योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 117
From जैनकोष
नय-सापेक्ष आत्मा का कर्तापना -
शुभाशुभस्य भावस्य कर्तात्मीयस्य वस्तुत: ।
कर्तात्मा पुनरन्यस्य भावस्य व्यवहारत: ।।११७।।
अन्वय :- आत्मा वस्तुत: आत्मीयस्य शुभ-अशुभस्य भावस्य कर्ता (अस्ति)। पुन: व्यवहारत: अन्यस्य भावस्य कर्ता (अस्ति) ।
सरलार्थ :- आत्मा निश्चय से अपने शुभ तथा अशुभ भाव/परिणाम का कर्ता है और व्यवहार से पर द्रव्य के भाव का कर्ता है ।
भावार्थ :- यहाँ शुभाशुभभाव का कर्ता आत्मा को कहना, यह अशुद्धनिश्चयनय अथवा उपचरित सद्भूत व्यवहारनय का कथन समझना और आत्मा को परद्रव्य का कर्ता कहना उपचरित असद्भूत व्यवहारनय का कथन समझना चाहिए । कर्ता-कर्म के सम्बन्ध में जिनवाणी में विभिन्न अपेक्षाओं से अनेक प्रकार के कथन मिलते हैं, जैसे - १. प्रत्येक द्रव्य अपने में उत्पन्न होनेवाली पर्याय का कर्ता है । २. प्रत्येक गुण अपने में होनेवाले परिणमन का कर्ता है । ३. आत्मा अपने में उत्पन्न होनेवाले रागादि विकारी भावों का कर्ता है । ४. ज्ञानी आत्मा अपने वीतरागी परिणमन का कर्ता है । ५. वीतराग परिणाम अपने काल में स्वतंत्र उत्पन्न होता है । ६. पर्याय न द्रव्य से होती है न गुण में से उत्पन्न होती है, परंतु पर्याय अपने ही षट्कारक के कारण अपने काल में स्वतंत्र होती है । ७. व्यवहारनय की अपेक्षा से आत्मा परद्रव्य के परिणमन का भी कर्ता कहलाता है । इन सब अपेक्षाओं को यथास्थान-यथायोग्य समझकर अपने में ज्ञाताभाव/वीतरागभाव प्रगट करने का प्रयास करना चाहिए ।