अनंत
From जैनकोष
द्रव्यों, पदार्थों व भावों तक की संख्याओं का विचित्र प्रकार से निरूपण करने का ढंग सर्वज्ञ मतसे अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। ये संख्याएँ गणना को अतिक्रान्त करके वर्तने के कारण असंख्यात व अनंत द्वारा प्ररूपित की जाती हैं। यद्यपि अनन्त संख्या को जानना अल्पज्ञ के लिए सम्भव नहीं है फिर भी उसमें एक दूसरे की अपेक्षा तरतमता दर्शाकर बड़ी योग्यता के साथ उसका अनुमान कराया जाता है।
१. अनंत के भेद व लक्षण
१. अनंत सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या /५/९/२७५ अविद्यमानोऽन्तो येषां ते अनन्ताः।
= जिनका अन्त नहीं है, वे अनन्त कहलाते हैं।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या /८/९/३८६ अनन्तसंसारकारणत्वान्मिथ्यादर्शनमनन्तम्।
= अनन्त संसार का कारण होनेसे मिथ्यादर्शन अनन्त कहलाता है।
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,१४०/३९२/६ न हि सान्तस्यानन्त्यं विरोधात्। सव्ययस्य निरायस्य राशेः कथमानन्त्यमिति चेन्न, अन्यथैकस्याप्यानन्त्यप्रसङ्गः। शव्ययस्यानन्तस्य न क्षयोऽस्तीत्येकान्तोऽस्ति।
= सान्त को अनन्त मानने में विरोध आता है।
प्रश्न - जिस राशि का निरन्तर व्यय चालू है, परन्तु उसमें आय नहीं है, तो उसको अनन्तपन कैसे बन सकता है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि, यदि सव्यय और निराय राशि को भी अनन्त न माना जावे तो एकको भी अनन्तपने का प्रसंग आ जायेगा। व्यय होते हुए भी अनन्त का क्षय नहीं होता है यह एकान्त नियम है।
धवला पुस्तक संख्या ३/१, २, ५३/२६७/५ जो रासी एगेगरूवे अवणिज्जमाणे णिट्ठादि सो असंखेज्जो। जो पुण ण समप्पइ सो रासी अणंतो।
= एक-एक संख्या के घटाते जानेपर जो राशि समाप्त हो जाती है वह असंख्यात है और जो राशि समाप्त नहीं होती है वह अनन्त है।
(धवला पुस्तक संख्या ३/१, २, २/१५/८) (धवला पुस्तक संख्या १४/५, ६, १२८/२३५/६)।
२. अनंत के भेद-प्रभेद
धवला पुस्तक संख्या ३/१, २, २/गा. ८/११/७ णामं ट्ठवणादवियां सस्सद गणणापदेसियमणंतं। एगो उभयादेसो वित्थारो सव्वभावो य।
= नामानन्त, स्थापनानन्त, द्रव्यानन्त, शाश्वतानन्त, गणनानन्त, अप्रदेशिकानन्त, एकानन्तउभयानन्त, विस्तारानन्त, सर्वानन्त और भावानन्त इस प्रकार अनन्त के ग्यारह भेद हैं।
धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,२/पृ./पं तं दव्वाणं तं तं दुविहं आगमदो णोआगमदो य। १२/३;-तं णोआगमदो दव्वाणं तं तं तिविहं, जाणुगसरीरदव्वाणं तं भवियदव्वाणं तं तव्वदिरिक्तदव्वाणं तं चेदि। १३/३; - तं दव्वादिरिक्तदव्वाणंतं तं दुविहं, कम्माणं तं णोकम्माणंतमिदि। १५/१; - तं भावाणं तं तं दुविहं आगमदो णोआगमदो य। १६/९; - तं गणणाणंतं तं पि तिविहं, परिक्ताणंतं जुत्ताणंतं अणंताणंतमिदि। १८/३; - तं अणंताणंतं तं पि तिविहं, जहण्णमुक्कसं मज्झिममिदि। १९/२।
= द्रव्यानन्त आगम व नोआगम के भेद से दो प्रकार का है। नोआगम द्रव्यानन्त तीन प्रकार का है - ज्ञायक शरीर नोआगम द्रव्यानन्त, भव्य नोआगम द्रव्यानन्त, तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यानन्त। तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यानन्त दो प्रकार का है - कर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यानन्त और नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यानन्त। आगम और नोआगम की अपेक्षा भावानन्त दो प्रकार का है। गणनानन्त तीन प्रकार का है - परीतानन्त, युक्तानन्त, और अनन्तानन्त। और उपलक्षण से परीतानन्त व युक्तानन्त भी तीन प्रकार का है - जघन्य अनन्तानन्त, उत्कृष्ट अनन्तानन्त और मध्यम अनन्तानन्त।
(तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/३११) ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३८/५/१५/२०६-२०७)।
(Chitra-6)
अनन्त
नाम
स्थापना
द्रव्य
शाश्वत
