भावपाहुड गाथा 108
From जैनकोष
आगे दीक्षाकालादिक की भावना का उपदेश करते हैं -
दिक्खाकालाईयं भावहि अवियारदंसणविसुद्धो ।
उत्तमबोहिणिमित्तं असारसाराणि मुणिऊण ।।११०।।
दीक्षाकालादिकं भावय अविकारदर्शनविशुद्ध: ।
उत्तमबोधिनिमित्तं असारसाराणि ज्ञात्वा ।।११०।।
असार है संसार सब यह जान उत्तम बोधि की ।
अविकार मन से भावना भा अरे दीक्षाकाल सम ।।११०।।
अर्थ - हे मुने ! तू संसार को असार जानकर उत्तमबोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति के निमित्त अविकार अर्थात् अतिचाररहित निर्मल सम्यग्दर्शन सहित होकर दीक्षाकाल आदिक की भावना कर ।
भावार्थ - दीक्षा लेते हैं तब संसार (शरीर) भोग को (विशेषतया) असार जानकर अत्यन्त वैराग्य उत्पन्न होता है वैसे ही उसके आदिशब्द से रोगोत्पत्ति, मरणकालादिक जानना । उस समय में जैसे भाव हों वैसे ही संसार को असार जानकर विशुद्ध सम्यग्दर्शन सहित होकर उत्तम बोधि जिससे केवलज्ञान उत्पन्न होता है उसके लिए दीक्षाकालादिक की निरन्तर भावना करना योग्य है, ऐसा उपदेश है ।।११०।।
[निरन्तर स्मरण में रखना - क्या ? सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की वृद्धि हेतु हे मुनि ! दीक्षा के समय की अपूर्व उत्साहमय तीव्र विरक्त दशा को; किसी रोगोत्पत्ति के समय की उग्र ज्ञानवै राग्य, संपत्ति को, किसी दु:ख के अवसर पर प्रगट हुई उदासीनता की भावना को किसी उपदेश तथा तत्त्वनिर्णय के धन्य अवसर पर जगी पवित्र अंत:भावना को स्मरण में रखना, निरन्तर स्वसन्मुख ज्ञातापन का धीरज अर्थ स्मरण रखना, भूलना नहीं । (इस गाथा का विशेष भावार्थ]