वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 50
From जैनकोष
मिथोऽनपेक्षा: पुरुषार्थहेतु-
र्नाशा न चांशी पृथगस्ति तेभ्य: ।
परस्परेक्षा: पुरुषार्थहेतुर्दृष्टा
नयास्तद्वदसिक्रियायाम् ।।50।।
(168) एक वस्तु के धर्मों की व धर्मधर्मी की परस्पर निरपेक्षरूप से अनुपलभ्यमानता―यहां कोई शंकाकार यह कह सकता है कि वस्तु में अनंत धर्म मान लिए जायें तो कोई हर्ज नहीं, किंतु वे सब धर्म परस्पर निरपेक्ष हैं । जैसे एक वस्तु में जितने गुण माने जाते हैं उन सब गुणों का स्वरूप न्यारा-न्यारा है । एक गुण का स्वरूप दूसरे गुण का नहीं बनता, अन्यथा अनंत गुण ही नहीं कहला सकते । तो गुण का स्वरूप तो जुदा-जुदा मानना ही होगा । उसी से ही यह समझ लिया जायेगा कि वे सभी धर्म परस्पर निरपेक्ष हैं और धर्म उनसे अलग है । इस तरह वहां अनेक सत् पाये गए । अनंत गुण हैं, उनकी स्वतंत्र सत्ता है और जो गुणी पदार्थ है उसकी स्वतंत्र सत्ता है ꠰ इस तरह से वस्तु की व्यवस्था सुगमतया समझ में आ जायेगी । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि वस्तु को अनंत धर्मरूप मानकर भी जो उन धर्मों को परस्पर निरपेक्ष कहा है शंकाकार ने, वह यों युक्त नहीं है कि निरपेक्ष धर्म हुए तो वहाँ वस्तु ही सिद्ध न होगी । वस्तु फिर किस स्वरूप है? जिस स्वरूप को बतायेंगे उसे तो भिन्न मान लिया जाता । तो कोई भिन्न वस्तु किसी भिन्न का स्वरूप बन सकती है क्या? इसके अतिरिक्त इस मान्यता से कोई पुरुषार्थ का उपाय न बन पायेगा । जो लोग कहते हैं कि वस्तु के धर्म सब परस्पर निरपेक्ष है तो उससे पुरुषार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती, न कोई मोक्ष का उपाय बन सकता है, क्योंकि जो पदार्थ जिस रूप में उपलभ्यमान नहीं है याने पाया नहीं जाता उस रूप से उसे व्यवस्थित भी नहीं किया जा सकता । जैसे अग्नि शीतपने के साथ उपलभ्यमान नहीं है तो क्या अग्नि को शीतरूप में व्यवस्थित किया जा सकता? नहीं । तो यों ही समझिये कि पदार्थ में साधारण असाधारण सभी धर्म परस्पर निरपेक्ष हैं तो वैसा परिचय पुरुषार्थ का हेतु नहीं बन सकता, क्योंकि पदार्थ ही वैसा नहीं । बुद्धि सन्मार्ग में कैसे चल सकती? इस कारण वस्तु अनंत धर्मात्मक है और वे सब धर्म स्वतंत्र नहीं हैं, परस्पर निरपेक्ष नहीं हैं, ऐसा युक्त्यनुशासन प्रत्यक्ष और आगम से अविरुद्ध होता है ।
(169) धर्म व धर्मी की परस्पर सापेक्षरूप से उपलभ्यमानता―जो धर्म-अंश परस्पर सापेक्ष हैं वे ही पुरुषार्थ के हेतु बन सकते हैं, क्योंकि वस्तु उस रूप में देखी जाती हैं । जो पदार्थ जिस रूप में देखा जाये वह पदार्थ उसी रूप में व्यवस्थित होता है । जैसे अग्नि दहनता के रूप में देखी जाती है तो दहनतारूप में ही अग्नि व्यवस्थित होती है । इसी प्रकार वस्तु के सभी धर्म परस्पर सापेक्ष देखे जाते हैं तो वे ही पुरुषार्थ के हेतुरूप से बनते हैं । इसी विषय को दूसरे ढंग से देखिये―यहां पृथक्त्ववादी ने अंशी और अंश में भी अलगपने की कल्पना की है, सो ऐसा नहीं है । अंशी अंशों से पृथक् नहीं है अर्थात् धर्मी पदार्थ शक्त्यात्मक धर्म से पृथक् नहीं है, क्योंकि वह पृथक्रूप में उपलभ्यमान ही नहीं है । जो जिस रूप में उपलभ्यमान नहीं है वह उसमें नास्तिरूप ही है ।