गणना
अप्रदेशिक
एका
उभयादेश
विस्तार
सर्व
भाव
परीतानन्त
युक्तानन्त
अनन्तानन्त
आगम
नोआगम
उत्तम मध्यम जघन्य
आगम नोआगम
ज्ञायक शरीर भव्य तद्व्यतिरिक्त
कर्म नोकर्म
३. गामादि ११ भेदों के लक्षण
धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,२/११-१६/९ णामाणंतं जीवाजीवमिस्सदव्वस्स कारणणिरवेक्खा सण्णा अणंता इदि। जं तं ट्ठवणाणंतं णामं तं कट्ठकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा लेणकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भेंडकम्मेसु वा द तकम्मेसु वा अक्खो वा वराडयो वा जे च अण्णे ट्ठवणाए ट्ठविदा अणंतमिदि तं सव्वं ट्ठवणाणं तं णाम। ...आगमो गंथो सुदणाणं सिद्धं तो पवयणमिदि एगट्ठो...तत्थ आगमदो दव्वाणं तं अणंतपाहुड जाणओ अणुवजुत्तो। आगमादण्णो णोआगमो। तत्थ जाणुगसरीरदव्वाणं तं अणंतपाहुडजाणुगसरीरं तिकालजादं। ....भवियाणं तं अणंतप्पाहुडजाणुगभावी जोवो...जं तं कम्माणं तं तं कम्मस्स पदेसा। जं तं णोकम्माणं तं तं कंडय-रूजगदीव समुद्दादि एयपदेसादि पोग्गलदव्वं वा। ...। जं तं सस्सदाणं तं तं धम्मादिदव्वगयं। कुदो। सासयत्तेण दव्वाणं विणासाभावादो। जं तं गणणाणं तं तं बहुवण्णणीयं सुगमं च। जं तं अपदेसियाणं तं तं परमाणू। .....एकप्रदेशे परमाणौ तद्व्यतिरिक्तापरो द्वितीयः प्रदेशोऽन्तव्यपदेशभाक नास्तीति परमाणुरप्रदेशानन्तः। ...जं तं एयाणं तं तं लोगमज्झादो एगसेढिं पेक्खमाणे अंताभावादो एयाणं तं। ...जहा अपारो सागरो, अथाहं जलमिदि। जं तं उभयाणंतं तं तधा चेव उभयदिसाए पेक्खमाणे अंताभावादो उभयादेसणं तं। जं तं वित्थाराणं तं तं पदरागारेण आगासं पेक्खमाणे अंताभावादो भवदि। जं तं सव्वाणं तं तं घणागारेण आगासं पेक्खमाणे अंताभावादो सव्वाणं तं भवदि। ...आगमदो भावाणं तं अणंतपाहुडजाणगो उवजुत्तो। जं तं णोआगमदो भावाणं तं तं तिकालजादं अणंतपज्जयपरिणदजीवादिदव्वं।
= १. नामानन्त - कारण के बिना ही जीव अजीव और मिश्र द्रव्य की `अनन्त' ऐसी संज्ञा करना नाम अनन्त है (११/९)। २. स्थापनानन्त-काष्ठ कर्म, चित्रकर्म, पुस्त (वस्त्र) कर्म, लेप्यकर्म, लेनकर्म, शैलकर्म, भित्तिकर्म, गृहकर्म, भेंडकर्म अथवा दन्तकर्म में अथवा अक्ष (पासा) हो या कौड़ी हो, अथवा कोई दूसरी वस्तु हो उसमें `यह अनन्त है' इस प्रकार की स्थापना करना स्थापनानन्त है (११/९)। ३. द्रव्यानन्त - द्रव्यानन्त आगम नोआगम के भेदसे दो प्रकार का है। आगम, ग्रन्थ, श्रुतज्ञान, सिद्धान्त और प्रवचन ये एकार्थवाची शब्द हैं (१२/३)। १. आगम द्रव्यानन्त - अनन्त विषयक शास्त्र को जाननेवाले परन्तु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित जीवको आगमद्रव्यानन्त कहते हैं। (१२/११)। २. नोआगम द्रव्यानन्त - [वह नोआगम द्रव्यानन्त तीन प्रकार का है - ज्ञायक शरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्त] उनमें से अनन्त विषयक शास्त्र को जाननेवाले (जीव) के तीनों कालों में होनेवाले शरीर को ज्ञायक शरीर नोआगम द्रव्यानन्त कहते हैं (१३/३)। जो जीव भविष्यकालमें अनन्त विषयक शास्त्र को जानेगा उसे भावि नोआगम द्रव्यानन्त कहते हैं। तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यानन्त दो प्रकार का है - कर्म तद्व्यतिरिक्त और नोकर्म तद्व्यतिरिक्त। ज्ञानावरणादिक आठ कर्मों के प्रदेशों को कर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यानन्त कहते हैं। कटक (कंकण) रुचक (तावीज़) द्वीप और समुद्रादिक अथवा एकप्रदेशादिक पुद्गल द्रव्य ये सब नोकर्मतद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यानन्त हैं (१५/१)। ४. शाश्वतानन्त - शाश्वतानन्त धर्मादि द्रव्यों में रहता है, क्योंकि धर्मादि द्रव्य शाश्वतिक होने से उनका कभी भी विनाश नहीं होता। ....अन्त विनाश को कहते हैं। जिसका अन्त अर्थात् विनाश नहीं होता उसको अनन्त कहते हैं (१५/४)। ५. गणनानन्त - गणनानन्त बहुवर्णनीय है तथा सुगम है (दे. आगे पृथक् लक्षण)। ६. अप्रदेशानन्त - एक परमाणु को अप्रदेशानन्त कहते हैं। ...