केवली 01
From जैनकोष
केवलज्ञान होने के पश्चात् वह साधक केवली कहलाता है। इसी का नाम अर्हन्त या जीवन्मुक्त भी है। वह भी दो प्रकार के होते हैं–तीर्थंकर व सामान्य केवली। विशेष पुण्यशाली तथा साक्षात् उपदेशादि द्वारा धर्म की प्रभावना करने वाले तीर्थंकर होते हैं, और इनके अतिरिक्त अन्य सामान्य केवली होते हैं। वे भी दो प्रकार के होते हैं, कदाचित् उपदेश देने वाले और मूक केवली। मूक केवली बिलकुल भी उपदेश आदि नहीं देते। उपरोक्त सभी केवलियों की दो अवस्थाएँ होती हैं–सयोग और अयोग। जब तक विहार व उपदेश आदि क्रियाएँ करते हैं, तब तक सयोगी और आयु के अन्तिम कुछ क्षणों में जब इन क्रियाओं को त्याग सर्वथा योग निरोध कर देते हैं तब अयोगी कहलाते हैं।
- भेद व लक्षण
- १,२ केवली सामान्य का लक्षण व भेद निर्देश
- सयोग व अयोगी दोनों अर्हन्त हैं— देखें - अर्हन्त / २ ।
- अर्हंत, सिद्ध व तीर्थंकर अंतकृत् व श्रुतकेवली—दे० वह वह नाम।
- तद्भवस्थ व सिद्ध केवली के लक्षण।
- सयोग व अयोग केवली के लक्षण।
- १,२ केवली सामान्य का लक्षण व भेद निर्देश
- केवली निर्देश
- केवली चैतन्यमात्र नहीं बल्कि सर्वज्ञ होता है।
- सर्वज्ञ व सर्वज्ञता तथा केवली का ज्ञान— देखें - केवलज्ञान / ४ ,५।
- सयोग व अयोग केवली में अन्तर।
- सयोगी के चारित्र में कथंचित् मल का सद्भाव— देखें - केवली / २ / २ ।
- सयोग व अयोग केवली में कर्म क्षय सम्बन्धी विशेष।
- केवली के एक क्षायिक भाव होता है।
- केवली के सुख दुःख सम्बन्धी—देखें - सुख।
- छद्मस्थ व केवली के आत्मानुभव की समानता।— देखें - अनुभव / ५ ।
- केवलियों के शरीर की विशेषताएँ।
- तीर्थंकरों के शरीर की विशेषताएँ— देखें - तीर्थंकर / १ ।
- केवलज्ञान के अतिशय— देखें - अर्हंत / ६ ।
- केवलीमरण— देखें - मरण / १ ।
- तीसरे व चौथे काल में ही केवली होने संभव है।— देखें - मोक्ष / ४ / ३ ।
- प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में केवलियों का प्रमाण— देखें - तीर्थंकर / ५ ।
- सभी मार्गणाओं में आय के अनुसार ही व्यय होने सम्बन्धी नियम—देखें - मार्गणा /।
- केवली चैतन्यमात्र नहीं बल्कि सर्वज्ञ होता है।
- शंका–समाधान
- ईर्यापथ आस्रव सहित भी भगवान् कैसे हो सकते हैं।
- ईर्यापथ आस्रव सहित भी भगवान् कैसे हो सकते हैं।
- कवलाहार व परीषह सम्बन्धी निर्देश व शंका–समाधान
- केवली को नोकर्माहार होता है।
- समुद्घात अवस्था में नोकर्माहार भी नहीं होता।
- केवली को कवलाहार नहीं होता।
- मनुष्य होने के कारण केवली को भी कवलाहारी होना चाहिए।
- संयम की रक्षा के लिए भी केवली को कवलाहार की आवश्यकता थी।
- औदारिक शरीर होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए।
- आहारक होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए।
- परिषहों का सद्भाव होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए।
- केवली भगवान् को क्षुधादि परिषह नहीं होती।
- केवली को परीषह कहना उपचार है।
- असाता के उदय के कारण केवली को क्षुधादि परीषह होनी चाहिए।
- घाति व मोहनीय कर्म की सहायता के न होने से असाता अपना कार्य करने को समर्थ नहीं है।
- साता वेदनीय के सहवर्तीपने से असाता की शक्ति अनन्तगुणी क्षीण हो जाती है।
- असाता भी सातारूप परिणमन कर जाता है।
- घाति व मोहनीय कर्म की सहायता के न होने से असाता अपना कार्य करने को समर्थ नहीं है।
- निष्फल होने के कारण असाता का उदय ही नहीं कहना चाहिए।
- केवली को नोकर्माहार होता है।
- इन्द्रिय व मन योग सम्बन्धी निर्देश व शंका-समाधान
- द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय है, भावेन्द्रियों की अपेक्षा नहीं।
- जाति नामकर्मोदय की अपेक्षा पञ्चेन्द्रियत्व है।
- पञ्चेन्द्रिय कहना उपचार है।
- इन्द्रियों के अभाव में ज्ञान की सम्भावना सम्बन्धी शंका-समाधान– देखें - प्रत्यक्ष / २ ।
- भावेन्द्रियों के अभाव सम्बन्धी शंका-समाधान।
- केवली के मन उपचार से होता है।
- केवली के द्रव्यमन होता है, भाव मन नहीं।
- तहाँ मन का भावात्मक कार्य नहीं होता, पर परिस्पन्द रूप कार्य होता है।
- भावमन के अभाव में वचन की उत्पत्ति कैसे हो सकती है?
