संवर
From जैनकोष
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति ये सब कर्मों के आने के द्वार होने से आस्रव हैं। इनसे विपरीत सम्यक्त्व देश व महाव्रत, अप्रमाद, मोह व कषायहीन शुद्धात्म परिणति तथा मन, वचन, काय के व्यापार की निवृत्ति ये सब नवीन कर्मों के निरोध के हेतु होने से संवर हैं। तहाँ समिति गुप्ति आदि रूप जीव के शुद्धभाव तो भाव संवर है और नवीन कर्मों का आना द्रव्य संवर है।
संवर सामान्य निर्देश
१ संवर सामान्य का निर्देश
त.सू./९/१ आस्रवनिरोध: संवर:।१। =आस्रव का निरोध संवर है।
रा.वा./१/४/११,१८/पृष्ठ/पंक्ति संव्रियतेऽनेन संवरणमात्रं वा संवर: (११/२६/५)। संवर इव संवर:। क उपमार्थ:। यथा सुगुप्तसुसंवृतद्वारकवाटं पुरं सुरक्षितं दुरासादमारातिभिर्भवति, तथा सुगुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रात्मन: सुसंवृतेन्द्रियकषाययोगस्य अभिनवकर्मागमद्वारसंवरणात् संवर:। (१८/२७/४)।
रा.वा./९/१/१,२,६/५८७ कर्मागमनिमित्ता प्रादुर्भूतिरास्रवनिरोध:।१। तन्निरोधे सति तत्पूर्वकर्मादानाभाव: संवर:।२। मिथ्यादर्शनादिप्रत्ययकर्मसंवरणं संवर:।६। =१. जिनसे कर्म रुकें वह कर्मों का रुकना संवर है।११। संवर की भाँति संवर होता है। जैसे जिस नगर के द्वार अच्छी तरह बन्द हों, वह नगर शत्रुओं को अगम्य है, उसी तरह गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से कर ली है संवृत इन्द्रिय कषाय व योग जिसने ऐसी आत्मा के नवीन कर्मों का द्वार रुक जाना संवर है।१८। २. अथवा मिथ्यादर्शनादि जो कर्मों के आगमन के निमित्त है (देखें - आस्रव ) उनका अप्रादुर्भाव आस्रव का निरोध है।१। उसके निरोध हो जाने पर, उस पूर्वक जो कर्मों का ग्रहण पहले होता था, उसका अभाव हो जाना संवर है।२। अर्थात् मिथ्यादर्शन आदि के निमित्त से होने वाले कर्मों का रुक जाना संवर है।६।
भ.आ./वि./३८/१३४/१६ संव्रियते संरुध्यते मिथ्यादर्शनादि: परिणामो येन परिणामान्तरेण सम्यग्दर्शनादिना, गुप्त्यादिना वा स संवर:। =जिस सम्यग्दर्शनादि परिणामों से अथवा गुप्ति, समिति आदि परिणामों से मिथ्यादर्शनादि परिणाम रोके जाते हैं वे रोकने वाले परिणाम संवर शब्द से कहे जाते हैं।
न.च.वृ./१५६/ रुंधिय छिद्दसहस्से जलजाणे जह जलं तु णासवदि। मिच्छत्ताइअभावे तह जीवे संवरो होई।१५६। =जिस प्रकार नाव के छिद्र रुक जाने पर उसमें जल प्रवेश नहीं करता, इसी प्रकार मिथ्यात्वादि का अभाव हो जाने पर जीव में कर्मों का संवर होता है, अर्थात् नवीन कर्मों का आस्रव नहीं होता है।
* संवरानुप्रेक्षा का लक्षण - देखें - अनुप्रेक्षा।
२. द्रव्य व भाव संवर सामान्य निर्देश
स.सि./९/१/४०६/५ स द्विविधो भावसंवरो द्रव्यसंवरश्चेति। तत्र संसारनिमित्तक्रियानिवृत्तर्भावसंवर:। तन्निरोधे तत्पूर्वकर्मपुद्गलादानविच्छेदो द्रव्यसंवर:। =वह दो प्रकार का है - भावसंवर और द्रव्यसंवर। संसार की निमित्तभूत क्रिया की निवृत्ति होना भावसंवर है, और इसका (उपरोक्त क्रिया का) निरोध होने पर तत्पूर्वक होने वाले कर्मपुद्गलों के ग्रहण का विच्छेद होना द्रव्यसंवर है। (रा.वा./९/१/७-९/५८८/१), (ज्ञा./२/८/१-३)।
