इंद्रिय
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
सिद्धांतकोष से
शरीरधारी जीवको जाननेके साधन रूप स्पर्शनादि पाँच इंद्रियाँ होती है। मनको ईषत् इंद्रिय स्वीकार किया गया है। ऊपर दिखाई देनेवाली तो बाह्य इंद्रियाँ हैं। इन्हें द्रव्येंद्रिय कहते हैं। इनमें भी चक्षुपटलादि तो उस उस इंद्रियके उपकरण होनेके कारण उपकरण कहलाते हैं; और अंदरमें रहने वाला आँखकी व आत्म प्रदेशोंकी रचना विशेष निवृत्ति इंद्रिय कहलाती है। क्योंकि वास्तवमें जाननेका काम इन्हीं इंद्रियोंसे होता है उपकरणोंसे नहीं। परंतु इनके पीछे रहनेवाले जीवके ज्ञानका क्षयोपशम व उपयोग भावेंद्रिय है, जो साक्षात् जाननेका साधन है। उपरोक्त छहों इंद्रियोमें चक्षु और मन अपने विषयको स्पर्श किये बिना ही जानती हैं, इसलिए अप्राप्यकारी हैं। शेष इंद्रियाँ प्राप्यकारी हैं। संयमकी अपेक्षा जिह्वा व उपस्थ ये दो इंद्रियाँ अत्यंत प्रबल हैं और इसलिए योगीजन इनका पूर्णतया निरोद करते हैं।
1. भेद व लक्षण तथा तत्संबंधी शंका समाधान
1. इंद्रिय सामान्यका लक्षण
2. इंद्रिय सामान्य भेद
3. द्रव्यंद्रियके उत्तर भेद
4. भावेंद्रियके उत्तर भेद
• लब्धि व उपयोग इंद्रिय - देखें वह वह नाम
• इंद्रिय व मन जीतनेका उपाय - देखें संयम - 2
5. निर्वृत्ति व उपकरण भावेंद्रियोंके लक्षण
6. भावेंद्रिय सामान्य का लक्षण
7. पाँचों इंद्रियोंके लक्षण
8. उपयोगको इंद्रिय कैसे कह सकते हैं
9. चल रूप आत्मप्रदेशोंमें इंद्रियपना कैसे घटितहोता है।
2. इंद्रियोंमें प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपन
1. इंद्रियोंमें प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपनेका निर्देश
• चार इंद्रियाँ प्राप्त व अप्राप्त सब विषयोंको ग्रहण करती है - देखें अवग्रह - 3.5
2. चक्षुको अप्राप्यकारी कैसे कहते हो
3. श्रोत्रको भी अप्राप्यकारी क्यों नहीं मानते
4. स्पर्शनादि सभी इंद्रियोंमें भी कथंचित् अप्राप्यकारीपने संबंधी
5. फिर प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपनेसे क्या प्रयोजन
3. इंद्रिय निर्देश
1. भावेंद्रिय ही वास्तविक इंद्रिय है
2. भावेंद्रियको ही इंद्रिय मानते हो तो उपयोग शून्य दशामें या संशयादि दशामें जीव अनिंद्रिय हो जायेगा
3. भावेंद्रिय होनेपर ही द्रव्येंद्रिय होती है
4. द्रव्येंद्रियोंका आकार
5. इंद्रियोंकी अवगाहना
6. इंद्रियोंका द्रव्य व क्षेत्रकी अपेक्षा विषय ग्रहण
7. इंद्रियोंके विषयका काम व भोग रूप विभाजन
8. इंद्रियोंके विषयों संबंधी दृष्टिभेद
9. ज्ञानके अर्थमें चक्षुका निर्देश
• मन व इंद्रियोंमें अंतर संबंधी - देखें मन - 3
• इंद्रिय व इंद्रिय प्राणमें अंतर - देखें प्राण
• इंद्रियकषाय व क्रियारूप आस्रवोंमे अंतर - देखें क्रिया
• इंद्रियोंमे उपस्थ व जिह्वा इंद्रियकी प्रधानता - देखें संयम - 2
4. इंद्रिय मार्गणा व गुणस्थान निर्देश
1. इंद्रिय मार्गणाकी अपेक्षा जीवोंके भेद
• दो चार इंद्रियवाले विकलेंद्रिय; और पंचेंद्रिय सकलेंद्रिय कहलाते हैं - देखें त्रस
2. एकेंद्रियादि जीवोंके लक्षण
3. एकेंद्रियसे पंचेंद्रिय पर्यंत इंद्रियोंका स्वामित्व
• एकेंद्रियादि जीवोंके भेद - देखें जीव समास
• एकेंद्रियादि जीवोंकी अवगाहना - देखें अवगाहना - 2
4. एकेंद्रिय आदिकोंमें गुणस्थानोंका स्वामित्व
• सयगो व अयोग केवलीको पंचेंद्रिय कहने संबंधी - देखें केवली - 5
5. जीव अनिंद्रिय कैसे हो सकता है
• इंद्रियोंके स्वामित्व संबंधी गुणस्थान, जीवसमास मार्गणा स्थानादि 20 प्ररूपणाएँ - देखें सत्
• इंद्रिय संबंधी सत् (स्वामित्व), संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ - देखें वह वह नाम
• इंद्रिय मार्गणामें आयके अनुसार ही व्यय होनेका नियम - देखें मार्गणा
• इंद्रिय मार्गणासे संभव कर्मोका बंध उदय सत्त्व - देखें वह वह नाम
• कौन-कौन जीव मरकर कहाँ-कहाँ उत्पन्न हो और क्या क्या गुण उत्पन्न करे - देखें जन्म - 6
• इंद्रिय मार्गणामे भावेंद्रिय इष्ट है - देखें इंद्रिय - 3
5. एकेंद्रिय व विकलेंद्रिय निर्देश
• त्रस व स्थावर - देखें वह वह नाम
• एकेंद्रियोंमें जीवत्वकी सिद्धि - दे स्थावर
• एकेंद्रियोंका लोकमें अवस्थान - देखें स्थावर
• एकेंद्रिय व विकलेंद्रिय नियमसे सम्मूर्छिम ही होते है - देखें संमूर्च्छन
• एकेंद्रिय व विकलेंद्रियोमें अंगोपांग, संस्थान, संहनन, व दुःस्वर संबंधी नियम - देखें उदय
1. एकेंद्रिय असंज्ञी होते हैं
• एकेंद्रिय आदिकोमें मनके अभाव संबंधी - देखें संज्ञी
• एकेंद्रिय जाति नामकर्मके बंध योग्य परिणाम - देखें जाति
• एकेंद्रियोमें सासादन गुणस्थान संबंधी चर्चा - दे जन्म
• एकेंद्रिय आदिकोमें क्षायिक सम्यक्त्वके अभाव संबंधी - देखें तिर्यंच गति
• एकेंद्रियोंसे सीधा निकल मनुष्य हो क्षायिक सम्यक्त्व व मोक्ष प्राप्त करनेकी संभावना - देखें जन्म - 5
• विकलेंद्रिय व पंचेंद्रिय जीवोंका लोकमें अवस्थ न - देखें तिर्यंच - 3
1. भेद व लक्षण तथा तत्संबंधी शंका-समाधान
1. इंद्रिय सामान्यका लक्षण
पं.सं./प्रा.1/65 अहमिंदा जह देवा अविसेसं अहमदं त्ति मण्णंता। ईसंति एक्कमेक्कं इंदा इव इंदियं जाणे ॥65॥
= जिस प्रकार अहमिंद्रदेव बिना किसी विशेषताके `मैं इंद्र हूँ, मैं इंद्र हूँ' इस प्रकार मानते हुए ऐश्वर्यका स्वतंत्र रूपसे अनुभव करते हैं, उसी प्रकार इंद्रियोंको जानना चाहिए। अर्थात् इंद्रियाँ अपने-अपने विषयोंको सेवन करनेमें स्वतंत्र हैं।
( धवला 1/1,1,4/85/137 ), ( गोम्मटसार जीवकांड 164 ), (पं.सं./सं.1/78)
सर्वार्थसिद्धि 1/14/108/3 इंदतीति इंद्र आत्मा। तस्य ज्ञस्वभावस्य तदा वरणक्षयोपशने सति स्वयमर्थान् गृहीतुमसमर्थस्य यदर्थोपलब्धिलिंग तदिंद्रस्य लिंंगमिंद्रियमित्युच्यते। अथवा लीनमर्थं गमयतीति लिंगम्। आत्मनः सूक्ष्मस्यास्तित्वाधिगमे लिंगमिंद्रियम्। यथा इह धूमोऽग्ने।...अथवा इंद्र इति नामकर्मोच्यते। चेन सृष्टमिंद्रियमिति।
= 1. इंद्र शब्दका व्यत्वत्तिलभ्य अर्थ है, `इंदतीति इंद्र' जो आज्ञा और ऐश्वर्य वाला है वह इंद्र है। यहाँ इंद्र शब्दका अर्थ आत्मा है। वह यद्यपि ज्ञस्वभाव है तो भी मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमके रहते हुए स्वयं पदार्थोंको जाननेमें असमर्थ है। अतः उसको जो जाननेमें लिंग (निमित्त) होता है वह इंद्रका लिंग इंद्रिय कही जाती है। 2. अथवा जो लीन अर्थात् गूढ पदार्थ का ज्ञान कराता है उसे लिंग कहते हैं। इसके अनुसार इंद्रिय शब्दका अर्थ हुआ कि जो सूक्ष्म आत्माके अस्तित्वका ज्ञान करानेमे लिंग अर्थात् कारण है उसे इंद्रिय कहते हैं। जैसे लोकमें धूम अग्निका ज्ञान करानेमें कारण होता है। 3. अथवा इंद्र शब्द नामकर्मका वाची है। अतः यह अर्थ हुआ कि जिससे रची गयी इंद्रिय है।
( राजवार्तिक 1/14/1/59 ), ( राजवार्तिक 2/15/1-2/129 ), ( राजवार्तिक 9/7/11/603/28 ), ( धवला 1/1,1,33/232/1 ), ( धवला 7/2,1,2/6/7 )
धवला 1/1,1,4/135-137/6 प्रत्यक्षनिरतानींद्रियाणि। अक्षाणींद्रियाणि। अक्षमक्षं प्रतिवर्तत इति प्रत्यक्षविषयोऽक्षजो बोधो वा। तत्र निरतानि व्यापृतानि इंद्रियाणि।...स्वेषां विषयः स्वविषयस्तत्र निश्चयेन निर्णयेन रतानींद्रियाणी।....अथवा इंदनादाधिपत्यादिंद्रियाणि।
= 1. जो प्रत्यक्षमें व्यापार करती है उन्हें इंद्रियाँ कहते हैं। जिसका खुलासा इस प्रकार है अक्ष इंद्रियको कहते हैं और जो अक्ष अक्षके प्रति अर्थात् प्रत्येक इंद्रियके प्रति रहता है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। जो कि इंद्रियोंका विषय अथवा इंद्रियजंय ज्ञानरूप पड़ता है। उस इंद्रिय विषय अथवा इंद्रिय ज्ञान रूप जो प्रत्यक्षमें व्यापार करती हैं, उन्हें इंद्रियाँ कहते हैं। 2.इंद्रियाँ अपने-अपने विषयमें रत हैं। अर्थात् व्यापार करती हैं। ( धवला 7/2,1,2/6/7 ) 3. अथवा अपने-अपने विषयका स्वतंत्र आधिपत्य करनेसे इंद्रियाँ कहलाती है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 165 में उद्धृत “यदिंद्रस्यात्मनो लिंगं यदि वा इंद्रेण कर्मणा। सृष्टं जुष्टं तथा दृष्टं दत्तं वेति तदिंद्रियः।
= इंद्र जो आत्मा ताका चिह्न सो इंद्रिय है। अथवा इंद्र जो कर्म ताकरि निपज्या वा सेया वा तैसे देख्या वा दीया सो इंद्रिय है।
2. इंद्रिय सामान्य के भेद
तत्त्वार्थसूत्र 2/15,16,19 पंचेंद्रियाणि ॥15॥ द्विविधानि ॥16॥ स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्राणि ॥19॥