- मन सहित होते हुए भी केवली को संज्ञी क्यों नहीं कहते।
- योगों के सद्भाव सम्बन्धी समाधान।
- केवली के पर्याप्ति योग तथा प्राण विषयक प्ररुपणा।
- द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा दश प्राण क्यों नहीं कहते ?
- समुद्घातगत केवली को चार प्राण कैसे कहते हो?
- अयोगी के एक आयु प्राण होने का क्या कारण है?
- द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय है, भावेन्द्रियों की अपेक्षा नहीं।
- योग प्राण तथा पर्याप्ति की प्ररुपणा–दे० वह वह नाम।
- ध्यान व लेश्या आदि सम्बन्धी निर्देश व शंका-समाधान
- केवली के समुद्घात अवस्था में भी भाव से शुक्ललेश्या है; तथा द्रव्य से कापोत लेश्या होती है।— देखें - लेश्या / ३ ।
- केवली के समुद्घात अवस्था में भी भाव से शुक्ललेश्या है; तथा द्रव्य से कापोत लेश्या होती है।— देखें - लेश्या / ३ ।
- केवली के लेश्या कहना उपचार है तथा उसका कारण।
- केवली के संयम कहना उपचार है तथा उसका कारण।
- केवली के ध्यान कहना उपचार है तथा उसका कारण।
- केवली के एकत्व वितर्क विचार ध्यान क्यों नहीं कहते।
- तो फिर केवली क्या ध्याते हैं।
- केवली को इच्छा का अभाव तथा उसका कारण।
- केवली के उपयोग कहना उपचार है।
- केवली समुद्घात निर्देश
- केवली समुद्घात सामान्य का लक्षण।
- भेद-प्रभेद।
- दण्डादि भेदों के लक्षण।
- सभी केवलियों के होने न होने विषयक दो मत।
- केवली समुद्घात के स्वामित्व की ओघादेश प्ररूपणा।–देखें - समुद्घात
- आयु के छ: माह शेष रहने पर होने न होने विषयक दो मत।
- कदाचित् आयु के अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर होता है।
- आत्म प्रदेशों का विस्तार प्रमाण।
- कुल आठ समय पर्यन्त रहता है।
- प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधिक्रम।
- दण्ड समुद्घात में औदारिक काययोग होता है शेष में नहीं।
- कपाट समुद्घात में औदारिक मिश्र काययोग होता है शेष में नहीं।– देखें - औदारिक / २ ।
- लोकपूरण समुद्घात में कार्माण काययोग होता है शेष में नहीं– देखें - कार्माण / २ ।
- प्रतर व लोक में आहारक शेष में अनाहारक होता है।
- केवली समुद्घात में पर्याप्तापर्याप्त सम्बन्धी नियम।
- केवली के पर्याप्तापर्याप्तपने सम्बन्धी विषय।– देखें - पर्याप्ति / ३ ।
- पर्याप्तापर्याप्त सम्बन्धी शंका-समाधान।
- समुद्घात करने का प्रयोजन।
- इसके द्वारा शुभ प्रकृतियों का अनुभाग घात नहीं होता।
- जब शेष कर्मों की स्थिति आयु के समान न हो। तब उनका समीकरण करने के लिए होता है।
- कर्मों की स्थिति बराबर करने का विधि क्रम।
- स्थिति बराबर करने के लिए इसकी आवश्यकता क्यों?
- समुद्घात रहित जीव की स्थिति कैसे समान होती है?
