कारण III
From जैनकोष
- <a name="III" id="III">निमित्त की कथंचित् गौणता मुख्यता
- निमित्त के उदाहरण
- षट्द्रव्यों का परस्पर उपकार्य उपकारक भाव
त.सू./५/१७-२२ गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकार:।१७। आकाशस्यावगाह:।१८। शरीरवाङ्मन:प्राणापाना: पुद्गला नाम।१९। सुखदु:खजीवितमरणोपग्रहाश्च।२०। परस्परोपग्रहो जीवानाम्।२५। वर्तनापरिणामक्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य।२२। =(जीव व पुद्गल की) गति और स्थिति में निमित्त होना यह क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार है।१७। अवकाश देना आकाश का उपकार है।१८। शरीर, वचन, मन और प्राणापान पुद्गलों का उपकार है।१९। सुख दुःख जीवन और मरण ये भी पुद्गलों के उपकार हैं।२०। परस्पर निमित्त होना यह जीवों का उपकार है।२१। वर्तना परिणाम क्रिया परत्व और अपरत्व ये काल के उपकार हैं।२०। (गो.जी./मू./६०५-६०६/१०५०, १०६०), (का.अ./मू./२०८-२१०)
स.सि./५/२०/२८९/२ एतानि सुखादीनि जीवस्य पुद्गलकृत उपकार:, मूर्त्तिमद्धेतुसंनिधाने सति तदुत्पत्ते:।...पुद्गलानां पुद्गलकृत उपकार इति। तद्यथा-कंस्यादीनां भस्मादिभिर्जलादीनां कतकादिभिरय:प्रभृतीनामुदकादिभिरुपकार: क्रियते। च शब्द:....अन्योऽपि पुद्गलकृत उपकारोऽस्तीति समुच्चीयते। यथा शरीराणि एवं चक्षुरादीनीन्द्रियाण्यपीति।२०। ... परस्परोपग्रह:। जीवानामुपकार:। क: पुनरसौ। स्वामी भृत्य:, आचार्य: शिष्य: इत्येवमादिभावेन वृत्ति: परस्परोपग्रह:। स्वामी तावद्वित्तत्यागादिना भृत्यानामुपकारे वर्तते। भृत्याश्च हितप्रतिपादनेनाहितप्रतिपेधेनच। आचार्य उपदेशदर्शनेन... क्रियानुष्ठापनेन च शिष्याणामनुग्रहे वर्तते। शिष्या अपि तदानुकूलवृत्त्या आचार्याणाम् । ...पूर्वोक्तसुखादिचतुष्टयप्रदर्शनार्थं पुन: उपग्रह वचनं क्रियते। सुखादीन्यपि जीवानां जीवकृत उपकार इति।२१।=ये सुखादिक जीव के पुद्गलकृत उपकार हैं, क्योंकि मूर्त्त कारणों के रहने पर ही इनकी उत्पत्ति होती है। (इसके अतिरिक्त) पुद्गलों का भी पुद्गलकृत उपकार होता है। यथा-कांसे आदि का राख आदि के द्वारा, जल आदि के द्वारा उपकार किया जाता है। पुद्गलकृत और भी उपकार हैं, इसके समुच्चय के लिए सूत्र में ‘च’ शब्द दिया है। जिस प्रकार शरीरादिक पुद्गलकृत उपकार हैं उसी प्रकार चक्षु आदि इन्द्रियाँ भी पुद्गलकृत उपकार हैं। परस्पर का उपग्रह करना जीवों का उपकार है। जैसे स्वामी तो धन आदि देकर और सेवक उसके हित का कथन करके तथा अहित का निषेध करके एक दूसरे का उपकार करते हैं। आचार्य उपदेश द्वारा तथा क्रिया में लगाकर शिष्यों का और शिष्य अनुकूल प्रवृत्ति द्वारा आचार्य का उपकार करते हैं। इनके अतिरिक्त सुख आदिक भी जीव के जीवकृत उपकार हैं। (गो.जी./जी.प्र./६०५-६०६/१०६०-१०६२) (का.अ./टी./२०८-२१०)
वसु.श्रा./३४ जीवस्सुवयारकरा कारणभूया हु पंचकायाई। जीवो सत्ताभूओ सो ताणं ण कारणं होइ।३४।
