दु:ख
From जैनकोष
दु:ख से सब डरते हैं। शारीरिक, मानसिक आदि के भेद से दु:ख कई प्रकार का है। तहाँ शारीरिक दु:ख को ही लोक में दु:ख माना जाता है। पर वास्तव में वह सबसे तुच्छ दु:ख है। उससे ऊपर मानसिक और सबसे बड़ा स्वाभाविक दु:ख होता है, जो व्याकुलता रूप है। उसे न जानने के कारण ही जीव नरक, तिर्यंचादि योनियों के विविध दु:खों को भोगता रहता है। जो उसे जान लेता है वह दु:ख से छूट जाता है।
- भेद व लक्षण
- दु:ख का सामान्य लक्षण
स.सि./५/२०/२८८/१२ सदसद्वेद्योदयेऽन्तरङ्गहेतौ सति बाह्यद्रव्यादिपरिपाकनिमित्तवशादुत्पद्यमान: प्रीतिपरितापरूप: परिणाम: सुखदु:खमित्याख्यायते।
स.सि./६/११/३२८/१२ पीडालक्षण: परिणामो दु:खम् । =साता और असाता रूप अन्तरंग हेतु के रहते हुए बाह्य द्रव्यादि के परिपाक के निमित्त से प्रीति और परिताप रूप परिणाम उत्पन्न होते हैं, वे सुख और दु:ख कहे जाते हैं। अथवा पीड़ा रूप आत्मा का परिणाम दु:ख है। (रा.वा./६/११/१/५१९); (रा.वा./५/२०/२/४७४); (गो.जी./जी.प्र./६०६/१०६२/१५)। ध.१३/५,५,६३/३३४/५ अणिट्ठत्थसमागमो इट्ठत्थवियोगो च दु:खं णाम। =अनिष्ट अर्थ समागम और इष्ट अर्थ के वियोग का नाम दु:ख है।
ध.१५/६/६ सिरोवेयणादी दुक्खं णाम। =सिर की वेदनादि का नाम दु:ख है। - दु:ख के भेद
भा.पा./मू./११ आगंतुकं माणसियं सहजं सारीरियं चत्तारि। दुक्खाइं...।११। =आगंतुक, मानसिक, स्वाभाविक तथा शारीरिक, इस प्रकार दु:ख चार प्रकार का होता है। न.च./९३ सहजं...नैमित्तिकं...देहजं...मानसिकम् ।९३। =दु:ख चार प्रकार का होता है–सहज, नैमित्तिक, शारीरिक और मानसिक।
का.अ./मू./३५ असुरोदीरिय-दुक्खं-सारीरं-माणसं तहा तिविह: खित्तुब्भवं च तिव्वं अण्णोण्ण-कयं च पंचविहं।३५। =पहला असुरकुमारों के द्वारा दिया गया दु:ख, दूसरा शारीरिक दु:ख, तीसरा मानसिक दु:ख, चौथा क्षेत्र से उत्पन्न होने वाला अनेक प्रकार का दु:ख, पाँचचाँ परस्पर में दिया गया दु:ख, ये दु:ख के पाँच प्रकार हैं।३५। - मानसिकादि दु:खों के लक्षण
न.च./९३ सहजखुधाइजादं णयमितं सीदवादमादीहिं। रोगादिआ य देहज अणिट्ठजोगे तु माणसियं।९३। =क्षुधादि से उत्पन्न होने वाला दु:ख स्वाभाविक, शीत, वायु आदि से उत्पन्न होने वाला दु:ख नैमित्तिक, रोगादि से उत्पन्न होने वाला शारीरिक तथा अनिष्ट वस्तु के संयोग हो जाने पर उत्पन्न होने वाला दु:ख मानसिक कहलाता है।
- दु:ख का सामान्य लक्षण
- पीड़ारूप दु:ख–देखें - वेदना।
- दु:ख निर्देश
- चतुर्गति के दु:ख का स्वरूप
भ.आ./मू./१५७९-१५९९ पगलंगतरुधिरधारो पलंवचम्मो पभिन्नपोट्टसिरो। पउलिदहिदओ जं फुडिदत्थो पडिचूरियंगो च।१५७९। ताडणतासणबंधणवाहणलंछणविहेडणं दमणं। कण्णच्छेदणणासावेहणाणिल्लंछणं चेव।१५८२। रोगा विविहा बाधाओ तह य णिच्चं भयं च सव्वत्तो। तिव्वाओ वेदणाओ धाडणपादाभिधादाओ।१५८८। दंडणमुंडणताडणधरिसणपरिमोससंकिलेसां य। धणहरणदारधरिसणघरदाहजलादिधणनासं।१५९२। देवो माणी संतो पासिय देवे महढि्ढए अण्णे। जं दुक्खं संपत्तो घोरं भग्गेण माणेण।