= इंद्रियाँ पाँच है ॥15॥ वे प्रत्येक दो-दो प्रकारकी हैं ॥16॥ स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये इंद्रियाँ हैं ॥19॥
( राजवार्तिक 9/17/11/603/29 )
सर्वार्थसिद्धि 2/16/179/1 कौ पुनस्तौ द्वौ प्रकारौ द्रव्येंद्रियभावेंद्रियमिति।
= प्रश्न - वे दो प्रकार कौन-से हैं? उत्तर - द्रव्येंद्रिय और भावेंद्रिय
( राजवार्तिक 2/16/1/130/2 ), ( धवला 1/1,1,33/232/2 ), ( गोम्मटसार जीवकांड 165 )
3. द्रव्येंद्रियके उत्तर-भेद
तत्त्वार्थसूत्र 2/17 निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येंद्रियम् ॥17॥ सा द्विविधा, बाह्याभ्यंतरभेदात् (स.सि)।
= निर्वृत्ति और उपकरण रूप द्रव्येंद्रिय है ॥17॥ निर्वृत्ति दो प्रकारकी है - बाह्यानिर्वृत्ति और आभ्यंतरनिर्वृत्ति।
( सर्वार्थसिद्धि 2/17/175/4 ), ( राजवार्तिक 2/17/2/130 ), ( धवला 1/1,1,33/232/3 )
सर्वार्थसिद्धि 2/17/175/8 पूर्ववत्तदपि द्विविधम्।
= निर्वृत्तिके समान यह भी दो प्रकारकी है - बाह्य और आभ्यंतर।
( राजवार्तिक 2/17/6/130/16 ) ( धवला 1/1,1,33/236/3 )
4. भावेंद्रियके उत्तर-भेद
तत्त्वार्थसूत्र 2/18 लब्ध्युपयोगौ भावेंद्रियम् ॥18॥
= लब्धि ओर उपयोग रूप भावेंद्रिय हैं।
( धवला 1/1,1,33/236/5 )
5. निर्वृत्ति व उपकरण भावेंद्रियों के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि 2/1,7/175/3 निर्वृत्यते इति निर्वृत्तिः। केन निर्वृत्यते। कर्मणा। सा द्विविधाः बाह्याभ्यंतरभेदात्। उत्सेधांगुलासंख्येयभागप्रतिमानां शुद्धात्मप्रदेशामां प्रतिनियतचक्षुरादींद्रियसंस्थानेनावस्थितानां वृत्तिराभ्यंतरा निर्वृत्तिः। तेष्वात्मप्रदेशेष्विंद्रियव्यपदेशभाक्षु यः प्रतिनियतसंस्थाननामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गलप्रचयः सा बाह्या निर्वृत्तिः। येन निर्वृत्तेरुपकारः क्रियते तदुपकरणम्। पूर्ववत्तदपि द्विविधम्। तत्राभ्यंतरकृष्णशुक्लमंडलं बाह्यमक्षिपत्रपक्ष्मद्वयादि। एवं शेषेष्वपींद्रियेषु ज्ञेयम्।
= रचनामां नाम निर्वृत्ति है। प्रश्न - यह रचना कौन करता है? उत्तर - कर्म। निर्वृत्ति दो प्रकारकी है - बाह्य और आभ्यंतर। उत्सेधांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण और प्रतिनियत चक्षु आदि इंद्रियोंके आकार रूपसे अवस्थित शुद्ध आत्म प्रदेशोंकी रचनाको आभ्यंतर निर्वृत्ति कहते हैं। यथा इंद्रिय नामवाले उन्हीं आत्मप्रदेशोंमें प्रतिनियत आकाररूप और नामकर्मके उदयसे विशेष अवस्थाको प्राप्त जो पुद्गल प्रचय होता है उसे बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं। जो निर्वृत्ति का उपकार करता है उसे उपकरण कहते हैं। यह भी दो प्रकारका है। ...नेत्र इंद्रियमें कृष्ण और शुक्लमंडल आभ्यंतर उपकरण हैं तथा पलक ओर दोनों बरौनी आदि बाह्य उपकरण हैं। इसी प्रकार शेष इंद्रियोंमे भी जानता चाहिए।
( राजवार्तिक 2/17/2-7/130 ), ( धवला 1/1,1,33/232/2 ), ( धवला 1/1,1,33,234/6 ), ( धवला 1/1,1,33/236/3 ), ( तत्त्वसार 2/43 )
तत्त्वसार 2/41-42 नेत्रादींद्रियसंस्खानावस्थितानां हि वर्तनम्। विशुद्धात्मप्रदेशानां तत्र निर्वृत्तिरांतरा ॥41॥ तेष्वेवात्मप्रदेशेषु करणव्यपेदेशिषु। नामकर्मकृतावस्थः पुद्गलप्रचयोऽपरा ॥42॥
आंतर निर्वृत्तियोंमें-से आंतर निर्वृत्ति वह है कि जो कुछ आत्मप्रदेशोंकी रचना नेत्रादि इंद्रियोंके आकारको धारण करके उत्पन्न होती है। वे आत्म प्रदेश इतर प्रदेशोंसे अधिक विशुद्ध होते हैं। ज्ञानके व ज्ञान साधनके प्रकरणमें ज्ञानावरणक्षयोपशमजन्य निर्मलताको विशुद्धि कहते हैं ॥41॥ इंद्रियाकार धारण करनेवाले अंतरंग इंद्रिय नामक आत्मप्रदेशोंके साथ उन आत्मप्रदेशोंको अवलंबन देने वाले जो शरीराकार अवयव इकट्ठे होते हैं उसे बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं। इन शरीरावयवोंकी इकट्ठे होकर इंद्रियावस्था बननेके लिए अंगोपांग आदि नामकर्मके कुछ भेद सहायक होते हैं।
गोम्मटसार जीवकांड/ टी.165/391/18 पुनस्तेष्विंद्रियेषु तत्तदावरणक्षयोपशमविशिष्टात्मकप्रदेशसंस्थानमभ्यंतरनिर्वृत्तिः। तदवष्टब्धशरीरप्रदेशसंस्थानं बाह्यनिर्वृत्तिः। इंद्रियपर्याप्त्यागतनोकर्मवर्गणास्कंधरूपस्पर्शाद्यर्थज्ञानसहकारि यत्तदभ्यंतरमुपकरणम्। तदाश्रयभूतत्वगादिकबाह्यमुपकरणमिति ज्ञातव्यम् ।165।
= शरीर नामकर्मसे रचे गये शरीर के चिन्ह विशेष सो द्रव्येंद्रिय है। तहाँ जो निज-निज इंद्रियावरण की क्षयोपशमताकी विशेषता लिए आत्मा के प्रदेशनिका संस्थान सो आभ्यंतर निर्वृत्ति है। बहुरि तिस ही क्षेत्रविषै जो शरीरके प्रदेशनिका संस्थान सो बाह्य निर्वृत्ति है। बहुरि उपकरण भी....तहाँ इंद्रिय पर्याप्तकरि आयी जो नोकर्मवर्गणा तिनिका स्कंधरूप जो स्पर्शादिविषय ज्ञानका सहकारी होइ सो तौ आभ्यंतर उपकरण है अर ताके आश्रयभूत जो चामड़ी आदि सो बाह्य उपकरण है। ऐसा विशेष जानना।
6. भावेंद्रिय सामान्यका लक्षण
राजवार्तिक 1/15/13/62/7 इंद्रियभावपरिणतो हि जीवो भावेंद्रियमिष्यते।
= इंद्रिय भाव से परिणत जीव ही भावेंद्रिय शब्द से कहना इष्ट है।
गोम्मटसार जीवकांड 165 मदिआवरणखओवसमुत्थविसुद्धी हु तज्जबोहो। भावेंदियम्.... ।165।
= मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न जो आत्माकी (ज्ञानके क्षयोपशम रूप) विशुद्धि उससे उत्पन्न जो ज्ञान वह तो भावेंद्रिय है।
7. पाँचों इंद्रियोंके लक्षण
सर्वार्थसिद्धि 2/19/177/2 लोके इंद्रियाणां पारतंत्र्यविवक्षा दृश्यते। अनेनाक्ष्णा सुष्ठु पश्यामि, अनेन कर्णेन सुष्ठु शृणोमीति। ततः पारतंत्र्यात्स्पर्शनादीनां करणत्वम्। वीर्यांतरायमतिज्ञानावरणक्षयोपशमांगोपांगनामलाभावष्टंभादात्मना स्पृश्यतेऽनेनेति स्पर्शनम्। रस्यतेऽनेनेति रसनम्। घ्रायतेऽनेनेति घ्राणम्। चक्षोरनेकार्थत्वाद्दर्शनार्थविवक्षायां चष्टे अर्थान्पश्यत्यनेनेति चक्षुः। श्रूयतेढ़नेनेति श्रोत्रम्। स्वातंत्र्यविवक्षा च दृश्यते। इदं मे अक्षि सुष्ठु पश्यति। अयं मे कर्णः सुष्ठु शृणोति। ततः स्पर्शनादीनां कर्तरि निष्पत्तिः। स्पृशतीति स्पर्शनम्। रसतीति रसनम्। जिघ्रतीति घ्राणम। चष्टे इति चक्षुः। शृणोति इति श्रोत्रम्।
= लोकमें इंद्रियोंकी पारतंत्र्य विवक्षा देखी जाती है जैसे इस आँखसे मैं अच्छा देखता हूँ, इस कानसे मैं अच्छा सुनता हूँ अतः पारतंत्र्य विवक्षामें स्पर्शन आदि इंद्रियोंका करणपना बन जाता है। वीर्यांतराय और मतिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे तथा अंगोपांग नामकर्मके आलंबनसे आत्मा जिसके द्वारा स्पर्श करता है वह स्पर्शन इंद्रिय है, जिसके द्वारा स्वाद लेता है वह रसनाइंद्रिय है, जिसके द्वारा सूंघता है वह घ्राण इंद्रिय है। चक्षि धातुके अनेक अर्थ हैं। उनमेंसे यहाँ दर्शन रूप अर्थ लिया गया है, इसलिए जिसके द्वारा पदार्थोंको देखता है वह चक्षु इंद्रिय है तथा जिसके द्वारा सुनता है वह श्रोत्र इंद्रिय है। इसी प्रकार इन इंद्रियोंकी स्वातंत्र्य विवक्षा भी देखी जाती है। जैसे यह मेरी आँख अच्छी तरह देखती है, यह मेरा कान अच्छी तरह सुनता है। और इसलिए इन स्पर्शन आदि इंद्रियोंकी कर्ता कारक में सिद्धि होती है। यथा - जो स्पर्श करती है वह स्पर्शन इंद्रिय है, जो स्वाद लेती है वह रसन इंद्रिय है, जो सूंघती है वह घ्राण इंद्रिय है, जो देखती है वह चक्षु इंद्रिय है, जो सुनती है वह कर्ण इंद्रिय है।
( राजवार्तिक/2/19/1/131/4 ) ( धवला 1/1,1,33/237/6; 241/5; 243/4; 245/5; 247/2 )।
8. उपयोगको इंद्रिय कैसे कह सकते हैं
धवला 1/1,1,33/236/8 उपयोगस्य तत्फलत्वादिंद्रियव्यपदेशानुपपत्तिरिति चेन्न, कारणधर्मस्य कार्यानुवृत्तेः। कार्यं हि लोके कारणमनुवर्तमानं दृष्टं यथा घटाकापरिणतं विज्ञानं घट इति। तथेंद्रियनिर्वृत्त उपयोगोऽपि इंद्रियमित्यपदिश्यते। इंद्रस्य लिंगमिंद्रेण सृष्टमिति वा य इंद्रियशब्दार्थः स क्षयोपशमे प्राधान्येन विद्यत इति तस्येंद्रियव्यपदेशो न्याय्यइति।
= प्रश्न - उपयोग इंद्रियोंका फल है, क्योंकि, उसकी उत्पत्ति इंद्रियोंसे होती है, इसलिए उपयोगको इंद्रिय संज्ञा देना उचित नहीं है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, कारणमें रहनेवाले धर्म की कार्यमें अनुवृत्ति होती है अर्थात् कार्य लोकमें कारणका अनुकरण करता हुआ देखा जाता है। जैसे, घटके आकारसे परिणत हुए ज्ञानको घट कहा जाता है, उसी प्रकार इंद्रियोंसे उत्पन्न हुए उपयोगको भी इंद्रिय संज्ञा दी गयी है।
