स्ववश
From जैनकोष
नि.सा./मू./१४६ परिचत्ता परभावं अप्पाणं झादि णिम्मल सहावं। अप्पवसो सो होदि हु तस्स दु कम्मं भणंति आवासं।१४६। =जो परभाव को त्यागकर निर्मलस्वभाव वाले आत्मा को ध्याता है, वह वास्तव में आत्मवश है और उसे आवश्यक कर्म (जिन) कहते हैं।
भ.आ./वि./८४/२१७/५ सव्वत्थ सर्वस्मिन्देशे आत्मवशता। स्वेच्छया आस्ते, गच्छति; शेते वा। इहासनादिकरणे इदं मम विनश्यति वस्त्विति तदनुरोधकृता परतन्त्रता नास्ति संयतस्य। =सर्वत्र आत्मवशता-परिग्रह के त्याग से संयत के वह गुण भी प्राप्त होता है। मुनि के पास कोई परिग्रह न होने से वे स्वेच्छा से बैठते हैं, जाते हैं, सोते हैं। बैठने-उठने में मेरी अमुक वस्तु नष्ट हुई, अमुक वस्तु मेरे को चाहिए इस प्रकार की चिन्ता उनके नहीं होती।