१५९९। =जिसके शरीर में से रक्त की धारा बह रही है, शरीर का चमड़ा नीचे लटक रहा है, जिसका पेट और मस्तक फूट गया है, जिसका हृदय तप्त हुआ है, आँखें फूट गयी हैं, तथा सब शरीर चूर्ण हुआ है, ऐसा तू नरक में अनेक बार दु:ख भोगता था।१५७९। लाठी वगैरह से पीटना, भय दिखाना, डोरी वगैरह से बाँधना, बोझा लादकर देशान्तर में ले जाना, शंख-पद्मादिक आकार से उनके शरीर पर दाह करना, तकलीफ देना, कान, नाक छेदना, अंड का नाश करना इत्यादिक दु:ख तिर्यग्गति में भोगने पड़ते हैं।१५८२। इस पशुगति में नाना प्रकार के रोग, अनेक तरह की वेदनाएँ तथा नित्य चारों तरफ से भय भी प्राप्त होता है। अनेक प्रकार के घाव से रगड़ना, ठोकना इत्यादि दु:खों की प्राप्ति तुझे पशुगति में प्राप्त हुई थी।१५८५। मनुष्यगति में अपराध होने पर राजादिक से धनापहार होता है यह दंडन दु:ख है। मस्तक के केशों का मुण्डन करवा देना, फटके लगवाना, घर्षणा अपेक्षा सहित दोषारोपण करने में मन में दु:ख होता है। परिमोष अर्थात् राजा धन लुटवाता है। चोर द्रव्य हरण करते हैं तब धन हरण दु:ख होता है। भार्या का जबरदस्ती हरन होने पर, घर जलने से, धन नष्ट होने इत्यादिक कारणों से मानसिक दु:ख उत्पन्न होते हैं।१५९२। मानी देव अन्य ऋद्धिशाली देवों को देखकर जिस घोर दु:ख को प्राप्त होता है वह मनुष्य गति के दु:खों की अपेक्षा अनन्तगुणित है। ऋद्धिशाली देवों को देखकर उसका गर्व शतश: चूर्ण होने से वह महाकष्टी होता है।१५९९। (भा.पा./मू./१५)। भा.पा./मू./१०-१२ खणणुत्तावणवालणवेयणविच्छेयणाणिरोहं च। पत्तोसि भावरहिओ तिरियगईए चिरं कालं।१०। सुरणिलयेसु सुरच्छरविओयकाले य माणसं तिव्वं। संयतोसि महाजस दुखं सुहभावणारहिओ।१२। =हे जीव ! तै तिर्यंचगति विषैं खनन, उत्तापन, ज्वलन, वेदन, व्युच्छेदन, निरोधन इत्यादि दु:ख बहुत काल पर्यन्त पाये। भाव रहित भया संता। हे महाजस ! ते देवलोक विषैं प्यारी अप्सरा का वियोग काल विषै वियोग सम्बन्धी दु:ख तथा इन्द्रादिक बड़े ऋद्धिधारीनिकूं आपकूं हीन मानना ऐसा मानसिक दु:ख, ऐसे तीव्र दु:ख शुभ भावना करि रहित भये सन्त पाया।१२। - संज्ञी से असंज्ञी जीवों में दु:ख की अधिकता
पं.ध./उ./३४१ महच्चेत्संज्ञिनां दु:खं स्वल्पं चासंज्ञिनां न वा। यतो नीचपदादुच्चै: पदं श्रेयस्तथा भतम् ।३४१। =यदि कदाचित् यह कहा जाये कि संज्ञी जीवों को बहुत दु:ख होता है, और असंज्ञी जीवों को बहुत थोड़ा दु:ख होता है, तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि नीच पद से वैसा अर्थात् संज्ञी कैसे ऊँच पद श्रेष्ठ माना जाता है।३४१। इसलिए सैनी से असैनी के कम दु:ख सिद्ध नहीं हो सकता है किन्तु उल्टा असैनी को ही अधिक दु:ख सिद्ध होता है। (पं.ध./उ./३४१-३४४)। - संसारी जीवों को अबुद्धि पूर्वक दु:ख निरन्तर रहता है
पं.ध./उ./३१८-३१९ अस्ति संसारि जीवस्य नूनं दु:खमबुद्धिजम् । सुखस्यादर्शनं स्वस्य सर्वत: कथमन्यथा।३१८। ततोऽनुमीयते दु:खमस्ति नूनमबुद्धिजम् । अवश्यं कर्मबद्धस्य नैरन्तर्योदयादित:।३१९। =पर पदार्थ में मूर्छित संसारी जीवों के सुख के अदर्शन में भी निश्चय से अबुद्धिपूर्वक दु:ख कारण है क्योंकि यदि ऐसा न होता तो उनके आत्मा के सुख का अदर्शन कैसे होता–क्यों होता।३१८। इसलिए निश्चय करके कर्मबद्ध संसारी जीव के निरन्तर कर्म के उदय आदि के कारण अवश्य ही अबुद्धि पूर्वक दु:ख है, ऐसा अनुमान किया जाता है।३१९।