द्र.सं./मू./३४-३५ चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू। सो भावसंवरो खलु दव्वासवरोहणे अण्णो।३४। वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसहजओ य। चारित्तं बहुभेया णायव्वा भावसंवरविसेसा।३५। =आत्मा का जो परिणाम कर्म के आस्रव को रोकने में कारण है, उसको भाव संवर कहते हैं और जो द्रव्यास्रव को रोकने में कारण है द्रव्य संवर है।३४। पाँचव्रत, पाँचसमिति, तीनगुप्ति, दशधर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषहजय तथा अनेक प्रकार का चारित्र इस तरह ये सब भाव संवर के विशेष जानने चाहिए।३५।
द्र.सं./टी./३४/९६/१ निरास्रवसहजस्वभावत्वात्सर्वकर्मसंवरहेतुरित्युक्तलक्षण: परमात्मा तत्स्वभावेनोत्पन्नो योऽसौ शुद्धचेतनपरिणाम: स भावसंवरो भवति। यस्तु भावसंवरात्कारणभूतादुत्पन्न: कार्यभूतो नवतरद्रव्यकर्मागमनाभाव: स द्रव्यसंवर इत्यर्थ:। =आस्रवविरहित सहजस्वभाव होने से सब कर्मों के रोकने में कारण, जो शुद्ध परमात्मतत्त्व है उसके स्वभाव से उत्पन्न जो शुद्धचेतन परिणाम है सो भावसंवर है। और कारणभूत भावसंवर से उत्पन्न हुआ जो कार्यरूप नवीन द्रव्यकर्मों के आगमन का अभाव सो द्रव्यसंवर है। यह गाथार्थ है।
३. संवर के निश्चय हेतु
स.सा./मू./१८७-१८९ अप्पाणमप्पणा रुंधिऊण दोपुण्णपावजोएसु। दंसणणाणम्हि ठिदो इच्छाविरदो य अण्णम्हि।१८७। जो सव्वसंगमुक्को झायदि अप्पाणमप्पणो अप्पा। णवि कम्मं णोकम्मं चेदा चिंतेदि एयत्तं।१८८। अप्पाणं झायंतो दंसणणाणमओ अणण्णमओ। लहइ अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मविप्पमुक्को।१८९। [एष संवरप्रकार: - स.सा./आ./१८९]=आत्मा को आत्मा के द्वारा जो पुण्यपापरूपी शुभाशुभ योगों से रोककर दर्शनज्ञान में स्थित होता हुआ और अन्य वस्तु की इच्छा से विरत होता हुआ।१८७। जो आत्मा सर्वसंग से रहित होता हुआ अपने आत्मा को आत्मा के द्वारा ध्याता है और कर्म तथा नोकर्म को नहीं ध्याता एवं चेतयिता (होने से) एकत्व को ही चिन्तवन करता है, अनुभव करता है।१८८। वह (आत्मा) आत्मा को ध्याता हुआ दर्शनज्ञानमय और अनन्यमय होता हुआ अल्पकाल में ही कर्मों से रहित आत्मा को प्राप्त करता है।१८९। यह संवर की विधि है।
स.सा./आ./१८३/क.१२६ के पीछे-भेदविज्ञानाच्छुद्धात्मोपलम्भ: प्रभवति। शुद्धात्मोपलम्भात् रागद्वेषमोहाभावलक्षण: संवर: प्रभवति। =भेद विज्ञान से शुद्धात्मा की उपलब्धि होती है और शुद्धात्मा की उपलब्धि से राग-द्वेष मोह का अभाव जिसका लक्षण है ऐसा संवर होता है।
द्र.सं./टी./२८/८५/१२ कर्मास्रवनिरोधसमर्थस्वसंवित्तिपरिणतजीवस्य शुभाशुभकर्मागमनसंवरणं संवर:। =कर्मों के आस्रव को रोकने में समर्थ स्वानुभव में परिणत जीव के जो शुभ तथा अशुभ कर्मों के आने का निरोध है वह संवर है। (पं.का./ता.वृ./१४४/२०९/१०)।
