प्रव्रज्या
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
वैराग्य की उत्तम भूमिका को प्राप्त होकर मुमुक्षु व्यक्ति अपने सब सगे-संबंधियों से क्षमा माँगकर, गुरु की शरण में जा, संपूर्ण परिग्रह का त्याग कर देता है और ज्ञाता-द्रष्टा रहता हुआ साम्य जीवन बिताने की प्रतिज्ञा करता है । इसे ही प्रव्रज्या या जिनदीक्षा कहते हैं । पंचम काल में भी उत्तम कुल का व्यक्ति प्रव्रज्या ग्रहण करने के योग्य है ।
- प्रव्रज्या निर्देश
- प्रव्रज्या का लक्षण ।
- जिन-दीक्षा योग्य पुरुष का लक्षण ।
- म्लेच्छ भूमिज भी कदाचित् दीक्षा के योग्य है ।
- दीक्षा के अयोग्य पुरुष का स्वरूप ।
- पंचम काल में भी दीक्षा संभव है ।
- छहों संहनन में दीक्षा की संभावना । - देखें संहनन ।
- स्त्री व नपुंसक को निर्ग्रंथ दीक्षा का निषेध । - देखें वेद - 7.4 ।
- सत् शूद्र में भी दीक्षा की योग्यता । - देखें वर्णव्यवस्था - 4.2
- दीक्षा के अयोग्य काल ।
- प्रव्रज्याधारण का कारण ।
- दीक्षायोग्य 48 संस्कार । -देखें संस्कार - 2.3
- भरत चक्री ने भी दीक्षा धारण की थी । - देखें लिंग - 3.5
- प्रव्रज्या का लक्षण ।
- प्रव्रज्या विधि
- तत्त्वज्ञान होना आवश्यक है ।
- बंधु वर्ग से विदा लेने का विधि-निषेध ।
- सिद्धों को नमस्कार ।
- दीक्षादान विषयक कृतिकर्म । - देखें कृतिकर्म - 4 ।
- द्रव्य व भाव दोनों लिंग युगपत् ग्रहण करता है । - देखें लिंग - 2,3 ।
- पहले अप्रमत्त गुणस्थान होता है, फिर प्रमत्त । - देखें गुणस्थान - 2 ।
- आर्यिका को भी कदाचित् नग्नता की आज्ञा । - देखें लिंग - 1.4 ।
- तत्त्वज्ञान होना आवश्यक है ।
- प्रव्रज्या निर्देश
- प्रव्रज्या का लक्षण
बोधपाहुड़/ मू./गाथा नं. गिहगंथमोहमुक्का बावीसपरीषहा जियकसाया । पावारंभविमुक्का पव्वज्जा एरिसा भणिया ।45। सत्तू मित्ते य समा पसंसणिद्दा अलद्धिलद्धिसमा । तणकणए समभावा पव्वजा एरिसा भणिया ।47। जहजायसरूवसरिसा अवलंविय णिराउहा संता । परकियणिलयणिवासा पव्वज्जा एरिसा भणिया ।51। ... सरीरसंक्कार वज्जिया रूक्खा ।52। = गृह और परिग्रह तथा उनके ममत्व से जो रहित है, बाईस परीषह तथा कषायों को जिसने जीता है, पापारंभ से जो रहित है, ऐसी प्रव्रज्या जिनदेव ने कही है ।45। जिसमें शत्रु-मित्र में, प्रशंसा-निंदा में, लाभ व अलाभ में तथा तृण व कांचन में समभाव है, ऐसी प्रव्रज्या कही है ।47। यथाजात रूपधर, लंबायमान भुजा, निरायुध, शांत, दूसरों के द्वारा बनायी हुई वस्तिका में वास ।51। शरीर के संस्कार से रहित, तथा तैलादि के मर्दन से रहित, रूक्ष शरीर सहित ऐसी प्रव्रज्या कही गयी है ।52। - (विशेष देखें [[ ]] बोधपाहुड़/ मू.व.टी./45-59) ।
- जिनदीक्षा योग्य पुरुष का स्वरूप
महापुराण/39/158 विशुद्धकुलगोत्रस्य सद्वृत्तस्य वपुष्मतः । दीक्षायोग्यत्वमाम्नातं सुमुखस्य सुमेधसः ।158। = जिसका कुल गोत्र विशुद्ध है, चारित्र उत्तम है, मुख सुंदर है और प्रतिभा अच्छी है, ऐसा पुरुष ही दीक्षा ग्रहण करने के योग्य माना गया है ।158।
