वर्गणा निर्देश
From जैनकोष
- वर्गणा निर्देश
- वर्गणाओं में प्रदेश व रसादि का निर्देश
ष.ख.14/5, 6/सूत्र 759-783/554-559 पदेसट्ठाओरालियसरीरदव्ववग्गणओ पदेसट्ठा अणंताणंत पदेसि-याओ ।759। पञ्चवण्णाओ ।760। पञ्चरसाओ ।761। दुगंधाओ ।762। अट्ठफासाओ ।763। वेउव्वियसरीरदव्ववग्ग-णाओ पदेसट्ठदाए अणंताणंतपदेसियाओ ।764। पञ्चवण्णाओ ।765। पञ्चरसाओ ।766। दुगंधाओ ।767। अट्ठफांसाओ ।768। आहारसरीरव्ववग्गणाओ पदेसट्ठदाए अणंताणंतपदेसियाओ ।769। पञ्चवण्णाओ ।770। पञ्चरसाओ ।771। दुगंधाओ ।772। अट्ठफासाओ ।773। तेजासरीरदव्ववग्गणाओ पदेसट्ठदाए अणंताणंतपदेसि-याओ ।774। पञ्चवण्णाओ ।775। पञ्चरसाओ ।776। दोगंधाओ ।777। चदुपासाओ ।778। भासामणकम्मइयसरीरदव्व-वग्गणाओ पदेसट्ठदाए अणंताणंत पदेसियाओ ।779। पञ्चवण्णाओ ।780। पञ्चरसाओ ।781। दुगंधाओ ।782। चदुपासाओ ।783। = (आहारकवर्गणा के अन्तर्गत) औदारिक, वैक्रियक व आहारक शरीरों की वर्गणा अनन्तानन्त प्रदेशवाली हैं । पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध व आठ स्पर्शवाली हैं ।759-773 । तैजस्, भाषा, मनो व कार्मण ये चारों वर्गणाएँ अनन्तानन्त प्रदेश वाली हैं । पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और चार स्पर्शवाली हैं ।774-783 ।
ध./पु.14/5, 6, 726/545/10 आहारवग्गणाए जहण्णवग्गणप्पहुडि जाव महाक्खंधदव्ववग्गणे त्ति ताव एदाओ अणंताणंतपदेसियवग्गणाओ त्ति एत्थ सुत्ते घेत्तव्वाओ । = आहार वर्गणा की जघन्य वर्गणा से लेकर महास्कन्ध द्रव्यवर्गणा तक ये सब अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणाएँ हैं, इस प्रकार यहाँ सूत्र में ग्रहण करना चाहिए ।
देखें अल्पबहुत्व - 3.4 - (औदारिक आदि तीन शरीरों की वर्गणाएँ प्रदेशार्थता की अपेक्षा उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी हैं तथा इससे आगे तैजस्, भाषा, मन व कार्मण शरीर वर्गणाएँ उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हैं । अवगाहना की अपेक्षा कार्मण, मनो, भाषा, तैजस्, आहारक, वैक्रियक व औदारिक की वर्गणाएँ क्रम से उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी हैं । औदारिक आदि शरीरों में विस्रसोपचयों का प्रमाण क्रम से उनके जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त उत्तरोत्तर अनन्तगुणा है ।)
- प्रदेशों की क्रमिक वृद्धि द्वारा वर्गणाओं की उत्पत्ति
ष.ख. 14/5, 6/सूत्र/पृष्ठ- वग्ग्णपरूवणदाए इमा एयपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम । (76/54) । इमा दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम । (77/55) । एवं तिपदेसिय-चदुपदेसिय-पञ्चपदेसिय-छप्पदेसियसत्तपदेसिय-अट्ठपदेसिय, णवपदेसिय-दसपदेसिय-संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जपदेसिय-परित्तपदेसिय-अपरित्तपदेसियअणंतपदेसिय-अणंताणंतपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम । (78/57) । अणंताणंतपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्ग-णाणमुवरि आहारदव्ववग्गणा णाम । (79/59) । आहारदव्ववग्गणाणमुवरि अगहणदव्ववग्गणा णाम । (80/59) । अग्गहण दव्ववग्गणाणमुवरि तेयादव्ववग्गणा णाम । (81/60) । तेयादव्ववग्गणाणमुवरि अगहणदव्ववग्गणा णाम । (82/60) । अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि भासादव्ववग्गणा णाम । (83/61) । भासादव्ववग्गणाणमुवरि अगहण दव्ववग्गणा णाम । (84/62) । अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि मणदव्ववग्गणा णाम । (85/62) । मणदव्ववग्गणाणमुवरि अगहणदव्ववग्गणा णाम । (86/63) । अगहण दव्ववग्गणाणमुवरि कम्मइयदव्ववग्गणा णाम । (87/63) । कम्मइयदव्ववग्गणाणमुवरि धुवक्खंधदव्ववग्गणा णाम । (88/63) । धुवक्खंधदव्ववग्गणाणमुवरि सांतरणिरंतरदव्ववग्गणा णाम । (89/64) । सांतरणिरंतरदव्ववग्गणाणमुवरि धुवसुण्णदव्ववग्गणा णाम । (90/65) । धुवसुण्णदव्ववग्गणाणमुवरि पत्तेयसरीररदव्व-वग्गणा णाम । (91/65) । पत्तेयसरीरदव्ववग्गणाणमुवरि धुवसुण्णदव्ववग्गणा णाम । (92/83) । धुवसुण्णवग्गणाण-मुवरि बादरणिगोददव्ववग्गणा णाम । (93/84) । बादरणिगोददव्ववग्गणाणमुवरि धुवसुण्णदव्ववग्गणा णाम ।(94/112) । धुवसुण्णदव्ववग्गणाणमुवरि सुहुमणिगोददव्ववग्गणा णाम । (95/113) । सुहुमणिगोददव्ववग्ग-णाणमुवरि धुवसुण्णदव्ववग्गणा णाम । (96/116) । धुवसुण्णदव्ववग्गणाणमुवरि महाखंध दव्वग्गणा णाम ।(96/117) ।
