उपगूहन
From जैनकोष
१. व्यवहार लक्षण
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या २६१ दंसणचरणविवण्णे जीवे दट्ठूण धम्मभत्तीए। उपगूहणं करंतो दंसणसुद्धो हवदि एसो ।२६१।
= सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमें ग्लानि सहित जीवोंको देखकर धर्मकी भक्ति कर उनके दोषोंको दूर करता है, वह शुद्ध-सम्यग्दर्शनवाला होता है।
रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक संख्या १५ "स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य बालाशक्तजनाश्रयाम्। वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति तद्वदन्त्युपगूहनम् ।१५।
= जो अपने आप ही पवित्र ऐसे जैनधर्मकी, अज्ञानी तथा असमर्थ जनोंके आश्रयसे उत्पन्न हुई निन्दाको दूर करते हैं, उसको उपगूहन अंग कहते हैं।
(द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या ४१/१७४।)
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक संख्या २७ परदोषनिगूहनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम्।
= उपबृंहण गुणके अर्थ अन्य पुरुषोंके दोषोंको भी गुप्त रखना कर्त्तव्य है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा संख्या ४१९ जो परदोसं गोवदि णियसुकयं जो ण पवडदे लोए। भवियव्व भावणरओ उवगूहणकारओ सो हु।
= जो सम्यग्दृष्टि दूसरोंके दोषोंको ढांकता है, और अपने सुकृतको लोकमें प्रकाशित नहीं करता, तथा भवितव्यकी भावनामें रत रहता है। उसे उपगूहणगुणका धारी कहते हैं।
२. निश्चय लक्षण
समयसार / मूल या टीका गाथा संख्या २३३ जो सिद्धभत्तिजुत्तो उपगूहणगोदु सव्वधम्माणं। सो उवगूहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ।२३३।
= जो चेतयिता सिद्धोंकी शुद्धात्माकी भक्तिसे युक्त है और पर-वस्तुओंके सर्वधर्मोंको गोपन करनेवाला है (अर्थात् रागादि भावोंमें युक्त नहीं होता है) उसको उपगूहन करनेवाला सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये।
समयसार / समयसार तात्पर्यवृत्ति। तात्पर्यवृत्ति गाथा संख्या २३३ शुद्धात्मभावनारूपपारमार्थिकसिद्धभक्तियुक्तः मिथ्यात्वरागादिविभावधर्माणामुपगूहकः प्रच्छादको विनाशकः। स सम्यग्दृष्टिः उपगूहनकारो मन्तव्यः।
= उपगूहनका अर्थ छिपानेका है। निश्चयको प्रधानकरि ऐसा कहा है कि जो सिद्धभक्तिमें अपना उपयोग लगाया तब अन्य धर्म पर दृष्टि ही न रही, तब सभी धर्म छिप गये। इस प्रकार शुद्धात्माकी भावनारूप पारमार्थिक-सिद्धभक्तिसे युक्त होकर मिथ्यात्व रागादि विभावधर्मोंका उपगूहन करता है, प्रच्छादन करता है, विनाश करता है उस सम्यग्दृष्टिको उपगूहनकारी जानना चाहिए।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या ४१/१७४/१० निश्चयनयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारोपगूहणगुणस्य सहकारित्वेन निजनिरञ्जननिर्दोषपरमात्मनः प्रच्छादका ये मिथ्यात्वरागादिदोषास्तेषां तस्मिन्नेव परमात्मनि सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपं यद्धयानं तेन प्रच्छादनं विनाशनं गोपनं झम्पनं तदेवोपगूहनमिति।
= निश्चयनयसे व्यवहार उपगूहण-गुणकी सहायतासे, अपने निरञ्जन निर्दोष परमात्माको ढकनेवाले रागादि दोषोंको, उसी परमात्मामें सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप ध्यानके द्वारा ढकना, नाश करना, छिपाना, झम्पन करना, सो उपगूहन-गुण है।
२. उपबृंहण का लक्षण
राजवार्तिक अध्याय संख्या ६/२४/१/५२९/१३ उत्तमक्षमादिभावनया आत्मनो धर्मपरिवृद्धिकरणमुपबृंहणम्।
= उत्तमक्षमादि भावनाओंके द्वारा आत्माके धर्मकी वृद्धि करना उपबृंहण-गुण है।
(पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक संख्या २७)
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या ४५/१४९/१० उपबृंहणं णाम वर्द्धनं। बृह बृहि वृद्वाविति वचनात्। धात्वर्थानुवादी चोपसर्गः उप इति। स्पष्टेनाग्राम्येण श्रोत्रमनःप्रीतिदायिना वस्तुयाथात्म्यप्रकाशनप्रवणेन धर्मोपदेशेन परस्य तत्त्वश्रद्धानवर्द्धनं उपबृंहणं। सर्वजनविस्मयकारिणीं शतमुखप्रमुखगीर्वाणसमितिविरचितोपचितसदृशीं पूजां संपाद्य दुर्धरतपोयोगानुष्ठानेन वा आत्मनि श्रद्धास्थिरीकरणम्।
= `उपबृंहण', इसका अर्थ बढ़ाना ऐसा होता है। `बृह बृहि वृद्धौ' इस धातुसे बृंहण शब्दकी उत्पत्ति होती है। `उप' इस उपसर्गके योगसे `बृह' धातुका अर्थ बदला नहीं है। स्पष्ट, अग्राम्य, कान और मनको प्रसन्न करनेवाले, वस्तुकी यथार्थताको भव्योंके आगे दर्पणके समान दिखानेवाले, ऐसे धर्मोपदेशके द्वारा तत्त्व-श्रद्धान बढ़ाना वह उपबृंहण-गुण है। इन्द्र प्रमुख देवोंके द्वारा जैसी महत्त्वयुक्त पूजा की जाती है, वैसी जिनपूजा करके अपनेको जिनधर्ममें, जिनभक्तिमें स्थिर करना; अथवा दुर्धर-तपश्चरण वा आतापनादि योग धारण करके अपने आत्मामें श्रद्धा गुण उत्पन्न करना इसको भी उपबृंहण कहते हैं।
समयसार / आत्मख्याति गाथा संख्या २३३ यतो हि सम्यग्दृष्टिः टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन समस्तात्मशक्तीनामुपबृंहणादबृंहकः ततोऽस्य जीवशक्तिदौर्बल्यकृतो नास्ति बन्धः किंतु निर्जरैव।
= क्योंकि, सम्यग्दृष्टि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण समस्त आत्मशक्तियोंकी वृद्धि करता है, इसलिए उपबृंहक है। इसलिए उस जीवकी शक्तिकी दुर्बलतासे होनेवाला बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक संख्या ७७८ आत्मशुद्धेरदौर्बल्यकरणं चोपबृंहणम्। अर्थाद्ग्दृज्ञप्तिचारित्रभावादस्खलितं हि तत् ।७७८।
= आत्माकी शुद्धिमें कभी दुर्बलता न आने देना ही उपबृंहण अंग कहलाता है। अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र रूप अपने भावोंसे जो च्युत नहीं होता है वही उपबृंहण-गुण कहलाता है।