( राजवार्तिक 2/18/3-4/130 )।
9. चलरूप आत्म प्रदेशोंमें इंद्रियपना कैसे घटित होता है
धवला 1/1,1,33/232/7 आह, चक्षुरादीनामिंद्रियाणां क्षयोपशमो हि नाम स्पर्शनेंद्रियस्येव किमु सर्वात्मप्रदेशेषूपजायते, उत प्रतिनियतेष्विति। किं चात;, न सर्वात्मप्रदेशेषु स्वसर्वावयवैः रूपाद्युपलब्धि प्रसंगात्। अस्तु चेन्न, तथानुपलंभात्। न प्रतिनियतात्मावयवेषुवृत्तेः `सया ट्ठिया, सिया अठ्ठिया, सिया ट्ठियाट्ठिया' ( षट्खंडागम/ प्र. 12, 4,2,11,5/सू. 5-7/367) इति वेदनासूत्रतोऽवगतभ्रमणेषु जीवप्रदेशेषु प्रचलत्सु सर्वजीवानामांध्यप्रसंगादिति। नैष दोषः, सर्व जीवावयवेषु क्षयोपशमस्योत्पत्त्यभ्युपगमात्। न सर्वावयवैः रूपाद्युपलब्धिरपि तत्सहकारिकारणबाह्यनिर्वृत्तेरशेषजीवावयव्यापित्वाभावात्।
धवला 1/1,1,33/234/4 द्रव्येंद्रियप्रमितजीवप्रदेशानां न भ्रमणमिति किन्नेष्यत इति चेन्न, तद्भ्रमणमंतरेणाशुभ्रमज्जीवानां भ्रमद्भूम्यादि दर्शनानुपपत्तेः इति।
= प्रश्न - जिस प्रकार स्पर्शन - इंद्रियकाक्षयोपशम संपूर्ण आत्मप्रदेशोंमें उत्पन्न होता है, उसी प्रकार चक्षु आदि इंद्रियों का क्षयोपशम क्या संपूर्ण आत्मप्रदेशोंमें उत्पन्न होता है, या प्रतिनियत आत्मप्रदेशोंमें। 1. आत्माके संपूर्ण प्रदेशोंमे क्षयोपशम होता है यह तो माना नहीं जा सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर आत्माके संपूर्ण अवयवोंसे रूपादिकको उपलब्धिका प्रसंग आ जाएगा। 2. यदि कहा जाय, कि संपूर्ण अवयवोंसे रूपादिककी उपलब्धि होती ही है, सो यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, सर्वांगसे रूपादिका ज्ञान होता हुआ पाया नहीं जाता। इसलिए सर्वांगमें ती क्षयोपशम माना नहीं जा सकता है। 3. और यदि आत्माके अतिरिक्त अवयवोंमें चक्षु आदि इंद्रियोंका क्षयोपशम माना जाय, सो भी कहना नहीं बनता है, क्योंकि ऐसा मान लेनेपर `आत्मप्रदेश चल भी हैं, अचल भी हैं, और चलाचल भी हैं, इस प्रकार वेदना प्राभृतके सूत्रसे आत्मप्रदेशों का भ्रमण अवगत हो जानेपर, जीव प्रदेशों की भ्रमणरूप अवस्थामें संपूर्ण जीवोंकी अंधपनेका प्रसंग आ जायेगा, अर्थात् उस समय चक्षु आदि इंद्रियाँ रूपादिको ग्रहण नहीं कर सकेंगी। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीवके संपूर्ण प्रदेशोंमें क्षयोपशमकी उत्पत्ति स्वीकारकी है। परंतु ऐसा मान लेने पर भी, जीवके संपूर्ण प्रदेशोंके द्वारा रूपादिककी उपलब्धिका प्रसंग भी नहीं आता है, क्योंकि, रूपादिके ग्रहण करने में सहकारी कारण रूप बाह्य निर्वृत्ति जीवके संपूर्ण प्रदेशोंमें नहीं पायी जाती है। प्रश्न-द्रव्येंद्रिय प्रमाण जीव प्रदेशों का भ्रमण नहीं होता, ऐसा क्यों नहीं मान लेते हो? उत्तर-नहीं, क्योंकि, यदि द्रव्येंद्रिय प्रमाण जीवप्रदेशोंका भ्रमण नहीं माना जावे, तो अत्यंत द्रुतगतिसे भ्रमण करते हुए जीवोंको भ्रमण करती हुई पृथिवी आदिका ज्ञान नहीं हो सकता है।
2. इंद्रियोंमें प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपना
1. इंद्रियोंमें प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपनेका निर्देश
पं.सं./प्रा.1/68 पुट्ठं सुणेइ सद्दं अपुट्ठं पुण वि पस्सदे रूवं। फासं रसं च गंधं बद्धं पुट्ठं वियाणेइ ।68।
= श्रोत्रेंद्रिय स्पृष्ट शब्दको सुनती है। चक्षुरिंद्रिय अस्पृष्ट रूपको देखती है। स्पर्शनेंद्रिय रसनेंद्रिय और घ्राणेंद्रिय क्रमशः बद्ध और स्पृष्ट, स्पर्श, रस और गंधको जानती हैं ।68।
सर्वार्थसिद्धि 1/19/118 पर उद्धृत "पुट्ठं" सुणेदि सद्दं अपुट्ठं चेव पस्सदे रूअं गंधं रसं च फासं पुट्ठमपुट्ठं वियाणादि।
= श्रोत्र स्पृष्ट शब्दको सुनता है और अस्पृष्ट शब्दको भी सुनता है, नेत्र अस्पृष्ट रूपको ही देखता है। तथा घ्राण रसना और स्पर्शन इंद्रियाँ क्रमसे स्पृष्ट और अस्पृष्ट गंध, रस और स्पर्शको जानती हैं।
धवला 13/5,5,27/225/13 सव्वेसु इंदिएसु अपत्तत्थग्गहणसत्तिसंभावादो।
= सभी इंद्रियोंमें अप्राप्त ग्रहणकी शक्तिका पाया जाना संभव है।
2. चक्षुको अप्राप्यकारी कैसे कहते हो
सर्वार्थसिद्धि 1/19/118/6 चक्षुषोऽप्राप्यकारित्वं कथमध्यवसीयते। आगमतो युक्तितश्च। आगमतः (देखें - 2.1.1)। युक्तितश्च अप्राप्यकारि चक्षुः, स्पृष्टानवग्रहात। यदि प्राप्यकारि स्यात् त्वगिंद्रियवत् स्पृष्टमंजनं गृह्णीयात् न तु गृह्णात्यतो मनोवदप्राप्यकारीत्यवसेयम्।
= प्रश्न-चक्षु इंद्रिय अप्राप्यकारी है यह कैसे जाना जाता है? उत्तर - आगम और युक्तिसे जाना जाता है। आगमसे (देखें - 2.1.1) युक्तिसे यथा - चक्षु इंद्रिय अप्राप्यकारी है, क्योंकि वह स्पृष्ट पदार्थको नहीं ग्रहण करती। यदि चक्षु इंद्रिय प्राप्यकारी होती तो वह त्वचा इंद्रियके समान स्पृष्ट हुए अंजनको ग्रहण करती। किंतु वह स्पृष्ट अंजनको नहीं ग्रहण करती है इससे मालूम होता है कि मनके समान चक्षु इंद्रिय अप्राप्यकारी है।
( राजवार्तिक 1/19/2/67/12 )।
राजवार्तिक 1/19/2/67/23 अत्र केचिदाहुः-प्राप्यकारि चक्षुः आवृतानवग्रहात् त्वगिंद्रयवदिति; अत्रोच्यते-काचाभ्रपटलस्फटिकावृतार्थावग्रहे सति अव्यापकत्वादसिद्धो हेतु....भौतिकत्वात् प्राप्यकारि चक्षुरग्निवदिति चेत्; न, अयस्कांतेनैव प्रत्युक्तत्वात्। ....अयस्कांतोपलम् अप्राप्यलोहमाकर्षदपि न व्यवहितमाकर्षति नातिविप्रकृष्टमिति संशयावस्थमेतदिति। अप्राप्यकारित्वे संशयविपर्ययभाव इति चेत्; न; प्राप्यकारित्वेऽपि तदविशेषात्। कश्चिदाह-रश्मिवच्चक्षुः तैजसत्वात्, तस्मात्प्राप्यकारीति, अग्निवदिति; एतच्चायुक्तम्; अनभ्युपगमात्। तेजोलक्षणमौष्ण्यमिति कृत्वा चक्षुरिंद्रियस्थानमुष्णं स्यात्। न च तद्देशं स्पर्शनेंद्रियम् उष्णस्पर्शोपलंभि दृष्टमिति। इतश्च, अतैजसं चक्षुः भासुरत्वानुपलब्धेः। ....नक्तंचररश्मिदर्शनाद् रश्मिवच्चक्षुरिति चेत्; न, अतैजसोऽपि पुद्गलद्रव्यस्य भासुरत्वपरिणामोपत्तेरिति। किंच, गतिमद्वैधर्म्यात्। इह यद् गतिमद्भवति न तत् संनिकृष्टविप्रकृष्टावर्थावभिन्नकालं प्राप्नोति, न च तथा चक्षुः। चक्षुर्हि शाखाचंद्रमसावभिंनकालमुपलभते,....तस्मान्न गतिमच्चक्षुरिति। यदि च प्राप्यकारि चक्षुः स्यात्, तमिस्रायां रात्रौ दूरेऽग्नौ प्रज्वलति तत्समोपगतद्रव्योपलंभनं भवति कुतो नांतरालगतद्रव्यालोचनम्। ....किंच, यदि प्राप्यकारि चक्षुः स्यात् सांतराधिकग्रहणं न प्राप्नोति। नहींद्रियांतरविषये गंधादौ सांतरग्रहणं दृष्टं नाप्यधिकग्रहणम्।
पूर्वपक्ष-चक्षु प्राप्यकारी है क्योंकि वह ढके हुए पदार्थको नहीं देखती? जैसे कि स्पर्शनेंद्रिय? उत्तर-काँच अभ्रक, स्फटिक आदिसे आवृत पदार्थोंको चक्षु बराबर देखती है। अतः पक्षमें भी अव्यापक होनेसे उक्त हेतु असिद्ध है। पूर्व-भौतिक होनेसे अग्निवत् चक्षु प्राप्यकारी है? उत्तर-चुंबक भौतिक होकर भी अप्राप्यकारी है। ....जिस प्रकार चुंबक अप्राप्त लोहेको खींचता है परंतु अति दूरवर्ती अतीत अनागत या व्यवहित लोहेको नहीं खींचता। उसी प्रकार चक्षु भी न व्यवहितको देखता है न अति दूरवर्तीको ही, क्योंकि पदार्थोंकी शक्तियाँ मर्यादित हैं। पूर्व-चक्षुके अप्राप्यकारी हो जानेपर चाक्षुष ज्ञान संशय व विपर्यययुक्त हो जाएगा? उत्तर-नहीं, क्योंकि प्राप्यकारीमें भी वह पाये ही जाते हैं। पूर्व-चक्षु चूंकि तेजो द्रव्य है। अतः इसके किरणें होती हैं, और यहाँ किरणोंके द्वारा पदार्थसे संबंध करके ही ज्ञान करता है जैसे कि अग्नि? उत्तर-चक्षुको तेजो द्रव्य मानना अयुक्त है। क्योंकि अग्नि तो गरम होती है, अतः चक्षु इंद्रियका स्थान उष्ण होना चाहिए। अग्निकी तरह चक्षु में रूप (प्रकाश) भी होना चाहिए पर न तो चक्षु उष्ण है, और न भासुररूपवाली है। पूर्व-बिल्ली आदि निशाचर जानवरों की आँखें रातको चमकती हैं अतः आँखें तेजो द्रव्य हैं। उत्तर - यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि पार्थिव आदि पुद्गल द्रव्योंमें भी कारणवश चमक उत्पन्न हो जाती है - जैसे पार्थिव मणि व जलीय बर्फ। पूर्व-चक्षु गतिमान हैं, अतः पदार्थोंके पास जाकर उसे ग्रहण करती हैं। उत्तर-जो गतिमान होता है, वह समीपवर्ती व दूरवर्ती पदार्थोंसे एक साथ संबंध नहीं कर सकता जैसे कि - स्पर्शनेंद्रिय। किंतु चक्षु समीपवर्ती शाखा और दूरवर्ती चंद्रमाको एक साथ जानता है। अतः गतिमानसे विलक्षण प्रकारका होनेसे चक्षु अप्राप्यकारी है। यदि, गतिमान होकर चक्षु प्राप्यकारी होता तो अँधियारी रातमें दूर देशवर्ती प्रकाशको देखते समय उसे प्रकाशके पासमें रखे पदार्थोंका तथा मध्यके अंतरालमें स्थित पदार्थोंका ज्ञान भी होना चाहिए। यदि चक्षु प्राप्यकारी होता तो जैसे शब्द कानके भीतर सुनाई देता है उसी तरह रूप भी आँखके भीतर ही दिखाई देना चाहिए था। आँखके द्वारा जो अंतरालका ग्रहण और अपनेसे बड़े पदार्थोंका अधिक रूपमें ग्रहण होता है वह नहीं होना चाहिए।