द्र.सं./टी./अधि. २ की चूलिका/७८/२ पुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि व्यवहारनयेन जीवस्य शरीरवाङ्मन:प्राणापानादिगतिस्थित्यवगाहवर्तनाकार्याणि कुर्वन्तीति कारणानि भवन्ति। जीवद्रव्यं पुनर्यद्यपि गुरुशिष्यादिरूपेण परस्परोपग्रहं करोति तथापि पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणां किमपि न करोतीत्यकारणम् ।=पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, ये पाँचों द्रव्य जीव का उपकार करते हैं, इसलिए वे कारणभूत हैं, किन्तु जीव सत्तास्वरूप है उनका कारण नहीं है।३४। उपरोक्त पाँचों द्रव्यों में से व्यवहार नय की अपेक्षा जीव के शरीर, वचन, मन, श्वास, नि:श्वास आदि कार्य तो पुद्गल द्रव्य करता है। और गति, स्थिति, अवगाहन और वर्तनारूप कार्य क्रम से धर्म, अधर्म, आकाश और काल करते हैं। इसलिए पुद्गलादि पाँच द्रव्य कारण हैं। जीव द्रव्य यद्यपि गुरु शिष्य आदि रूप से आपस में एक दूसरे का उपकार करता है, फिर भी पुद्गल आदि पाँचों द्रव्यों के लिए जीव कुछ भी नहीं करता, इसलिए वह अकारण है। (पं.का./ता.वृ./२७/५७/१२)।
- द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूप निमित्त
क.पा.१/२४५/२८९/३ पागभावो कारणं। पागभावस्स विणासो वि दव्व-खेत्त-काल-भवावेक्खाए जायदे। तदो ण सव्वद्धं दव्वकम्माहं सगफलं कुणंति त्ति सिद्धं।=प्रागभाव का विनाश हुए बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और प्रागभाव का विनाश द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव की अपेक्षा लेकर होता है। इसलिए द्रव्य कर्म सर्वदा अपने कार्य को उत्पन्न नहीं करते हैं, यह सिद्ध होता है।
( देखें - बन्ध / ३ ) कर्मों का बन्ध भी द्रव्य क्षेत्र काल व भव की अपेक्षा लेकर होता है।
( देखें - उदय / २ / ३ ) कर्मों का उदय भी द्रव्य क्षेत्र काल व भव की अपेक्षा लेकर होता है।
- निमित्त की प्रेरणा से कार्य होना
स.सि./५/१९/२८६/९ तत्सामर्थ्योपेतेन क्रियावतात्मना प्रेर्यमाणा: पुद्गला वाक्त्वेन विपरिणमन्त इति।=इस प्रकार की (भाव वचन की) सामर्थ्य से युक्त क्रियावाले आत्मा के द्वारा प्रेरित होकर पुद्गल वचनरूप से परिणमन करते हैं। (गो.जी./जी.प्र./६०६/१०६२/३)।
पं.का./ता.वृ./१/६/१५ वीतरागसर्वज्ञदिव्यध्वनिशास्त्रे प्रवृत्ते किं कारणं। भव्यपुण्यप्रेरणात् । =प्रश्न–वीतराग सर्वज्ञ देव की दिव्य ध्वनि में प्रवृत्ति किस कारण से होती है ? उत्तर–भव्य जीवों के पुण्य की प्रेरणा से।
- निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध
स.सा./मू./३१२-३१३ चेया उ पयडीअट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ। पयडी वि चेययट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ।३१२। एवं बंधो उ दुण्हं वि अण्णोण्णपच्चया हवे। अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे।३१३।=आत्मा प्रकृति के निमित्त से उत्पन्न होता है और नष्ट होता है तथा प्रकृति भी आत्मा के निमित्त से उत्पन्न होती है तथा नष्ट होती है। इस प्रकार परस्पर निमित्त से दोनों ही आत्मा का और प्रकृति का बन्ध होता है, और इससे संसार होता है।