क्योंकि, एकप्रदेशी परमाणुमें उस एक प्रदेश को छोड़कर `अन्त' इस संज्ञा को प्राप्त होनेवाला दूसरा प्रदेश नहीं पाया जाता है, इसलिए परमाणु अप्रदेशानन्त है (१५/९)। ७. एकानन्त - लोक के मध्य से आकाश के प्रदेशों की एक श्रेणी को (एक दिशामें) देखने पर उसका अन्त नहीं पाया जाता, इसलिए उसको एकानन्त कहते हैं - जैसे अथाह समुद्र, अथाह जलादि। Unidirectional infinite (जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो / प्रस्तावना १०५)। ८. उभयानन्त - लोक के मध्यसे आकाश प्रदेश पंक्ति को दो दिशाओं में देखने पर उनका अन्त नहीं पाया जाता है, इसलिए उसे उभयानन्त कहते हैं। ९. विस्तारानन्त - आकाश को प्रतर रूपसे देखने पर उसका अन्त नहीं पाया जाता इसलिए उसे विस्तारानन्त कहते हैं (१६/७)। १०. सर्वानन्त - आकाश को घन रूपसे देखने पर उसका अन्त नहीं पाया जाता इसलिए उसे सर्वानन्त कहते हैं (१६/८)। ११. भावानन्त - आगम और नोआगमकी अपेक्षा भावानन्त दो प्रकार का है। १. आगम भावानन्त - अनन्त विषयक शास्त्र को जानने वाले और वर्तमान में उसके उपयोग से उपयुक्त जीव को आगम भावानन्त कहते हैं। २. नोआगम भावानन्त - त्रिकाल जात अनन्त पर्यायों से परिणत जीवादि द्रव्य को नोआगम भावानन्त कहते हैं।
४. जघन्यादि परीतानन्त के लक्षण
राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३८/५/२०७/७ यज्जघन्या संख्येयासंख्येयं तद्विरलीकृत्य पूर्वविधिना त्रोन्वारान् वर्गितसंवर्गित उत्कृष्टासंख्येयासंख्येयं प्राप्नोति। ततो धर्माधर्मैकजीवलोकाकाशप्रदेशप्रत्येकशरीरजीवबादरनिगोतशरीराणि षडप्येतान्यसंख्येयानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि योगविभागपरिच्छेदरूपाणि चासंख्येयलोकप्रदेशपरिमाणान्युत्सपिण्यवसर्पिणीसमयांश्च प्रक्षिप्य पूर्वोक्तराशौ त्रोन्वारान् वर्गितसंवर्गित कृत्वा उत्कृष्टासंख्येयासंख्येयमतीत्य जघन्यपरीतानन्तं गत्वा पतितम्। ...यज्जघन्यपरीतानन्तं तत्वपूर्ववद्वगितसंवर्गितमुत्कृष्टपरीतानन्तमतीत्य जघन्ययुक्तानन्तं गत्वा पतितम्। तत् एकरूपेऽपनीतेउत्कृष्टपरीतानन्तं तद्भवति। मध्यममजघन्योत्कृष्टपरीतानन्तम्।
= जघन्य संख्येयासंख्येय (देखो असंख्यात) को विरलन कर पूर्वोक्त विधिसे (दे. नीचे) तीन बार वर्गित संवर्गित करनेपर भी उत्कृष्ट संख्येयासंख्येय नहीं होता। इसमें धर्म, अधर्म, एक जीव व लोकाकाशके प्रदेश, प्रत्येक शरीर, बादर निगोद शरीर ये छहों असंख्येय, स्थिति बन्धाध्यवसाय स्थान, अनुभाग बन्धाध्यवसाय स्थान, योगके अविभाग प्रतिच्छेद, उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालके समयों को जोड़कर तीन बार वर्गित संवगित करनेपर उत्कृष्टासंख्येयासंख्येयको उल्लंघकर जघन्यपरीतानन्तमें जाकर स्थित होता है। ...यह जो जघन्य परीतानन्त उसको पूर्ववत् वर्गितसंवर्गित करनेपर उत्कृष्ट परीतानन्तको उल्लंघकर जघन्य युक्तानन्त में जाकर गिरता है। उसमें-से एक कम करनेपर उत्कृष्ट परीतानन्त हो जाता है। मध्यम परीतानन्त इन दोनों सीमाओं के बीचमें अजघन्य व अनुत्कृष्ट रूपवाला है।
(तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/३१०/१८१) (त्रिलोकसार गाथा संख्या ४५-४६)।
५. वर्गित संवर्गित करने की प्रतिक्रिया
धवला पुस्तक संख्या ५/प्र.२३ (धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,२/२०)
(Chitra-7)
अ अ ज = जघन्य असंख्यातासंख्यात
(यही राशि)
(अ अ ज)
(अ अ ज)
यदि (अ अ ज)
`क' = (अ अ ज)
`ख' = क + (धर्म व अधर्म द्रव्य तथा एक जीव व लोकाकाश के प्रदेश + प्रत्येक शरीर जीव + बादर निगोद शरीर ये छह)
-
(ख)
(ख)
(ख)
(ख) + ४ निम्नराशि
`ग' = (ख)
(ख)
(ख)
(ख)
४ राशि = स्थिति बन्धाध्यववसाय स्थान + अनुभाग बन्धाध्यवसाय स्थान+योग के अविभाग प्रतिच्छेद + उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालों के कुल समय।