ध.14/5, 6, 69/49/4 तत्थ वग्गणपरूवणा किमट्ठं कीरदे । एगपरमाणुवग्गणप्पहुडि एगपरमाणुत्तरकमेण जाव महाक्खंधो त्ति ताव सव्व वग्गणाणमेगसेडिवरूवणट्ठं करीदे । = प्रश्न - यहाँ वर्गणा अनुयोग द्वार की प्ररूपणा किस लिए की गयी है । (ध.) उत्तर - एक परमाणुरूप वर्गणा से लेकर एक-एक परमाणु की वृद्धि क्रम से महास्कन्ध तक सब वर्गणाओं की एक श्रेणी है, इस बात का कथन करने के लिए की है । (ध.) । अर्थात् (ष. ख) - वर्गणा की प्ररूपणा करने पर सर्वप्रथम यह एकप्रदेशी परमाणुपुद्गल द्रव्यवर्गणा है ।76। उसके ऊपर क्रम से एक-एक प्रदेश की वृद्धि करते हुए द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी, परीत व अपरीत पप्रदेश्शी तथा अनन्त व अनन्तानन्त प्रदेशी वर्गणा होती हैं । (77-78 ) । इस अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणा के ऊपर [उसी एक प्रदेश वृद्धि के क्रम से अपने-अपने जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त और पूर्व की उत्कृष्ट वर्गणा से उत्तरवर्ती जघन्यवर्गणा पर्यन्त क्रम से] आहार, अग्रहण, तैजस्, अग्रहण, भाषा, अग्रहण, मनो, अग्रहण, कार्मण, ध्रुवस्कन्ध, सान्तरनिरन्तर, ध्रुवशून्य, प्रत्येक शरीर, ध्रुवशून्य, बादरनिगोद, ध्रुवशून्य, सूक्ष्मनिगोद, ध्रुवशून्य और महास्कन्ध नाम वाली वर्गणाएँ होती हैं । (79-97) । (इन वर्गणाओं का स्वस्थान व परस्थान प्रदेश वृद्धि का क्रम निम्न प्रकार जानना) -
ध.14/5, 6, 79-80/59/6 - उक्कस्स अणंतपदेसियदव्ववग्गणाए उवरि एकरूवे पक्खित्ते जहण्णिया आहारदव्ववग्गणा होदि । तदो रूवुत्तरकमेण अभवसिद्धिएहि अणंतगुण सिद्धाणमणंतभागमेत्तवियप्पे गंतूण सम्पप्पदि । जहण्णादो उक्कस्सिया विसेसाहिया । विसेसो पुण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणतभागमेत्ते होंतो वि आहारउक्कस्सदव्ववग्गणाए अणंतिमभागो । उक्कस्स आहारदव्ववग्गणाए उवरि एकरूवे पक्विते पढमअगहण दव्ववग्गणाएसव्वजहण्णवग्गणा होदि । तदो रूवुतरकमेण अभवसिद्धिएहि अणंतगुण-सिद्धाणमणंतभागमेतद्धांण गंतूण उक्किस्सया अपहणदव्ववग्गणा होदि । जहण्णादो उक्कस्सिया अणंतगुणा । को गुणगारो । अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो ।
ध.14/5, 6, 97/गा.9-14/117 अणु संखा संखगुणा परित्तवग्गणमसंखलोगगुणं । गुणगारो पञ्चण्णं अग्गहणाणं अभव्वणंतगुणो ।9 । आहारतेजभासा मणेण कम्मेण वग्गणाण भवे । उक्कस्स विसेसो अभव्वजीवेहि जधियो दु ।10 । धुवखंधसांतराणं धुवसुण्णस्स य हव्वेज्ज गुणगारो । जीवेहि अणंतगुणो जहण्णियादो दु उक्कस्से ।11 । पल्लासंखेज्जदि भागो पत्तेयदेहगुणगारो । सुण्णे अणंतलोगा थूलणिगोदपुणो वोच्छं ।12। सेडिअसंखेज्जदिमो भागो सुण्णस्स अंगुलस्सेव । पलिदोवमस्स सुहुमे पदरस्स गुणो दु सुण्णस्स ।13। एदेसिं गुणगारो जहण्णियादो दु जाण उक्कस्से । साहिअम्हि महखंधे असंखेज्जदियो दु पल्लस्स ।