यो.सा.आ./8/51 शांतस्तपःक्षमोऽकुत्सो वर्णेष्वेकतमस्त्रिषु । कल्याणांगो नरो योग्यो लिंगस्य ग्रहणे मतः ।51। = जो मनुष्य शांत होगा, तप के लिए समर्थ होगा, निर्दोष ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णों में से किसी एक वर्ण का और सुंदर शरीर के अवयवों का धारक होगा वही निर्ग्रंथ लिंग के ग्रहण करने में योग्य है अन्य नहीं । ( अनगारधर्मामृत/9/88 ), (देखें [[ ]]वर्णव्यवस्था/1/4) ।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/225 प्रक्षेपक गा. 10/305 वण्णेसु तीसु एक्को कल्लाणंगो तवोसहो वयसा । सुमुहो कुंछारहिदो लिंगग्गहणे हवदि जोग्गो । = ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीन वर्णों में से किसी एक वर्ण का, नीरोग, तप में समर्थ, अति बालत्व व वृद्धत्व से रहित योग्य आयु का, सुंदर, दुराचारादि लोकापवाद से रहित पुरुष ही जिनलिंग को ग्रहण करने के योग्य होता है ।10।
- म्लेच्छ व सत्शूद्र भी कदाचित् दीक्षा के योग्य है
लब्धिसार/ जी.प्र./195/249/19 म्लेच्छभूमिजमनुष्याणां सकलसंयमग्रहणं कथं संभवतीति नाशंकितव्यं दिग्विजयकाले चक्रवर्तिना सह आर्यखंडमागतानां म्लेच्छराजानां चक्रवर्त्यादिभिः सहजातवैवाहिकसंबंधानां संयमप्रतिपत्तेरविरोधात् । अथवा तत्कन्यकानां चक्रवर्त्यादिपरिणीतानां गर्भेषूत्पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छव्यपदेशभाजः संयमसंभवात् तथाजातीयकानां दीक्षार्हत्वे प्रतिषेधाभावात् । = प्रश्न- म्लेच्छभूमिज मनुष्य के सकलसंयम का ग्रहण कैसे संभव है ? उत्तर- ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए । जो मनुष्य दिग्विजय के काल में चक्रवर्ती के साथ आर्य खंड में आते हैं, और चक्रवर्ती आदि के साथ उनका वैवाहिक संबंध पाया जाता है, उनके संयम ग्रहण के प्रति विरोध का अभाव है । अथवा जो म्लेच्छ कन्याएँ चक्रवर्ती आदि से विवाही गयी हैं, उन कन्याओं के गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होते हैं वे माता के पक्ष से म्लेच्छ हैं, उनके दीक्षाग्रहण संभव है ।
देखें वर्णव्यवस्था - 4.2 (सत्शूद्र भी क्षुल्लकदीक्षा के योग्य हैं) ।
- दीक्षा के अयोग्य पुरुष का स्वरूप
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/77/207/10 यदि प्रशस्तं शोभनं लिंगं मेहनं भवति । चर्मरहितत्वं, अतिदीर्घत्वं, स्थूलत्वं, असकृदुत्थानशीलतेत्येवमादिदोषरहितं यदि भवेत् । पुंसत्वलिंगता इह गृहोतेति बीजयोरपि लिंगशब्देन ग्रहणं । अतिलंबमानतादिदोषरहितता । = यदि पुरुष-लिंग में दोष न हो तो औत्सर्गिक लिंग धारण कर सकता है । गृहस्थ के पुरुष-लिंग में चर्म न होना, अतिशय दीर्घता, बारंबार चेतना होकर ऊपर उठना, ऐसे दोष यदि हों तो वह दीक्षा लेने के लायक नहीं है । उसी तरह यदि उसके अंड भी यदि अतिशय लंबे हों, बड़े हों तो भी गृहस्थ नग्नता के लिए अयोग्य है । (और भी देखें [[ ]] अचेलकत्व/4) ।
यो.सा.आ./8/52 कुलजातिवयोदेहकृत्यबुद्धिक्रुधादयः । नरस्य कुत्सिता व्यंगारतदन्ये लिंगयोग्यता ।52। = मनुष्य के निंदित कुल, जाति, वय, शरीर, कर्म, बुद्धि, और क्रोध आदिक व्यंग-हीनता हैं - निर्ग्रंथ लिंग के धारण करने में बाधक है, और इनसे भिन्न उसके ग्रहण करने में कारण है ।