(ग)
(ग)
(ग)
(ग)
तो जघन्य परीतानन्त = (ग)
न. प. ज. = (ग)
(ग)
(ग)
मध्यम परीतानन्त = न. प. म. = > न. प. ज. किन्तु < न.प.उ. अर्थात् न. प. ज. से बड़ा और न. प. उ. से छोटा।
उत्कृष्ट परीतानन्त = न. प. उ. - न. प. ज. - १
६. जघन्यादि युक्तानन्त के लक्षण
राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३८,५/२०७/१४ यज्जघन्यपरीतानन्तं तत्पूर्ववद्वर्गितसंवर्गितमुत्कृष्टपरीतानन्तमतीत्य जघन्ययुक्तानन्तं गत्वा पतितम्। ...यज्जघन्ययुक्तानन्तं तद्विरलीकृत्यात्रैकैकरूपे जघन्ययुक्तानन्तं दत्वा सकृद्वर्गितमुत्कृष्टयुक्तानन्तमतीत्य जघन्यमनन्तानन्तं गत्वा पतितम्। तत् एकरूपेऽपनीते उत्कृष्टयुक्तानन्तं भवति। मध्यममजघन्योत्कृष्टयुक्तानन्तम्।
= जघन्य परीतानन्त पूर्ववत् वर्गित, संवर्गित उत्कृष्ट परीतानन्त को उल्लंघ कर जघन्य युक्तानन्त में जाकर स्थित होता है। ... इस जघन्य युक्तानन्त को विरलन कर प्रत्येकपर जघन्ययुक्तानन्त को रख उन्हें परस्पर वर्ग करनेपर उत्कृष्ट युक्तानन्त को उल्लंघकर जघन्य परीतानन्त (जघन्य युक्तानन्त) को प्राप्त होता है अर्थात् (जघन्य युक्तानन्त) यह राशि जघन्य अनन्तानन्त के बराबर है। इसमें से एक कम करनेपर उत्कृष्ट युक्तानन्त होता है। मध्यम युक्तानन्त इन दोनों की सीमाओं के बीचमें अजघन्य व अनुत्कृष्ट रूप है।
(तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/३११) (त्रिलोकसार गाथा संख्या ४६-४७)।
७. जघन्यादि अनन्तानन्त के लक्षण
राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३८,५/२०७/१६ यज्जघन्ययुक्तानन्तं तद्विरलीकृत्यात्रैकैकरूपे जघन्ययुक्तानन्तं दत्वा सकृद्वर्गितमुत्कृष्टयुक्तानन्तमतीत्य जघन्यानन्तानन्तं गत्वा पतितम्। ...यज्जघन्यानन्तानन्तं तद्विरलीकृत्य पूर्ववत्त्रीन्वारान् वर्गितसंवर्गितमुत्कृष्टानन्तानन्तं न प्राप्नोति, ततः सिद्धनिगोतजीववनस्पतिकायातीतानागतकालसमय सर्वपुद्गलसर्वाकाशप्रदेशधर्माधर्मास्तिकायागुरुलघुगुणानन्तान् प्रक्षिप्य प्रक्षिप्य त्रीन् वारान् वर्गितसंवर्गिते कृते उत्कृष्टानन्तानन्तं न प्राप्नोति ततोऽनन्ते केवलज्ञाने दर्शने च प्रक्षिप्ते उत्कृष्टानन्तानन्तं भवति। तत् एकरूपेऽपनोतेऽजघन्योत्कृष्टानन्तानन्तं भवति।
= जघन्य युक्तानन्तको विरलन कर प्रत्येकपर जघन्य युक्तानन्त को रख उन्हें परस्पर वर्ग (जघन्य युक्तानन्त) करनेपर अर्थात् (जघन्य युक्तानन्त) उत्कृष्ट युक्तानन्त से आगे जघन्य अनन्तानन्त में जाकर प्राप्त होता है.... इस जघन्य अनन्तानन्त को पूर्ववत् विरलीकृत कर तीन बार वर्गित संवर्गित करनेपर उत्कृष्ट अनन्तानन्त प्राप्त नहीं होता है। उसमें सिद्ध जीव, निगोद जीव, वनस्पति काय वाले जीव, अतीत व अनागत कालके समय, सर्व पुद्गल, सर्व आकाश प्रदेश, धर्म व अधर्मास्तिकाय द्रव्यों के अगुरुलघु गुणों के अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद जोड़े। फिर तीन बार वर्गित संवर्गित करें। तब भी उत्कृष्ट अनन्तानन्त नहीं होता है। अतः उसमें केवलज्ञान व केवलदर्शन को (अर्थात् इनके सर्व अविभागी प्रतिच्छेदों को) जोड़ें, तब उत्कृष्ट अनन्तानन्त होता है। उसमें-से एक कम करनेपर अजघन्योत्कृष्ट या मध्यम अनन्तानन्त होता है।
(तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/३११) (धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,२/१८/५) (त्रिलोकसार गाथा संख्या ४७-५१) (धवला पुस्तक संख्या ५/प्र.२४) जघन्य अनन्तानन्त = न. न. ज.।
(Chitra-8)
+ ६ राशि
(न.न.ज.)
(न.न.ज;)
(न.न.ज.)
(न.न.ज.)
(न.न.ज.)
(न.न.ज.)
(न.न.ज.)
(न.न.ज.)
यदि `क्ष' =
छः राशि = सिद्ध+साधारण वनस्पति निगोद+वनस्पति काय+अतीत व अनागत काल के समय या व्यवहार काल+पुद्गल+अलोकाकाश।
(क्ष क्ष)
`त्र' = (क्ष. क्ष.)
(क्ष. क्ष) + दो राशि
(क्ष. क्ष.)
