सत्त्व प्ररूपणा संबंधी नियम
From जैनकोष
सत्त्व प्ररूपणा संबंधी कुछ नियम
1. तीर्थंकर व आहारक के सत्त्व संबंधी
1. मिथ्यादृष्टि को युगपत् संभव नहीं
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/333/485/4 मिथ्यादृष्टौ तीर्थकृत्त्वसत्त्वे आहारकद्वयसत्त्वं न। आहारकद्वयसत्त्वे च तीर्थकृत्त्वसत्त्वं न, उभयसत्त्वे तु मिथ्यात्वाश्रयणं न तेन तद् द्वयम् । तत्र युगपदेकजीवापेक्षया न नानाजीवापेक्षयास्ति...तत्सत्त्वकर्मणा जीवानां तद्गुणस्थानं न संभवतीति कारणात् । =मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में जिसके तीर्थंकर का सत्त्व हो उसके आहारक द्विक का सत्त्व नहीं होता, जिसके आहारक द्वय का सत्त्व हो उसके तीर्थंकर का सत्त्व नहीं होता, और दोनों का सत्त्व होने पर मिथ्यात्व गुणस्थान नहीं होता। इसलिए मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में एक जीव की अपेक्षा युगपत् आहारक द्विक व तीर्थंकर का सत्त्व नहीं होता, केवल एक का ही होता है। परंतु एक ही जीव में अनुक्रम से वा नाना जीव की अपेक्षा उन दोनों का सत्त्व पाया जाता है।...इसलिए इन प्रकृतियों का जिनके सत्त्व हो उसके यह गुणस्थान नहीं होता ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/9/823/11 )।
2. सासादन को सर्वथा संभव नहीं
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/333/48/5 सासादने तदुभयमपि एकजीवापेक्षयानेकजीवापेक्षया च क्रमेण युगपद्वा सत्त्वं नेति। =सासादन गुणस्थान में एक जीव की अपेक्षा वा नाना जीव अपेक्षा आहारक द्विक तथा तीर्थंकर का सत्त्व नहीं है।
3. मिश्र गुणस्थान में सत्त्व व असत्त्व संबंधी दो दृष्टियाँ
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/333/485/6 मिश्रे तीर्थंकरत्वसत्त्वं न...तत्सत्त्वकर्मणां जीवानां तद्गुणस्थानं न संभवीति कारणात् ।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/619/ प्रक्षेपक/1/223/12 मिश्रे गुणस्थाने तीर्थयुतं चास्ति। तत्र कारणमाह। तत्तत्कर्मसत्त्वजीवानां तत्तद्गुणस्थानं न संभवति। = 1. मिश्र गुणस्थान में तीर्थंकर का सत्त्व नहीं होता। 2. इसका सत्त्व होने पर इस गुणस्थान में तीर्थंकर सहित सत्त्व स्थान है, परंतु आहारक सहित सत्त्व स्थान नहीं है, क्योंकि इन कर्मों की सत्ता होने पर यह गुणस्थान जीवों के नहीं होता। [यह दूसरी दृष्टि है]।
2. अनंतानुबंधी के सत्त्व असत्त्व संबंधी
