वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 51
From जैनकोष
एकांतधर्माऽभिनिवेश मूला-
रागादयोऽहंकृतिजा जनानाम् ꠰
एकांत हानाच्च स यत्तदेव
स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते ꠰꠰51꠰꠰
(172) अनेकांतात्मकता के निश्चय में शंकाकार द्वारा विचित्र आपत्ति देने का प्रयास―यहां कोई जिज्ञासु कहता है कि अनेकांत शासन से जीवादिक पदार्थों का अनेकांतादिक रूप से निश्चय किया, तब वहाँं निश्चय यह ही तो हुआ कि जीवों में स्वात्मा और परमात्मा की सिद्धि है, जो स्वरूप से समान हैं और व्यक्ति की दृष्टि से पृथक् हैं । तो उनमें किसी दृष्टि से तो अभेद माना तो जब सब जीव हम ही हैं अभेद मान लिया गया तो इस कथंचित् अभेद के कारण दूसरे आत्मा में राग उत्पन्न होने लगेगा, क्योंकि स्व में सभी को राग जगेगा । जब सब जीवों को स्व मान लिया तो सबमें राग उठने लगेगा और कथंचित् भेद भी माना मायने जीव जुदा है, मैं जुदा हूँ, तो जब जुदापन देखा गया तो उसमें द्वेष जगने लगेगा, और द्वेष जगा, राग जगा तो इन दोनों के कारण जो अनेक दोष होते हैं―घमंड, माया, ईर्ष्या, मात्सर्य आदिक; ये सब दोष जगने लगेंगे, संसार के कारण हैं और आकुलता के निमित्तभूत हैं और इन दोषों के कारण स्वर्ग और अपवर्ग का मार्ग रुकता है । वे दोष जब प्रवृत्त होने लगते हैं तो मन में समता नहीं रहती है । मन अपनी स्वाभाविक स्थिति में नहीं रहने देता, विषम स्थिति में पतित कर देता है और जब मन में समता न रही तो समाधि न बन सकेगी और जब समाधि न बन सकी तो मोक्ष न बन सकेगा, अतएव जिनको मोक्ष चाहिए उनको आवश्यक है कि मोक्ष का कारण समाधि बनायें जिनको समाधिभाव चाहिए उनको आवश्यक है कि वे मन में समतापरिणाम रखें । जो मन में समतापरिणाम चाहते हैं उनको यह आवश्यक है कि वे वस्तु को अनेकांतात्मक न माने, क्योंकि वस्तु को जब अभेद माना तो राग बनेगा, भेद माना तो द्वेष जगेगा और रागद्वेष जगे तो आत्मा का अनर्थ है ।
(173) एकांतवाद में रागद्वैषादिमय संसार आपत्ति और अनेकांतशासन में संसरण से मुक्त होने का निर्वाध उपाय―अब उक्त शंका का समाधान करते हैं कि जो यह बतलाया कि वस्तु को अनेकांतात्मक मान लेने पर रागद्वेष जगते हैं और ये मन में समता का निराकरण करते हैं, सो यह बात अनेकांतवाद में नहीं घटित होती, किंतु एकांतवाद में ही यह दोष आता है । जब एकांतरूप से नित्यत्व आदिक धर्मों में एक अभिप्राय
बना लिया तो जो वस्तु का स्वरूप नहीं है उसमें जब अभिप्राय बना लिया तो यह मिथ्या अज्ञान ही तो कहलाया और ऐसा मिथ्याश्रद्धान होने पर अभिप्राय अहंकार का रहता है, बड़ा व्यामोह रहता है । इसी व्यामोह से अहंकार बढ़ता है । जहाँ अहंकार है वहाँ ममकार भी साथ चलता है और जहां अहंकार ममकार है वहाँं रागद्वेष मात्सर्य आदिक सभी दोष बनने लगते हैं ꠰ तो जितने भी दोष बनते हैं उन सबका मूल कारण है मिथ्यादर्शन अथवा कहो व्यामोह और यह मिथ्यादर्शन-व्यामोह एकांत हठ में है, क्योंकि वस्तु का स्वरूप जैसा नहीं है वैसा माने तो वह अज्ञान अँधेरा है और वहाँ खोटी हठ है ꠰ इस कारण एकांत धर्म का अभिप्राय रहे तो उससे अहंकार उत्पन्न होता है, अहंकार से रागादिक होते हैं और उनके कारण फिर यह संसार-परंपरा बढ़ती है ꠰ सम्यग्दृष्टि जीवों के जिनको कि वस्तु का सही अनेकांतात्मक रूप में श्रद्धान है वहाँ एकांत नहीं है ꠰ एकांत धर्म में हठपूर्वक अभिप्राय जगे, ऐसा मिथ्यादर्शन है ꠰ तो अनेकांत का निश्चय होने से वहाँ सम्यग्दर्शन प्रज्वलित होता है और जो आत्मा का वास्तविक स्वरूप है, सो जहां एकांत अभिप्राय का अभाव है, सम्यग्दर्शन आदिक परिणाम है वहाँ मन में समता रहेगी और मन में समता होने से समाधिभाव बनेगा, समाधिभाव से निर्वाण होगा ꠰ तो अनेकांत शासन में मोक्षमार्ग युक्त है ꠰ यहाँ किसी एकांत धर्म में हठ यों नहीं हो पाता कि जब प्रतिपक्षभूत दूसरी दृष्टि की प्रतीति है सो वस्तु के सर्वात्मक सही बोध होने से वहाँ दर्शनमोह का उदय नहीं और कदाचित् ऐसे ज्ञानी जीव के चारित्रमोह के उदय से रागादिक उत्पन्न हुए तो वे भी औदयिक परिणाम हैं ꠰ उनमें आत्मरूपता की श्रद्धा नहीं होती ज्ञानियों की ꠰ सो सम्यग्दर्शनरूप जो परिणाम है वह अज्ञान-अंधकार का विनाशक होने से संसार-परंपरा का बंध नष्ट कर देता है और इसी सम्यग्दर्शन की भावना से, सहज परमात्म तत्त्व की भावना से चारित्रपरिणाम बनता है, सो सर्वथा बंध दूर होकर निर्वाण प्राप्त होता है ꠰ रागादिक भावों का अभाव होना यह आत्मस्वभाव का विकास है, सो स्वभाव-परिणाम तो है, मगर पारिणामिक भाव नहीं है ꠰ पारिणामिक भाव अनादि-अनंत होता है ꠰ जीव में अपने सत्त्व के कारण जो भी स्वरूप है वह स्वरूप पारिणामिक भाव है ꠰ इसकी ही आराधना के प्रमाद से सम्यक्त्व का लाभ और चारित्र का लाभ होता है ꠰ इस प्रकार हे वीर जिनेंद्र ! आपके एकांत शासन में अज्ञान अँधेरा दूर होने से जो सम्यग्ज्ञान का प्रकाश होता है उससे मोक्षमार्ग की व्यवस्था बनती है ꠰