४. संवर के व्यवहार हेतु
त.सू./९/२ स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रै:।२। =वह संवर गुप्ति, समिति, दशधर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परिषहजय और सामायिकादि पाँच प्रकार चारित्र इनसे होता है। (रा.वा./१/७/१४/४०/१२); (का.अ./मू./९६); ( देखें - संवर / १ / १ )।
का.आ./मू./९५,१०१ सम्मत्तं देसवयं महव्वयं तह जओ कसायाणं। एदे संवरणामा जोगाभावो तहा चेव।९५। जो पुण विसयविरत्तो अप्पाणं सव्वदो वि संवरइ। मणहरविसएहिंतो तस्स फुडं संवरो होदि।१०१। =१. सम्यक्त्व, देशव्रत, महाव्रत, कषायों का जीतना और योगों का अभाव ये सब संवर के नाम हैं।९५। [( देखें - संवर / २ / २ )-मिथ्यात्व अविरति आदि जो पाँच बन्ध के हेतु कहे गये हैं, उनसे विपरीत ये सम्यक्त्व आदि संवर के हेतु सिद्ध हैं।] ( देखें - संवर / १ / १ )। २. जो मुनि विषयों से विरक्त होकर, मन को हरने वाले पाँचों इन्द्रियों के विषयों से अपने को सदा दूर रखता है, उनमें प्रवृत्ति नहीं करता, उसी मुनि के निश्चय से संवर होता है।१०१।
देखें - संवर / १ / २ /द्र.सं. [उपरोक्त समिति गुप्ति आदि भाव संवर के विशेष हैं।]
द्र.सं./टी./३५/१४६/६ निरास्रवशुद्धात्मतत्त्वपरिणतिरूपस्य संवरस्य कारणभूता द्वादशानुप्रेक्षा:। =निरास्रव शुद्धात्मतत्त्व की परिणतिरूप जो संवर है उसकी कारणरूप बारह अनुप्रेक्षा है। [अर्थात् शुद्धात्मानुभूति तो संवर में कारण है, और अनुप्रेक्षा तथा अन्य समिति गुप्ति आदि संवर के उस कारण के भी कारण हैं।]
देखें - तप / ४ / ५ [तप संवर व निर्जरा दोनों का कारण है।]
* कर्मों के संवर की ओघ आदेश प्ररूपणा - देखें - प्रकृतिबन्ध / ७ ।
* निर्जरा में संवर की प्रधानता - देखें - निर्जरा / २ ।
* संवर व निर्जरा के कारणों की समानता - देखें - निर्जरा / २ / ४ ।
निश्चय व्यवहार संवर का समन्वय
१. निश्चय संवर की प्रधानता में हेतु
स.सा./मू./१८६ [कथं शुद्धात्मोपलम्भादेव संवर इति चेत् - (उत्थानिका)] - सुद्धं तु वियाणंतो सुद्धं चेव अप्पयं लहइ जीवो। जाणंतो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पयं लहइ।१८६। =प्रश्न - शुद्धात्मा की उपलब्धि ही संवर कैसे है ? उत्तर - शुद्धात्मा को जानता हुआ, अनुभव करता हुआ जीव शुद्धात्मा को ही प्राप्त करता है, और अशुद्धात्मा को जानता हुआ जीव अशुद्धात्मा को ही प्राप्त करता है।१८६। (विशेष देखें - संवर / १ / ३ )।
पं.का./मू./१४२-१४३ जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वदव्वेसे। णासवदि सुहं असुहं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स।१४२। जस्स जदा खलु पुण्णं जोगे पावं च णत्थि विरदस्स। संवरणं तस्स तदा सुहासुहकदस्स कम्मस्स।१४३। =जिसे सर्वद्रव्यों के प्रति राग, द्वेष या मोह नहीं है, उस समसुख-दु:ख भिक्षु को शुभ और अशुभ कर्म आस्रवित नहीं होते।१४२। जिसे विरतरूप वर्तते हुए योग में अर्थात् मन, वचन, काय इन तीनों में ही जब पुण्य व पाप में से कोई भी नहीं होता है, तब उसे शुभ व अशुभ दोनों भावोंकृत कर्म का अर्थात् पुण्य व पाप दोनों का संवर होता है।१४३।
