भावपाहुड गाथा 153
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि जो पूर्वोक्त भाव सहित सम्यग्दृष्टि सत्पुरुष हैं, वे ही सकल शील संयमादि गुणो से संयुक्त हैं, अन्य नहीं हैं -
ते १च्चिय भणामि हं जे सयलकलासीलसंजमगुणेहिं ।
बहुदोसाणावासो सुलिणचित्तो ण सावयसमो सो ।।१५५।।
२तानेव च भणामि ये सकलकलाशीलसंयमगुणै: ।
बहुदोषाणामावास: सुलिनचित्त: न श्रावकसम: स: ।।१५५।।
सब शील संयम गुण सहित जो उन्हें हम मुनिवर कहें ।
बहु दोष के आवास जो हैं अरे श्रावक सम न वे ।।१५५।।
अर्थ - पूर्वोक्त भावसहित सम्यग्दृष्टि पुरुष हैं और शील संयम गुणों से सकल कला अर्थात् संपूर्ण कलावान् होते हैं, उन ही को हम मुनि कहते हैं । जो सम्यग्दृष्टि नहीं है, मलिनचित्तसहित मिथ्यादृष्टि है और बहुत दोषों का आवास (स्थान) है, वह तो भेष धारण करता है तो भी श्रावक के समान भी नहीं है ।
भावार्थ - जो सम्यग्दृष्टि है और शील (उत्तर गुण) तथा संयम (मूलगुण) सहित है वह मुनि है । जो मिथ्यादृष्टि है अर्थात् जिसका चित्त मिथ्यात्व से मलिन है और जिसमें क्रोधादि विकाररूप बहुत दोष पाये जाते हैं, वह तो मुनि का भेष धारण करता है तो भी श्रावक के समान भी नहीं है, श्रावक सम्यग्दृष्टि हो और गृहस्थाचार के पापसहित हो तो भी उसके बराबर वह केवल भेषमात्र को धारण करनेवाला मुनि नहीं है ऐसा आचार्य ने कहा है ।।१५५।।