3. श्रोत्र को भी अप्राप्यकारी क्यों नहीं मानते
राजवार्तिक 1/19/2/68/24 कश्चिदाह-श्रोत्रमप्राप्यकारि विप्रकृष्टविषयग्रहणादिति; एतच्चायुक्तम्; असिद्धत्वात्। साध्यं तावदेतत्-विप्रकृष्टं शब्दं गृह्णाति श्रोत्रम् उत घ्राणेंद्रियवदवगाढं स्वविषयभावपरिणतं पुद्गलद्रव्यं गृह्णाति इति। विप्रकृष्ट-शब्द-ग्रहणे च स्वकर्णांतर्विलगत मशकशब्दो नोपलभ्येत। नहींद्रियं किंचिदेकं दूरस्पृष्टविषयग्राहि दृष्टमिति।....प्राप्तावग्रहे श्रोत्रस्य दिग्देशभेदविशिष्टविषयग्रहणाभाव इति चेत्; न; शब्दपरिणतविसर्पत्पुद्गलवेगशक्तिविशेषस्य तथा भावोपपत्ते; सूक्ष्मत्वात् अप्रतिघातात् समंततः प्रवेशाच्च।
= पूर्व - (बौद्ध कहते हैं) श्रोत्र भी चक्षुकी तरह अप्राप्यकारी है, क्योंकि वह दूरवर्ती शब्दको सुन लेता है? उत्तर-यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि श्रोत्रका दूरसे शब्द सुनना असिद्ध है। वह तो नाककी तरह अपने देशमें आये हुए शब्द पुद्गलोंको सुनता है। शब्द वर्गणाएँ कानके भीतरही पहुँचकर सुनायी देती हैं। यदि कान दूरवर्ती शब्दको सुनता है तो उसे कानके भीतर घुसे हुए मच्छरका भिनभिनाना नहीं सुनाई देना चाहिए, क्योंकि कोई भी इंद्रिय अति निकटवर्ती व दूरवर्ती दोनों प्रकारके पदार्थोंको नहीं जान सकती। पूर्व-श्रोत्रको प्राप्यकारी माननेपर भी `अमुक देशकी अमुक दिशामें शब्द हैं' इस प्रकार दिग्देशविशिष्टताके विरोध आता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि वेगवान् शब्द परिणत पुद्गलोंके त्वरित और नियत देशादिसे आनेके कारण उस प्रकारका ज्ञान हो जाता है। शब्द पुद्गल अत्यंत सूक्ष्म हैं, वे चारों और फैलकर श्रोताओंके कानोंमें प्रविष्ट होते हैं। कहीं प्रतिघात भी प्रतिकूल वायु और दीवार आदि से हो जाता है।
4. स्पर्शनादि सभी इंद्रियोंमें भी कथंचित् अप्राप्यकारीपने संबंधी
धवला 1/1,1,115/355/2 शेषेंद्रियेष्वप्राप्तार्थ ग्रहणं नोपलभ्यत इति चेन्न, एकेंद्रियेषु योग्यदेशस्थितनिधिषु निधिस्थित प्रदेश एवं प्रारोहमुक्त्यन्यथानुपत्तितः स्पर्शनस्याप्राप्तार्थ ग्रहणसिद्धेः। शेषेंद्रियाणामप्राप्तार्थग्रहणं नोपलभ्यत इति। चेन्माभूदुपलंभस्तथापि तदस्त्येव। यद्यु पलंभास्त्रिकालगोचरमशेषं पर्यच्छेत्स्यदनुपलब्धस्याभावोऽभविष्यत्। न चेवमनुपलंभात्।
= प्रश्न-शेष इंद्रियोंमें अप्राप्तका ग्रहण नहीं पाया जाता है, इसलिए उनसे अर्थाविग्रह नहीं होना चाहिए? उत्तर-नहीं, क्योंकि एकेंद्रियोंमें उनका योग्य देशमें स्थित निधिवाले प्रदेशमें ही अंकुरोंका फैलाव अन्यथा बन नहीं सकता, इसलिए स्पर्शन इंद्रियके अप्राप्त अर्थका ग्रहण, अर्थात् अर्थावग्रह, बन जाता है। प्रश्न-इस प्रकार यदि स्पर्शन इंद्रियके अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना बन जाता है तो बन जाओ। फिर भी शेष इंद्रियोंके अप्राप्त अर्थका ग्रहण नहीं पाया जाता है? उत्तर-नहीं क्योंकि, यदि शेष इंद्रियों से अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना क्षायोपशमिक ज्ञानके द्वारा नहीं पाया जाता है तो मत पाया जावे। तो भी वह है ही, क्योंकि यदि हमारा ज्ञान त्रिकाल गोचर समस्त पदार्थोंको जाननेवाला होता तो अनुपलब्धका अभाव सिद्ध हो जाता अर्थात् हमारा ज्ञान यदि सभी पदार्थोंको जानता तो कोई भी पदार्थ उसके लिए अनुपलब्ध न होता। किंतु हमारा ज्ञान तो त्रिकालवर्ती पदार्थों को जाननेवाला है नहीं, क्योंकि सर्वपदार्थोंकी जाननेवाले ज्ञानकी हमारे उपलब्धि ही नहीं होती है।
धवला 13/5,5,27/225/13 होदु णाम अपत्थगहणं चक्खिंदियणोइंदियाणं, ण सेसिंदियाणं; तहोवलंभाभावादो त्ति। ण, एइंदिएसु फासिंदियस्स अपत्तणिहिग्गहणुवलंभादो। तदुवलंभो च तत्थ पारोहमोच्छणादुव लब्भदे। सेसिंदियाणपत्तत्थगहणं कुदोवगम्मदे। जुत्तीदो। तं जहा-घाणिंदिय-जिब्भिंदिय-फासिंदियाणमुक्कस्सविसओ णवजोयणाणि। जदि एदेसिमिंदिया मुक्कस्सखओवसमगदजीवो णवसु जोयणेसु ट्ठिददव्वेहिंतो विप्पडिय आगदपोग्गलाणं जिब्भा-घाण-फासिंदिएसु लग्गाणं रस-गंध फासे जाणदि तो समंतदो णवजोयणब्भंतरट्ठिदगूहभक्खणं तग्गंघजणिदअसादं च तस्स पसज्जेज्ज। ण च एवं, तिव्विंदि यक्खओवसमगचक्कवट्ठीणं पि असायसायरं तोपवेसप्पसंगादो। किं च-तिव्वखओवसमगदजीवाणं मरणं पि होज्ज, णवजोयणब्भंतरट्ठियविसेण जिब्भाए संबंधेण घादियाणं णवजोयणब्भंतरट्ठिदअग्गिणा दज्झमाणाणं च जीवणाणुववत्तीदो। किं च-ण तेसिं महुरभोयणं वि संभवदि, सगक्खेत्तंतोट्ठियतियदुअ-पिचुमंदकडुइरसेण मिलिददुद्धस्स महुरत्ताभावादो। तम्हा सेसिंदियाणं पि अपत्तग्गहणमत्थि त्तिइच्छिदवं।
= पूर्व-चक्षुइंद्रिय और नोइंद्रियके अप्राप्त अर्थ करना रहा आवे, किंतु शेष इंद्रियोंके वह नहीं बन सकता; क्योंकि, वे अप्राप्त अर्थको ग्रहण करती हुई नहीं उपलब्ध होतीं? उत्तर-नहीं, क्योंकि एकेंद्रियोंमें स्पर्शन इंद्रिय अप्राप्त निधिको ग्रहण करती हुई उपलब्ध होती है, और यह बात उस ओर प्रारोह छोड़नेसे जानी जाती है। पूर्व-शेष इंद्रियाँ अप्राप्त अर्थको ग्रहण करती हैं, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है? उत्तर-1. युक्तिसे जाना जाता है। यथा-घ्राणेंद्रिय, जिह्वेंद्रिय और स्पर्शनेंद्रियका उत्कृष्ट विषय नौ योजन है। यदि इन इंद्रियोंके उत्कृष्ट क्षयोपशमको प्राप्त हुआ जीव नौ योजनके भीतर स्थित द्रव्योंमें से निकलकर आये हुए तथा जिह्वा, घ्राण और स्पर्शन इंद्रियोंसे लगे हुए पुद्गलोंके, रस, गंध और स्पर्शको जानता है तो उसके चारों ओरसे नौ योजनके भीतर स्थित विष्ठाके भक्षण करनेका और उसकी गंधके सूँघनेसे उत्पन्न हुए दुःखका प्रसंग प्राप्त होगा। परंतु ऐसा नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर इंद्रियोंके तीव्र क्षयोपशमको प्राप्त हुए चक्रवर्तियों के भी असाता रूपी सागरके भीतर प्रवेश करनेका प्रसंग आता है। 2. दूसरे, तीव्र क्षयोपशम को प्राप्त हुए जीवोंका मरण भी हो जायेगा क्योंकि नौ योजनके भीतर स्थित अग्निसे जलते हुए जीवोंका जीना नहीं बन सकता है। 3. तीसरे ऐसे जीवोंके मधुर भोजनका करना भी संभव नहीं है, क्योंकि, अपने क्षेत्रके भीतर स्थित तीखे रसवाले वृक्ष और नीमके कटुक रससे मिले हुए दूधमें मधुर रसका अभाव हो जायेगा। इसीलिए शेष इंद्रियाँ भी अप्राप्त अर्थको ग्रहण करती हैं, ऐसा स्वीकार करना चाहिए।
5. फिर प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीसे क्या प्रयोजन
धवला 1/1,1,115/356/3 न कार्त्स्न्येनाप्राप्तमर्थस्यानिः सृतत्वमुक्तत्वं वा ब्र महे यतस्तदवग्रहादि निदानमिंद्रयाणामप्राप्यकारित्वमिति। किं तर्हि। कथं चक्षुरनिंद्रियाभ्यामनिःसृतानुक्तावग्रहादि तयोरपि प्राप्यकारित्वप्रसंगादितिचेन्न योग्यदेशावस्थितेरेव प्राप्तेरभिधानात्। तथा च रसगंधस्पर्शानां स्वग्राहिभिरिंद्रयैः स्पष्टं स्वयोग्यदेशाव स्थितिः शब्दस्य च। रूपस्य चक्षुषाभिमुखतया, न तत्परिच्छेदिना चक्षुषा प्राप्यकारित्व मनिःसृतानुक्तावग्रहादिसिद्धेः।
= पदार्थके पूरी तरहसे अनिसृतपनेको और अनुक्तपनेको हम प्राप्त नहीं कहते हैं। जिससे उनके अवग्रहादिका कारण इंद्रियोंका अप्राप्यकारीपना होवे। प्रश्न - तो फिर अप्राप्यकारीपनेसे क्या प्रयोजन है? और यदि पूरी तरहसे अनिःसृतत्व और अनुक्तत्वको अप्राप्त नहीं कहते हो तो चक्षु और मनसे अनिःसृत और अनुक्तके अवग्राहादि कैसे हो सकेंगे? यदि चक्षु और मनसे भी पूर्वोक्त अनिःसृत और अनुक्तके अवग्रहादि माने जावेंगे तो उन्हें भी प्राप्यकारित्वका प्रसंग आ जायेगा? उत्तर-नहीं क्योंकि, इंद्रियोंके ग्रहण करनेके योग्य देशमें पदार्थोंकी अवस्थितिको ही प्राप्ति कहते हैं। ऐसी अवस्थामें रस, गंध और स्पर्शका उनको ग्रहण करनेवाली इंद्रियोंके साथ अपने-अपने योग्य देशमें अवस्थित रहना स्पष्ट है। शब्दका भी उसको ग्रहण करनेवाली इंद्रियके साथ अपने योग्य देशमें अवस्थित रहना स्पष्ट है। उसी प्रकार रूपका चक्षुके साथ अभिमुख रूपसे अपने देशमें अवस्थित रहना स्पष्ट हैं, क्योंकि, रूपको ग्रहण करनेवाले चक्षुके साथ रूपका प्राप्यकारीपना तथा अनिःसृत व अनुक्तका अवग्रह आदि नहीं बनता है।
3. इंद्रिय-निर्देश