दो राशि = धर्म व अधर्म द्रव्य के अगुरुलघु गुणों के अविभाग प्रतिच्छेद।
त्र)
(त्र
त्र)
(त्र
`ज्ञ' =
त्र)
(त्र
त्र)
(त्र
तब केवल ज्ञान राशि > `ज्ञ'
उत्कृष्ट अनन्तानन्त = न. न. उ. = ज्ञ+केवलज्ञान व केवलदर्शन के अविभाग प्रतिच्छेद
२. अनन्त निर्देश
१. अनन्त वह है जिसका कभी अन्त न हो।
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,१४१/३९२/६ न हि सान्तस्यानन्त्यं विरोधात्। सव्ययनिरायस्य राशेः कथमानन्त्यमिति चेन्न, अन्यथैकस्याप्यानन्त्यप्रसङ्गः। सव्ययस्यानन्तस्य न क्षयोऽस्तीत्येकान्तोऽस्ति स्वसंख्येयासंख्येय भागव्ययस्य राशेरनन्तस्यापेक्षया तद्द्विव्यादिसंख्येयराशिव्ययतो न क्षयोऽपीत्यभ्युपगमात्। अर्ध पुद्गलपरिवर्तनकालस्यानन्तस्यापि क्षय दर्शनादनैकान्तिक आनन्त्यहेतुरिति चेन्न, उभयोर्भिन्ननिबन्धतः प्राप्तानन्तयोः साम्याभावतोऽर्द्धपुद्गलपरिवर्तनस्य वास्तवानन्त्याभावात्। तद्यथा अर्द्ध पुद्गलपरिवर्तनकालः सक्षयोऽप्यनन्तः छद्मस्थैरनुपलब्धपर्यन्तत्वात्। केवलमनन्तस्तद्विषयत्वाद्वा। जीवराशिस्तु पुनः संख्येयराशिक्षयोऽपि निर्मूलप्रलयाभावादनन्त इति। किं च सव्ययस्य निरवशेषक्षयेऽभ्युपगम्यमाने कालस्यापि निरवशेषक्षयो जायेत सव्ययत्वं प्रत्यविशेषात्। अस्तु चेन्न, सकलपर्यायप्रक्षयतोऽशेषस्य वस्तुनः प्रक्षीणस्वलक्षणस्याभावापत्तेः।
= जो राशि सान्त होती है उसमें अनन्तपन नहीं बन सकता है, क्योंकि सान्त को अनन्त मानने में विरोध आता है।
प्रश्न - जिस राशिका निरन्तर व्यय चालू है, परन्तु इसमें आय नहीं होती है तो उसको अनन्तपन कैसे बन सकता है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि यदि सव्यय और निराय राशि को भी अनन्त न माना जावे तो एकको भी अनन्त मानने का प्रसंग आ जायेगा। व्यय होते हुए भी अनन्त का क्षय नहीं होता, यह एकान्त नियम है, इसलिए जिसके संख्यातवें और असंख्यातवें भाग का व्यय हो रहा है ऐसी राशि का, अनन्त की अपेक्षा उसकी दो तीन आदि संख्यात राशि के व्यय होनेसे भी क्षय नहीं होता है, ऐसा स्वीकार किया है।
प्रश्न - अर्ध पुद्गल परिवर्तन रूप काल अनन्त होते हुए भी उसका क्षय देखा जाता है। इसलिए भव्य राशि के क्षय न होनेमें जो अनन्त रूप हेतु दिया है वह व्यभिचरित हो जाता है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि भिन्न-भिन्न कारणों से अनन्तपन को प्राप्त भव्य राशि और अर्धपुद्गल परिवर्तन काल वास्तव में अनन्त रूप नहीं है। आगे इसीका स्पष्टीकरण करते हैं। - अर्ध पुद्गल परिवर्तनकाल क्षय सहित होते हुए भी इसलिए अनन्त है कि छद्मस्थ जीवों के द्वारा उसका अन्त नहीं पाया जाता है। किन्तु केवलज्ञान वास्तव में अनन्त है। अथवा अनन्त को विषय करनेवाला होने से वह अनन्त है। जीव राशि तो, उसका संख्यातवें भाग रूप राशि के क्षय हो जानेपर भी निर्मूल नाश नहीं होनेसे, अनन्त है। अथवा ऊपर जो भव्य राशि के क्षय होनेमें अनन्त रूप हेतु दे आये हैं, उसमें छद्मस्थ जीवों के द्वारा अनन्त की उपलब्धि नहीं होती है, इस अपेक्षा के बिना ही, यह विशेषण लगा देनेसे अनैकान्तिक दोष नहीं आता है। दूसरे व्यय सहित अनन्त के सर्वथा क्षय मान लेनेपर कालका भी सर्वथा क्षय हो जायेगा, क्योंकि व्यय सहित होनेके प्रति दोनों समान हैं।
प्रश्न - यदि ऐसा ही मान लिया जाये तो क्या हानि है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर कालकी समस्त पर्यायों के क्षय हो जानेसे दूसरे द्रव्यों की स्वलक्षण रूप पर्यायों का भी अभाव हो जायेगा। और इसलिए समस्त वस्तुओं के अभाव की आपत्ति आ जायेगी।
(धवला पुस्तक संख्या ४/१,५,४/३३८/४)।
स्याद्वादमंजरी श्लोक संख्या २९/श्लो.२ में उद्धृत ३३२/५ अत्यन्यूनातिरिक्तत्वैर्युज्यते परिमाणवत्। वस्तुन्यपरिमेये तु नूनं तेषामसंभवः ।।२।।
= अपरिमित वस्तु का न कभी अन्त होता है, न कभी घटती है और न समाप्त होती है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या ३७/१५७ यथा भावितकाले समयानां क्रमेण गच्छतां यद्यपि भाविकालसमयराशेः स्तोकत्वं भवति तथाप्यवसानं नास्ति। तथा मुक्तिं गच्छतां जीवानां यद्यपि जीवराशेः स्तोक्त्वं भवति तथाप्यवसानं नास्ति।