कषायपाहुड़ 2/2-22/ सं./पृ.सं./पं.अविहत्ती कस्स। अण्ण-सम्मादिट्ठिस्स विसंजोयिद-अणंताणुबंधिचउक्कस्स (110/94/7) णिरयगदीए णेरइसु....अणंताणुबंधिचउक्काणं ओघभंगो।...एवं पदमाए पुढवीए...त्ति वत्तव्वं। विदियादि जाव सत्तमि त्ति एव चेव णवरि मिच्छत्त-अविहत्ती णत्थि (111/92/3-7) वेदगसम्मादिट्ठिसुअविहत्ति कस्स। अण्णविसंजोइद-अणंताणु.चउवकस्स।...उवसमसम्मादिट्ठीसु...विसंयोजियद अणंताणुबंधि चउक्कस्स। ...सासणसम्मादिट्ठीसु सव्वपयडीणं विहत्ती कस्स। अण्णं। सम्मामिं अणंताणुम् चउक्कम विहत्ती अविहत्ति च कस्स। अण्णं (117/98/1-8) मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तअणंताणुबंधिचउक्काणं सिया विहत्तियो, सिया अविहत्तिओ (142/130/5) णेरइयो तिरिक्खो मणुस्सो देवो वा सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी च सामिओ होदि त्ति। (246/219/8) = जिस अनंतानुबंधी चतुष्क की विसंयोजना कर दी है, ऐसे किसी भी सम्यग्दृष्टि जीव के अनंतानुबंधी चतुष्क अविभक्ति है। (110/11/7) नरकगति में...अनंतानुबंधी चतुष्क का कथन ओघ के समान है।...इस प्रकार पहली पृथिवी के नारकियों के जानना चाहिए।...दूसरी पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तक के नारकियों के इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके मिथ्यात्व अविभक्ति नहीं है। (111/92/3-7) वेदक सम्यग्दृष्टि जीव के ...जिसने अनंतानुबंधी चतुष्क की विसंयोजना की है उसकी अविभक्ति है।...जिसने अनंतानुबंधी चतुष्क की विसंयोजना कर दी है उस उपशम सम्यग्दृष्टि के अविभक्ति है।...सासादन सम्यग्दृष्टि जीव के सभी प्रकृतियों की विभक्ति है। सम्यग्दृष्टियों में अनंतानुबंधी चतुष्क को विभक्ति और अविभक्ति ...किसी भी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव के है (117/98/1-8) जो जीव मिथ्यात्व की विभक्ति वाला है वह सम्यक् प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, और अनंतानुबंधी चतुष्क की विभक्तिवाला कदाचित् है और कदाचित् नहीं है। (142/130/5) नारकी, तिर्यंच, मनुष्य या देव इनमें से किसी भी गति का सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव चौबीस प्रकृतिक स्थान का स्वामी होता है। (246/219/8)
3. छब्बीस प्रकृति सत्त्व का स्वामी मिथ्यादृष्टि ही होता
कषायपाहुड़ 2/2-22/ चूर्णसूत्र/247/221 छब्बीसाए विहत्तिओ को होदि। मिच्छाइट्ठी णियमा। = नियम से मिथ्यादृष्टि जीव छब्बीस प्रकृतिक स्थान का स्वामी होता है।
4. 28 प्रकृति का सत्त्व प्रथमोपशम के प्रथम समय में होता है
देखें उपशम - 2.2 प्रथमोपशम सम्यक्त्व से पूर्व अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय में अनादि मिथ्यादृष्टि जीव जब मिथ्यात्व तीन खंड करता है तब उसके मोह की 26 प्रकृतियों की बजाय 28 प्रकृतियों का सत्त्व स्थान हो जाता है।
5. जघन्य स्थिति सत्त्व निषेक प्रधान है और उत्कृष्ट काल प्रधान
कषायपाहुड़ 3/3, 22/479/267/10 जहण्णटि्ठदि अद्धाछेदो णिसेगपहाणो।...उक्कस्सट्ठिदी पुण कालपहाणो तेण णिसेगेण विणा एगसमए गलिदे वि उक्कस्सत्तं फिट्टदि। =जघन्य स्थिति अद्धाच्छेद निषेक प्रधान है।...किंतु उत्कृष्ट स्थिति काल प्रधान है, इसलिए निषेक के बिना एक समय के गल जाने पर भी उत्कृष्ट स्थिति के उत्कृष्टत्व नाश हो जाता है।