बा.अ./६३ सुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स। सुहजोगस्स विरोहो सुद्धुवजोगेण संभवदि। =मन, वचन, काय की शुभ प्रवृत्तियों से अशुभयोग का संवर होता है और शुद्धोपयोग से शुभयोग का भी संवर हो जाता है।६३। (और भी देखें - संवर / २ / ४ )
देखें - धर्म / ७ / १ [जब तक साधु आत्मस्वरूप में लीन रहता है तब तक ही सकल विकल्पों से विहीन उस साधु को संवर व निर्जरा जाननी चाहिए।]
२. व्यवहार संवर निर्देश में हेतु
बा.आ./६२ पंचमहव्वयमणसा अविरमणणिरोहणं हवे णियमा। कोहादि आसवाणं दाराणि कसायरहियपल्लगेहिं (?)।६२। =पाँच महाव्रतों से नियमपूर्वक पाँच अविरति रूप परिणामों का निरोध होता है और कषाय रहित परिणामों से क्रोधादि रूप आस्रवों के द्वारा रुक जाते हैं।६२।
ध.७/२,१,७/गा.२/९ मिच्छत्ताविरदी वि य कसायजोगा य आसवा होंति।२। =मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये कर्मों के आस्रव हैं। तथा (इनसे विपरीत) सम्यग्दर्शन, विषयविरक्ति, कषायनिग्रह, और मन, वचन, काय का निरोध ये संवर हैं।२।
स.सि./९/सूत्र सं./पृष्ठ सं. कायादियोगनिरोधे सति तन्निमित्ते कर्म नास्रवतीति संवरप्रसिद्धिरवगन्तव्या। (४/४११/५)। तथा प्रवर्तमानस्यासंयमपरिणामनिमित्तकर्मास्रवात्संवरो भवति। (५/४११/११)। तान्येतानि धर्मव्यपदेशभाञ्जि स्वगुणप्रतिपक्षदोषसद्भावनाप्रणिहितानि संवरकारणानि भवन्ति। (६/४१३/५)। एवमनित्यत्वाद्यनुप्रेक्षासंनिधाने उत्तमक्षमादिधारणान्महान् संवरो भवति। (७/४१९/७)। एवं परिषहान् असंकल्पोपस्थितान् सहमानस्यासंक्लिष्टचेतसो रागादिपरिणामास्रवनिरोधान्महान्संवरो भवति। (९/४२८/१)।
रा.वा./९/१८/१४/६१८/९ तदेतच्चारित्रं पूर्वास्रवनिरोधकारणत्वात्परमसंवरहेतुरवसेय:। =१. काय आदि योगों का निरोध होने पर योग निमित्तक कर्म का आस्रव नहीं होता है, इसलिए गुप्ति से संवर की सिद्धि जान लेना चाहिए।४। (रा.वा./९/४/४/५९३/२०); (त.सा./६/५)। इस प्रकार समितियों रूप प्रवृत्ति करने वाले के असंयमरूप परिणामों के निमित्त से होने वाले कर्मों के आस्रव का संवर होता है।५। (रा.वा./९/५/९/५९४/३२); (त.सा./६/१२)। इस प्रकार जीवन में उतारे गये स्वगुण तथा प्रतिपक्षभूत दोषों के सद्भाव में यह लाभ और यह हानि है, इस तरह की भावना से प्राप्त हुए ये धर्मसंज्ञा वाले उत्तम क्षमादिक संवर के कारण हैं।६। (रा.वा./९/६/२७/५९९/३२); (त.सा./६/२२)। इस प्रकार अनित्यादि अनुप्रेक्षाओं का सान्निध्य मिलने पर उत्तमक्षमादि के धारण करने से महान् संवर होता है।७। (रा.वा./९/७/११/६०७/५); (त.सा./६/२६)। इस प्रकार जो संकल्प के बिना उपस्थित हुए परिषहों को सहन करता है, और जिसका चित्त संक्लेश रहित है, उसके रागादि परिणामों के आस्रव का निरोध होने से महान् संवर होता है।९। (रा.वा./९/९/२८/६१२/२१); (त.सा./६/४३)। २. यह सामायिकादि भेदरूप चारित्रपूर्व आस्रवों के निरोध का हेतु होने से परमसंवर का हेतु है। (त.सा./६/५०)।