1. भावेंद्रिय ही वास्तविक इंद्रिय है
धवला 1/1,1,37/263/4 केवलिभिर्व्यभिचारादिति नैष दोषः भावेंद्रियतः पंचेंद्रियत्वाभ्युपगमात्।
= प्रश्न-केवलीमें पंचेंद्रिय होते हुए भी भावेंद्रियाँ नहीं पायी जाती हैं, इसीलिए व्यभिचार दोष आता है? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ पर भावेंद्रियोंकी अपेक्षा पंचेंद्रियपना स्वीकार किया है।
धवला 2/1,1/444/4 दव्वेंदियाणं णिप्पतिं पडुच्चके वि दस पाणे भणंति। तण्ण धडदे। कुदो। भाविंदियाभावादो। भाविदियं णाम पंचण्हमिं दियाणं खओवसमो। ण सो खीणावरणे अत्थि। अध दव्विंदियस्स जदि गहणं कीरदि तो सण्णीणमपज्जत्तकाले सत्त पाणा पिंडिदूण दो चेव पाणा भवंति, पंचण्हं दव्वेंदियाणमभावादो।
= कितने ही आचार्य द्रव्येंद्रियोंकी पूर्णताकी अपेक्षा केवलीके दश प्राण कहते हैं, परंतु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता, क्योंकि, सयोगी जिनके भावेंद्रियाँ नहीं पायी जाती हैं। पाँचों इंद्रियावरण कर्मके क्षयोपशमको भावेंद्रियाँ कहते हैं। परंतु जिनका आवरण कर्म समूल नष्ट हो गया है उनके वह क्षयोपशम नहीं होता है। और यदि प्राणोंमें द्रव्येंद्रियोंका ही ग्रहण किया जावे तो संज्ञी जीवोंके अपर्याप्तकालमें सात प्राणोंके स्थानपर कुल दो ही प्राण कहे जायेंगे, क्योंकि उनके पाँच द्रव्येंद्रियोंका अभाव होता है।
धवला 9/2, 1, 15/61/9 पस्सिंदियावरणस्स सव्वघादिफद्दयाणं संतोवसमेण देसवादिफद्दयाणमुदएण चक्खु सोद-घाण-जिब्भिंदियावरणाणं देसघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण तेसिं सव्वघादिफद्दयाणमुदएण जो उप्पण्णो जीवपरिणामो सो खओवसमिओ वुच्चदे। कुदो। पुव्वुत्ताणं फद्दयाणं खओवसमे हि उप्पण्णत्तादो। तस्स जीवपरिणामस्स एइंदियमिदि सण्णा।
धवला 9/2,1,15/66/5 फासिंदियावरणादीणं मदिआवरणे अंतब्भावादो।
= स्पर्शेंद्रियावरण कर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके सत्त्वोपशमसे, उसीके देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे, चक्षु, श्रोत्र, घ्राण और जिह्वा इंद्रियावरण कर्मोंके देशघाती स्पर्धकोंके उदय क्षयसे जो जीव परिणाम उत्पन्न होता है उसे क्षयोपशम कहते हैं, क्योंकि, वह भाव पूर्वोक्त स्पर्धकोंके क्षय और उपशम भावोंसे ही उत्पन्न होता है। इसी जीव परिणामकी एकेंद्रिय संज्ञा है। स्पर्शनेंद्रियादिक आवरणोंका मति आवरणमें ही अंतर्भाव हो जानेसे उनके पृथक् उपदेशकी आवश्यकता नहीं समझी गयी।
2. भावेंद्रियको ही इंद्रिय मानते हो तो उपयोग शून्य दशामें या संशयादि दशामें जीव अनिंद्रिय हो जायेगा
धवला 1/1,1,4/136/1 इंद्रियवैकल्यमनोऽनवस्थानानध्यवसायालोकाद्यभावावस्थायां क्षयोपशमस्य प्रत्यक्षविषयव्यापाराभावात्तत्रात्मनोऽनिंद्रियत्वं स्यादिति चेन्न, गच्छतीति गौरिति व्युत्पादितस्य गोशब्दस्यागच्छद्गोपदार्थेऽपि प्रवृत्त्युपलंभात्। भवतु तत्र रूढिबललाभादिति चेदत्रापि तल्लाभादेवास्तु, न कश्चिद्दोषः। विशेषभावतस्तेषां संकरव्यतिकररूपेण व्यापृतिः व्याप्नोतीति चेन्न, प्रत्यक्षे नीतिनियमिते रतानीति प्रतिपादनात्।....संशयविपर्ययावस्थायां निर्णयात्मकरतेरभावात्तत्रात्मनोऽनिंद्रियत्वं स्यादिति चेन्न, रूढिबललाभादुभयत्र प्रवृत्त्यविरोधात्। अथवा स्ववृत्तिरतानींद्रियाणि। संशयविपर्ययनिर्णयादौ वर्तनं वृत्तिः तस्यां स्ववृत्तौ रतानींद्रियाणि। निर्व्यापारावस्थायां नेंद्रियव्यपदेशः स्यादिति चेन्न, उक्तोत्तरत्वात्।
= प्रश्न-इंद्रियोंकी विकलता, मनकी चंचलता और अनध्यवसायके सद्भावमें तथा प्रकाशादिकके अभावरूप अवस्थामें क्षयोपशमका प्रत्यक्ष विषयमें व्यापार नहीं हो सकता है, इसलिए उस अवस्थामें आत्माके अनिंद्रियपना प्राप्त हो जायेगा? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि जो गमन करती है उसे गौ कहते हैं। इस तरह `गौ' शब्दकी व्युत्पत्ति हो जानेपर भी नहीं गमन करनेवाले गौ पदार्थ में भी उस शब्दकी प्रवृत्ति पायी जाती है। प्रश्न-भले ही गौ पदार्थमें रूढिके बलसे गमन नहीं करती हुई अवस्थामें भी `गौ' शब्दकी प्रवृत्ति होओ। किंतु इंद्रिय वैकल्यादि रूप अवस्थामें आत्माके इंद्रियपना प्राप्त नहीं हो सकता है? उत्तर-यदि ऐसा है तो आत्मामें भी इंद्रियोंकी विकलतादि कारणोंके रहनेपर रूढिके बलसे इंद्रिय शब्दका व्यवहार मान लेना चाहिए। ऐसा मान लेनेमें कोई दोष नहीं आता है। प्रश्न-इंद्रियोंके नियामक विशेष कारणोंका अभाव होनेसे उनका संकर और व्यतिकर रूपसे व्यापार होने लगेगा। अर्थात् या तो वे इंद्रियाँ एक दूसरी इंद्रियके विषयके विषयको ग्रहण करेंगी या समस्त इंद्रियोंका एक ही साथ व्यापार होगा? उत्तर ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इंद्रियाँ अपने नियमित विषयमें ही रत हैं, अर्थात् व्यापार करती हैं, ऐसा पहले ही कथन कर आये हैं। इसलिए संकर और व्यतिकर दोष नहीं आता है। प्रश्न-संशय और विपर्यय रूप ज्ञानको अवस्थामें निर्णयात्मक रति अर्थात् प्रवृत्तिका अभाव होनेसे उस अवस्थामें आत्माको अनिंद्रियपनेकी प्राप्ति हो जावेगी? उत्तर-1. नहीं, क्योंकि रूढिके बलसे निर्णयात्मक और अनिर्णयात्मक इन दोनों अवस्थाओंमें इंद्रिय शब्दकी प्रवृत्ति माननेमें कोई विरोध नहीं आता है। 2. अथवा अपनी-अपनी प्रवृत्तिमें जो रत हैं उन्हें इंद्रियाँ कहते हैं इसका खुलासा इस प्रकार है। संशय और विपर्यय ज्ञानके निर्णय आदिके करनेमें जो प्रवृत्ति होती है, उसे वृत्ति कहते हैं। उस अपनी वृत्तिमें जो रत हैं उन्हें इंद्रियाँ कहते हैं। प्रश्न-जब इंद्रियाँ अपने विषयमें व्यापार नहीं करती हैं, तब उन्हें व्यापार रहित अवस्थामें इंद्रिय संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकेगी? उत्तर-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि इसका उत्तर पहले दे आये हैं कि रूढ़िके बलसे ऐसी अवस्थामें भी इंद्रिय व्यवहार होता है।
3. भावेंद्रिय होनेपर ही द्रव्येंद्रिय होती है
धवला 1/1,1,4/135/7 शब्दस्पर्शरसरूपगंधज्ञानावरणकर्मणां क्षयोपशमाद् द्रव्येंद्रियनिबंधनादिंद्रियाणीति यावत्। भावेंद्रियकार्यत्वाद् द्रव्येंद्रियस्य व्यपदेशः। नेयमदृष्टपरिकल्पना कार्यकारणोपचारस्य जगति सुप्रसिद्धस्योपलंभात्।
= (वे इंद्रियाँ) शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध नामके ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे और द्रव्येंद्रियों के निमित्तसे उत्पन्न होती हैं। क्षयोपशमरूप भावेंद्रियोंके होनेपर ही द्रव्येंद्रियोंकी उत्पत्ति होती है, इसलिए भावेंद्रियाँ कारण हैं, और द्रव्येंद्रियाँ कार्य हैं, और इसलिए द्रव्येंद्रियोंको भी इंद्रिय संज्ञा प्राप्त होती है। अथवा, उपयोग रूप भावेंद्रियोंकी उत्पत्ति द्रव्येंद्रियोंके निमित्तसे होती है, इसलिए भावेंद्रिय कार्य हैं और द्रव्येंद्रियाँ कारण हैं, इसलिए भी द्रव्येंद्रियोंको इंद्रिय संज्ञा प्राप्त है। यह कोई अदृष्ट कल्पना नहीं है, क्योंकि कार्यगत धर्मका कारणमें और कारणगत धर्मका कार्यमें उपचार जगत्में निमित्त रूपसे पाया जाता है।
4. द्रव्येंद्रियोंका आकार
मू. आ. 1091 जवणालिया मसूरिअ अतिमुत्तयचंदए खुरप्पे य। इंदियसंठाणा खलु फासस्स अणेयसंठाणं ॥1091॥
= श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, जिह्वा इन चार इंद्रियोंका आकार क्रमसे जौकी नली, मसूर, अतिमुक्तक पुष्प, अर्धचंद्र अथवा खुरपा इनके समान है और स्पर्शन इंद्रिय अनेक आकार रूप है।
(पं.सं./प्रा.1/66), ( राजवार्तिक 1/19/9/69/26 ), ( धवला 1/1,1,33/134/236 ), ( धवला 1/1,1,33/234/7 ), ( गोम्मटसार जीवकांड 171-172 ), (पं.सं./सं. 1/143)
5. इंद्रियोंकी अवगाहना
धवला 1/1,1,33/234/7 मसूरिकाकारा अंगुलस्यासंख्येयभागप्रमिता चक्षुरिंद्रियस्य बाह्यनिर्वृत्तिः। यवनालिकाकारा अंगुलस्यासंख्येयभागप्रमिता श्रोत्रस्य बाह्यनिर्वृत्तिः। अतिमुक्तकपुष्पसंस्थाना अंगुलस्यासंख्येयभागप्रमिता घ्राणनिर्वृत्तिः। अर्धचंद्राकारा क्षुरप्राकारा वांगुलस्य संख्येयभागप्रमिता रसननिर्वृत्तिः। स्पर्शनेंद्रियनिर्वृत्तिरनियतसंस्थाना। सा जधन्येन अंगुलस्यासंख्येयभागप्रमिता सूक्ष्मशरीरेषु, उत्कर्षेण संख्येपघनांगुलप्रमिता महामत्स्यादित्रसजीवेषु। सर्वतः स्तोकाश्चक्षुषः, प्रदेशाः, श्रोत्रेंद्रियप्रदेशाः संख्येयगुणाः, घ्राणेंद्रियप्रदेशा विशेषाधिकाः, जिह्वायामसंख्येयगुणाः, स्पर्शने संख्येयगुणाः।