- ९वें गुणस्थान में ही परिणामों की समानता होने पर स्थिति की असमानता क्यों?
- भेद व लक्षण
- केवली सामान्य का लक्षण
- केवली निरावरण ज्ञानी होते हैं
मू.आ./५६४ सव्वे केवलकप्पं लोग जाणंति तह य पस्संति। केवलणाणचरित्ता तम्हा ते केवली होंति।५६४।=जिस कारण सब केवलज्ञान का विषय लोक अलोक को जानते हैं और उसी तरह देखते हैं। तथा जिनके केवलज्ञान ही आचरण है इसलिए वे भगवान् केवली हैं।
स.सि./६/१३/३३१/११ निरावरणज्ञाना: केवलिन:।
स.सि./९/३८/४५३/९ प्रक्षीणसकलज्ञानावरणस्य केवलिन: सयोगस्यायोगस्य च परे उत्तरे शुक्लध्याने भवत:।=जिनका ज्ञान आवरण रहित है वे केवली कहलाते हैं। जिसके समस्त ज्ञानावरण का नाश हो गया है ऐसे सयोग व अयोग केवली...। (ध./१/१,१,२१/१९१/३)।
रा.वा./६/१३/१/५२३/२६ करणक्रमव्यवधानातिवर्तिज्ञानोपेता: केवलिन:।१। करणं चक्षुरादि, कालभेदेन वृत्ति: क्रम:, कुड्यादिनान्तर्धानं व्यवधानम्, एतान्यतीत्य वर्तते, ज्ञानावरणस्यात्यन्तसंक्षये आविभूतमात्मन: स्वाभाविकं ज्ञानम्, तद्वन्तोऽर्हन्तो भगवन्त: केवलिन इति व्यपदिश्यन्ते।=ज्ञानावरण का अत्यन्त क्षय हो जाने पर जिनके स्वाभाविक अनन्तज्ञान प्रकट हो गया है, जिनका ज्ञान इन्द्रिय कालक्रम और दूर देश आदि के व्यवधान से परे हैं और परिपूर्ण हैं वे केवली हैं (रा.वा./९/१/२३/५९०)।
- केवली आत्मज्ञानी होते हैं
स.सा./मू./९ जो हि सुएण हि गच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं। तं सुथकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पईवयवा।९।=जो जीव निश्चय से श्रुतज्ञान के द्वारा इस अनुभव गोचर केवल एक शुद्ध आत्मा को सम्मुख होकर जानता है, उसको लोक को प्रगट जानने वाले ऋषिवर श्रुतकेवली कहते हैं।
प्र.सा./त.प्र./३३ भगवान्....केवलस्यात्मन आत्मनात्मनि संचेतनात् केवली।=भगवान्....आत्मा को आत्मा से आत्मा में अनुभव करने के कारण केवली हैं। (भावार्थ–भगवान् समस्त पदार्थों को जानते हैं, मात्र इसलिए ही वे ‘केवली’ नहीं कहलाते, किन्तु केवल अर्थात् शुद्धात्मा को जानने—अनुभव करने से केवली कहलाते हैं)।
मो.पा./टी./६/३०८/११ केवते सेवते निजात्मनि एकलोलीभावेन तिष्ठतीति केवल:।=जो निजात्मा में एकीभाव से केवते हैं, सेवते हैं या ठहरते हैं वे केवली कहलाते हैं।
- केवली निरावरण ज्ञानी होते हैं
- केवली सामान्य का लक्षण
- केवली के भेदों का निर्देश
क.पा./१/१,१६/३१२/३४३/२५ विशेषार्थ–तद्भवस्थकेवली और सिद्ध केवली के भेद से केवली दो प्रकार के होते हैं।
सत्ता स्वरूप/३८ सात प्रकार के अर्हन्त होते हैं। पाँच, तीन व दो कल्याणक युक्त, सातिशय केवली अर्थात् गन्धकुटी युक्त केवली, सामान्य केवली अर्थात् मूककेवली, (दो प्रकार हैं—तीर्थंकर व सामान्य केवली) उपसर्ग केवली और अन्त-कृत् केवली।
- तद्भवस्थ व सिद्ध केवली का लक्षण
क.पा.१/१,१६/३११/३४३/२६ विशेषार्थ–जिस पर्याय में केवलज्ञान प्राप्त हुआ उसी पर्याय में स्थित केवली को तद्भवस्थ केवली कहते हैं और सिद्ध जीवों को सिद्ध केवली कहते हैं।
- सयोग व अयोग केवली के लक्षण
