योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 146
From जैनकोष
पुण्य-पाप में भेद माननेवाला चारित्रभ्रष्ट -
य: पुण्यपापर्योूढ़ोsविशेषं नावबुध्यते ।
स चारित्रपरिभ्रष्ट: संसार-परिवर्धक: ।।१४६।।
अन्वय :- य: मूढ: पुण्य-पापयो: विशेषं न अवबुध्यते; स: चारित्रभ्रष्ट:; संसारपरिवर्धक: (च भवति) ।
सरलार्थ :- जो मूढ मिथ्यादृष्टि पुण्य-पाप में अविशेष नहीं जानता है अर्थात् भेद जानता है, वह चारित्र से भ्रष्ट और संसार को बढ़ानेवाला है ।
भावार्थ :- प्रथमानुयोग आदि तीन अनुयोगों में पुण्य को संसार के अनुकूल संयोगों में निमित्त और पाप को प्रतिकूल संयोगोें में निमित्त बताया है; परन्तु द्रव्यानुयोग अर्थात् अध्यात्म शास्त्र में पुण्य एवं पाप दोनों को कर्म बन्धन करानेवाले और संसार के कारण ही कहा है । अत: दोनों में भेद नहीं मानना चाहिए; यह विषय स्पष्ट किया है । प्रवचनसार शास्त्र की गाथा ७७ एवं इसकी टीका में इस विषय को अत्यंत स्पष्टरूप से समझाया गया है । जिज्ञासु उस प्रकरण को वहाँ से पढ़कर अपनी जिज्ञासा शांत करें । उक्त गाथा का अर्थ इसप्रकार - ``इसप्रकार पुण्य और पाप में अंतर नहीं है, ऐसा जो नहीं मानता, वह मोहाच्छादित होता हुआ घोर, अपार संसार में परिभ्रण करता है ।