= क्रमसे जाते हुए जो भविष्यत्काल के समय, उनसे यद्यपि भविष्यत्काल के समयों की राशिमें कमी होती है, फिर भी उस समय-राशिका कभी अन्त न होगा, इसी प्रकार मुक्ति में जाते हुए जीवों से यद्यपि जगत् में जीवराशि की न्यूनता होती है तो भी उस राशि का अन्त नहीं होता।
२. अनन्त की सिद्धि
राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/९,३-५/४५२/३४ न च तेन परिच्छिन्नमित्यतः सान्तम्। अनन्तेनानन्तमिति ज्ञातत्वात्। ...नात्र सर्वे प्रवादिनो विप्रतिपद्यन्ते केचित्तावदाहुः-`अनन्ता लोकधातवः' इति। अपरे मन्यन्ते-दिक्कालात्माकाशानां सर्वगतत्वाद् अनन्तत्वमिति। इतरे ब्रुवते-प्रकृतिपुरुषयोरनन्तत्वं सर्वगतत्वादिति। न चैतेषामनन्तत्वादपरिज्ञानम्, नापि परिज्ञानत्वमात्रादेव तेषामन्तवत्त्वम्। ...यस्य अर्थानामानन्त्यमपरिज्ञातकारणं तस्य सर्वज्ञाभावः प्रसजति। ....अथान्तवत्त्वं स्यात् संसारो मोक्षश्च नोपपद्यते। कथमिति चेत्, उच्यते जीवाश्चेत्सान्ताः, सर्वेषां हि मोक्षप्राप्तौ संसारोच्छेदः प्राप्नोति। तद्भयात् मुक्तानां पुनरावृत्त्यभ्युपगमे स मोक्ष एव न स्यात् अनात्यन्तिकत्वात्। एकैकस्मिन्नपि जीवे कर्मादिभावेन व्यवस्थिताः पुद्गलाः अनन्ताः, तेषामन्तवत्त्वे सति कर्मनोकर्मविषयविकल्पाभावात् संसाराभावः तदभावान्मोक्षश्च न स्यात्। तथा अतीतानागतकालयोरन्तवत्त्वे प्राक् पश्चाच्च कालव्यवहाराभावः स्यात्। न चासौ युक्तः असतः प्रादुर्भावाभावात् सतश्चात्यन्तविनाशानुपपत्तेरिति। तथा आकाशस्यान्तक्त्त्वाभ्युगगमे ततो बहिर्घनत्वप्रसङ्गः। नास्ति चेदघनत्वम् आकाशेनापि भवितव्यमित्यन्तवत्त्वाभावः।
=
प्रश्न - अनन्त को केवलज्ञान के द्वारा जान लेने से अनन्तता नहीं रहेगी?
उत्तर - १. उसके द्वारा अनन्त का अनन्त के रूपमें ही ज्ञान हो जाता है। अतः मात्र सर्वज्ञ के द्वारा ज्ञानसे उसमें सान्तत्व नहीं आता। २. प्रायः सभी वादी अनन्त भी मानते हैं और सर्वज्ञ भी। बौद्ध लोग धातुओं को अनन्त कहते हैं। वैशेषिक दिशा, काल, आकाश और आत्मा को सर्वगत होनेसे अनन्त कहते हैं। सांख्य पुरुष और प्रकृति को सर्वगत होने से अनन्त कहते हैं। इन सबका परिज्ञान होने मात्र से सान्तता हो नहीं सकती। अतः अनन्त होनेसे अपरिज्ञान का दूषण ठीक नहीं है। ३. यदि अनन्त होनेसे पदार्थ को अज्ञेय कहा जायेगा तो सर्वज्ञ का अभाव हो जायेगा। ४. यदि पदार्थों को सान्त माना जायेगा तो संसार और मोक्ष दोनों का लोप हो जायेगा। सो कैसे? वह बताते हैं - (१) यदि जीवों को सान्त माना जाता है तो सब जीव मोक्ष चले जायेंगे तब संसार का उच्छेद हो जायेगा। यदि संसारोच्छेद के भयसे मुक्त जीवों का संसार में पुनः आगमन माना जाये तो अनात्यंन्तिक होनेसे मोक्ष का भी उच्छेद हो जायेगा। (२) एक जीवमें कर्म और नोकर्म पुद्गल अनन्त हैं। यदि उन्हें सान्त माना जाये तो भी संसार का अभाव हो जायेगा और उसके अभाव से मोक्ष का भी अभाव हो जायेगा। (३) इसी तरह अतीत और अनागत कालको सान्त माना जाये तो पहले और बादमें काल व्यवहार का अभाव ही हो जायेगा, पर यह युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि असत्की उत्पत्ति और सत् का सर्वथा नाश दोनों ही अयुक्तिक हैं। (४) इसी तरह आकाश को सान्त माननेपर उससे आगे कोई ठोस पदार्थ मानना होगा। यदि नहीं तो आकाश ही आकाश माननेपर सान्तता नहीं रहेगी। रा. प./प्र. १, २/(प्रो. लक्ष्मीचन्द्र) पायथागोरियन युगमें `जीनों'के तर्कों ने इसकी सिद्धि की थी। ....केंटरके कन्टीनम् (continuum) १, २, ३.... के अल्पबहुत्व से अनन्त के अल्पबहुत्व की सिद्धि होती है। ...जार्ज केन्टरने `Abstractset Theory' की रचना करके अनन्त को स्वीकार किया है।
३. अर्द्धपुद्गल परिवर्तन को अनन्त कैसे कहते हैं
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,१४१/३९३/२ अर्धपुद्गलपरिवर्तनकालः सक्षयोऽप्यनन्तः छद्मस्थैरनुपलब्धपर्यन्तत्वात्। केवलमनन्तस्तद्विषयत्वाद्वा।
= अर्द्ध पुद्गलपरिवर्तनकाल क्षय सहित होते हुए भी इसीलिए अनन्त है कि छद्मस्थ जीवों के द्वारा उसका अन्त नहीं पाया जाता है। वास्तव में केवलज्ञान अनन्त है अथवा अनन्त को विषय करनेवाला होने से वह अनन्त है।
धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,५३/२६७/७ कधं पुणो तस्स अद्धपोग्गलपरिमट्टस्स अणंतववएसो। इदि चे ण, तस्स उवयारणिबंधणत्तादो। तं जहा अणंतस्स केवलणाणस्स अद्धपोग्गलपरियट्टकालो वि अणंतो होदि।
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प्रश्न - अर्द्धपुद्गल परिवर्तनकाल को अनन्त संज्ञा कैसे दी गयी है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल को जो अनन्त संज्ञा दी गयी है, वह उपचार-निमित्तक है। आगे उसीका स्पष्टीकरण करते हैं - अनन्त रूप केवलज्ञान का विषय होनेसे अर्द्धपुद्गल परिवर्तनकाल भी अनन्त है, ऐसा कहा जाता है।
(धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,२/२५-२६/९), (धवला पुस्तक संख्या ४/१,२,२३/२६६) (धवला पुस्तक संख्या १४/५, ६, १२८/२३५/८)।
४. अनन्त, संख्यात व असंख्यात में अन्तर
धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,५३/२६७/५ किमसंखेज्जं णाम। जो रासी एगेगरूवे अवणिज्जमाणे णिट्टादि सो असंखेज्जो। जो पुण ण समप्पइ सो रासी अणंतो। जदि एवं तो वयसहिदसक्खयअद्धपोग्गलपरियट्टकालो वि असंखेज्जो जायदे। होदु णाम। कधं पुणो तस्स अद्धपोग्गलपरियट्टस्स अणंतववएसो। इदि चे ण, तस्स उवयारनिबंधणादो। तं जहा-अणंतस्स केवलणाणस्स विसयत्तादो अद्धपोग्गलपरियट्टकालो वि अणंतो होदि। केवलणाणविसयत्तं पडि विसेसाभावा सव्वसंखाणमण्णंतत्तणं जायदे। चे ण, ओहिणाणविसयवदिरित्तसंखाणे अणण्णविसयत्तेण तदुवयारपवुत्तादो। अहवा जं संखाणं पंचिंदियविसओ तं संखेज्जं णाम। तदो उवरि जमोहिणाणविसओ तमसंखेज्जं णाम।
=
प्रश्न - असंख्यात किसे कहते हैं, अर्थात् अनन्त से असंख्यात में क्या भेद हैं?
उत्तर - एक-एक संख्या के घटाते जानेपर जो राशि समाप्त हो जाती है वह असंख्यात है और जो राशि समाप्त नहीं होती है वह अनन्त है।
प्रश्न - यदि ऐसा है तो व्यय सहित होनेसे नाश को प्राप्त होनेवाला अर्धपुद्गल परिवर्तन काल भी असंख्यात, रूप हो जायेगा?
उत्तर - हो जाये।
प्रश्न - तो फिर उस अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल को अनन्त संज्ञा कैसे दी गयी है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल को जो अनन्त संज्ञा दी गयी है वह उपचार निमित्तक है। आगे उसीका स्पष्टीकरण करते हैं - अनन्तरूप केवलज्ञान का विषय होने से अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल भी अनन्त है, ऐसा कहा जाता है।
प्रश्न - केवलज्ञान के विषयत्व के प्रति कोई विशेषता न होनेसे सभी संख्याओं को अनन्तत्व प्राप्त हो जायेगा?
उत्तर - नहीं, क्योंकि, जो संख्याएँ अवधिज्ञान का विषय हो सकती हैं उनसे अतिरिक्त ऊपर की संख्याएँ केवलज्ञान को छोड़कर दूसरे और किसी ज्ञान का विषय नहीं हो सकतीं, अतएव ऐसी संख्याओं में अनन्तत्व के उपचार की प्रवृत्ति हो जाती है। अथवा, जो संख्या पाँचों इन्द्रियों का विषय है वह संख्यात है, उसके ऊपर जो संख्या अवधिज्ञान का विषय है वह असंख्यात है, उसके ऊपर जो संख्या केवलज्ञान के विषय-भाव को ही प्राप्त होती है वह अनन्त है।
त्रिलोकसार गाथा संख्या ५२ जावदियं पच्चक्खं जुगवं सुदओहिकेवलाण हवे। तावदियं संखेज्जमसंखमणंतं कमा जाणे ।।५२।। - यावन्मात्र विषय युगपत् प्रत्यक्ष श्रुत, अवधि, केवलज्ञान के होंहि तावन्मात्र संख्यात असंख्यात अनन्त क्रमतैं जानऊ।
५. सर्वज्ञत्व के साथ अनन्तत्व का समन्वय
राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/९,३-४/४५२/२४ अनन्तत्वादपरिज्ञानमिति चेत्, न; अतिशयज्ञानदृष्टत्वात् ।।३।। स्यादेतत्-सर्वज्ञेनानन्तं परिच्छिन्नं वा, अपरिच्छिन्नं वा। यदि परिच्छिन्नम्; उपलब्धावसानत्वाद् अनन्तत्वमस्य हीयते। अथापरिच्छिन्नम्; तत्स्वरूपानवबोधाद् असर्वज्ञत्वं स्यादिति। तन्न किं कारणम्। अतिशयज्ञानदृष्टत्वात्। यत्तत्केवलिनां ज्ञानं क्षायिकम् अतिशयवद् अनन्तानन्तपरिमाणं तेन तदनन्तमवबुध्यते साक्षात्। तदुपदेशादितरैरनुमानेनेति न सर्वज्ञत्वहानिः। न च तेन परिच्छिन्नमित्यतः सान्तम् अनन्तेनानन्तमिति ज्ञातत्वात्। किं च सर्वेषामविप्रतिपत्तेः ।।४।।
=
प्रश्न - अनन्त होनेके कारण वह ज्ञानमें नहीं आना चाहिए?