पं.सं./प्रा./१/२७-३० केवलणाणदिवायरकिरणकलावप्पणासि अण्णाओ। णवकेवललद्धुग्गमपावियपरमप्पववएसो।२७। असहयणाण—दंसणसहिओ वि हु केवली हु जोएण। जुत्तो त्ति सजोइजिणो अणाइणिहणारिसे वुत्तो।१२५। सेलेसिं संपत्तो णिरुद्धणिस्सेस आसओ जीवो। कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होई।३०।=जिसका केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से अज्ञान विनष्ट हो गया है। जिसने केवललब्धि प्राप्त कर परमात्म संज्ञा प्राप्त की है, वह असहाय ज्ञान और दर्शन से युक्त होने के कारण केवली, तीनों योगों से युक्त होने के कारण सयोगी और घाति कर्मों से रहित होने के कारण जिन कहा जाता है, ऐसा अनादिनिधन आर्ष में कहा हैं। (२७, २८) जो अठारह हजार शीलों के स्वामी हैं, जो आस्रवों से रहित हैं, जो नूतन बँधने वाले कर्मरज से रहित हैं और जो योग से रहित हैं, तथा केवलज्ञान से विभूषित हैं, उन्हें अयोगी परमात्मा कहते हैं।३०। (ध.१/१,१,२१/१२४-१२६/१९२) (गो.जी./मू./६३-६५) (पं.सं./सं./१/४९-५०)
पं.सं./प्रा./१/१०० जेसिं ण संति जोगा सुहासुहा पुण्णपापसंजणया। ते होंति अजोइजिणा अणोवमाणंतगुणकलिया।१००।=जिनके पुण्य और पाप के संजनक अर्थात् उत्पन्न करने वाले शुभ और अशुभ योग नहीं होते हैं, वे अयोगि जिन कहलाते हैं, जो कि अनुपम और अनन्त गुणों से सहित होते हैं। (ध.१/१,१,५९/१५५/२८०) (गो.जी./मू./२४३) (पं.सं./सं./१/१८०) ध.७/२,१,१५/१८/२ सट्ठिददेसमछंडिय छहित्ता वा जीवदव्वस्स। सावयवेहिं परिप्फंदो अजोगो णाम, तस्स कम्मक्खयत्तादो।=स्वस्थित प्रदेश को छोड़ते हुए अथवा छोड़कर जो जीव द्रव्य का अपने अवयवों द्वारा परिस्पन्द होता है वह अयोग है, क्योंकि वह कर्मक्षय से उत्पन्न होता है।
ज.१/१,१,२१/१९१/४ योगेन सह वर्तन्त इति सयोगा:। सयोगाश्च ते केवलिनश्च सयोगकेवलिन:। ध.१/१,१,२२/१९२/७ न विद्यते योगो यस्य स भवत्ययोग:। केवलमस्यास्तीति केवली। अयोगश्चासौ केवली च अयोगकेवली।=जो योग के साथ रहते हैं उन्हें सयोग कहते हैं, इस तरह जो सयोग होते हुए केवली हैं उन्हें सयोग केवली कहते हैं। जिसके योग विद्यमान नहीं हैं उसे अयोग कहते हैं। जिसके केवलज्ञान पाया जाता है उसे केवली कहते हैं, जो योगरहित होते हुए केवली होता है उसे अयोग केवली कहते हैं। (रा.वा./९/१/२४/५९/२३)
द्र.सं./टी./१३/३५ ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायत्रयं युगपदेकसमयेन निर्मूल्य मेघपञ्जरविनिर्गतदिनकर इव सकलविमलकेवलज्ञानज्ञानकिरणैर्लोकालोकप्रकाशकास्त्रयोदशगुणस्थानवर्तिनो जिनभास्करा भवन्ति। मनोवचनकायवर्गणालम्बनकर्मादाननिमितात्मप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणयोगरहितश्चतुर्दशगुणस्थानवर्तिनोऽयोगिजिना भवन्ति।=समस्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों को एक साथ एक काल में सर्वथा निर्मूल करके मेघपटल से निकले हुए सूर्य के समान केवलज्ञान की किरणों से लोकालोक के प्रकाशक तेरहवें गुणस्थानवर्ती जिनभास्कर (सयोगी जिन) होते हैं। और मन, वचन, काय वर्गणा के अवलम्बन से कर्मों के ग्रहण करने में कारण जो आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्दन रूप योग है, उससे रहित चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी जिन होते हैं।