बोधपाहुड़/ टी./49/114/1 कुरूपिणो हीनाधिकांगस्य कुष्ठादिरोगिणश्च प्रव्रज्या न भवति । = कुरूप, हीन वा अधिक अंग वाले के, कुष्ठ आदि रोगों वालों के दीक्षा नहीं होती है ।
- पंचम काल में भी दीक्षा संभव है
महापुराण/41/75 तरुणस्य वृषस्योच्चैः नदतो विहृतीक्षणात् । तारुण्य एव श्रामण्ये स्थास्यंति न दशांतरे ।75। = समवशरण में भरत चक्रवर्ती के स्वप्नों का फल बताते हुए भगवान् ने कहा कि - ऊँचे स्वर से शब्द करते हुए तरुण बैल का विहार देखने से सूचित होता है कि लोग तरुण अवस्था में ही मुनिपद में ठहर सकेंगे, अन्य अवस्था में नहीं ।75।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/143/ क. 241 कोऽपि क्वापि मुनिर्बभूव सुकृती काले कलावप्यलं, मिथ्यात्वादिकलंकपंकरहित: सद्धर्मरक्षामणिः । सोऽयं संप्रति भूतले दिवि पुनर्देवैश्च संपूज्यते, मुक्तानेकपरिग्रहव्यतिकरः पापाटवीपावकः ।241। = कलिकाल में भी कहीं कोई भाग्यशाली जीव मिथ्यात्वादिरूप मल-कीचड़ से रहित और सद्धर्म रक्षामणि ऐसा समर्थ मुनि होता है । जिसने अनेक परिग्रह के विस्तार को छोड़ा है, और जो पापरूपी अटवी को जलानेवाली अग्नि है, ऐसा यह मुनि इस काल भूतल में तथा देवलोक में देवों से भी भली-भाँति पुजता है ।
- दीक्षा के अयोग्य काल
महापुराण/39/159-160 ग्रहोपरागग्रहणे परिवेषेंद्रचापयोः । वक्रग्रहोदये मेघपटलस्थगितेऽंबरे ।159। नष्टाधिमासदिनयोः संक्रांतौ हानिमत्तिथौ । दीक्षाविधिं मुमुश्रूणां नेच्छंति कृतबुद्धयः ।160। = जिस दिन ग्रहों का उपराग हो, ग्रहण लगा हो, सूर्य-चंद्रमा पर परिवेष (मंडल) हो, इंद्रधनुष उठा हो, दुष्ट ग्रहों का उदय हो, आकाश मेघपटल से ढका हुआ हो, नष्ट मास अथवा अधिक मास का दिन हो, संक्रांति हो अथवा क्षय तिथिका दिन हो, उस दिन बुद्धिमान् आचार्य मोक्ष की इच्छा करने वाले भव्यों के लिए दीक्षा की विधि नहीं करना चाहते अर्थात् उस दिन किसी शिष्य को नवीन दीक्षा नहीं देते हैं ।159-160।
- प्रव्रज्या धारण का कारण
ज्ञानार्णव/4/10, 12 शक्यते न वशीकर्तुं गृहिभिश्चपलं मनः । अतश्चित्तप्रशांत्यर्थं सद्भिस्त्यक्ता गृहे स्थितिः ।10। निरंतरार्त्तानलदाहदुर्गमे कुवासनाध्वांतविलुप्तलोचने । अनेकाचिंताज्वरजिह्मितात्मनां, नृणां गृहे नात्महितं प्रसिद्धयति ।12। = गृहस्थगण घर में रहते हुए अपने चपलमन को वश करने असमर्थ में होते हैं, अतएव चित्तकी शांति के अर्थ सत्पुरुषों ने घर में रहना छोड़ दिया है और वे एकांत स्थान में रहकर ध्यानस्थ होने को उद्यमी हुए हैं ।10। निरंतर पीड़ारूपी आर्त ध्यान की अग्नि के दाह से दुर्गम, बसने के अयोग्य, तथा काम-क्रोधादि की कुवासनारूपी अंधकार से विलुप्त हो गयी है नेत्रों की दृष्टि जिसमें, ऐसे गृहों में अनेक चिंतारूपी ज्वर से विकाररूप मनुष्यों के अपने आत्मा का हित कदापि सिद्ध नहीं होता ।12। (विशेष देखें [[ ]] ज्ञानार्णव/4/8-17 ) ।
- प्रव्रज्या का लक्षण
- प्रव्रज्या विधि
- तत्त्वज्ञान होना आवश्यक है
