ग्रहण न करके व्यवहारके कारणभूत पुरुषमात्रके सत्त्वादि विशेषको ग्रहण करनेवाला अविशदावग्रह होता है। प्रश्न-अविशदावग्रह अप्रमाण है, क्योंकि वह अनध्यवसाय रूप है? उत्तर-१. ऐसा नहीं है क्योंकि वह कुछ विशेषोंके अध्यवसायसे सहित है। २. उक्त ज्ञान विपर्यकस्वरूप होनेसे भी अप्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, उसमंो विपरीतता नहीं पायी जाती। यदि कहा जाय कि वह चूँकि विपर्यय ज्ञानका उत्पादक है, अतः अप्रमाण है, सो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उससे विपर्ययज्ञानके उत्पन्न होनेका कोई नियम नहीं है। ३. संशयका हेतु होनेसे भी वह अप्रमाण नहीं है, क्योंकि, कारणानुसार कार्यके होनेका नियम नहीं पाया जाता, तथा अप्रमाणभूत संशयसे प्रमाणभूत निर्णय प्रत्ययकी उत्पत्ति होनेसे उक्त हेतु व्यभिचारी भी है। ४. संशयरूप होनेसे भी वह अप्रमाण नहीं है-(देखे अवग्रह २/१) - इस कारण ग्रहण किये गये वस्त्वंशके प्रति अविशदावग्रहको प्रमाण स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि वह व्यवहारके योग्य है। प्रश्न-व्यवहारके अयोग्य भी तो अविशदावग्रह है, उसके प्रमाणता कैसे सम्भव है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, `मैने कुछ देखा है' इस प्रकारका व्यवहार वहाँ भी पाया जाता है। किन्तु वस्तुतः व्यवहारकी अयोग्यताके प्रति वह अप्रमाण है।
- अर्थावग्रह व व्यंजनावग्रहमें अन्तर
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या १/१८/११७ ननु अवग्रहणमुभयत्र तुल्यं तत्र किं कृतोऽयं विशेष। अर्थावग्रहव्यञ्जनावग्रहहयोर्व्यक्ताव्यक्तकृतो विशेषः। कथम्। अभिनवशरावार्द्रीकरणवत्। यथा जलपणद्वित्रासिक्तः सरावोऽभिनवो नार्द्रीभवति, स एव पुनः पुनः सिच्यमानः शनेस्तिम्यति एवं क्षोत्रादिष्विन्द्रियेषु शब्दादिपरिणताः पुद्गला द्वित्रादिसमयेषु गृह्यमाणा न व्यक्तीभवन्ति, पुनः पुनरवग्रहे सति व्यक्तीभवन्ति। अतो व्यक्तग्रहणात्प्राग्व्यञ्जनावग्रहः व्यक्तग्रहणमर्थावग्रहः। ततोऽव्यक्तावग्रहणादीहादयो न भवन्ति।
= प्रश्न-जब कि अवग्रहका ग्रहण दोनों जगह समान है तब फिर इनमें अन्तर किंनिमित्तक है? उत्तर-इनमें व्यक्त व अव्यक्त ग्रहणकी अपेक्षा अन्तर है। प्रश्न-कैसे? उत्तर-जैसे माटीका नया सकोरा जलके दो तीन कणोंसे सींचने पर गीला नहीं होता और पुनः-पुनः सींचनेपर वह धीरे-धीरे गीला हो जाता है। इसी प्रकार श्रोत्रादि इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किये गये शब्दादि रूप पुदग्ल स्कन्ध दो तीन समयोंमें व्यक्त नहीं होते हैं, किन्तु पुनः पुनः ग्रहण होनेपर वे व्यक्त हो जाते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि व्यक्त ग्रहणसे पहिले-पहिले व्यंजनावग्रह होता है और व्यक्त ग्रहणका नाम (या व्यक्त ग्रहण हो जाने पर) अर्थावग्रह है। अव्यक्त अवग्रहसे ईहा आदि नहीं होते हैं।
(गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ३०७/६६०/१०)
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,४५/१४५/३ तत्र विशदो निर्णयरूपः, अनियमेनेहावायधारणाप्रत्योत्पत्तिनिबन्धनः।...तत्रअविशदावग्रहो नाम अगृहीतभाषावयोरूपादिविशेषः गृहीतव्यवहारनिबन्धनपुरुषमात्रसत्त्वादिविशेषः अनियमेनेहाद्युत्पत्तिहेतुः।