ध./२/१, १/४१२/११ तथोच्छवासनि:श्वासप्राणपर्याप्तयो:। कार्यकारणयोरात्मपुद्गलोपादानयोर्भेदोऽभिघातव्य इति।=उच्छ्वासनि:श्वास: प्राण कार्य है और आत्मा उपादान कारण है तथा उच्छ्वासनि:श्वासपर्याप्ति कारण है और पुद्गलोपादाननिमित्तक है।
स.सा./आ./२८६-२८७ यथाध:कर्मनिष्पन्नमुद्देशनिष्पन्न च पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतमप्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बन्धसाधकं भावं न प्रत्याचष्टे, तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भावं न प्रत्याचष्टे...इति तत्त्वज्ञानपूर्वकं पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतं प्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बन्धसाधकं भावं प्रत्याचष्टे।...एवं द्रव्यभावयोरस्ति निमित्तनैमित्तिकभाव:। =जैसे अध: कार्य से उत्पन्न और उद्देश्य से उत्पन्न हुए निमित्तभूत (आहारादि) पुद्गल द्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा नैमित्तिकभूत बन्ध साधक भाव का प्रत्याख्यान नहीं करता, इसी प्रकार समस्त परद्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उसके निमित्त से होने वाले भाव को (भी) नहीं त्यागता।... इस प्रकार तत्त्वज्ञानपूर्वक निमित्तभूत पुद्गलद्रव्य का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा, जैसे नैमित्तिकभूत बन्धसाधक भाव का प्रत्याख्यान करता है, उसी प्रकार समस्त परद्रव्यों का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा उसके निमित्त से होनेवाले भाव का प्रत्याख्यान करता है। इस प्रकार द्रव्य और भाव को निमित्तनैमित्तिकपना है।
स.सा./आ./३१२-३१३ एवमनयोरात्मप्रकृतयो: कर्तृकर्मभावाभावेऽप्यन्योन्यनिमित्तनैमित्तिकभावेन द्वयोरपि बन्धो दृष्ट:, तत: संसार:, तत एव च कर्तृकर्मव्यवहार:। =यद्यपि उन आत्मा और प्रकृति के कर्ताकर्मभाव का अभाव है तथापि परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव से दोनों के बन्ध देखा जाता है। इससे संसार है और यह ही उनके कर्ताकर्म का व्यवहार है। (पं.ध./उ./१०७१)
स.सा./आ./३४९-३५० यतो खलु शिल्पी सुवर्णकारादि: कुण्डलादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति ...न त्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्त्रभोग्यत्वव्यवहार:। =जैसे शिल्पी (स्वर्णकार आदि) कुण्डल आदि जो परद्रव्य परिणामात्मक कर्म करता है, किन्तु अनेक द्रव्यत्व के कारण उनसे अन्य होने से तन्मय नहीं होता; इसलिए निमित्तनैमित्तिक भावमात्र से ही वहाँ कर्तृकर्मत्व का और भोक्ताभोक्तृत्व का व्यवहार है।
- <a name="III.1.5" id="III.1.5">अन्य सामान्य उदाहरण
