भावपाहुड गाथा 108
From जैनकोष
आगे क्षमा का फल कहते हैं -
पावं खवइ असेसं खमाए पडिंडिओ य मुणिपवरो ।
खेयरअमरणराणं पसंसणीओ धुवं होइ ।।१०८।।
पापं क्षिपति अशेषं क्षमया परिमंडित: च मुनिप्रवर: ।
खेचरामरनराणां प्रशंसनीय: ध्रुवं भवति ।।१०८।।
अर क्षमा मंडित मुनि प्रकट ही पाप सब खण्डित करें ।
सुरपति उरग-नरनाथ उनके चरण में वंदन करें ।।१०८ ।।
अर्थ - जो मुनिप्रवर (मुनियों में श्रेष्ठ प्रधान) क्रोध के अभावरूप क्षमा से मंडित है, वह मुनि समस्त पापों का क्षय करता है और विद्याधर देव मनुष्यों द्वारा प्रशंसा करने योग्य निश्चय से होता है ।
भावार्थ - क्षमा गुण बड़ा प्रधान है, इससे सबके स्तुति करने योग्य पुरुष होता है । जो मुनि हैं, उनके उत्तम क्षमा होती है, वे तो सब मनुष्य देव विद्याधरों के स्तुतियोग्य होते ही हैं, और उनके सब पापों का क्षय होता ही है, इसलिए क्षमा करना योग्य है - ऐसा उपदेश है । क्रोधी सबके निंदा करने योग्य होता है, इसलिए क्रोध का छोड़ना श्रेष्ठ है ।।१०८।।