14। = उत्कृष्ट अनन्तप्रदेशी द्रव्यवर्गणा में एक अंक के मिलाने पर जघन्य आहार द्रव्यवर्गणा होती है । फिर एक अधिक के क्रम से अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण भेदों के जानने पर अन्तिम (उत्कृष्ट) आहार द्रव्यवर्गणा होती है । यह जघन्य से उत्कृष्ट विशेष अधिक है विशेष का प्रमाण अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण होता हुआ भी उत्कृष्ट आहार द्रव्यवर्गणा के अनन्तवें भाग प्रमाण है । उत्कृष्ट आहार द्रव्यवर्गणा में एक अंक मिलाने पर प्रथम अग्रहण द्रव्यवर्गणा सम्बन्धी सर्वजघन्यवर्गणा होती है । फिर एक-एक बढ़ाते हुए अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण स्थान जाकर उत्कृष्ट अग्रहण द्रव्यवर्गणा होती है । यह जघन्य से उत्कृष्ट अनन्तगुणी होती है । गुणकार अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण है । (इसी प्रकार पूर्व की उत्कृष्ट वर्गणा में एक प्रदेश अधिक करने पर उत्तरवर्ती जघन्य वर्गणा तथा अपनी ही जघन्य में क्रम से एक-एक प्रदेश अधिक करते जाने पर, अनन्तस्थान आगे जाकर उस ही की उत्कृष्ट वर्गणा प्राप्त होती है । यहाँ अनन्त का प्रमाण सर्वत्र अभव्यों का अनन्तगुणा तथा सिद्धों का अनन्तवाँ भाग जानना । प्रत्येक वर्गणा के उत्कृष्ट प्रदेश अपने ही जघन्य प्रदेशों से कितने अधिक होते हैं, इसका संकेत निम्न प्रकार है) -
सं. जघन्य व उत्कृष्ट वर्गणाओं का अल्प बहुत्व
वर्गणा का नाम कितना अधिक गुणकार व विशेष का प्रमाण
1 अणुवर्गणा एक
2 संख्याताणुवर्गणा संख्यातगुणा संख्यात
3 असंख्याताणुवर्गणा असंख्यगुणा असंख्यात
4 अनन्ताणुवर्गणा अनन्तगुणा (अभव्यअनन्त) तथा (सिद्ध/अनन्त)
5 आहारवर्गणा विशेषाधिक (अभव्यअनन्त) तथा (सिद्ध/अनन्त)
6 प्र. अग्राह्य अनन्तगुणा (अभव्यअनन्त) तथा (सिद्ध/अनन्त)
7 तैजस्वर्गणा विशेषाधिक (अभव्यअनन्त) तथा (सिद्ध/अनन्त)
8 द्वि. अग्राह्य अनन्तगुणा (अभव्यअनन्त) तथा (सिद्ध/अनन्त)
9 भाषा वर्गणा विशेषाधिक (अभव्यअनन्त) तथा (सिद्ध/अनन्त)
10 तृ. अग्राह्य अनन्तगुणा (अभव्यअनन्त) तथा (सिद्ध/अनन्त)
11 मनो व. विशेषाधिक (अभव्यअनन्त) तथा (सिद्ध/अनन्त)
12 चतु. अग्राह्य अनन्तगुणा (अभव्यअनन्त) तथा (सिद्ध/अनन्त)
13 कार्मण वर्गणा विशेषाधिक अभव्यअनन्त; सिद्ध/अनन्त
14 ध्रुवस्कन्ध व. अनन्तगुणा सर्वजीवअनन्त
15 सान्तरनिरन्तर. अनन्तगुणा सर्वजीवअनन्त
16 प्र. ध्रुवशून्य अनन्तगुणा सर्वजीवअनन्त
17 प्रत्येक शरीर. असंख्य गुणा पल्यअसंख्यात
18 द्वि. ध्रुवशून्य. अनन्तगुणा अनन्तलोकप्रदेश
19 बा. निगोद. असंख्य गुणा जगश्रेणीअसंख्यात
20 तृ. ध्रुवशून्य. असंख्य गुणा अंगुलअसंख्यात
21 सूक्ष्म निगोद. असंख्य गुणा पल्यअसंख्यात
22 चतु. ध्रुवशून्य असंख्य गुणा जगत्प्रतरअसंख्यात
23 महास्कन्ध विशेषाधिक पल्यअसंख्यात
- ऊपर व नीचे की वर्गणाओं के भेद व संघात से वर्गणाओं की उत्पत्ति
प्रमाण - ष.ख.14/5, 6/सू.98-116/120-123 ।
संकेत - भेद = ऊपर के द्रव्य के भेद द्वारा उत्पत्ति ।
संघात = नीचे के द्रव्य के संघात द्वारा उत्पत्ति ।
भेदसंघात = स्वस्थान में भेद व संघात द्वारा ।
उत्पत्ति विधि
सं. सूत्र सं. वर्गणा का नाम भेद संघात भेदसंघात
1 98-99 एक प्रदेशी हाँ
2 100-103 संख्यात प्रदेखें हाँ हाँ हाँ
3 100-103 असंख्यात प्रदेखें हाँ हाँ हाँ
4 100-103 अनन्त प्रदेशी हाँ हाँ हाँ
5 104-105 आहार वर्गणा हाँ हाँ हाँ
6 104-105 प्रथम अग्राह्य हाँ हाँ हाँ
7 104-105 तैजस् वर्गणा हाँ हाँ हाँ
8 104-105 द्वि.अग्राह्य व. हाँ हाँ हाँ
9 104-105 भाषा वर्गणा हाँ हाँ हाँ
10 104-105 तृ.अग्राह्य वर्ग. हाँ हाँ हाँ
11 104-105 मनो वर्गणा हाँ हाँ हाँ
12 104-105 चतु.अग्राह्य वर्गणा हाँ हाँ हाँ
13 104-105 कार्मण वर्गणा हाँ हाँ हाँ
14 106-108 ध्रुवस्कन्ध वर्गणा हाँ हाँ हाँ
15 106-108 सान्तरनिरन्तर व. हाँ हाँ हाँ
16 प्र. ध्रुवशून्य वर्गणा
17 109-110 प्रत्येक शरीर वर्गणा हाँ
18 द्वि. ध्रुवशून्य वर्गणा
19 111-112 बादरनिगोद वर्गणा हाँ
20 तृ. ध्रुवशून्य वर्गणा
21 113-114 सूक्ष्मनिगोद वर्गणा हाँ
22 चतुर्थ ध्रुवशून्य वर्गणा
23 115-116 महास्कन्ध वर्गणा हाँ
देखें स्कन्ध (सूक्ष्मस्कन्ध तो भेद, संघात व भेदसंघात तीनों प्रकार से होते हैं, पर स्थूलस्कन्ध भेदसंघात से होते हैं) ।