उत्तर - नहीं, क्योंकि अतिशय रूप केवलज्ञान के द्वारा उसे भी जान लिया जाता है।
प्रश्न - सर्वज्ञ के द्वारा अनन्त जाना जाता है अथवा नहीं जाना जाता? यदि अनन्त को सर्वज्ञने जाना है तो अनन्त का ज्ञानके द्वारा अन्त जान लेनेसे अनन्तता नहीं रहेगी, और यदि नहीं जाना है तो उसके स्वरूप का ज्ञान न होने के कारण असर्वज्ञता का प्रसंग आयेगा?
उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि अतिशय ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है। यह जो केवलज्ञानियों का क्षायिकज्ञान है सो अतिशयवान् तथा अनन्तानन्त परिमाण वाला है। उसके द्वारा अनन्त साक्षात् जाना जाता है। अन्य लोक सर्वज्ञ के उपदेश से तथा अनुमान से अनन्तता का ज्ञान कर लेते हैं।
प्रश्न - यदि कहोगे कि उसके द्वारा जाना गया है, अतः वह अनन्त भी सान्त है?
उत्तर - तो ऐसा भी नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञने अनन्त को अनन्त रूपसे ही जाना है और सभी वादी प्रायः इस विषयमें विरोध भी नहीं रखते हैं।
(वि. दे. अनन्त २/२)।
धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,३/३०/६ ण च अणादि त्ति जाणिदे सादित्तं पावेदि, विरोहा।
= अनादित्व का ज्ञान हो जाता है, इसलिए उसे सादित्व की प्राप्ति हो जायेगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है।
६. निर्व्यय भी अभव्यराशि में अनन्तत्व कैसे सिद्ध होता है
धवला पुस्तक संख्या ७/२,५,१६०/२९५/१० कधं एदस्स अव्वए संते अव्वोच्छिज्जमाणस्स अणंतववएसो ण, अणंतस्स केवलणाणस्स चेव विसए अवट्ठिदाणं संखाणमुवयारेण अणंतत्तविरोहाभावादो।
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प्रश्न - व्यय के न होनेसे व्युच्छित्ति को प्राप्त न होनेवाली अभव्य राशिके `अनन्त' यह संज्ञा कैसे सम्भव है? -
उत्तर - नहीं, क्योंकि, अनन्त रूप केवलज्ञान के ही विषय में अवस्थित संख्याओं के उपचार से अनन्तपन मानने में विरोध नहीं आता।
७. अनन्त चतुष्टय में अनन्तत्व कैसे सिद्ध है
क्षपणासार / मूल या टीका गाथा संख्या ६१०/७२५ खीणे घादिचउक्के णं तचउक्कस्स होदि उप्पत्ती। सादी अपज्जवसिदा उक्कस्साणंतपरिसंखा ।।६१०।।
=
प्रश्न - (घातिया कर्मनि के चतुष्टय का नाश होतैं अनन्तचतुष्टय की उत्पत्ति ही है। अनन्तपन कैसे सम्भव है?) =
उत्तर - सादि कहिये उपजने काल विषै आदि सहित है तथापि अपर्यवसिता कहिए अवसान या अन्त ताकरि रहित है तातै अनन्त कहिये। अथवा अविभाग प्रतिच्छेदनिकी अपेक्षा इनकी उत्कृष्ट अनन्तानन्त मात्र संख्या है तातै भी अनन्त कहिये।
८. अनन्त भी कथंचित् सीमित है
धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,३/३०/१ तेन कारणेण मिच्छाइट्ठिरासी ण अवहिरिज्जदि, सव्वे समया अवहिरिज्जंति। ...अण्णहा तस्साभावपसंगादो। ण च अणादि त्ति जाणिदं सादित्तं पावेदि, विरोहा।
= मिथ्यादृष्टि जीवराशि का प्रमाण समाप्त नहीं होता, परन्तु अतीत कालके सम्पूर्ण समय समाप्त हो जाते हैं। ...यदि उसका प्रमाण नहीं माना जाये तो उसके अभाव का प्रसंग आ जायेगा। परन्तु उसके अनादित्व का ज्ञान हो जाता है, इसलिए उसे सादित्व की प्राप्ति हो जायेगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है। श्लो. वा./२/१/७/१९/५६९/६ भाषाकार "जैन सिद्धान्त अनुसार अलोकाकाश के अनन्तानन्त प्रदेश भी संख्या में परिमित हैं, क्योंकि अक्षय अनन्त जीवराशि से अनन्तगुणी पुद्गल राशिसे भी अनन्त गुणे हैं।
• आगममें अनन्त की यथास्थान प्रयोग विधि - दे. गणित I/१/१,६।