= विशद अवग्रह निर्णय रूप होता हुआ अनियमसे इहा, अवाय और धारणा ज्ञानकी उत्पत्ति का कारण है।...उनमें भाषा, आयु व रूपादि विशेषोंको ग्रहण न करके व्यवहारके कारणभूत पुरुषमात्रके सत्त्वादि विशेषको ग्रहण करनेवाला तथा अनियमसे जो ईहा आदिकी उत्पत्तिमें कारण है वह अविशदावग्रह है।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,४५/१५६/८ अप्राप्तार्थग्रहणमर्थावग्रहः, प्राप्तार्थग्रहणं व्यञ्जनावग्रहः। न स्पष्टाष्टग्रहणे अर्थव्यञ्जनावग्रहौ, तयोश्चक्षुर्मनसोरपि सत्त्वतस्तत्र व्यञ्जनावग्रहस्य सत्त्वप्रसंगात्।..न शनैर्ग्रहणं व्यञ्जनावग्रहः, चक्षुर्मनसोरपि तदस्तित्वतस्तयीव्यंञ्जनावग्रहस्य सत्त्वप्रसङ्गात्। न च तत्रशनैर्ग्रहणमसिद्धमक्षिप्रभङ्गाभावे अष्टचत्वारिंसच्चक्षुर्मतिज्ञानभेदस्यासत्त्वप्रसङ्गात्।
= अप्राप्त पदार्थ के ग्रहणको अर्थावग्रह और प्राप्त पदार्थके ग्रहणको व्यंजनावग्रह कहते हैं। स्पष्ट ग्रहणको अर्थावग्रह और अस्पष्टग्रहण तो चक्षु और मनके भी रहता है, अतः ऐसा माननेपर उस दोनोंके भी व्यंजनावग्रहके अस्तित्वका प्रसंग आवेगा। (परन्तु इसका सूत्र द्वारा निषेध किया गया है।) यदि कहो कि धीरे-धीरे जो ग्रहण होता है वह व्यंजनाग्रह है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकारके ग्रहणका अस्तित्व चक्षु और मनके भी है, अतः उनके भी व्यंजनाग्रहके रहनेका प्रसंग आवेगा। और उन दोनोंमें शनैर्ग्रहण असिद्ध नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेसे अक्षिप्र भंगका अभाव होनेपर चक्षुनिमित्तक अड़तालिस मतिज्ञानके भेदोंके अभावका प्रसंग आवेगा।"
(धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,२४/२२०/१)
- अर्थावग्रह व व्यंजनावग्रहका स्वामित्व
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या १/१९ न चक्षुरिन्द्रियाभ्याम् ।।१९।।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या १/१९/११८ चक्षुषा अनिन्द्रियेण च व्यञ्चनावग्रहो न भवति।
= चक्षु और मनसे व्यंजनावग्रह नहीं होता।
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,१५/३५५/१ चक्षुर्मनसोरथविग्रह एव, तयोः प्राप्तार्थग्रहणानुपलम्भात्। शेषाणामिन्द्रियाणां द्वावप्यवग्रौ भवतः।
= चक्षु और मनसे अर्थावग्रह ही होता है, क्योंकि, इन दोनोंमें प्राप्त अर्थका ग्रहण नहीं पाया जाता है। शेष चारों ही इन्द्रियोंके अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह ये दोनों भी पाये जाते हैं।
(तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या १/१७-१९) (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,४५/१६०/२) (धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,२१/२२५) (जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार संख्या १३/६८-६९)
- अप्राप्तकारी ३ इन्द्रियोंमे अवग्रह सिद्धि