स.सि./३/२७/२२३/२ किंहेतुकौ पुनरसौ। कालहेतुकौ।=ये वृद्धि ह्रास काल के निमित्त से होते हैं। (रा.वा./३/२७/१९१/२६)
ज्ञा./२४/२० शाम्यन्ति जन्तव: क्रूरा बद्धवैरा परस्परम् । अपि स्वार्थे प्रवृत्तस्य मुने: साम्यप्रभावत:।२०।=इस साम्यभाव के प्रभाव से अपने स्वार्थ में प्रवृत्त मुनि के निकट परस्पर वैर करने वाले क्रूर जीव भी साम्यभाव को प्राप्त हो जाते हैं।
- षट्द्रव्यों का परस्पर उपकार्य उपकारक भाव
- <a name="III.2" id="III.2">निमित्त की कथंचित् गौणता
- सभी कार्य निमित्त का अनुसरण नहीं करते
ध.६/१ ९-६,१९/१६४/७ कुदो। पयडिविसेसादो। ण च सव्वाइं कज्जाइं एयंतेण बज्झत्थमवेक्खिय चे उप्पज्जंति, सालिबीजादो जवंकुरस्स वि उप्पत्तिप्पसंगा। ण च तारिसाइ्ं दव्वाइं तिसु वि कालेसु कहिं पि अत्थि, जेसिं बलेण सालिबीजस्स जवंकुरप्पायणसत्ती होज्ज, अणवत्थापसंगादो।=प्रश्न—(इन सर्व कर्मप्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध इतना इतना क्यों है। जीव परिणामों के निमित्त से इससे अधिक क्यों नहीं हो सकता) ? उत्तर–क्योंकि प्रकृति विशेष होने से सूत्रोक्त प्रकृतियों का यह स्थिति बन्ध होता है। सभी कार्य एकान्त से बाह्य अर्थ की अपेक्षा करके ही नहीं उत्पन्न होते हैं, अन्यथा शालिधान्य के बीज से जौ के भी अंकुर की उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु उस प्रकार के द्रव्य तीनों ही कालों में किसी भी क्षेत्र में नहीं हैं कि जिनके बल से शालिधान्य के बीज के जौ के अंकुर को उत्पन्न करने की शक्ति हो सके। यदि ऐसा होने लगेगा तो अनवस्था दोष प्राप्त होगा।
- <a name="III.2.2" id="III.2.2">धर्मादि द्रव्य उपकारक हैं प्रेरक नहीं
पं.का./मू./८८-८९ ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स। हवदिगदिस्स प्पसरो जीवाणं पुग्गलाणं च।८८। विज्जदि जसि गमणं ठाणं पुण तेसिमेव संभवदि। ते सगपरिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति।८९।=धर्मास्तिकाय गमन नहीं करता और अन्य द्रव्य को गमन नहीं कराता। वह जीवों तथा पुद्गलों को गति का उदासीन प्रसारक (गति प्रसार में उदासीन निमित्त) है।८८। जिनको गति होती है उन्हीं को स्थिति होती है। वे तो अपने-अपने परिणामों से गति और स्थिति करते हैं। (इसलिए धर्म व अधर्म द्रव्य जीव पुद्गल की गति व स्थिति में मुख्य हेतु नहीं (त.प्र.टी.)।
रा.वा./५/७/४-६/४४६ निष्क्रियत्वात् गतिस्थिति-अवगाहनक्रियाहेतुत्वाभाव इति चेत्; न; बलाधानमात्रत्वादिन्द्रियवत् ।४।...यथा दिदृक्षोश्चक्षुरिन्द्रियं रूपोपलब्धौ बलाधानमात्रमिष्टं न तु चक्षुष: तत्सामर्थ्यम् इन्द्रियान्तरोपयुक्तस्य तद्भावात् ।...तथा स्वयमेव गतिस्थित्यवगाहनपर्यायपरिणामिनां जीवपुद्गलानां धर्माधर्माकाशद्रव्याणि गत्यादिनिवृत्तौ बलाधानमात्रत्वेन विवक्षितानि न तु स्वयं क्रियापरिणामीनि। कुत: पुनरेतदेवमिति चेत् । उच्यतेद्रव्यसामर्थ्यात् ।५। यथा आकाशमगच्छत् सर्वद्रव्यै: संबद्धम्, न चास्य सामर्थ्यमन्यस्यास्ति। तथा च निष्क्रियत्वेऽप्येषां गत्यादिक्रियानिवृत्तिं प्रतिबलाधानमात्रत्वमसाधारणमवसेयम् ।