देखें वर्गणा - 2.8 (ध्रुवशून्य तथा बादर व सूक्ष्म निगोद वर्गणाएँ भी ऊपरी द्रव्य के भेद व नीचे के द्रव्य के संघात द्वारा उत्पन्न होने सम्भव हैं ।)
- पाँच वर्गणाएँ ही व्यवहार योग्य हैं अन्य नहीं
ष.ख.14/5, 6/सू.720-726/544 अगहणपाओग्गाओ इमाओ एयपदेसियसव्वपरमाणुपोग्गलदव्ववग्ग-णाओ ।720। इमा दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम किं गहणपाओग्गाओ किमगहणपाओग्गाओ ।721। अगहणपाओग्गाओ ।722। एवं तिपदेसिय-चदुपदेसिय-पञ्चपदेसिय-छप्पदेसिय-सत्तपदेसिय-अट्ठपदेसिय-णवपदेसिय-दसपदेसिय-संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जपदेसिय-अणंतपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णामकिं गहणपाओग्गाओ किमगहणपाओग्गाओ ।723। अगहणपाओग्गाओ ।724। अणंताणंतपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम किं गहणपाओग्गाओ किमगहणपोओग्गाओ ।725। काओ चि गहणपाओग्गाओ काओ चि अगहणपाओग्गाओ ।726।
ध.14/5, 6, 726/545/11 तत्थ आहार-तेज-भासा-मणकम्मइयवग्गणाओ गहणपाओग्गाओ अवसेसाओ अगहणपोओग्गाओ त्ति घेत्तव्वं । = एक प्रदेशी, द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी वर्गणाएँ तो नियम से ग्रहण के अयोग्य हैं । परन्तु अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणाओं में कुछ ग्रहण योग्य हैं और कुछ ग्रहण के अयोग्य । सूत्र 720-726 । उनमें से आहारवर्गणा, तैजस्वर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणा ये (तो) ग्रहणप्रायोग्य हैं, अवशेष (सर्व) अग्रहणप्रायोग्य हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए । (और भी देखें अगला शीर्षक ) ।
- अव्यवहार्य भी अन्य वर्गणाओं का कथन क्यों किया
ध.14/5, 6, 88/64/7 ‘आहार-तेजा-भासा-मणकम्मइयवग्गणओ चेव एत्थ परूवेदव्वाओ, बंधणिज्जत्तदो, ण सेसाओ, तासिं बंधणिज्जत्तभावादो । ण, सेसवग्गणपरूवणाए विणा बंधणिज्जवग्गणाणं परूवणोवायाभावादो वदिरेगावगमणेण विणा णिच्छिदण्णयपच्चयउत्तीए अभावादो वा । = प्रश्न - यहाँ पर आहार, तैजस्, भाषा, मनो और कार्मण ये पाँच वर्गणा ही कहनी चाहिए, क्योंकि वे बन्धनीय हैं । शेष वर्गणाएँ नहीं कहनी चाहिए, क्योंकि वे बन्धनीय नहीं हैं? उतर - नहीं, क्योंकि शेष वर्गणाओं का कथन किये बिना बन्धनीय वर्गणाओं के कथन करने का कोई मार्ग नहीं है । अथवा व्यतिरेक का ज्ञान हुए बिना निश्चित अन्वय के ज्ञान में वृत्ति नहीं हो सकती, इसलिए यहाँ बन्धनीय व अबन्धनीय सब वर्गणाओं का निर्देश किया है ।
- शरीरों व उनकी वर्गणाओं में अन्तर
ध.14/5, 6, 117/224/1 पुव्वुत्ततेवीसवग्गणाहिंतो पञ्चसरीराणि पुधभूदाणि त्ति तेसिं बाहिरववएसो । तं जहा-ण ताव पञ्चसरीराणि अचितवग्गणासु णिवदंति, सचित्तणमचित्तभावविरोहादो । ण च सचित्तवग्गणासु णिवदंति, विस्सासुवचएहि विणा पञ्चण्हं सरीराणं परमाणूणं चेत्र गहणादो । तम्हा पञ्चण्हं सरीराणं बाहिरवग्गणा ति सिद्धा सण्णा । = तेईस वर्गणाओं में से पाँच शरीर पृथग्भूत हैं, इसलिए इनकी बाह्य संज्ञा है । यथा-पाँच शरीर अचित्त वर्गणाओं में तो सम्मिलित किये नहीं जा सकते, क्योंकि सचित्तें को अचित्त मानने में विरोध आता है । उनका सचित्त वर्गणाओं में भी अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि विस्रसोपचयों के बिना पाँच शरीरों के परमाणुओं का ही सचित्त वर्गणाओं में ग्रहण किया है । इसलिए पाँच शरीरों की बाह्य वर्गणा यह संज्ञा सिद्ध होती है ।
- वर्गणाओं में जाति भेद सम्बन्धी विचार
- वर्गणाओं में जाति भेद का निर्देश
गो.जी./जी.प्र./594-595/1033 । पर उद्धृत श्लोक-मूर्तिमत्सु पदार्थेषु संसारिण्यपि पुद्गलः ।अकर्मकर्मनोकर्म-जातिभेदेषु वर्गणाः ।1 । = मूर्तिमान् पदार्थों व संसारी जीवों में पुद्गल शब्द वर्तता है और कर्म, अकर्म व नोकर्म की जाति भेद वाले पुद्गलों में वर्गणा शब्द की प्रवृत्ति होती है ।