= मसूरके समान आकारवाली और घनांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण चक्षु इंद्रियकी बाह्य निर्वृत्ति होती है। यवकी नालीके समान आकारवाली और घनांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण श्रोत्र इंद्रियकी बाह्य निर्वृत्ति होती है। कदंबके फूलके समान आकारवाली और घनांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण घ्राण इंद्रियकी बाह्य निर्वृत्ति होती है। अर्धचंद्र अथवा खुरपाके समान आकारवाली और घनांगुलके संख्येय भाग प्रमाण रसना इंद्रियकी बाह्य निर्वृत्ति होती है। स्पर्शन इंद्रियकी बाह्यनिर्वृत्ति अनियत आकारवाली होती है। वह जघन्य प्रमाणकी अपेक्षा घनांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके (ऋजुगतिसे उत्पन्न होनेके तृतीय समयवर्ती) शरीरमें पायी जाती है, और उत्कृष्ट प्रमाणकी अपेक्षा संख्यात घनांगुल प्रमाण महामत्स्य आदि त्रस जीवोंके शरीरमें पायी जाती है। चक्षु इंद्रियके अवगाहनारूप प्रदेश सबसे कम हैं, उनसे संख्यातगुणे श्रोत्र इंद्रियके प्रदेश हैं। उनसे अधिक घ्राण इंद्रियके प्रदेश हैं। उनसे असंख्यात गुणे जिह्वाइंद्रियके प्रदेश है। और उनसे असंख्यातगुणे स्पर्शन इंद्रियके प्रदेश हैं।
6. इंद्रियोंका द्रव्य व क्षेत्रकी अपेक्षा विषय ग्रहण
1. द्रव्य की अपेक्षा
तत्त्वार्थसूत्र 2/19-21 स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि ।19। स्पर्शरसगंधवर्णशब्दास्तदर्थाः ।20। श्रुतमनिंद्रियस्य ।21।
= स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये इंद्रियाँ हैं ॥19॥ इनके क्रमसे स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द ये विषय हैं ।20। श्रुत (ज्ञान) मनका विषय है।
(पं. सं./प्रा. 1/68), (पं.सं.सं.1/81)
राजवार्तिक 5/19/31/472/30 मनोलब्धिमता आत्मना मनस्त्वेन परिणामिता पुद्गलाः तिमिरांधकारादिबाह्याभ्यंतरेंद्रियप्रतिघातहेतुसंनिधानेऽपि गुणदोषविचारस्मरणादिव्यापारे साचिव्यमनुभवंति, अतोऽस्त्यंतःकरणं मनः।
= मनोलब्धि वाले आत्माके जो पुद्गल मनरूपसे परिणत हुए हैं वे अंधकार तिमिरादि बाह्येंद्रियोंके उपघातक कारणोंके रहते हुए भी गुणदोष विचार और स्मरण आदि व्यापारमें सहायक होते ही हैं। इसलिए मनका स्वतंत्र अस्तित्व है।
धवला 13/5,5,28/228/13 णोइंदियादो दिट्ठ-सुदाणुभूदेसु अत्थेसु णोइंदियादो पुधभूदेसु जं णाणमुप्पज्जदि सो णोइंदिय अत्थोग्गहो णाम।.....सुदाणुभूदेसु दव्वेसु लोगंतरट्ठिदेसु वि अत्थोग्गहो त्ति कारणेणअद्धाणणियमाभावादो।
= नोइंद्रियके द्वारा उससे पृथक्भूत दृष्ट, श्रुत और अनुभूत पदार्थोंका जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह नोइंद्रिय अर्थावग्रह है।....क्योंकि लोकके भीतर स्थित हुए श्रुत और अनुभूत विषयका भी नोइंद्रियके द्वारा अर्थावग्रह होता है, इस कारणसे यहाँ क्षेत्रका नियम नहीं है।
प. धवला/ पू.715 स्पर्शनरसनघ्राणं चक्षुः श्रोत्रं च पंचकं यावत्। मूर्तग्राहकमेकं मूर्त्तामूर्त्तस्य वेदकं च मनः ।517।
= स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँचों ही इंद्रियाँ एक मूर्तीक पदार्थको जाननेवाली हैं। मन मूर्तीक तथा अमूर्तीक दोनों पदार्थोंकी जानने वाला है।
2. क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट विषय
(मू.आ. 1092-1098), ( राजवार्तिक 1/19/9/70/3 ), ( धवला 9/4,1,45/52-57/158 ), ( धवला 13/5,5,28/227/5 )
संकेत-ध.= धनुष; यो.= योजन; सर्वलोकवर्ती = सर्वलोकवर्ती दृष्ट व अनुभूत विषय-देखें धवला - 13 ।
इंद्रिय एकेंद्रिय द्वींद्रिय त्रींद्रिय चतुरिंद्रिय असंज्ञी पं. संज्ञी पं.
स्पर्शन 400 धवला 800 धवला 1600 धवला 3200 धवला 6400 धवला 9 यो.
रसना - 64 धवला 128 धवला 256 धवला 512 धवला 9 यो.
घ्राण - - 100 धवला 200 धवला 400 धवला 9 यो.
चक्षु - - - 2954 यो. 5908 यो. 47262. 7\20
श्रोत्र - - - - 8000 धवला 12 यो.
मन - - - - - सर्वलोकवर्ती
7. इंद्रियोंके विषयका काम व भोगरूप विभाजन
मू. आ. 1138 कामा दुवे तऊ भोग इंदियत्था विदूहिं पण्णत्ता। कामो रसो य फासो सेसा भोगेति आहीया ।1138।
= दो इंद्रियोंके विषय काम हैं, तीन इंद्रियोंके विषय भोग हैं, ऐसा विद्वानोंने कहा है। रस और स्पर्श तो काम हैं और गंध, रूप, शब्द भोग हैं, ऐसा कहा है।1138।
( समयसार / तात्पर्यवृत्ति 4/11 )
8. इंद्रियोंके विषयों संबंधी दृष्टि-भेद
धवला 9/4,1,45/159/1 नवयोजनांतरस्थितपुद्गलद्रव्यस्कंधैकदेशमागम्येंद्रियसंबद्धं जानंतीति केचिदाचक्षते। तन्न घटते, अध्वानप्ररूपणा वैफल्यप्रसंगात्।
= नौ योजनके अंतरसे स्थित पुद्गल द्रव्य स्कंधके एक देशको प्राप्त कर इंद्रिय संबद्ध अर्थको जानते हैं, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किंतु वह घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा माननेपर अध्वान प्ररूपणाके निष्फल होनेका प्रसंग आता है।
9. ज्ञानके अर्थमें चक्षुका निर्देश
प्रवचनसार 234 आगमचक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्वभूदाणि। देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खु ।234।
= साधु आगम चक्षु हैं, सर्व प्राणी इंद्रिय चक्षु वाले हैं, देव अवधि चक्षु वाले हैं और सिद्ध सर्वतः चक्षु (सर्व ओरसे चक्षु वाले अर्थात् सर्वात्मप्रदेशोंसे चक्षुवान्) हैं।
4. इंद्रिय मार्गणा व गुणस्थान निर्देश
1. इंद्रिय मार्गणाकी अपेक्षा जीवोंके भेद
षट्खंडागम 1/1,1/ सू.33/231 इंदियाणुवादेण अत्थि एइंदिया, बींदिया, तीइंदिया, चदुरिंदिया, पंचिंदिया, अणिंदिया चेदि।
= इंद्रिय मार्गणाकी अपेक्षा एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय और अनिंद्रिय जीव होते हैं।
( द्रव्यसंग्रह टीका 13/37 )
2. एकेंद्रियादि जीवोंके लक्षण
पंचास्तिकाय 112-117 एदे जीवणिकाया पंचविधा पुढविकाइयादीया। मणपरिणामाविरहिदा जीवा एगेंदिया भणिया ।112। संबुक्कमादुवाहा संखा सिप्पी अपादगा य किमी। जाणंति रसं फासं जे ते बेइंदिया जीवा ।114। जूगागुंभीमक्कणपिपीलिया विच्छयादिया कीडा। जाणंति रसं फासं गंधं तेइंदिया जीवा ।115। उद्दंसमसयमक्खियमधुकरिभमरा पतंगमादीया। रूवं रसं च गंधं फासं पुण ते विजाणंति ।116। सुरणरणायतिरिया वण्णरसप्फासगंधसद्दण्हू। जलचरथलचरखचरा बलिया पंचेंदिया जीवा ।117।
= इन पृथ्वीकायिक आदि पाँच प्रकारके जीवनिकायोंको मनपरिणाम रहित एकेंद्रिय जीव (सर्वज्ञने) कहा है ।112। शंबूक, मातृकवाह, शंख, सीप और पग रहित कृमि-जो कि रस और स्पर्शको जानते हैं, वे द्वींद्रिय जीव हैं ।114। जूँ, कुंभी, खटमल, चींटी और बिच्छू आदि जंतु रस, स्पर्श और गंधको जानते हैं, वे त्रींद्रिय जीव हैं ।115। डाँस, मच्छर, मक्खी, मधुमक्खी, भँवरा और पतंगें आदि जीव रूप, रस, गंध और स्पर्शको जानते हैं। (वे चतुरिंद्रिय जीव हैं) ।116। वर्ण, रस, स्पर्श, गंध और शब्दको जाननेवाले देव-मनुष्य-नारक-तिर्यंच जो थलचर, खेचर, जलचर होते हैं वे बलवान् पंचेंद्रिय जीव हैं ।117।
(पं.सं./प्रा. 1/69-73), ( धवला 1/1,1,33/136-138/241-245 ), (पं.सं./सं.1/143-150)
3. एकेंद्रियसे पंचेंद्रिय पर्यंत इंद्रियोंका स्वामित्व
तत्त्वार्थसूत्र 2/22,23 वनस्पत्यंतानामेकम् ।22। कृमिपिपीलकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ।23।
= वनस्पतिकायिक तकके जीवोंके अर्थात् पृथिवी, अप्, तेज, वायु व वनस्पति इन पाँच स्थावरोंमें एक अर्थात् प्रथम इंद्रिय (स्पर्शन) होती है ।22। कृमि पिपीलिका, भ्रमर और मनुष्य आदिके क्रमसे एक-एक इंद्रिय अधिक होती है ।23।
(पं. सं./प्रा.1/67), ( धवला 1/1,1,35/142/258 ), (पं.सं./सं.1/82-86), ( गोम्मटसार जीवकांड 166 )
सर्वार्थसिद्धि 2/22-23/180/4 एकं प्रथममित्यर्थः। किं तत्। स्पर्शनम्। तत्केषाम्। पृथिव्यादोनां वनस्पत्यंतानां वेदितव्यम् ॥22॥ कृम्यादीनां स्पर्शनं रसनाधिकम्, पिपीलिकादीनां स्पर्शनरसने घ्राणाधिके, भ्रमरादीनां स्पर्शनरसनघ्राणानि चक्षुरधिकानि, मनुष्यादीनां तान्येव श्रोताधिकानीति।
= सूत्रमें आये हुए `एक' शब्दका अर्थ प्रथम है। प्रश्न-वह कौन है? उत्तर-स्पर्शन। प्रश्न-वह कितने जीवोंके होती है। उत्तर-पृथिवीकायिक जीवोंसे लेकर वनस्पतिकायिक तकके जीवोंके जानना चाहिए ।22। कृमि आदि जीवोंके स्पर्शन और रसना ये दो इंद्रियाँ होती हैं। पिपीलिका आदि जीवोंके स्पर्शन, रसना, घ्राण ये तीन इंद्रियाँ होती हैं। भ्रमर आदि जीवोंके स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इंद्रियाँ होती हैं। मनुष्यादिके श्रोत्र इंद्रियके मिला देनेपर पाँच इंद्रियाँ होती हैं।