- लौकिक सुख वास्तव में दु:ख है–देखें - सुख।
- शारीरिक दु:ख से मानसिक दु:ख बड़ा है
का.अ./मू./६० सारीरिय-दुक्खादो माणस-दुक्खं हवेइ अइपउरं। माणस-दुक्ख-जुदस्स हि विसया वि दुहावहा हुंति।६०। =शारीरिक दु:ख से मानसिक दु:ख बड़ा होता है। क्योंकि जिसका मन दु:खी है, उसे विषय भी दु:खदायक लगते हैं।६०। - शारीरिक दु:खों की गणना
का.अ./टी./२८८/२०७ शारीरं शरीरोद्भवं शीतोष्णक्षुत्तृषापञ्चकोट्यष्टषष्टिलक्षनवनवतिसहस्रपञ्चशतचतुरशीतिव्याध्यादि जं। =शरीर से उत्पन्न होने वाला दु:ख शारीरिक कहलाता है। भूख प्यास, शीत उष्ण के कष्ट तथा पाँच करोड़ अड़सठ लाख निन्यानवे हज़ार पाँच सौ चौरासी व्याधियों से उत्पन्न होने वाले शारीरिक दु:ख होते हैं।
- चतुर्गति के दु:ख का स्वरूप
- दु:ख के कारणादि
- दु:ख का कारण शरीर व बाह्य पदार्थ
स.श./मू./१५ मूलं संसारदु:खस्य देह एवावत्मधीस्तत:। त्यक्त्वैनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्यापृतेन्द्रिय:।१५। = इस जड़ शरीर में आत्मबुद्धि का होना ही संसार के दु:खों का कारण है। इसलिए शरीर में आत्मत्व की मिथ्या कल्पना को छोड़कर बाह्य विषयों में इन्द्रियों की प्रवृत्ति को रोकता हुआ अन्तरंग में प्रवेश करे।१५।
आ.अनु./१९५ आदौ तनोर्जननमत्र हतेन्द्रियाणि काङ्क्षन्ति तानि विषयान् विषयाश्च माने। हानिप्रयासभयपापकुयोनिदा: स्युर्मूलं ततस्तनुरनर्थपरं पराणाम् ।१९५। =प्रारम्भ में शरीर उत्पन्न होता है, इस शरीर से दुष्ट इन्द्रियाँ होती हैं, वे अपने-अपने विषयों को चाहती हैं; और वे विषय मानहानि, परिश्रम, भय, पाप एवं दुर्गति को देने वाले हैं। इस प्रकार से समस्त अनर्थों की परम्परा का मूल कारण वह शरीर ही है।१९५। ज्ञा./७/११ भवोद्भवानि दु:खानि यानि यानीह देहिभि:। सह्यन्ते तानि तान्युच्चैर्वपुरादाय केवलम् ।११। =इस जगत् में संसार से उत्पन्न जो जो दु:ख जीवों को सहने पड़ते हैं, वे सब इस शरीर के ग्रहण से ही सहने पड़ते हैं। इस शरीर से निवृत्त होने पर फिर कोई भी दु:ख नहीं है।११। (ज्ञा./७/१०)। - दु:ख का कारण ज्ञान का ज्ञेयार्थ परिणमन
पं.ध./उ./२७८-२७९ नूनं यत्परतो ज्ञानं प्रत्यर्थं परिणामियत् । व्याकुलं मोहसंपृक्तमर्थाद्दु:खमनर्थवत् ।२७८। सिद्धं दु:खत्वमस्योच्चैर्व्याकुलत्वोपलब्धित:। ज्ञातशेषार्थसद्भावे तद्बुभुत्सादिदर्शनात् ।२७९। =निश्चय से जो ज्ञान इन्द्रियादि के अवलम्बन से होता है और जो ज्ञान प्रत्येक अर्थ के प्रति परिणमनशील रहता है अर्थात् प्रत्येक अर्थ के अनुसार परिणामी होता है वह ज्ञान व्याकुल तथा राग-द्वेष सहित होता है इसलिए वास्तव में वह ज्ञान दु:खरूप तथा निष्प्रयोजन के समान है।२७८। प्रत्यर्थ परिणामी होने के कारण ज्ञान में व्याकुलता पायी जाती है इसलिए ऐसे इन्द्रियजन्य ज्ञान में दु:खपना अच्छी तरह सिद्ध होता है। क्योंकि जाने हुए पदार्थ के सिवाय अन्य पदार्थों के जानने की इच्छा रहती है।२७९। - दु:ख का कारण क्रमिक ज्ञान