- <a name="2.7.2" id="2.7.2"></a>तीनों शरीरों की वर्गणाओं में कथंचित् भेदाभेद
ध.14/5, 6, 731/547/8 जदि एदेसिं तिण्णं सरीराणं वग्गणाओ ओग्गाहणभेदेण संखाभेदेण च भिण्णाओ ता आहारदव्ववग्गणा एक्को चेवे त्ति किमट्ठं उच्चदे । ण, अगहणवग्गणाहि अंतराभावं पडुच्च तासिमेगत्तुवएसादो । ण च संखाभेदो असिद्धो, अवरिभण्णमाणअप्पाबहुएणेव तस्स सिद्धोदो । = प्रश्न - यदि (औदारिक, वैक्रियक व आहारक) इन तीन शरीरों की वर्गणाएँ अवगाहना के भेद से और संख्या के भेद से अलग-अलग हैं, तो आहार द्रव्यवर्गणा एक ही है, ऐसा किस लिए कहते हैं? उत्तर - नहीं, क्योंकि अग्रहण वर्गणाओं के द्वारा अन्तर के अभाव की अपेक्षा इन वर्गणाओं के एकत्व का उपदेश दिया गया है । संख्याभेद असिद्ध नहीं है, क्योंकि आगे कहे जाने वाले अल्पबहुत्व से ही उसकी सिद्धि होती है । भावार्थ - (वास्तव में जाति की अपेक्षा यद्यपि तीनों शरीरों की वर्गणाएँ भिन्न हैं, परन्तु एक प्रदेश वृद्धिक्रम में अन्तर पड़े बिना इनकी उपलब्धि होने के कारण इन तीनों को एक आहार वर्गणा में गर्भित कर दिया गया । अथवा यों कहिए कि जिस प्रकार अन्य सर्व वर्गणाओं के बीच में अग्रहण वर्गणा या ध्रुवशून्य वर्गणा का अन्तराल पड़ता है उस प्रकार इन तीनों में नहीं पड़ता, इस कारण इनमें एकत्व है ।)
- आठों कर्मों की वर्गणाओं में कथंचित् भेदाभेद
ध.14/5, 6, 758/553/9 णाणावरणीयस्स जाणि पाओग्गाणि दव्वाणि ताणि चेव मिच्छत्तदिपच्चएहि पञ्चणाणाव-रणीयसरूवेण परिणमंति ण अण्णेसिं सरूवेण । कुदो । अप्पाओग्गत्तदो । एवं सव्वेसिं कम्माणं वत्तव्वं ।... जदि एवं तो कम्मइयवग्गणाओ अट्ठे त्ति किण्ण परूविदाओ । ण अंतराभावेण तथोवदेसाभावादो । एदाओ अट्ठ वि वग्गणाओ किं पुध-पुध अच्छंति आहो करंबियाओ त्ति । पुध-पुध ण अच्छति किंतु करंबियाओ । कुदो एदं णव्वदे । ‘आउभागो थोवो णाण-गोदे समो तदो अहिओ’ एदीए गाहाए णव्वदे । सेसं जाणिदूण वत्तव्वं । = ज्ञानावरणीय के योग्य जो द्रव्य हैं वे ही मिथ्यात्व आदि प्रत्ययों के कारण पाँच ज्ञानावरणीय रूप से परिणमन करते हैं, अन्य रूप से वे परिणमन नहीं करते, क्योंकि वे अन्य के अयोग्य होते हैं । इसी प्रकार सब कर्मों के विषय में कहना चाहिए । प्रश्न - यदि ऐसा है तो कार्मणवर्गणाएँ आठ हैं, ऐसा कथन क्यों नहीं किया (उसे एक कार्मण वर्गणा के नाम से क्यों कहा गया) । उत्तर - नहीं, क्योंकि अन्तर का अभाव होने से उस प्रकार का उपदेश नहीं पाया जाता (विशेष देखो ऊपर वाला उपशीर्षक) । प्रश्न - ये आठ ही वर्गणाएँ क्या पृथक्-पृथक् रहती हैं या मिश्रित होकर रहती हैं? उत्तर - पृथक्-पृथक् नहीं रहती हैं; किन्तु मिश्रित होकर ही रहती हैं । प्रश्न - यह किस प्रमाण से जाता है? उत्तर - (एक समय प्रबद्ध कार्मण द्रव्य में) आयु कर्म का भाग स्तोक है । नामकर्म और गोत्रकर्म का भाग उससे अधिक है । इस गाथा से जाना जाता है । शेष का कथन जानकर करना चाहिए ।
ध.15/8/31/1 ण च एयादो अणेयाणं कम्माणं वुत्पत्ती विरुद्धा कम्मइमवग्गणाए अणंताणंतसंखए अट्ठकम्मपा-ओग्गभावेण अट्ठविहत्तमावण्णाए एयत्तविरोहादो । णत्थि एत्थ एयंतो, एयादो घडादो अणेयाणं खप्पराणमुप्पत्तिदंसणादो । वुत्तं च - ‘कम्मं ण होदि एयं अणेयविहमेय बंधसमकाले । मूलुत्तरपयडीणं परिणामवसेण जीवाणं ।17। जीव परिणामाणं भेदेण परिणामिज्जमाणकम्मइयवग्गणाणं भेदेण च कम्माणं बंधसमकाले चेव अणेयविहत्तं होदि त्ति घेत्तव्वं । = एक से अनेक कर्मों की उत्पत्ति विरुद्ध है, ऐसा कहना भी अयुक्त है; क्योंकि आठ कर्मों की योग्यतानुसार आठ भेद को प्राप्त हुई अनन्तानन्त संख्या रूप कार्मण वर्गणा की एक मानने का विरोध है । दूसरे, एक से अनेक कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती; ऐसा एकान्त भी नहीं है, क्योंकि एक घट से अनेक खप्परों की उत्पत्ति देखी जाती है । कहा भी है - ‘कर्म एक नहीं है, वह जीवों के परिणामानुसार मूल व उत्तर प्रकृतियों के बन्ध के समान काल में ही अनेक प्रकार का है ।17।’ जीवपरिणामों के भेद से और परिणायी जानेवाली कार्मण वर्गणाओं के भेद से बन्ध के समकाल में ही कर्म अनेक प्रकार का होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।