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,११५/३५५/१ तत्र चक्षुर्मनसोरर्थावग्रह एवतयोः प्राप्तार्थग्रहणानु लम्भात्। शेषाणामिन्द्रयाणां द्वावप्यवग्रहौ भवतः। शेषेन्द्रिययेष्वप्राप्तार्थग्रहणं नोपलभ्यत इति चेन्न, एकेन्द्रियेषु योग्यदेशस्थितनिधिषु निधिस्थितप्रदेश एव प्रारोहमुक्त्यन्यथानुपपत्तितः..; शेषेन्द्रियाणामप्राप्तार्थग्रहणं नोपलम्यत इति...। यद्युपलभ्यस्त्रिकालगोचरमशेषं पर्यच्छेत्स्यदनुपलब्धस्याभावोऽभविष्यत्। ..न कार्त्स्न्येनाप्राप्तमर्थस्यानिःसृतत्वमनुक्तत्वं वा ब्रूमहे यतस्तदवग्रहादिनिदानमिन्द्रियाणामप्राप्यकारित्वमिति। किं तर्हि। कथं चक्षुरनिन्द्रियाभ्यामनिःसृतानुक्तावग्रहादिःतयोरपिप्राप्यकारित्वप्रसङ्गादिति चेन्न, योग्यदेशावस्थितेरेव प्राप्तेरभिधानात्।..रूपस्याचक्षुषाभिमुखतया। न तत्परिच्छेदिना चक्षुषा प्राप्यकारित्वमनिःसृतानुक्तावग्रहादिसिद्धेः।
= चक्षु और मनसे अर्थावग्रह ही होता है, क्योंकि, इन दोनोंमें प्राप्त अर्थका ग्रहण नहीं पाया जाता है। शेष चारों ही इन्द्रियोंके अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह ये दोनों भी पाये जाते हैं। प्रश्न-शेष इन्द्रियोंमें अप्राप्त अर्थका ग्रहण नहीं पाया जाता है इसलिए उनसे अर्थावग्रह नहीं होना चाहिए? उत्तर-नहीं, क्योंकि, एकेन्द्रियोंमें उनका योग्य देशमें स्थित निधिवाले प्रदेशोंमें ही अंकुरोंका फैलाव अन्यथा बन नहीं सकता है। प्रश्न-स्पर्शन इन्द्रियके अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना बन जाता है तो बन जाओ। फिर भी शेष इन्द्रियोंके अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना नहीं पाया जाता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, यदि हमारा ज्ञान त्रिकाल-गोचर समस्त पदार्थोंको जाननेवाला होता तो अनुपलब्धका अभाव सिद्ध हो जाता। दूसरे पदार्थके पूरी तरहसे अनिःसृतपनेको और अनुक्तपनेको हम अप्राप्त नहीं कहते हैं, जिससे उनके अवग्रहादिका कारण इन्द्रियोंका अप्राप्यकारीपना होवे। प्रश्न-तो फिर अप्राप्यकारीपनेसे क्या प्रयोजन है? और यदि पूरी तरहसे अनिःसृतत्व और अनुक्तत्वको अप्राप्त नहीं कहते हो तो चक्षु और मनसे अनिःसृत और अनुक्तके अवग्रहादि (जिनका कि सूत्रमें निर्देश किया गया है) कैसे हो सकेंगे? यदि चक्षु और मनसे भी पूर्वोक्त अनिःसृत और अनुक्तके अवग्रहादि माने जावेंगे तो उन्हें भी प्राप्तकारित्वका प्रसंग आवेगा? उत्तर-नहीं, क्योंकि इन्द्रियोंके ग्रहण करनेके योग्य देशमें पदार्थोंकी अवस्थितिको ही प्राप्ति कहते हैं।..(जैसा कि) रूपका चक्षुने साथ अभिमुखरूपसे अपने देशमें अवस्थित रहना स्पष्ट है, क्योंकि, रूपको ग्रहण करनेवाले चक्षुके साथ रूपका प्राप्यकारीपना नहीं बनता है। इस प्रकार अनिःसृत और अनुक्त पदार्थोंके अवग्रहादिक सिद्ध हो जाते हैं।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,४५/१५७/३ न श्रोत्रादीन्द्रियचतुष्टये अर्थावग्रहः, तत्र प्राप्तस्यैवार्थस्य ग्रहणोपलम्भादिति चेन्न, वनस्पतिष्वप्राप्तार्थग्रहणस्योलम्भात्। तदपि कुतोऽवगम्यते। दूरस्थनिधिमुद्दिश्य प्रारोहमुक्त्यन्यथानुपपत्तेः।