प्र.सा./त.प्र./६० खेदस्यायतनानि घातिकर्माणि, न नामकेवलं परिणाममात्रम् । घातिकर्माणि हि...परिच्छेद्यमर्थं प्रत्यात्मानं यत: परिणामयति, ततस्तानि तस्य प्रत्यर्थं परिणम्य परिणम्य श्राम्यत: खेदनिदानतां प्रतिपद्यन्ते।=खेद के कारण घातिकर्म हैं, केवल परिणमन मात्र नहीं। वे घातिकर्म प्रत्येक पदार्थ के प्रति परिणमित हो-होकर थकने वाले आत्मा के लिए खेद के कारण होते हैं।
प्र.सा./ता.वृ./६०/७९/१२ क्रमकरणव्यवधानग्रहणे खेदो भवति। =इन्द्रियज्ञान क्रमपूर्वक होता है, इन्द्रियों के आश्रय से होता है, तथा प्रकाशादि का आश्रय लेकर होता है, इसलिए दु:ख का कारण है। पं.ध./उ./२८१ प्रमत्तं मोहयुक्तत्वान्निकृष्टं हेतुगौरवात् । व्युच्छिन्नं क्रमवर्तित्वात्कृच्छ्रं चेहाद्युपक्रमात् ।२८१। =वह इन्द्रियजन्य ज्ञान मोह से युक्त होने के कारण प्रमत्त, अपनी उत्पत्ति के बहुत से कारणों की अपेक्षा रखने से निकृष्ट, क्रमपूर्वक पदार्थों को विषय करने के कारण व्युच्छिन्न और ईहा आदि पूर्वक होने से दु:खरूप कहलाता है।२८१। - दु:ख का कारण जीव के औदयिक भाव
पं.ध./उ./३२० नावाच्यता यथोक्तस्य दु:खजातस्य साधने। अर्थादबुद्धिमात्रस्य हेतोरौदयिकत्वत:।३२०।=वास्तव में सम्पूर्ण अबुद्धिपूर्वक दु:खों का कारण जीव का औदयिक भाव ही है इसलिए उपर्युक्त सम्पूर्ण अबुद्धिपूर्वक दु:ख के सिद्ध करने में अवाच्यता नहीं है।
- * दु:ख का सहेतुकपना– देखें - विभाव / ३ ।
- क्रोधादि भाव स्वयं दु:खरूप हैं
ल.सा./मू./७४ जीवणिबद्धा एए अधुव अणिच्चा तहा असरणा य। दुक्खा दुक्खफला त्ति य णादूण णिवत्तए तेहिं।७४। =यह आस्रव जीव के साथ निबद्ध है, अध्रुव है, अनित्य है तथा अशरण है और वे दु:खरूप हैं, दु:ख ही जिनका फल है ऐसे हैं–ऐसा जानकर ज्ञानी उनसे निवृत्त होता है। - दु:ख दूर करने का उपाय
स.श./मू./४१ आत्मविभ्रमजं दु:खमात्मज्ञानात्प्रशाम्यति। नायतास्तत्र निर्वान्ति कृत्वापि परमं तप:।४१। =शरीरादिक में आत्म बुद्धिरूप विभ्रम से उत्पन्न होने वाला दु:ख-कष्ट शरीरादि से भिन्नरूप आत्मस्वरूप के करने से शान्त हो जाता है। अतएव जो पुरुष भेद विज्ञान के द्वारा आत्मस्वरूप की प्राप्ति में प्रयत्न नहीं करते वे उत्कृष्ट तप करके भी निर्वाण को प्राप्त नहीं करते।४१। आ.अनु./१८६-१८७ हाने: शोकस्ततो दु:खं लाभाद्रागस्तत: सुखम् । तेन हानावशोक: सन् सुखी स्यात्सर्वदा सुधी:।१८६।...सुखं सकलसंन्यासो दु:खं तस्य विपर्यय:।१८७। =इष्ट वस्तु की हानि से शोक और फिर उससे दु:ख होता है, तथा फिर उसके लाभ से राग तथा फिर उससे सुख होता है। इसलिए बुद्धिमान् पुरुष को इष्ट की हानि में शोक से रहित होकर सदा सुखी रहना चाहिए।१८६। समस्त इन्द्रिय विषयों से विरक्त होने का नाम सुख और उनमें आसक्त होने का नाम ही दु:ख है। (अत: विषयों से विरक्त होने का उपाय करना चाहिए)।१८७।
- असाता के उदय में औषध आदि भी सामर्थ्यहीन हैं– देखें - कारण / III / ५ / ४ ।
- दु:ख का कारण शरीर व बाह्य पदार्थ