कषायपाहुड़ 3/3,22/513/291/8 जहण्णट्ठिदि-जहण्णट्ठिदि अद्धच्छेदाणं जइवसहुच्चारणाइरिएहि णिसेगपहाणाणं गहणादो। उक्कस्सट्ठिदी उक्कस्सीट्ठिदि अद्धाछेदो च उक्कस्सट्ठिदिसमयपबद्धणिसेगे मोत्तूण णाणासमयपबद्धणिसेगपहाणा।...पुव्विल्लवक्खाणमेदेण सुत्तेण सहकिण्ण विरुज्झदे।... विरुझदे चेव, किंतु उक्कस्सट्ठिदि उक्कस्सट्ठिदि अद्धाछेद जहण्णट्ठिदि-जहण्णट्ठिदि अद्धाछेदाणं भेदपरूवणट्ठं तं वक्खाणं कयं वक्खाणाइरिएहि। चुण्णिसुत्तुच्चारणाइरियाणं पुण एसो णाहिप्पाओ;। =जघन्य स्थिति और जघन्य स्थिति अद्धाच्छेद को यतिवृषभ आचार्य और उच्चारणाचार्य के निषेक प्रधान स्वीकार किया है। तथा उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्टस्थिति अद्धाच्छेद उत्कृष्ट स्थितिवाले समय प्रबद्ध के निषेकों की अपेक्षा न होकर नाना समय प्रबद्धों के निषेकों की प्रधानता से होता है। प्रश्न - पूर्वोक्त व्याख्यान इस सूत्र के साथ विरोध को क्यों नहीं प्राप्त होता ? उत्तर - विरोध को प्राप्त होता ही है किंतु उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट स्थिति अद्धाच्छेद में तथा जघन्य स्थिति और जघन्य अद्धाच्छेद में भेद के कथन करने के लिए व्याख्यानाचार्य ने यह व्याख्यान किया है। चूर्णसूत्रकार और उच्चारणाचार्य का यह अभिप्राय नहीं है।
6. जघन्य स्थिति सत्त्व का स्वामी कौन
कषायपाहुड़ 3/3,22/35/22/3 जो एइंदिओ हतसमुपत्तियं काऊण जाव सक्का ताव संतकम्मस्स हेट्ठा बंधिय सेकाले समट्ठिदिं बोलेहदि त्ति तस्स जहण्णयं ट्ठिदिसंतकम्मं।...मिच्छादि....त्ति। =जो कोई एकेंद्रिय जीव हतसमुत्पतिक को करके जब तक शक्य हो तब तक सत्ता में स्थित मोहनीय की स्थिति से कम स्थिति वाले कर्म का बंध करके तदनंतर काल में सत्ता में स्थित मोहनीय को स्थिति के समान स्थिति वाले कर्म का बंध करेगा उसके मोहनीय का जघन्य स्थिति सत्त्व होता है। इसी प्रकार...मिथ्यादृष्टि जीवों के ...जानना चाहिए।
7. प्रदेशों का सत्त्व सर्वदा 1 गुणहानि प्रमाण होता है
गोम्मटसार कर्मकांड/5/5 गुणहाणीणदिवड्ढं समयपबद्धं हवे सत्तं।5।
गोम्मटसार कर्मकांड/943 सत्तं समयपबद्धं दिवड्ढगुणहाणि ताडियं अणं। तियकोणसरूवट्ठिददव्वे मिलिदे हवे णियमा।943। = कुछ कम डेढ़ गुणहानि आयाम से गुणित समय प्रमाण समय प्रबद्ध सत्ता (वर्तमान) अवस्था में रहा करते हैं।5। सत्त्व द्रव्य कुछ कम डेढ गुणहानिकर गुणा हुआ समय प्रबद्ध प्रमाण है। वह त्रिकोण रचना के सब द्रव्यों का जोड़ देने से नियम से इतना ही होता है।
8. सत्त्व के साथ बंध का सामानाधिकरण नहीं है
धवला 6/1,9-2,61/103/2 ण च संतम्मि विरोहाभावं दटठूण बंधम्हि वि तदभावो वोतुं स क्किज्जइ, बंध-संताणमेयत्ताभावा। =सत्त्व में (परस्पर विरोधी प्रकृतियों के) विरोध का अभाव देखकर बंध में भी उस (विरोध) का अभाव नहीं कहा जा सकता, क्योंकि बंध और सत्त्व में एकत्व का विरोध है।