रा.वा./५/१७/१६/४६२/५ तयो: कर्तृत्वप्रसंग इति चेत्, न; उपकारवचनाद् यष्ट्यादिवत् ।१६।... जीवपुद्गलानां स्वशक्त्यैव गच्छतां तिष्ठतां च धर्माधर्मौ उपकारकौ न प्रेरकौ इत्युक्तं भवति।... ततश्च मन्यामहे न प्रधानकर्तांरौ इति।१७।=प्रश्न–क्रियावाले ही जलादि पदार्थ मछली आदि की गति और स्थिति में निमित्त देखे गये हैं, अत: निष्क्रिय धर्माधर्मादि गति स्थिति में निमित्त कैसे हो सकते हैं? उत्तर–जैसे देखने की इच्छा करने वाले आत्मा को चक्षु इन्द्रिय बलाधायक हो जाती है, इन्द्रियान्तर में उपयुक्त आत्मा को वह स्वयं प्रेरणा नहीं करती। उसी प्रकार स्वयं गति स्थिति और अवगाहन रूप से परिणमन करने वाले द्रव्यों की गति आदि में धर्मादि द्रव्य निमित्त हो जाते हैं, स्वयं क्रिया नहीं करते। जैसे आकाश अपनी द्रव्य सामर्थ्य से गमन न करने पर भी सभी द्रव्यों से सम्बद्ध है और सर्वगत कहलाता है, उसी तरह धर्मादि द्रव्यों की भी गति आदि में निमित्तता समझनी चाहिए। जैसे यष्टि चलते हुए अन्धे की उपकारक है उसे प्रेरणा नहीं करती उसी प्रकार धर्मादिकों को भी उपकारक कहने से उनमें प्रेरक कर्तृत्व नहीं आ सकता। इससे जाना जाता है कि ये दोनों प्रधान कर्ता नहीं हैं। (रा.वा./५/१७/२४/४६३/३१)।
गो.जी./मू./५७०/१०१५ य ण परिणमदि समं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णेहिं। विविहपरिणामियाणं हवदि हु कालो सयं हेतु।५७०।=काल न तो स्वयं अन्य द्रव्यरूप परिणमन करता है और न अन्य को अपने रूप या किसी अन्य रूप परिणमन कराता है। नाना प्रकार के परिणामों युक्त ये द्रव्य स्वयं परिणमन कर रहे हैं, उनको काल द्रव्य स्वयं हेतु या निमित्त मात्र है।
पं.का./ता.वृ./२४/५०/११ सर्वद्रव्याणां निश्चयेन स्वयमेव परिणामं गच्छन्तां शीतकाले स्वयमेवाध्ययनक्रियां कुर्वाणस्य पुरुषस्याग्निसहकारिवत् स्वयमेव भ्रमणक्रियां कुर्वाणस्य कुम्भकारचक्रस्याधस्तनशिलासहकारिवद्बहिरङ्गनिमित्तत्वाद्वर्तनालक्षणश्च कालाणुरूपो निश्चयकालो भवति।=सर्व द्रव्यों को जो कि निश्चय से स्वयं ही परिणमन करते हैं; उनके बहिरंग निमित्त रूप होने से वर्तना लक्षणवाला यह कालाणु निश्चयकाल होता है। जिस प्रकार शीतकाल में स्वयमेव अध्ययन क्रिया परिणत पुरुष के अग्नि सहकारी होती है, अथवा स्वयमेव भम्रणक्रिया करने वाले कुम्भार के चक्र को उसकी अधस्तन शिला सहकारी होती है, उसी प्रकार यह निश्चय कालद्रव्य भी, स्वयमेव परिणमने वाले द्रव्यों को बाह्य सहकारी निमित्त है। (पं.का./ता.वृ./८५/१४२/१५)।
- अन्य भी उदासीन कारण धर्मद्रव्यवत् ही जानने