धवला पुस्तक संख्या ९,४,१,४५/१५९/४ यदि प्राप्तार्थग्राहिण्येवेन्द्रियाणि....नवयोजनान्तरस्थिताग्नि-बिषाभ्यांतीव्रस्पर्श-रसक्षयोपशमानां दाह-मरणे स्याताम्, प्राप्तार्थग्रहणात्। तावन्मात्राध्वानस्थिताशुचिभक्षतद्गन्धजनितदुःखे च तत् एव स्याताम्।-`पुट्ठ' सुणेइ सद्दं अप्पुट्ठं चेय पस्सदे रूवं। गंधं रसं च फासं बद्धं पुट्ठं च जाणादि ।।५८।। इत्यस्मात्सूत्रात्प्राप्तार्थग्राहित्वमिन्द्रियाणामवगम्यत् इति चेन्न, अर्थावग्रहस्य लक्षणाभावतः खरविषाणस्येवाभावप्रसंगात्। कथं पुनरस्या गाथाया अर्थो व्याख्यायते। उच्यते-रूपमस्पृष्टमेव चक्षुर्गृह्णाति। चशब्दानम्नश्च। गन्धं रसं, स्पर्शं च बद्धं स्वकस्वकेन्द्रियेषु नियमितं पुट्ठं स्पृष्टं च शब्दादस्पृष्टं च शेषेन्द्रियाणि गृह्णन्ति। पुट्ठं सुणेइ सद्दं इत्यत्रापि बद्ध च-शब्दौ योज्यौ, अन्यथा दुर्व्याख्यानतापत्तेः।
= प्रश्न-श्रोत्रादिक चारइन्द्रियोंमें अर्थावग्रह नहीं है, क्योंकि, उनमें प्राप्त ही पदार्थका ग्रहण पाया जाता है? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि वनस्पतियोंमें अप्राप्त अर्थका ग्रहण पाया जाता है। प्रश्न-वह भी कहाँसे जाना जाता है? उत्तर-क्योंकि दूरस्थ निधि (खाद्य आदि) को लक्ष्य कर प्रारोह (शाखा) का छोड़ना अन्यथा बन नहीं सकता। ... दूसरे यदि इन्द्रियाँ प्राप्त पदार्थको ग्रहण करनेवाली ही होतीं तो...नौ योजन के अन्तरमें स्थित अग्नि और विषसे स्पर्श और रसके तीव्र क्षयोपशमसे युक्त जीवोंके क्रमशः दाह और मरण होना चाहिए।...और इसी कारण उतने मात्र अध्वानमें स्थित अशुचि पदार्थके भक्षण और उसके गन्धसे उत्पन्न दुःख भी होना चाहिए। (धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,२४/२२०) (धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,२७/२२६) प्रश्न-`श्रोत्रसे स्पष्ट शब्दको सुनता है। परन्तु चक्षुसे रूपको अस्पृष्टही देखता है। शेष इन्द्रियोंसे गन्ध रस और स्पर्शको बद्ध व स्पृष्ट जानता है ।।५४।।' इस (गाथा) सूत्रसे इन्द्रियोंके प्राप्त पदार्थका ग्रहण करना जाना जाता है? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर अर्थावग्रहके लक्षणका अभाव होनेसे गधेके सींगके समान उसके अभावका प्रसंग आवेगा? प्रश्न-तो फिर इस गाथाके अर्थका व्याख्यान कैसे किया जाता है? उत्तर-चक्षु रूपको अस्पृष्ट ही ग्रहण करती है, च शब्दसे मन भी अस्पष्ट ही वस्तुको ग्रहण करता है। शेष इन्द्रियाँ गन्ध रस और स्पर्श को बद्ध व स्पृष्ट ग्रहण करती है, च शब्दसे अस्पृष्ट भी ग्रहण करती हैं। `स्पृष्ट शब्दको सुनता है' यहाँ भी बद्ध और च शब्दोंको जोड़ना चाहिए, क्योंकि ऐसा न करनेसे दूषित व्याख्यानकी आपत्ति आती है।
- अवग्रह व अवायमें अन्तर
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-१,१४/१८/३ अवग्गहावायाणं णिण्णयत्तंपडिभेदाभावा एयत्तं किण्ण होदि इदि चे. होदु तेण एयत्तं, किंतु अवग्गहो णाम विसयविसइसण्णिवायाणंतरभावी पढमो बोधविसेसो, अवाओ पुण ईहाणंतरकालभावी उप्पण्णसंदेहाभावरूवो, तेण ण दोण्हमेयत्तं।
= प्रश्न-अवग्रह और अवाय, इन दोनों ज्ञानोंके निर्णयत्वके सम्बन्धमें कोई भेद न होनेसे एकता क्यों नहीं है? उत्तर-निर्णयत्वके सम्बन्धमें कोई भेद न होनेसे एकता भलेही रही आवे किन्तु विषय और विषयीके सन्निपातके अनन्तर उत्पन्न होनेवाला प्रथम ज्ञानविशेष अवग्रह है, और ईहाके अनन्तर कालमें उत्पन्न होनेवाले सन्देहके अभावरूप अवायज्ञान होता है, इसलिए अवग्रह और अवाय, इन दोनों ज्ञानोंमें एकता नहीं है।
(धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,४५/१४४/८)