9. सम्यग्मिथ्यात्व का जघन्यस्थिति सत्त्व दो समय कैसे
कषायपाहुड़ 3/2,22/420/244/9 एगसमयकालट्ठिदिय किण्ण वुच्चदे। ण, उदयाभावेण उदयणिसेयट्ठिदी परसरूवेण गदाए विदियणिसेयस्स दुसमयकालट्ठिदियस्स एगसमयावट्ठाणविरोहादो। विदियणिसेओ सम्मामिच्छत्तसरूवेण एगसमयं चेव अच्छदि उवरिमसमए मिच्छत्तस्स सम्मत्तस्स वा उदयणिसेयसरूवेण परिणाममुवलंभादो। तदो एयसमयकालट्ठिदिसेसं त्ति वत्तव्वं। ण, एगसमयकालट्ठिदिए णिसेगे संते विदियसमए चेव तस्स णिसेगस्स अदिण्णफलस्स अकम्मसरूवेण परिणामप्पसंगादो। ण च कम्मं सगसरूवेण परसरूवेण वा अदत्तफलमकम्मभावं गच्छदि विरोहादो। एगसमयं सगसरूवेणच्छिय विदियसमए परपयडिसरूवेणच्छिय तदियसमए अकम्मभावं गच्छदि त्ति दुसमयकालट्ठिदिणिद्देसो कदो। =प्रश्न - सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थिति एक समय काल प्रमाण क्यों नहीं कही जाती है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि जिस प्रकृति का उदय नहीं होता उसकी उदय निषेक स्थिति उपांत्य समय में पर रूप से संक्रमित हो जाती है। अत: दो समय कालप्रमाण स्थितिवाले दूसरे निषेक की जघन्य स्थिति एक समय प्रमाण मानने में विरोध आता है। प्रश्न - सम्यग्मिथ्यात्व का दूसरा निषेक सम्यग्मिथ्यात्व रूप से एक समय काल तक ही रहता है, क्योंकि अगले समय में उसका मिथ्यात्व या सम्यक्त्व के उदयनिषेक रूप से परिणमन पाया जाता है अत: सूत्र में ‘दुसमयकालट्ठिदिसेसं’ के स्थान पर ‘एकसमयकालट्ठिदिसेसं’ ऐसा कहना चाहिए। उत्तर - नहीं, क्योंकि इस निषेक को यदि एक समय काल प्रमाण स्थितिवाला मान लेते हैं तो दूसरे ही समय में उसे फल न देकर अकर्म रूप से परिणमन करने का प्रसंग प्राप्त होता है और कर्म स्वरूप से या पररूप से फल बिना दिये अकर्म भाव को प्राप्त होते नहीं, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है। किंतु अनुदयरूप प्रकृतियों के प्रत्येक निषेक एक समय तक स्वरूप से रहकर और दूसरे में पर प्रकृतिरूप से रहकर तीसरे समय में अकर्मभाव को प्राप्त होते हैं ऐसा नियम है अत: सूत्र में दो समय काल प्रमाण स्थिति का निर्देश किया है।
10. पाँचवें के अभिमुख का स्थिति सत्त्व पहले के अभिमुख से हीन है
धवला 6/1,9-8-14/269/1 एदस्स अपुव्वकरणचरिमसमए वट्टमाणमिच्छाइट्ठिस्स ट्ठिदिसंतकम्मं पढमसम्मत्ताभिमुहअणियट्टीकरणचरिमसमयट्ठिदमिच्छाइट्ठिट्ठिदिसंतकम्मादो कधं संखेज्जगुणहीणं। ण, ट्ठिदिसंतोमोवट्टियं काऊण संजमासंजमपडिवज्जमाणस्स संजमासंजमचरिममिच्छाइट्ठिस्स तदविरोहादो। तत्थतणअणियट्टीकरणट्ठिदिघादादो वि एत्थतणअपुव्वकरणेण तुल्लं, सम्मत्त-संजम-संजमासंजमफलाणं तुल्लत्तविरोहा। ण चापुव्वकरणाणि सव्वअणियट्टीकरणेहिंतो अणंतगुणहीणाणि त्ति वोत्तुं