इ.उ./मू./३५ नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति। निमित्तमात्रमन्यस्तु गतेर्धर्मास्तिकायवत् ।=जो पुरुष अज्ञानी या तत्त्वज्ञान के अयोग्य है वह गुरु आदि पर के निमित्त से विशेष ज्ञानी नहीं हो सकता। और जो विशेष ज्ञानी है, तत्त्वज्ञान की योग्यता से सम्पन्न है वह अज्ञानी नहीं हो सकता। अत: जिस प्रकार धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलों के गमन में उदासीन निमित्तकारण है, उसी प्रकार अन्य मनुष्य के ज्ञानी करने में गुरु आदि निमित्त कारण हैं।
पं.का./ता.वृ./८५/१४२/१५ धर्मस्य गतिहेतुत्वे लोकप्रसिद्धदृष्टान्तमाह–उदकं यथा मत्स्यानां गमनानुग्रहकरं ...भव्यानां सिद्धगते: पुण्यवत्...अथवा चतुर्गतिगमनकाले द्रव्यलिङ्गादिदानपूजादिकं वा बहिरङ्गसहकारिकारणं भवति।८५।=धर्म द्रव्य के गति हेतुत्वपने में लोकप्रसिद्ध दृष्टान्त कहते हैं–जैसे जल मछलियों के गमन में सहकारी है (और भी देखें - धर्माधर्म / २ ), अथवा जैसे भव्यों को सिद्ध गति में पुण्य सहकारी है; अथवा जैसे सर्व साधारण जीवों को चतुर्गति गमन में द्रव्य लिंग व दान पूजादि बहिरंग सहकारी कारण हैं; (अथवा जैसे शीतकाल में स्वयं अध्ययन करने वाले को अग्नि सहकारी है, अथवा जैसे भ्रमण करने वाले कुम्भार के चक्र को उसकी अधस्तन शिला उदासीन कारण है (पं.का./ता.वृ./५०/११-देखें - पीछेवाला शीर्षक )–उसी प्रकार जीव पुद्गल की गति में धर्म द्रव्य सहकारी कारण है।
द्र.सं./टी./१८/५६/९ सिद्धभक्तिरूपेणेह पूर्वं सविकल्पावस्थायां सिद्धोऽपि यथा भव्यानां बहिरंगसहकारिकारणं भवति तथैव...अधर्मद्रव्यं स्थिते: सहकारिकारणं।=सिद्ध भक्ति के रूप के पहिले सविकल्पावस्था में सिद्ध भगवान् भी जैसे भव्य जीवों के लिए बहिरंग सहकारी कारण होते हैं, तैसे ही अधर्म द्रव्य जीवपुद्गलों को ठहरने में सहकारी कारण होता है।
- बिना उपादान के निमित्त कुछ न करे
ध.१/१,१,१६३/४०३/१२ मानुषोत्तरात्परतो देवस्य प्रयोगतोऽपि मनुष्याणां गमनाभावात् । न हि स्वतोऽसमर्थोऽन्यत: समर्थो भवत्यतिप्रसंगात्।=मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ देवों की प्रेरणा से भी मनुष्यों का गमन नहीं हो सकता। ऐसा न्याय भी है जो स्वत: असमर्थ होता है वह दूसरों के सम्बन्ध से भी समर्थ नहीं हो सकता।
बो.पा./६०/पृ॰१५३/१४ पं॰ जयचन्द–अपना भला बुरा अपने भावनि के अधीन है। उपादान कारण होय तो निमित्त भी सहकारी होय। अर उपादान न होय तौ निमित्त कछू न करै है। (भा.पा./२/पं.जयचन्द/पृ. १५९/२) (और भी देखें - कारण / II / १ / ७ )।
- <a name="III.2.5" id="III.2.5">सहकारी कारण को कारण कहना उपचार है
रा.वा./हिं/९/२७/७२९ में श्लो.वा. से उद्धृत—अन्य के नेत्रनि को ज्ञान का कारण सहकारी मात्र उपचारकरि कहा है। परमार्थ तै ज्ञान का कारण आत्मा ही है। देखें - कारण / II / १ / ७ में श्लो॰ वा॰।
- सहकारी कारण कार्य के प्रति प्रधान नहीं है