३. व्रत वास्तव में शुभास्रव हैं संवर नहीं
स.सि./७/१ की उत्थानिका/३४२/२ आस्रवपदार्थो व्याख्यात:। तत्प्रारम्भकाले एवोक्तं ‘शुभ: पुण्यस्य’ इति तत्सामान्येनोक्तम् । तद्विशेषप्रतिपत्त्यर्थं क: पुन: शुभ इत्युक्ते इदमुच्यते - हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् ।१। =आस्रव पदार्थ का व्याख्यान करते समय उसके आरम्भ में ‘शुभ योग पुण्य का कारण है’ यह संज्ञा (त.सू./६/३)। पर वह सामान्य रूप से ही कहा है अत: विशेषरूप से उसका ज्ञान कराने के लिए शुभ क्या है ऐसा पूछने पर आगे का सूत्र कहते हैं कि हिंसा आदि से निवृत्त होना व्रत है।
रा.वा./७/१ की उत्थानिका/५३१/४ कैस्ते क्रियाविशेषा: प्रारभ्यमाणास्तस्यास्रवा भवन्तीति। अत्रोच्यते - व्रतिभि:। =प्रश्न - वे क्रिया विशेष कौनसी हैं, जिनके द्वारा कि उसके प्रारम्भ करने वालों को पुण्य आस्रव होता है ? उत्तर - व्रतरूप क्रियाओं के द्वारा पुण्य का आस्रव होता है।
देखें - पुण्य / १ / ५ [जीव दया, शुभ योग व उपयोग, सरलता, भक्ति, चारित्र में प्रीति, यम, प्रशम, व्रत, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ्य, आगमाभ्यास, सुगुप्तकाय योग, व कायोत्सर्ग आदि से पुण्य कर्म का आस्रव होता है।]
देखें - तत्त्व / २ / ६ [पुण्य और पाप दोनों तत्त्व आस्रव में अन्तर्भूत हैं।]
देखें - वेदनीय / ४ [सराग संयम आदि सातावेदनीय के आस्रव के कारण हैं।]
देखें - आयु / ३ / ११ [सराग संयम व संयमासंयम आदि देवायु के आस्रव के कारण हैं।]
देखें - चारित्र / १ / ४ [व्रत, समिति, गुप्ति आदि शुभ प्रवृत्ति रूप चारित्र है।]
देखें - मनोयोग / ५ [व्रत, समिति, शील, संयम आदि को शुभ मनोयोग जानना चाहिए।]
४. व्रतादि से केवल पाप का संवर होता है
पं.का./मू./१४१ इंदियकसायसण्णा णिग्गहिदा जेहिं सुट्ठु मग्गम्मि। जावत्तावत्तेहिं पिहियं पावासवच्छिद्दं। =जो भलीभाँति मार्ग में रहकर इन्द्रिय, कषाय और संज्ञाओं को जितना निग्रह करते हैं उतना पाप आस्रव का छिद्र उनका बन्द होता है।
द्र.सं./टी./३५/१४९/४ एवं व्रतसमितिगुप्तिधर्मद्वादशानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्राणां भावसंवरकारणभूतानां यद्व्याख्यानं कृतं, तत्र निश्चयरत्नत्रयसाधकव्यवहाररत्नत्रयरूपस्य शुभोपयोगस्य प्रतिपादकानि यानि वाक्यानि तानि पापास्रवसंवरणानि ज्ञातव्यानि। यानि तु व्यवहाररत्नत्रयसाध्यस्य शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयस्य प्रतिपादकानि तानि पुण्यपापद्वयसंवरकारणानि भवन्तीति ज्ञातव्यम् । =इस प्रकार भावसंवर का कारणभूत व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र इन सबका जो पहले व्याख्यान किया है ( देखें - संवर / १ / ४ ) उस व्याख्यान में निश्चय रत्नत्रय को साधने वाला जो व्यवहार रत्नत्रयरूप शुभोपयोग है, उसका निरूपण करने वाले जो वाक्य हैं वे पापास्रव के संवर में कारण जानने चाहिए। और जो व्यवहार रत्नत्रय से साध्य शुद्धोपयोग रूप निश्चय रत्नत्रय के प्रतिपादक वाक्य हैं वे पुण्य तथा पाप इन दोनों आस्रवों के संवर के कारण होते हैं, ऐसा समझना चाहिए।