- प्रत्येक शरीर वर्गणा अपने से पहले या पीछे वाली वर्गणाओं से उत्पन्न नहीं होती
ध.14/5, 6, 110/128/3 परमाणुवग्गणमादिं कादूण जाव सांतरणिरंतरउक्कस्सवग्गणे त्ति ताव एदासि वग्गणाणं समुदयसमागमेण पत्तेयसरीरवग्गणा ण समुप्पज्जदि । कुदो । उक्कस्ससांतरणिरंतरवग्गणाणसरूवं मोत्तूण रूवाहियादिउवरिम-वग्गणसरूवेण परिणमणसत्तीए अभावादो ।... पत्तेयसरीर समागमेण विणा हेट्ठिमवग्गणाणं चेव समुदयसमागमेण समुप्पज्जमाणपत्तेयसरीरवग्गणाणुवलंभादो । किंच जोगवसेण एगबंधणबद्धओरालिय-तेजाकम्मइयपरमाणुपोग्गलक्खंधा अणंताणंतविस्सासुवचएहि उपचिदा । ण ते सव्वे सांतरणिरंतरादिहेट्ठिमवग्गणासु कत्थ वि सरिसधणिया होंति; पत्तेयवग्गणाए असंखेज्जदिभागत्तदो ।... उवरिल्लीणं दव्वाणं भेदेण विणा पत्तेयसरीरवग्गणा उप्पज्जदि, बादर-सुहुमणिगोदवग्गणाणमोरालिय-तेजा-कम्मइयवग्गणक्खंधेसु अधट्ठिदिगलणाए गलिदेसु पत्तेयसरीरवग्गणं वोलेदूण हेट्ठा सांतरणिरंतरादिवग्गणसरूवेण सरिसधणियभावेण अवट्ठाणुवलंभादो ।... उवरिमवग्गणादो आगदपरमाणु-पोग्गलेहि चेव पत्तेयसरीरवग्गणाणिप्पत्तीए अभावादो ।.. उवरिल्लीणं वग्गणाणं भेदो णाम विणासो । ण च बादरसुहुमणिगोदवग्गणाणं मज्झे एया वग्गणा णट्ठा संतो पत्तेयसरीरवग्गणासरूवेण परिणमदि; पत्तेयवग्गणाए आणंत्तियप्पसंगादो । =- परमाणु वर्गणासे लेकर सान्तरनिरन्तर उत्कृष्ट वर्गणा तक इन (15) वर्गणाओं के समुदय समागम से प्रत्येक शरीर वर्गणा (17वीं वर्गणा) नहीं उत्पन्न होती है, क्योंकि उत्कृष्ट सान्तरनिरन्तर वर्गणाओं का अपने स्वरूप को छोड़कर एक अधिक आदि उपरिम वर्गणा रूप से परिणमन करने की शक्ति का अभाव है ।.... प्रत्येकशरीर वर्गणा के समागम के बिना केवल नीचे की (1 से 15 तक की) वर्गणाओं के समुदय समागम से उत्पन्न होने वाली प्रत्येक शरीरवर्गणाएँ नहीं उपलब्ध होतीं । दूसरे योग के वश से एक बन्धनबद्ध औदारिक तैजस और कार्मण परमाणुपुद्गलस्कन्ध अनन्तानन्त विस्रसोपचयों से उपचित होते हैं । परन्तु वे सब सान्तरनिरन्तर आदि नीचे की वर्गणाओं में कहीं भी सदृश धन वाले नहीं होते, क्योंकि वे प्रत्येक वर्गणा के असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं ।
- ऊपर के द्रव्यों के भेद के बिना प्रत्येक शरीरवर्गणा उत्पन्न होती है, क्योंकि बादरनिगोदवर्गणा और सूक्ष्मनिगोदवर्गणा (19वीं व 21वीं वर्गणाएँ) के औदारिक, तैजस और कार्मणवर्गणास्कन्धों के अधःस्थिति गलना के द्वारा गलित होने पर प्रत्येक शरीर वर्गणा को उल्लंघन कर उनका नीचे सदृशधनरूप सान्तरनिरन्तर आदि वर्गणारूप से अवस्थान उपलब्ध होता है ।..... उपरिम वर्गणा से आये हुए परमाणुपुद्गलों से ही प्रत्येक शरीर वर्गणा की निष्पत्ति का अभाव है । = प्रश्न - ऊपर के द्रव्यों के भेद से प्रत्येक शरीरद्रव्य वर्गणा की उत्पत्ति क्यों नहीं कहते? उत्तर - नहीं, क्योंकि ऊपर की वर्गणाओं के भेद का नाम ही विनाश है और बादरनिगोदवर्गणा तथा सूक्ष्मनिगोदवर्गणा में से एक वर्गणा नष्ट होती हुई प्रत्येक शरीर वर्गणारूप से नहीं परिणमती, क्योंकि ऐसा होने पर प्रत्येक शरीर वर्गणाएँ अनन्त हो जायेंगी ।
- वर्गणाओं में जाति भेद का निर्देश
- ऊपर व नीचे की वर्गणाओं मेंपरस्पर संक्रमण की सम्भावना व समन्वय
देखें वर्गणा - 2.3 (एक प्रदेशी वर्गणा अपने से ऊपर वाली वर्गणाओं के भेद द्वारा उत्पन्न होती है और संख्यातप्रदेशी को आदि लेकर सान्तरनिरन्तर पर्यन्त सर्व वर्गणाएँ ऊपर वाली के भेद से नीचे वाली के संघात से तथा स्वस्थान में भेद व संघात दोनों से उत्पन्न होती हैं । इससे ऊपर ध्रुवशून्य से महास्कन्ध पर्यन्त केवल स्वस्थान में भेदसंघात द्वारा ही उत्पन्न होती है ।)