रा.वा./१/२/१४/२०/१८ आभ्यन्तर आत्मीय: सम्यग्दर्शनपरिणाम: प्रधानम्, सति तस्मिन् बाह्यस्योपग्राहकत्वात् । अतो बाह्य आभ्यन्तरस्योपग्राहक: पारार्थ्येन वर्तत इत्यप्रधानम् ।=सम्यग्दर्शनपरिणाम रूप आभ्यन्तर आत्मीय भाव ही तहाँ प्रधान है कर्म प्रकृति नहीं। क्योंकि उस सम्यग्दर्शन के होने पर वह तो उपग्राहक मात्र है। इसलिए बाह्य कारण आभ्यन्तर का उपग्राहक होता है और परपदार्थ रूप से वर्तन करता है, इसलिए अप्रधान होता है।
- <a name="III.2.7" id="III.2.7">सहकारी को कारण मानना सदोष है—
स.सा./आ.२६५ न च बन्धहेतुहेतुत्वे सत्यपि बाह्यं वस्तु बन्धहेतु: स्यात् ईर्यासमितिपरिणतपदव्यापाद्यमानवेगापतत्कालचोदितकुलिङ्गवत् बाह्यवस्तुनो बन्धहेतुहेतोरबन्धहेतुत्वेन बन्धहेतुत्वस्यानैकान्तिकत्वात् ।=यद्यपि बाह्य वस्तु बन्ध के कारण का (अर्थात् अध्यवसान का) कारण है, तथापि वह बन्ध का कारण नहीं है। क्योंकि ईर्यासमिति में परिणमित मुनीन्द्र के चरण से मर जाने वाले किसी कालप्रेरित जीव की भाँति बाह्य वस्तु को बन्ध का कारणत्व मानने में अनैकान्तिक हेत्वाभासत्व है। अर्थात् व्यभिचार आता है। (श्लो.वा./२/१/६/२९/३७३/११)
पं.ध./उ.८०१ अत्राभिप्रेतमेवैतत्स्वस्थितिकरणं स्वत:। न्यायात्कुतश्चिदत्रापि हेतुस्तत्रानवस्थिति: ।८०१।=इस स्वस्थितिकरण के विषय में इतना ही अभिप्राय है कि स्थितिकरण स्वयमेव ही होता है। यदि इसका भी न्यायानुसार कोई न कोई कारण मानेंगे तो अनवस्था दोष आता है।८०१।
- सहकारी कारण अहेतुवत् होता है
पं.ध./उ./३५१,६७९ मतिज्ञानादिवेलायामात्मोपादानकारणम् । देहेन्द्रियास्तदर्थाश्च बाह्यं हेतुरहेतुवत् ।३५१। अस्त्युपादानहेतोश्च तत्क्षतिर्वा तदक्षति:। तदापि न बहिर्वस्तु स्यात्तद्धेतुरहेतुत:।६७९।=मति ज्ञानादि के उत्पन्न होने के समय आत्मा उपादान कारण है और देह, इन्द्रिय, तथा उन इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थ केवल बाह्य हेतु हैं, अत: वे अहेतु के बराबर हैं।३५१। केवल अपने उपादान हेतु से ही चारित्र की क्षति अथवा चारित्र की अक्षति होती है। उस समय भी बाह्य वस्तु उस क्षति अक्षति का कारण नहीं है। और इसलिए दीक्षादेशादि देने अथवा न देनेरूप बाह्य वस्तु चारित्र की क्षति अक्षति के लिए अहेतु है।६७९।
- सहकारी कारण तो निमित्त मात्र होता है
स.सि./१/२०/१२१/३ (श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में मतिज्ञान निमित्तमात्र है।) (रा.वा./१/२०/४/७१/१)
रा.वा./१/२/११/२०/८ (बाह्य साधन उपकरणमात्र है)
रा.वा./५/७/४/४४६/१८(जीव पुद्गल की गति स्थिति आदि कराने में धर्म अधर्म आदि निष्क्रिय द्रव्य इन्द्रियवत् बलाधानमात्र है।)
न.च.वृ./१३० में उद्धृत–(सराग व वीतराग परिणामों की उत्पत्ति में बाह्य वस्तु निमित्तमात्र है।)
स.सा./आ./८० (जीव व पुद्गल कर्म एक दूसरे के परिणामों में निमित्तमात्र होते हैं।) (स.सा./आ./९१) (प्र.सा./त.प्र./१८६) (पु.सि.उ./१२) (स.सा./ता.वृ./१२५)।
पं.का./त.प्र./६७ (जीव के सुख-दुःख में इष्टानिष्ट विषय निमित्तमात्र है।)
का.अ./मू./२१७ (प्रत्येक द्रव्य के निज-निज परिणाम में बाह्य द्रव्य निमित्तमात्र है)