जुत्तुं, तप्पदुप्पायाणसुत्ताभावा। =प्रश्न - अपूर्वकरण के अंतिम समय में वर्तमान इस उपर्युक्त मिथ्यादृष्टि जीव का स्थिति सत्त्व, प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुख अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय में स्थित मिथ्यादृष्टि के स्थितिसत्त्व से संख्यात गुणित हीन कैसे है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, स्थिति सत्त्व का अपवर्तन करके संयमासंयम को प्राप्त होने वाले संयमासंयम के अभिमुख चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि के संख्यात गुणित हीन स्थिति सत्त्व के होने में कोई विरोध नहीं है। अथवा वहाँ के, अर्थात् प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि के, अनिवृत्तिकरण से होने वाले स्थिति घात की अपेक्षा यहाँ के अर्थात् संयमासंयम के अभिमुख मिथ्यादृष्टि के, अपूर्वकरण से होने वाला स्थितिघात बहुत अधिक होता है। तथा, यह, अपूर्वकरण, प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि के अपूर्वकरण के साथ समान नहीं है, क्योंकि, सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम रूप फलवाले विभिन्न परिणामों के समानता होने का विरोध है। तथा, सर्व अपूर्वकरण परिणाम सभी अनिवृत्तिकरण परिणामों के अनंतगुणित हीन होते हैं, ऐसा कहना भी युक्त नहीं हैं, क्योंकि, इस बात के प्रतिपादन करने वाले सूत्र का अभाव है।
11. सत्त्व व्युच्छित्ति व सत्त्व स्थान संबंधी दृष्टि भेद
गोम्मटसार कर्मकांड/373,391,392 तित्थाहारचउक्कं अण्णदराउगदुगं च सत्तेदे। हारचउक्कं वज्जिय तिण्णि य केइ समुद्दिट्ठं।273। अत्थि अणं उवसमगे खवगापुव्वं खवित्तु अट्ठा य। पच्छा सोलादीणं खवणं इदि केइं णिद्दिट्ठं।391। अणियट्टिगुणट्ठाणे मायारहिदं च ठाणमिच्छंत्ति। ठाणा भंगपमाणा केई एवं परूवेंति।392। =सासादन गुणस्थान में तीर्थंकर, आहारक की चौकड़ी, भुज्यमान व बद्धयमान आयु के अतिरिक्त कोई भी दो आयु से सात प्रकृतियाँ हीन 141 का सत्त्व है। परंतु कोई आचार्य इनमें से आहारक की 4 प्रकृतियों को छोड़कर केवल तीन प्रकृतियाँ हीन 145 का सत्त्व मानते हैं।373। श्री कनकनंदी आचार्य के संप्रदाय में उपशम श्रेणी वाले चार गुणस्थानों में अनंतानुबंधी चार का सत्त्व नहीं है। इस कारण 24 स्थानों में से बद्ध व अबद्धायु के आठ स्थान कम कर देने पर 16 स्थान ही हैं। और क्षपक अपूर्वकरण वाले पहले आठ कषायों का क्षय करके पीछे 16 आदिक प्रकृतियों का क्षय करते हैं।391। कोई आचार्य अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में मायारहित चार स्थान हैं, ऐसा मानते हैं। तथा कोई स्थानों को भंग के प्रमाण कहते हैं।392।
देखें सत्त्व - 2.1 मिश्र में तीर्थंकर के सत्त्व का कोई स्थान नहीं, परंतु कोई कहते हैं कि मिश्र में तीर्थंकर का सत्त्व स्थान है।