ध.14/5, 6, 116/139/4 सुण्णाओ सुण्णत्तेण अद्धुवाओ वि, उवरिमहेट्ठिमवग्गणाणं भेदसंघादेण सुण्णाणं पि कालंतरे असुण्णुत्तुवलंभादो । असुण्णाओ असुण्णत्तणेण अद्धुवाओ । कुदो । वग्गणाणमेगसरूवेण सवद्धमवट्ठाणाभावादो । वग्गणादेसेण पुण सव्वाओ धुवाओ; अणंताणंतवग्गणाणं सव्वद्धमुवलंभादो । सुहुमणिगोदवग्गणाओ सुण्णत्तेण अद्धुवाओ; सुण्णवग्गाहि सव्वकालं सुण्णत्तणेणेव अच्छिदव्वमिदि णियमाभावादो । एदं सभवं पडुच्चपरूविदं । वत्तिं पडुच्च पुणभण्णमाणे सुण्णाओ सुण्णत्तेण धुवाओ वि अत्थिः वट्टमाणकाले असंखेज्जलोगमेत्तसुहुमणिगोदवग्गणाहि अदीदकालेण वि सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तट्ठाणावूरणं पडिसमवाभावादो । कारणं बादरणिगोदाणं व वत्तव्वं । अद्धुवाओ वि; उवरिम-हेट्ठिमवग्गणाणं भेदसंघादेण सुण्णाणं पि कालंतरे असुण्णत्तुवलंभादो ।... = शून्य वर्गणाएँ शून्यरूप से अध्रुव भी हैं, क्योंकि उपरिम और अधस्तन वर्गणाओं के भेदसंघात से शून्य वर्गणाएँ भी कालान्तर में अशून्यरूप होकर उपलब्ध होती हैं । अशून्य वर्गणाएँ अशून्यरूप से अध्रुव हैं, क्योंकि वर्गणाओं का एक रूप से सदा अवस्थान नहीं पाया जाता । वर्गणादेश की अपेक्षा तो सब वर्गणाएँ ध्रुव हैं, क्योंकि अनन्तानन्त वर्गणाएँ सर्वदा उपलब्ध होती हैं । सूक्ष्मनिगोदवर्गणाएँ शून्यरूप से अध्रुव हैं; क्योंकि शून्वर्गणाओं को सर्वदा शून्यरूप से ही रहना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है । यह सम्भव की अपेक्षा कहा है परन्तु व्यक्ति की अपेक्षा कथन करने पर शून्य वर्गणाएँ शून्यरूप से ध्रुव भी है, क्योंकि वर्तमान काल में असंख्यात लोकप्रमाण सूक्ष्मनिगोद वर्गणाओं के द्वारा पूरे अतीतकाल में भी सब जीवों से अनन्तगुणे स्थानों का पूरा करना सम्भव नहीं है । कारण बादरनिगोद जीवों के समान कहना चाहिए । वे अध्रुव भी हैं, क्योंकि उपरिम और अधस्तन वर्गणाओं के भेद संघात से शून्यवर्गणाएँ भी कालान्तर में अशून्यरूप होकर उपलब्ध होती हैं । अशून्य सूक्ष्मनिगोद वर्गणाएँ अशून्यरूप से अध्रुव हैं, क्योंकि सूक्ष्मनिगोदवर्गणाओं का अवस्थितरूप से अवस्थान नहीं पाया जाता ।
ध.14/5, 6, 107/125/13 ण पत्तेयबादरसुहुमणिगोदवग्गणाभेदेण होदि; सचित्तवग्गणाणमचित्तवग्गणसरूवेण परिणामाभावादो । ण च सचित्तवग्गणाए कम्मणोकम्मक्खंधेसु तत्ते विप्फट्टिय सांतरणिरंतरवग्गणाणमायारेण परिणदेसु तव्भेदेणेवेदिस्से समुप्पत्ती; तत्ते विप्फट्टसमए चेव ताहिंतो पुदभूदखंधाणं सचित्तवग्गणभावविरोहादो । ण महाखंधभेदेणेदिस्से समुप्पत्ती; महाखंधादो विप्फट्टखंधाणं महाखंधभेदेहिंतो पुधभूदाणं महाखंधववएसाभावेण तेसिं तब्भेदत्तणुववत्तीदो । एदम्मि णए अवलंबिज्जमाणे उवरिल्लीणं वग्गणाणं भेदेण ण होदि त्ति परूविदं । दव्वट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे उपरिल्लीणं भेदेण वि होदि ।... पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे हेट्ठिल्लीणं संघादेण वि होदि; उक्कस्स धुवक्खंधवग्गणाए एगादिपरमाणुसमागमे सांतरणिरंतरवग्गणाए समुप्पत्ति पडि विरोहाभावादो ।.. ण सत्थाणं चेव परिणामो वि; जहण्णवग्गणादो परमाणुत्तरवग्गणाए उप्पत्तिविरोहादो सांतरणिरंतरवग्गणाए अभावप्पसंगादो च ।.. धुवखंधादिहेट्ठिमवग्गणाओ सत्थाणे चेव समागमंति उवरिमवग्गणाहि वा; साहावियादो । सांतरणिरंतरवग्गणा पुण सत्थाणे चेव भेदेण संघादेण तदुभयेण वा परिणमदि त्ति जाणावणट्ठं भेदसंघादेणे त्ति परूविदं । = प्रत्येक शरीर, बादरनिगोद और सूक्ष्म निगोदवर्गणाओं के भेद से यह (ध्रुवस्कन्ध व सान्तरनिरन्तर) वर्गणा नहीं होती क्योंकि सचित्त वर्गणाओं का अचित्त वर्गणा रूप से परिणमन होने में