( राजवार्तिक 2/22/4/135 ); ( धवला 1/1,1,33/237,241,243,245,247 )
4. एकेंद्रिय आदिकोंमें गुणस्थानोंका स्वामित्व
षट्खंडागम 1/11/ सू. 36-37/261 एइंदिया बीइंदिया तीइंदिया चउरिंदिया असण्णि पंचिंदिया एक्कम्मि चेव मिच्छाइट्ठिट्ठाणे ।36। पंचिंदिया असण्णिपंचिंदिय-प्पहुडि जाव अयोगिकेवलि त्ति ।37।
= एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय और असंज्ञी पंचेंद्रिय जीव मिथ्यादृष्टि नामक गुणस्थानमें ही होते हैं ।36। असंज्ञी-पंचेंद्रिय मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तक पंचेंद्रिय जीव होते हैं ।37।
( राजवार्तिक 9/7/11/605/24 ); (ति.प्र. 5/299); ( गोम्मटसार जीवकांड व.जी.प्र. 678/1121);
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 309/438/8 पृथ्व्यप्प्रत्येकवनस्पतिषु सासादनस्योत्पत्तेः।
= पृथ्वी, अप, और प्रत्येक वनस्पतिकायिकोंमें सासादन गुणस्थानवर्ती जीव मरकर उत्पन्न हो जाता है। अन्य एकेंद्रियोंमें नहीं। विशेष देखें जन्म - 4.सासादन संबंधी दृष्टिभेद।
5. जीव अनिंद्रिय कैसे हो सकता है
षट्खंडागम 7/2,1/ सू.16-17/68 अणिंदिओ णाम कधं भवदि ।16। खइयाए लद्धीए ।17।
= प्रश्न-जीव अनिंद्रिय किस प्रकार होता है? उत्तर-क्षायिक लब्धिसे जीव अनिंद्रिय होता है।
धवला 7/2,1,17/68/8 इंदिएसु विणट्ठेसु णाणस्स विणासो.... णाणाभावे जीवविणासो,......जीवाभावे ण खइयालद्धी वि,...णेदं जुज्जदे। कुदो। जीवो णाम णाणसहावो,....तदो इंदियविणासे ण णाणस्स विणासो। णाणसहकारिकारणइंदियाणमभावे कधं णाणस्स अत्थित्तमिदि चे ण....ण च छदुमत्थावत्थाए णाणकारणत्तेण पडिवण्णिंदियाणि खीणावरणे भिण्णज दोए णाणुप्पत्तिम्हि सहकारिकारणं होंति त्ति णियमो, अइप्पसंगादो, अण्णहा मोक्खाभावप्पसंगा।
= प्रश्न-इंद्रियोंके विनष्ट हो जानेपर ज्ञानका भी विनाश हो जायेगा, और ज्ञानके अभावमें जीवका भी अभाव हो जायेगा। ....जीवका अभाव हो जानेपर क्षायिक लब्धि न हो सकेगी? उत्तर-यह शंका उपयुक्त नहीं है, क्योंकि जीव ज्ञान स्वभावी है।....इसलिए इंद्रियोंका विनाश हो जानेपर ज्ञानका विनाश नहीं होता। प्रश्न-ज्ञानके सहकारी कारणभूत इंद्रियोंके अभावमें ज्ञानका अस्तित्व किस प्रकार हो सकता है? उत्तर-छद्मस्थ अवस्थामें कारण रूपसे ग्रहणकी गयी इंद्रियाँ क्षीणावरण जीवोंके भिन्न जातीय ज्ञानकी उत्पत्तिमें सहकारी कारण हों ऐसा नियम नहीं है। क्योंकि ऐसा माननेपर अतिप्रसंग दोष आ जायेगा, अन्यथा मोक्षके अभावका ही प्रसंग आ जायेगा।
5. एकेंद्रिय व विकलेंद्रिय निर्देश
1. एकेंद्रिय असंज्ञी होते हैं
पंचास्तिकाय 111 मणपरिणामविरहिदा जीवा एइंदिया णेया ॥111॥
= मन परिणामसे रहित एकेंद्रिय जीव जानना।
पुराणकोष से
शरीरधारी जीवको जाननेके साधन रूप स्पर्शनादि पाँच इंद्रियाँ होती है। मनको ईषत् इंद्रिय स्वीकार किया गया है। ऊपर दिखाई देनेवाली तो बाह्य इंद्रियाँ हैं। इन्हें द्रव्येंद्रिय कहते हैं। इनमें भी चक्षुपटलादि तो उस उस इंद्रियके उपकरण होनेके कारण उपकरण कहलाते हैं; और अंदरमें रहने वाला आँखकी व आत्म प्रदेशोंकी रचना विशेष निवृत्ति इंद्रिय कहलाती है। क्योंकि वास्तवमें जाननेका काम इन्हीं इंद्रियोंसे होता है उपकरणोंसे नहीं। परंतु इनके पीछे रहनेवाले जीवके ज्ञानका क्षयोपशम व उपयोग भावेंद्रिय है, जो साक्षात् जाननेका साधन है। उपरोक्त छहों इंद्रियोमें चक्षु और मन अपने विषयको स्पर्श किये बिना ही जानती हैं, इसलिए अप्राप्यकारी हैं। शेष इंद्रियाँ प्राप्यकारी हैं। संयमकी अपेक्षा जिह्वा व उपस्थ ये दो इंद्रियाँ अत्यंत प्रबल हैं और इसलिए योगीजन इनका पूर्णतया निरोद करते हैं।
1. भेद व लक्षण तथा तत्संबंधी शंका समाधान
1. इंद्रिय सामान्यका लक्षण
2. इंद्रिय सामान्य भेद
3. द्रव्यंद्रियके उत्तर भेद
4. भावेंद्रियके उत्तर भेद
• लब्धि व उपयोग इंद्रिय - देखें वह वह नाम
• इंद्रिय व मन जीतनेका उपाय - देखें संयम - 2
5. निर्वृत्ति व उपकरण भावेंद्रियोंके लक्षण
6. भावेंद्रिय सामान्य का लक्षण
7. पाँचों इंद्रियोंके लक्षण
8. उपयोगको इंद्रिय कैसे कह सकते हैं
9. चल रूप आत्मप्रदेशोंमें इंद्रियपना कैसे घटितहोता है।
2. इंद्रियोंमें प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपन
1. इंद्रियोंमें प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपनेका निर्देश
• चार इंद्रियाँ प्राप्त व अप्राप्त सब विषयोंको ग्रहण करती है - देखें अवग्रह - 3.5
2. चक्षुको अप्राप्यकारी कैसे कहते हो
3. श्रोत्रको भी अप्राप्यकारी क्यों नहीं मानते
4. स्पर्शनादि सभी इंद्रियोंमें भी कथंचित् अप्राप्यकारीपने संबंधी
5. फिर प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपनेसे क्या प्रयोजन
3. इंद्रिय निर्देश
1. भावेंद्रिय ही वास्तविक इंद्रिय है
2. भावेंद्रियको ही इंद्रिय मानते हो तो उपयोग शून्य दशामें या संशयादि दशामें जीव अनिंद्रिय हो जायेगा
3. भावेंद्रिय होनेपर ही द्रव्येंद्रिय होती है
4. द्रव्येंद्रियोंका आकार
5. इंद्रियोंकी अवगाहना
6. इंद्रियोंका द्रव्य व क्षेत्रकी अपेक्षा विषय ग्रहण
7. इंद्रियोंके विषयका काम व भोग रूप विभाजन
8. इंद्रियोंके विषयों संबंधी दृष्टिभेद
9. ज्ञानके अर्थमें चक्षुका निर्देश
• मन व इंद्रियोंमें अंतर संबंधी - देखें मन - 3
• इंद्रिय व इंद्रिय प्राणमें अंतर - देखें प्राण
• इंद्रियकषाय व क्रियारूप आस्रवोंमे अंतर - देखें क्रिया
• इंद्रियोंमे उपस्थ व जिह्वा इंद्रियकी प्रधानता - देखें संयम - 2
4. इंद्रिय मार्गणा व गुणस्थान निर्देश
1. इंद्रिय मार्गणाकी अपेक्षा जीवोंके भेद
• दो चार इंद्रियवाले विकलेंद्रिय; और पंचेंद्रिय सकलेंद्रिय कहलाते हैं - देखें त्रस
2. एकेंद्रियादि जीवोंके लक्षण
3. एकेंद्रियसे पंचेंद्रिय पर्यंत इंद्रियोंका स्वामित्व
• एकेंद्रियादि जीवोंके भेद - देखें जीव समास
• एकेंद्रियादि जीवोंकी अवगाहना - देखें अवगाहना - 2
4. एकेंद्रिय आदिकोंमें गुणस्थानोंका स्वामित्व
• सयगो व अयोग केवलीको पंचेंद्रिय कहने संबंधी - देखें केवली - 5
5. जीव अनिंद्रिय कैसे हो सकता है
• इंद्रियोंके स्वामित्व संबंधी गुणस्थान, जीवसमास मार्गणा स्थानादि 20 प्ररूपणाएँ - देखें सत्
• इंद्रिय संबंधी सत् (स्वामित्व), संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ - देखें वह वह नाम
• इंद्रिय मार्गणामें आयके अनुसार ही व्यय होनेका नियम - देखें मार्गणा
• इंद्रिय मार्गणासे संभव कर्मोका बंध उदय सत्त्व - देखें वह वह नाम
• कौन-कौन जीव मरकर कहाँ-कहाँ उत्पन्न हो और क्या क्या गुण उत्पन्न करे - देखें जन्म - 6
• इंद्रिय मार्गणामे भावेंद्रिय इष्ट है - देखें इंद्रिय - 3
5. एकेंद्रिय व विकलेंद्रिय निर्देश
• त्रस व स्थावर - देखें वह वह नाम
• एकेंद्रियोंमें जीवत्वकी सिद्धि - दे स्थावर
• एकेंद्रियोंका लोकमें अवस्थान - देखें स्थावर
• एकेंद्रिय व विकलेंद्रिय नियमसे सम्मूर्छिम ही होते है - देखें संमूर्च्छन
• एकेंद्रिय व विकलेंद्रियोमें अंगोपांग, संस्थान, संहनन, व दुःस्वर संबंधी नियम - देखें उदय
1. एकेंद्रिय असंज्ञी होते हैं
• एकेंद्रिय आदिकोमें मनके अभाव संबंधी - देखें संज्ञी
• एकेंद्रिय जाति नामकर्मके बंध योग्य परिणाम - देखें जाति
• एकेंद्रियोमें सासादन गुणस्थान संबंधी चर्चा - दे जन्म
• एकेंद्रिय आदिकोमें क्षायिक सम्यक्त्वके अभाव संबंधी - देखें तिर्यंच गति
• एकेंद्रियोंसे सीधा निकल मनुष्य हो क्षायिक सम्यक्त्व व मोक्ष प्राप्त करनेकी संभावना - देखें जन्म - 5
• विकलेंद्रिय व पंचेंद्रिय जीवोंका लोकमें अवस्थ न - देखें तिर्यंच - 3
1. भेद व लक्षण तथा तत्संबंधी शंका-समाधान
1. इंद्रिय सामान्यका लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 1/65 अहमिंदा जह देवा अविसेसं अहमदं त्ति मण्णंता। ईसंति एक्कमेक्कं इंदा इव इंदियं जाणे ॥65॥
= जिस प्रकार अहमिंद्रदेव बिना किसी विशेषताके `मैं इंद्र हूँ, मैं इंद्र हूँ' इस प्रकार मानते हुए ऐश्वर्यका स्वतंत्र रूपसे अनुभव करते हैं, उसी प्रकार इंद्रियोंको जानना चाहिए। अर्थात् इंद्रियाँ अपने-अपने विषयोंको सेवन करनेमें स्वतंत्र हैं।