(170) धर्म व धर्मी की परस्पर सापेक्षरूप से उपलभ्यमानता का उदाहरण देकर समाधान―
जैसे अग्नि शीतता के रूप से उपलभ्यमान नहीं है तो शीतता के रूप से अग्नि का अभाव ही है । इसी प्रकार अंशों को अंशी से अलग होनेरूप से अनुपलभ्य मानता है इस कारण अंशों से पृथक् अंशी का अभाव है । अंश मायने शक्ति आदिक, अंशी मायने पदार्थ । जैसे आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनंद आदिक अनेक शक्तियोंरूप है तो ये शक्तियां तो अंश कहलायें और आत्मा अंशी कहलाया । सो अंशी से अंश अलग नहीं है । अंशात्मक ही अंशी है । ज्ञानदर्शनाद्यात्मक आत्मा है और इसी तरह वस्तुस्वरूप निरखने में आगम से भी विरोध नहीं आता, क्योंकि भिन्न अर्थों का अंश-अंशी भावरूप से प्रतिपादन करने वाला आगम नहीं है, किंतु एक ही अर्थ से अंश-अंशी भाव का, भिन्नता का, प्रतिपादन करने वाला आगम है ꠰ अब जिस प्रकार अंश-अंशी परस्पर सापेक्ष होकर किसी क्रिया पुरुषार्थ के हेतुभूत बनते हैं, इसी प्रकार नयों की भी बात समझना ꠰ नय भी परस्पर सापेक्ष होकर अपनी सत्तात्मक क्रिया में पुरुषार्थ के हेतु हैं अर्थात् वे नय हैं यदि परस्पर सापेक्ष हों तो । जो वस्तु जिस रूप में उपलभ्यमान है वह उसी रूप में व्यवस्थित है ꠰
(171) नयों की भी परस्पर सापेक्षरूप से उपलभ्यमानता―ये नय भी सब परस्पर सापेक्षरूप से ही उपलभ्यमान हैं, इस कारण नयों की भी इसी तरह व्यवस्था होती है ꠰ नय 7 माने गए हैं, जिनमें कुछ नय स्थिति के ग्राहक हैं, कुछ नय उत्पादव्यय के ग्राहक हैं ꠰ जो स्थिति तत्त्व का ग्रहण करने वाला है वह द्रव्यार्थिकनय कहलाता है और जो उत्पादव्यय का ग्रहण करने वाला है वह पर्यायार्थिक नय कहलाता है तो इन 7 नयों में नैगम, संग्रह, व्यवहार―ये तीन नय तो स्थिति-ग्राहक द्रव्यार्थिकनय के भेद हैं और ऋजुसूत्रनय, शब्दनय, समभिरूढ़नय तथा एवंभूत―ये चार नय प्रतिक्षण उत्पादव्यय के ग्राहक पर्यायार्थिकनय के भेद हैं ꠰ ये सभी नय परस्पर में सापेक्ष होते हुए वस्तु का साध्य जो अर्थ-क्रियारूप पुरुषार्थ है उसकी सिद्धि करते हैं ꠰ यदि ये नय परस्पर निरपेक्ष हो जायें तो ऐसे ही आशय में अनेक एकांतवाद प्रकट हुए ꠰ जैसे जिसमें एक संग्रहनय का एकांत किया और संग्रह का आशय न रहा, किंतु वही पूर्ण वस्तु है, ऐसा आशय बना डाला तो उसमें सत्ताद्वैत आदिक एकांतवाद प्रचलित हो गए ꠰ इसी प्रकार जहां ऋजुसूत्रनय का एकांत किया गया याने प्रतिक्षण की जो अवस्था है वही पूर्ण पदार्थ है ऐसा माना गया वहाँ निरंशवाद अथवा क्षणिकवाद का जन्म होता है ꠰ यदि यह जन्म परस्पर सापेक्ष हो जाये और वस्तुभूत अर्थ की खोज बनायी जाये तो यह स्याद्वाद शासन से वस्तु को सही जानने का उपाय बनता है ꠰ सो हे प्रभो ! जो आपके शासन में पदार्थ का निरूपण है वह प्रत्यक्ष और आगम से बाधित नहीं है, इसी कारण सत्य है, सद᳭रूप है और उसकी सद᳭रूपता उत्पाद-व्यययध्रौव्य-धर्मी के रूप में बनी है ꠰ तो प्रत्येक पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्यस्वरूप है, ऐसा आपके शासन में जो युक्त्यनुशासन है वह अबाधित शासन है ꠰