विरोध है । यदि कहा जाये कि सचित्तवर्गणा के कर्म और नोकर्मस्कन्धों में उससे अलग होकर सान्तरनिरन्तर वर्गणारूप से परिणत होने पर उनके भेद से इस वर्गणा की उत्पत्ति होती है, सो कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उनसे अलग होने के समय ही उनसे अलग हुए स्कन्धों को सचित्त वर्गणा होने में विरोध आता है । महास्कन्ध के भेद से इस वर्गणा की उत्पत्ति होती है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि महास्कन्ध से अलग हुए स्कन्ध यतः महास्कन्ध के भेद से अलग हुए हैं, अतः उनकी महास्कन्ध संज्ञा नहीं हो सकती और इसलिए उनका उससे भेद नहीं बन सकता । इस (पर्यायार्थिक) नयका अवलम्बन करने पर ऊपर की वर्गणाओं के भेद से यह वर्गणा नहीं होती है, यह कहा गया है । परन्तु द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करने पर ऊपर की वर्गणाओं के भेद से भी यह वर्गणा होती है । पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन कर लेने पर नीचे की वर्गणाओं के संघात से भी यह वर्गणा होती है, क्योंकि उत्कृष्ट ध्रुवस्कन्धवर्गणा में एक आदि परमाणु का समागम होने पर सान्तरनिरन्तर वर्गणा की उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं है । केवल स्वस्थान में ही परिणमन होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जघन्य वर्गणा से एक परमाणु अधिक वर्गणा की उत्पत्ति होने में विरोध आता है, दूसरे सान्तरनिरन्तर वर्गणा का अभाव भी प्राप्त होता है । ध्रुवस्कन्धादि नीचे की वर्गणाएँ स्वस्थान में ही समागम को प्राप्त होती हैं अथवा ऊपर की वर्गणाओं के साथ समागम को प्राप्त होती हैं, क्योंकि ऐसा स्वभाव है । परन्तु सान्तरनिरन्तरवर्गणा स्वस्थान में ही भेद से, संघात से या तदुभय से परिणमन करती हैं, इस बात का ज्ञान कराने के लिए (सूत्र में)‘भेदसंघात से होना’ कहा है ।
- भेदसंघात व्यपदेश का स्पष्टीकरण
ध.14/5, 6, 103/124/6 हेट्ठिल्लुवरिल्लवग्गणाणं भेदसंघादेण अप्पिदवग्गणाणमुप्पत्ती किण्ण वुच्चदे; भेदकाले विणासं मोत्तूण उप्पत्तीए अभावं पडिविसेसाभावादो । ण; तत्थ एवंविधणयाभावादो । अथवा भेदसंघादस्स एवमत्थो वत्तव्वो । तं जहाभेदसंघादाणं दोण्णं संजोगो सत्थाणं णाम; तम्हि णिरुद्धे उवरिल्लीणं हेट्ठिल्लीणं अप्पिदाणं च दव्वाणं भेदपुरंगमसंघादेण अप्पिदवग्गणुप्पत्तिदंसणादो । सत्थाणेण भेदसंघादेण उप्पत्ती वुच्चदे । सव्वो वि परमाणुसंघादो भेदपुरंगमो चेवेत्ति सव्वासिं वग्गणाणं भेदसंघादेणेव उप्पत्ती किण्ण वुच्चदे । ण एस दोसो; भेदाणंतरं जो संघादो सो भेदसंघादो णाम ण अंतरिदो, अव्ववत्थाप्पसंगादो । तम्हा ण सव्ववग्गणाणं भेदसंघादेणुप्पत्ती । = प्रश्न - नीचे की और ऊपर की वर्गणाओं के भेदसंघात से विवक्षित वर्गणाओं की उत्पत्ति क्यों नहीं कहते, क्योंकि भेद के समय विनाश को छोड़कर उत्पत्ति के अभाव के प्रति कोई विशेषता नहीं? उत्तर - नहीं; क्योंकि वहाँ पर इस प्रकार के नयका अभाव है । अथवा भेदसंघात का इस प्रकार का अर्थ करना चाहिए । यथा-भेद और संघात दोनों का संयोग स्वस्थान कहलाता है । उसके विवक्षित होने पर ऊपर के, नीचे के और विवक्षित द्रव्यों के भेदपूर्वक संघात से विवक्षित वर्गणा की उत्पत्ति देखी जाती है । इसे स्वस्थान की अपेक्षा भेद संघात से उत्पत्ति कहते हैं । प्रश्न - सभी परमाणुसंघात भेदपूर्वक ही होता है, इसलिए सभी वर्गणाओं की उत्पत्ति भेदसंघात से ही क्यों नहीं कहते हो? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि भेद के अनन्तर जो संघात होता है, उसे भेदसंघात कहते हैं । जो अन्तर से होता है उसकी यह संज्ञा नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अव्यवस्था का प्रसंग आता है । इसलिए सर्व वर्गणाओं की उत्पत्ति भेदसंघात से नहीं होती ।
- वर्गणाओं में प्रदेश व रसादि का निर्देश