( धवला पुस्तक 1/1,1,4/85/137), ( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 164), (पंचसंग्रह / संस्कृत / अधिकार 1/78)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/14/108/3 इंदतीति इंद्र आत्मा। तस्य ज्ञस्वभावस्य तदा वरणक्षयोपशने सति स्वयमर्थान् गृहीतुमसमर्थस्य यदर्थोपलब्धिलिंग तदिंद्रस्य लिंंगमिंद्रियमित्युच्यते। अथवा लीनमर्थं गमयतीति लिंगम्। आत्मनः सूक्ष्मस्यास्तित्वाधिगमे लिंगमिंद्रियम्। यथा इह धूमोऽग्ने।...अथवा इंद्र इति नामकर्मोच्यते। चेन सृष्टमिंद्रियमिति।
= 1. इंद्र शब्दका व्यत्वत्तिलभ्य अर्थ है, `इंदतीति इंद्र' जो आज्ञा और ऐश्वर्य वाला है वह इंद्र है। यहाँ इंद्र शब्दका अर्थ आत्मा है। वह यद्यपि ज्ञस्वभाव है तो भी मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमके रहते हुए स्वयं पदार्थोंको जाननेमें असमर्थ है। अतः उसको जो जाननेमें लिंग (निमित्त) होता है वह इंद्रका लिंग इंद्रिय कही जाती है। 2. अथवा जो लीन अर्थात् गूढ पदार्थ का ज्ञान कराता है उसे लिंग कहते हैं। इसके अनुसार इंद्रिय शब्दका अर्थ हुआ कि जो सूक्ष्म आत्माके अस्तित्वका ज्ञान करानेमे लिंग अर्थात् कारण है उसे इंद्रिय कहते हैं। जैसे लोकमें धूम अग्निका ज्ञान करानेमें कारण होता है। 3. अथवा इंद्र शब्द नामकर्मका वाची है। अतः यह अर्थ हुआ कि जिससे रची गयी इंद्रिय है।
(राजवार्तिक अध्याय 1/14/1/59), (राजवार्तिक अध्याय 2/15/1-2/129), (राजवार्तिक अध्याय 9/7/11/603/28), ( धवला पुस्तक 1/1,1,33/232/1), ( धवला पुस्तक 7/2,1,2/6/7)
धवला पुस्तक 1/1,1,4/135-137/6 प्रत्यक्षनिरतानींद्रियाणि। अक्षाणींद्रियाणि। अक्षमक्षं प्रतिवर्तत इति प्रत्यक्षविषयोऽक्षजो बोधो वा। तत्र निरतानि व्यापृतानि इंद्रियाणि।...स्वेषां विषयः स्वविषयस्तत्र निश्चयेन निर्णयेन रतानींद्रियाणी।....अथवा इंदनादाधिपत्यादिंद्रियाणि।
= 1. जो प्रत्यक्षमें व्यापार करती है उन्हें इंद्रियाँ कहते हैं। जिसका खुलासा इस प्रकार है अक्ष इंद्रियको कहते हैं और जो अक्ष अक्षके प्रति अर्थात् प्रत्येक इंद्रियके प्रति रहता है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। जो कि इंद्रियोंका विषय अथवा इंद्रियजंय ज्ञानरूप पड़ता है। उस इंद्रिय विषय अथवा इंद्रिय ज्ञान रूप जो प्रत्यक्षमें व्यापार करती हैं, उन्हें इंद्रियाँ कहते हैं। 2.इंद्रियाँ अपने-अपने विषयमें रत हैं। अर्थात् व्यापार करती हैं। ( धवला पुस्तक 7/2,1,2/6/7) 3. अथवा अपने-अपने विषयका स्वतंत्र आधिपत्य करनेसे इंद्रियाँ कहलाती है।
गोम्मट्टसार जीवकांड / गोम्मट्टसार जीवकांड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 165 में उद्धृत “यदिंद्रस्यात्मनो लिंगं यदि वा इंद्रेण कर्मणा। सृष्टं जुष्टं तथा दृष्टं दत्तं वेति तदिंद्रियः।
= इंद्र जो आत्मा ताका चिह्न सो इंद्रिय है। अथवा इंद्र जो कर्म ताकरि निपज्या वा सेया वा तैसे देख्या वा दीया सो इंद्रिय है।
2. इंद्रिय सामान्य के भेद
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 2/15,16,19 पंचेंद्रियाणि ॥15॥ द्विविधानि ॥16॥ स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्राणि ॥19॥
= इंद्रियाँ पाँच है ॥15॥ वे प्रत्येक दो-दो प्रकारकी हैं ॥16॥ स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये इंद्रियाँ हैं ॥19॥
(राजवार्तिक अध्याय 9/17/11/603/29)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/16/179/1 कौ पुनस्तौ द्वौ प्रकारौ द्रव्येंद्रियभावेंद्रियमिति।
= प्रश्न - वे दो प्रकार कौन-से हैं? उत्तर - द्रव्येंद्रिय और भावेंद्रिय
(राजवार्तिक अध्याय 2/16/1/130/2), ( धवला पुस्तक 1/1,1,33/232/2), ( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 165)
3. द्रव्येंद्रियके उत्तर-भेद
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 2/17 निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येंद्रियम् ॥17॥ सा द्विविधा, बाह्याभ्यंतरभेदात् (स.सि)।
= निर्वृत्ति और उपकरण रूप द्रव्येंद्रिय है ॥17॥ निर्वृत्ति दो प्रकारकी है - बाह्यानिर्वृत्ति और आभ्यंतरनिर्वृत्ति।
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/17/175/4), (राजवार्तिक अध्याय 2/17/2/130), ( धवला पुस्तक 1/1,1,33/232/3)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/17/175/8 पूर्ववत्तदपि द्विविधम्।
= निर्वृत्तिके समान यह भी दो प्रकारकी है - बाह्य और आभ्यंतर।
(राजवार्तिक अध्याय 2/17/6/130/16) ( धवला पुस्तक 1/1,1,33/236/3)
4. भावेंद्रियके उत्तर-भेद
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 2/18 लब्ध्युपयोगौ भावेंद्रियम् ॥18॥
= लब्धि ओर उपयोग रूप भावेंद्रिय हैं।
( धवला पुस्तक 1/1,1,33/236/5)
5. निर्वृत्ति व उपकरण भावेंद्रियों के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/1,7/175/3 निर्वृत्यते इति निर्वृत्तिः। केन निर्वृत्यते। कर्मणा। सा द्विविधाः बाह्याभ्यंतरभेदात्। उत्सेधांगुलासंख्येयभागप्रतिमानां शुद्धात्मप्रदेशामां प्रतिनियतचक्षुरादींद्रियसंस्थानेनावस्थितानां वृत्तिराभ्यंतरा निर्वृत्तिः। तेष्वात्मप्रदेशेष्विंद्रियव्यपदेशभाक्षु यः प्रतिनियतसंस्थाननामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गलप्रचयः सा बाह्या निर्वृत्तिः। येन निर्वृत्तेरुपकारः क्रियते तदुपकरणम्। पूर्ववत्तदपि द्विविधम्। तत्राभ्यंतरकृष्णशुक्लमंडलं बाह्यमक्षिपत्रपक्ष्मद्वयादि। एवं शेषेष्वपींद्रियेषु ज्ञेयम्।
= रचनामां नाम निर्वृत्ति है। प्रश्न - यह रचना कौन करता है? उत्तर - कर्म। निर्वृत्ति दो प्रकारकी है - बाह्य और आभ्यंतर। उत्सेधांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण और प्रतिनियत चक्षु आदि इंद्रियोंके आकार रूपसे अवस्थित शुद्ध आत्म प्रदेशोंकी रचनाको आभ्यंतर निर्वृत्ति कहते हैं। यथा इंद्रिय नामवाले उन्हीं आत्मप्रदेशोंमें प्रतिनियत आकाररूप और नामकर्मके उदयसे विशेष अवस्थाको प्राप्त जो पुद्गल प्रचय होता है उसे बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं। जो निर्वृत्ति का उपकार करता है उसे उपकरण कहते हैं। यह भी दो प्रकारका है। ...नेत्र इंद्रियमें कृष्ण और शुक्लमंडल आभ्यंतर उपकरण हैं तथा पलक ओर दोनों बरौनी आदि बाह्य उपकरण हैं। इसी प्रकार शेष इंद्रियोंमे भी जानता चाहिए।
(राजवार्तिक अध्याय 2/17/2-7/130), ( धवला पुस्तक 1/1,1,33/232/2), ( धवला पुस्तक 1/1,1,33,234/6), ( धवला पुस्तक 1/1,1,33/236/3), ( तत्त्वार्थसार अधिकार 2/43)
तत्त्वार्थसार अधिकार 2/41-42 नेत्रादींद्रियसंस्खानावस्थितानां हि वर्तनम्। विशुद्धात्मप्रदेशानां तत्र निर्वृत्तिरांतरा ॥41॥ तेष्वेवात्मप्रदेशेषु करणव्यपेदेशिषु। नामकर्मकृतावस्थः पुद्गलप्रचयोऽपरा ॥42॥
पुराणकोष से
(1) जीव को जानने के स्पर्शन, रसना, घ्राण, वस्तु, और श्रोत्र थे पाँच साधन । इनमें स्थावर जीवों के केवल स्पर्शन इंद्रिय तथा त्रस जीवों के यथाक्रम सभी इंद्रियाँ पायी जाती है । भावेंद्रिय और द्रव्येंद्रिय के भेद से ये दो प्रकार की भी है । इनमें भावेंद्रियाँ लब्धि और उपयोग रूप है तथा द्रव्येंद्रियाँ निवृत्ति और उपकरण रूप । स्पर्शन, अनेक आकारों वाली है, रसना खुरपी के समान, घ्राण तिलपुष्प के समान, चक्षु मसूर के और घ्राण यव की नली के आकार की होती है । एकेंद्रिय जीव की स्पर्शन इंद्रिय का उत्कृष्ट विषय चार सौ धनुष है, इसी प्रकार द्वींद्रिय के आठ सौ धनुष और त्रींद्रिय के सोलह सौ धनुष, चतुरिंद्रिय के बत्तीस सौ धनुष और असैनी पंचेंद्रिय के चौसठ सौ धनुष है । रसना इंद्रिय के विषय द्वींद्रिय के चौसठ धनुष, त्रींद्रिय के एक सौ अट्ठाईस धनुष, चतुरिंद्रिय के दो सौ छप्पन और असैनी पंचेंद्रिय के पांच सौ धनुष है । घ्राणेंद्रिय का विषय त्रींद्रिय जीव के सौ धनुष, चतुरिंद्रिय के दो सौ धनुष और असैनी पंचेंद्रिय के चार सौ धनुष प्रमाण है । चतुरिंद्रिय अपनी चक्षुरिंद्रिय के द्वारा उनतीस सौ चौवन योजन तक देखता है, और असैनी पंचेंद्रिय के चक्षु का विषय उनसठ सौ आठ योजन है । असैनी पंचेंद्रिय के श्रोत का विषय एक योजन है । सैनी पंचेंद्रिय जीव नौ योजन दूर स्थित स्पर्श, रस, और गंध को यथायोग्य ग्रहण कर सकता है और बारह योजन दूर तक के शब्द को सुन सकता है । सैनी पंचेंद्रिय जीव अपने चक्षु के द्वारा सैंतालीस हजार दो सी त्रेसठ योजन की दूरी पर स्थित पदार्थ को देख सकता है । हरिवंशपुराण 18. 84-93
(2) छ: पर्याप्तियों मे इस नाम की एक पर्याप्ति । हरिवंशपुराण 18.83