देखें - संवर / २ / २ [शुभयोगरूप प्रवृत्ति से अशुभयोग का संवर होता है और शुद्धोपयोग से शुभयोग का भी]।
देखें - निर्जरा / ३ / १ [सरागी जीवों को निर्जरा से यद्यपि अशुभकर्म का विनाश होता है, पर साथ ही शुभकर्मों का बन्ध हो जाता है।]।
* सम्यग्दृष्टि को ही संवर होता है मिथ्यादृष्टि को नहीं - देखें - मिथ्यादृष्टि / ४ / २ ।
* प्रवृत्ति के साथ भी निवृत्ति का अंश - देखें - चारित्र / ७ / ७ ।
५. निवृत्त्यंश के कारण ही व्रतादि संवर हैं
स.सि./७/१/३४३/७ ननु चास्य व्रतस्यास्रवहेतुत्वमनुपपन्नं संवरहेतुष्वन्तर्भावात् । संवरहेतवो वक्ष्यन्ते गुप्तिसमित्यादय:। तत्र दशविधे धर्मे संयमे वा व्रतानामन्तर्भाव इति। नैष दोष:; तत्र संवरो निवृत्तिलक्षणो वक्ष्यते। प्रवृत्तिश्चात्र दृश्यते; हिंसानृतादत्तादानादिपरित्यागे अहिंसासत्यवचनदत्तादानादिक्रियाप्रतीते: गुप्त्यादिसंवरपरिकर्मत्वाच्च। व्रतेषु हि कृतपरिकर्मा साधु: सुखेन संवरं करोतीति तत: पृथक्त्वेनोपदेश: क्रियते। =प्रश्न - यह व्रत आस्रव का कारण है यह बात नहीं बनती क्योंकि संवर के कारणों में इसका अन्तर्भाव होता है। आगे गुप्ति, समिति आदि संवर के कारण कहने वाले हैं। वहाँ दस प्रकार के धर्मों में एक संयम नाम का धर्म बताया है। उसमें व्रतों का अन्तर्भाव होता है? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वहाँ निवृत्तिरूप संवर का कथन करेंगे, और यहाँ प्रवृत्ति देखी जाती है; क्योंकि, हिंसा, असत्य और अदत्तादान आदि का त्याग करने पर भी अहिंसा, असत्य वचन और दत्तवस्तु का ग्रहण आदिरूप क्रिया देखी जाती है। दूसरे ये व्रत, गुप्ति आदि रूप संवर के अंग हैं। जिस साधु ने व्रतों की मर्यादा कर ली है, वह सुखपूर्वक संवर करता है, इसलिए व्रतों का अलग से उपदेश दिया है। (रा.वा./७/१/१०-१४/५३४/१४)।
त.सा./६/४३,५१ एवं भावयत: साधोर्भवेद्धर्ममहोद्यम:। ततो हि निष्प्रमादस्य महान् भवति संवर:।४३। तपस्तु वक्ष्यते लद्धि सम्यग्भावयतो यते:। स्नेहक्षयात्तथा योगरोधाद् भवति संवर:।५१। =इस प्रकार १२ अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करने से साधु के धर्म का महान् उद्योत होता है, ऐसा करने से उसके प्रमाद दूर हो जाते हैं और प्रमाद रहित होने से कर्मों का महान् संवर होता है।४३। तप आगे कहेंगे। उसकी यथार्थ भावना करने वाले योगी का राग-द्वेष नष्ट हो जाता है, और योग भी रुक जाते हैं। इसलिए उसके संवर सिद्ध होता है।५१।
देखें - उपयोग / II / ३ / ३ [जितना रागांश है उतना बन्ध है और जितना वीतरागांश है उतना संवर है।]
देखें - निर्जरा / २ / ४ [जब तक आत्मस्वरूप में स्थिति रहती है तब तक संवर व निर्जरा होते हैं।]