आर्जव धर्म
From जैनकोष
बारसाणुवेक्खा गाथा 73 मोत्तूण कुडिल भावं णिम्मलहिदयेण चरदि जो समणो। अज्जवधम्मं तइयो तस्स दु संभवदि णियमेण ॥73॥
= जो मनस्वी प्राणी (शुभ विचार वाला) कुटिल भाव व मायाचारी परिणामोंको छोड़कर शुद्ध हृदयसे चारित्रका पालन करता है, उसके नियमसे तीसरा आर्जव नामका धर्म होता है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/6/412/6 योगस्यावक्रता आर्जवम्।
= योगोंका वक्र न होना आर्जव है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/6/595)
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 46/154 आकृष्टांतद्वयसूत्रवद्वक्रताभावः आर्जवमित्युच्यते।
= डोरीके दो छोर पकड़ कर खींचनेसे वह सरल होती है। उसी तरह मनमें-से कपट दूर करने पर वह सरल होता है अर्थात् मनकी सरलताका नाम आर्जव है।
पं./वि.1/89 हृदि यत्तद्वाचि बहिः फलति तदेवार्जवं भवत्येतत्। धर्मो निकृतिरधर्मो द्वाविह सुरसद्मनरकपथौ ॥89॥
= जो विचार हृदयमें स्थिर है, वही वचनमें रहता है तथा वही बाहर फलता है अर्थात् शरीरसे भी तद्नुसार ही कार्य किया जाता है, यह आर्जव धर्म है, इससे विपरीत दूसरोंको धोखा देना, यह अधर्म है। ये दोनों यहाँ क्रमसे देवगति और नरकगतिके कारण हैं।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 396 जो चिंतेइ ण वंकंण कुणदि वंकंण जंपदे वंकं। ण य गोवदि णिय दोसं अज्जव-धम्मो हवे तस्स ॥396॥
= जो मुनि कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल कार्य नहीं करता और कुटिल बात नहीं बोलता तथा अपना दोष नहीं छिपाता वह आर्जव धर्मका धारी होता है क्योंकि मन, वचन, कायाकी सरलताका नाम आर्जव धर्म है।
( तत्त्वार्थसार अधिकार 6/15)
2. आर्जवधर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1431-1435 अदिगूहिदा वि दोसा जणेण कालंतरेणणज्जंति। मायाए पउत्ताए को इत्थ गुणो हवदि लद्धो ॥1431॥ पडि भोगम्मि असंते णियडि सहस्सेहि गूहमाणस्स। चंदग्गहोव्व दोसो खणेण सो पायडो होइ ॥1432॥ जणपायडो वि दोसो दोसोत्ति ण घेप्पए सभागस्स। जह समलत्ति ण घिप्पदि समलं पि जए तलायजलं ॥1433॥ डभसएहिं बहुगेहिं सुपउत्तेहिं अपडिभोगस्स। हत्थं ण एदि अत्थो अण्णादो सपडिभोगादो ॥1434॥ इह य परत्तय लोए दोसे बहुए य आवट्टइ माया। इदि अप्पणो गणित्ता परिहरिदव्वा हवइ माया ॥1435॥
= दोषोंको अतिशय छिपाने पर भी कालांतरसे कुछ काल व्यतीत होनेके बाद वे दोष लोगोंको मालूम पड़ते ही हैं, इसलिए मायाका प्रयोग करनेपर भी क्या फायदा होता है? ध्यानमें नहीं आता ॥1431॥ उत्कृष्ट भाग्य यदि न होगा तो हमारों कपट करके दोषोंको छिपाने पर भी प्रगट होते ही है। जैसे-चंद्रको राहु ग्रस लेता है यह बात छिपती नहीं सर्वजन प्रसिद्ध होती है। वैसे ही दोष छिपानेका कितना भी प्रयत्न करो, परंतु यदि तुम पुण्यवान् न होगे तो तुम्हारे दोष लोगोंको मालूम होंगे ही ॥1432॥ जो पुण्यवान् पुरुष है उसका दोष लोगोंको प्रत्यक्ष होने पर भी लोग उसको दोष मानते नहीं है, जैसे तालाबका पानी मलिन होने पर भी उसके मलिनपनाकी तरफ जब लक्ष्य नहीं देते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि-पुण्यवान्को कपट करनेकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि दोष प्रकट होने पर भी श्रीमान् मान्य होते ही हैं ॥1433॥ सैंकड़ों कपट प्रयोग करने पर भी और बे मालूम कपट प्रयोग करने पर भी पुण्यवान् मनुष्यसे भिन्नं अर्थात् पापी मनुष्यको धन प्राप्त नहीं होता, तात्पर्य कपट करनेसे धन प्राप्त नहीं होता पुण्यसे ही मिलता है ॥1434॥ इस प्रकार इस भव व परभवमें मायासे अनेक दोष उत्पन्न होते हैं ऐसा जानकर मायाका त्याग करना चाहिए ॥1435॥
(राजवार्तिक अध्याय 9/6/27/599/15), ( चारित्रसार पृष्ठ 62/2), ( पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 1/90), ( ज्ञानार्णव अधिकार 19/58-67)
अनगार धर्मामृत अधिकार 17-23/577 भावार्थ-वह कपटी है, इस तरहकी अपकीर्ति को जो सहन कर नहीं सकता उसकी तो बात क्या, जो सहन भी कर सकता है वह भी इस संसार मार्गको बढ़ाने वाली अनंतानुबंधी इस मायाको दूरसे छोड़ दे। क्योंकि नहीं तो मुझे पुंस्त्व पर्याय प्राप्त न होगी। इस लोकमें तेरा कोई भी विश्वास न करेगा। जिन्होंने आर्जव धर्म रूपी नौकाके द्वारा माया रूपी नदीको लाँघ लिया है वे लोकोत्तर पुरुष जयवंत रहो। परंतु मायापूर्ण वाक्योंसे अर्थात् `कुंजरो न नरः' ऐसे मायापूर्ण वाक्योंसे गुरु द्रोणाचार्यको धोखा देनेके कारण युधिष्ठिरको इतनी ग्लानि हुई कि उन्होनें अपने को सत्पुरुषसे छिपा लिया। इस प्रकार मायासे बड़े-बड़े पुरुषोंको क्लेश हुआ है ऐसा जानकर मायाका त्याग कर देना चाहिए।
3. दश धर्म संबंधी विशेषताएँ - देखें धर्म - 8।