मोक्षमार्ग प्रकाशक/6/264/2 मुनि पद लेनै का क्रम तौ यह है - पहलै तत्त्वज्ञान होय, पीछे उदासीन परिणाम होय, परिषहादि सहनें की शक्ति होय तब वह स्वयमेव मुनि बना चाहै ।
- बंधुवर्ग से विदा लेने का विधि-निषेध
- विधि
प्रवचनसार/202 आपिच्छ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं । आसिज्ज णाणदंसणचरित्ततववीरियायारं ।202। = (श्रामण्यार्थी) बंधुवर्ग से विदा मांगकर बड़ों से तथा स्त्री और पुत्र से मुक्त होता हुआ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार को अंगीकार करके ... ।202। ( महापुराण/17/193 ) ।
महापुराण/38/151 सिद्धार्चनां पुरस्कृत्य सर्वानाहूय सम्मतान् । तत्साक्षि सूनवे सर्वं निवेद्यातो गृहं त्यजेत् ।151। = गृहत्याग नाम की क्रिया में सबसे पहले सिद्ध भगवान् का पूजनकर समस्त इष्ट जनों को बुलाना चाहिए और फिर उनकी साक्षीपूर्वक पुत्र के लिए सब कुछ सौंपकर गृहत्याग करना चाहिए ।151।
- निषेध
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/202/273/10 तत्र नियमो नास्ति । कथमिति चेत् । ... तत्परिवारमध्ये यदा कोऽपि मिथ्यादृष्टिर्भवति तदा धर्मस्योपसर्गं करोतीति । यदि पुनः कोऽपि मन्यते गोत्रसम्मतं कृत्वा पश्चात्तपश्चरणं करोमि तस्य प्रचुरेण तपश्चरणमेव नास्ति कथमपि तपश्चरणे गृहीतेऽपि यदि गोत्रादि ममत्वं करोति तदा तपोधन एव न भवति । = बंधुवर्ग से विदा लेने का कोई नियम नहीं है । क्योंकि ... यदि उसके परिवार में कोई मिथ्यादृष्टि होता है, तो वह धर्म पर उपसर्ग करता है । अथवा यदि कोई ऐसा मानता है कि पहले बंधुवर्ग को राजी करके पश्चात् तपश्चरण करूँ तो उसके प्रचुररूप से तपश्चरण ही नहीं होता है । और यदि जैसे-कैसे तपश्चरण ग्रहण करके भी कुल का ममत्व करता है, तो तब वह तपोधन ही नहीं होता है ।
प्रवचनसार/ पं. हेमराज/202/273/31 यहाँ पर ऐसा मत समझना कि विरक्त होवे तो कुटुंब को राजी करके ही होवे । कुटुंब यदि किसी तरह राजी न होवे तब कुटुंब के भरोसे रहने से विरक्त कभी होय नहीं सकता । इस कारण कुटुंब से पूछने का नियम नहीं है ।
- विधि
- सिद्धों को नमस्कार
महापुराण/17/200 ततः पूर्वमुखं स्थित्वा कृतसिद्धनमस्क्रियः । केशानलुंचदाबद्धपल्यंकः पंचमुष्टिकम् ।200। तदनंतर भगवान् (वृषभदेव) पूर्व दिशा की ओर मुँह कर पद्मासन से विराजमान हुए और सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार कर उन्होंने पंच मुष्ठियों में केशलोंच किया ।200। और भी देखें [[ ]]कल्याणक /2 ।
स्याद्वादमंजरी/31/339/12 न च हीनगुणत्वमसिद्धम् । प्रव्रज्यावसरे सिद्धेभ्यस्तेषां नमस्कारकरणश्रवणात् । = अर्हंत भगवान् में सिद्धों की अपेक्षा कम गुण है, अर्हंतदीक्षा के समय सिद्धों को नमस्कार करते हैं ।
- तत्त्वज्ञान होना आवश्यक है
पुराणकोष से
गृहस्थ का दीक्षा-ग्रहण । इसमें दीक्षार्थी निर्ममत्वभाव धारण करता है । विशुद्ध कुल, गोत्र, उत्तम चारित्र, सुंदर सुखाकृति के लोग ही इसके योग्य होते हैं । इष्ट जनों की अनुज्ञापूर्वक ही सिद्धों को नमन करके इसे ग्रहण किया जाता है । इसके लिए तरुण अवस्था सर्वाधिक उचित होती है । महापुराण 38.151, 39.158-160, 41.75