विनमि
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से == देखें नमि - 1।
पुराणकोष से
तीर्थंकर वृषभदेव के साले महाकच्छ के पुत्र और वृषभदेव के अठहत्तरवें गणधर । ये और इनके ताऊ कच्छ का पुत्र नमि दोनों वृषभदेव के उस समय निकट गये जब वृषभदेव छ: माह के प्रतिमायोग में विराजमान थे । ये दोनों वृषभदेव के साथ दीक्षित हो गये थे किन्तु पद से क्षत होकर वृषभदेव से बार-बार भोग-सामग्री की याचना करते थे । इन्हें उचित-अनुचित का कुछ भी ज्ञान न था । दोनों जल, पुष्प तथा अर्घ से वृषभदेव की उपासना करते थे । इससे धरणेन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ । वह अवधिज्ञान से नमि और विनमि के वृत्तान्त को जान गया । अत: वह वृषभदेव के पास आया । धरणेन्द्र ने इसे विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी का राज्य देकर संतुष्ट किया । यह भी वहाँ नभस्तिलक नगर में रहने लगा था । धरणेन्द्र ने इसे गान्धरपदा और पन्नगपदा दो विद्याएँ भी दी थीं । धरणेन्द्र की देवी अदिति ने मनु, मानव, कौशिक, गौरिक, गान्धार, भूमितुण्ड, मूलवीर्यक और शंकुक ये आठ तथा दूसरी दिति देवी ने― मातंग, पाण्डुक, काल, स्वपाक, पर्वत, वंशालय, पांशुमूल और वृक्षमूल ये आठ विद्या-निकाय दिये थे । इसने और इसके भाई नमि ने अनेक औषधियां तथा विद्याएं विद्याधरों को दी थीं जिन्हें प्राप्त कर विद्याधर विद्यानिकायों के नाम से प्रसिद्ध हो गये थे । वे गौरी विद्या से गौरिक, मनु से मनु, गान्धारी से गान्धार, मानवी से मानव, कौशिकी से कौशिक, भूमितुण्डक से भूमितुण्डक, मूलवीर्य से मूलवीर्यक, शंकु से शंकुक, पाण्डुकी से पाण्डुकेय, कालक से काल, श्वपाक से स्वपाकज, मातंगी से मातंग, पर्वत से पार्वतेय, वंशालय से वंशालयगण, पांशुमूल से पांशुमूलिक और वृक्षमूल से वार्क्षमूल कहे जाने लगे थे । इसके संजय, अरिंजय, शत्रुन्जय, धनंजय, मणिचूल, हरिश्मश्रु, मेघानीक प्रभंजन, चूड़ामणि, शतानीक, सहस्रानीक, सर्वंजय, वज्रबाहु, महाबाहु, अरिंदम आदि अनेक पुत्र और भद्रा और सुभद्रा नाम की दो कन्याएँ थी । इनमें सुभद्रा चक्रवर्ती भरतेश के चौदह रत्नों में एक स्त्रीरत्न थी । अन्त में यह पुत्र को राज्य सौंपकर संसार से विरक्त हुआ और इसने दीक्षा ले ली थी । इसके मातंग पुत्र से हुए अनेक पुत्र-पौत्र थे । वे भी अपनी-अपनी साधना के अनुसार स्वर्ग और मोक्ष गये । महापुराण 18-91-97, 19.182-185, 43. 65, पद्मपुराण 3. 306-309, हरिवंशपुराण 9.132-133, 12.68, 22.57-60, 76-83, 103-110