पं.ध./पू./५७६ (सर्व द्रव्य अपने भावों के कर्ता भोक्ता है, पर भावों के कर्ताभोक्तापना निमित्तमात्र है।)
- निमित्त परमार्थ में अकिंचित्कर व हेय है
रा.वा./१/२/१३/२०/१५ (क्षायिक सम्यक्त्व अन्तर परिणामों से ही होता है, कर्म पुद्गल रूप बाह्य वस्तु हेय है।)
स.सा./ता.वृ./११९ (पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्मभावरूप परिणमित होता है। तहाँ निमित्तभूत जीव द्रव्य हेयतत्त्व है।)
प्र.सा./ता.वृ./१४३ (जीव की सिद्ध गति उपादान कारण से ही होती है। तहाँ काल द्रव्य रूप निमित्त हेय है) (द्र.सं./टी./२२/६७/४)
- भिन्न कारण वास्तव में कोर्इ कारण नहीं
श्लो.वा./२/१/६/४०/३९४ चक्षुरादिप्रमाणं चेदचेतनमपीष्यते। न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचित: सदा।४०। वैशेषिक व नैयायिक लोग इन्द्रियों को प्रमिति का कारण मानकर उन्हें प्रमाण कहते हैं। परन्तु जड़ होने के कारण वे ज्ञप्ति के लिए साधकतम करण कभी नहीं हो सकते।
स.सा./आ./२९४ आत्मबन्धयोर्द्विधाकरणे कार्ये कर्तृरात्मन: करणमीमांसायां निश्चयत: स्वतो भिन्नकरणासभवाद् भगवती प्रज्ञैव छेदनात्मकं करणम् ।=आत्मा और बन्ध के द्विधा करने रूप कार्य में कर्ता जो आत्मा उसके कारण सम्बन्धी मीमांसा करने पर, निश्चय से अपने से भिन्न करण का अभाव होने से भगवती प्रज्ञा ही छेदनात्मक करण है।
स.सा./आ./३०८-३११ सर्वद्रव्याणां द्रव्यान्तरेण सहोत्पादकभावाभावात् ।=सर्व द्रव्यों का अन्य द्रव्य के साथ उत्पाद्य उत्पादक भाव का अभाव है।
प.मु./२/६-८ नार्थालोकौ कारण परिच्छेद्यत्वात्तमोवत्।६। तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच्च केशोऽण्डुक ज्ञानवन्नक्तंचरज्ञानवच्च।७। अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपवत् ।८।=अन्वयव्यतिरेक से कार्यकारणभाव जाना जाता है। इस व्यवस्था के अनुसार ‘प्रकाश’ ज्ञान में कारण नहीं है, क्योंकि उसके अभाव में भी रात्रि को विचरने वाले बिल्ली चूहे आदि को ज्ञान पैदा होता है और उसके सद्भाव में भी उल्लू वगैरह को ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। इसी प्रकार अर्थ भी ज्ञान के प्रति कारण नहीं हो सकता, क्योंकि अर्थ के अभाव में भी केशमशकादि ज्ञान उत्पन्न होता है। दीपक जिस प्रकार घटादिकों से उत्पन्न न होकर भी उन्हें प्रकाशित करता है इसी प्रकार ज्ञान भी अर्थ से उत्पन्न न होकर उन्हें प्रकाशित करता है। (न्या.दी./२/४-५/२६)
- द्रव्य के परिणमन को सर्वथा निमित्ताधीन मानना मिथ्या है
स.सा./मू./१२१-१२३ ण सयं बद्धो कम्मे ण परिणमदि कोहमादीहिं। जइ एस तुज्झ जीवो अपरिणामी तदा होदी।१२१। अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहि भावेहिं। संसाररस अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।१२२। सांख्यमतानुसारी शिष्य के प्रति आचार्य कहते हैं कि हे भाई ! ‘यह जीव कर्म में स्वयं नहीं बँधा है और क्रोधादि भाव से स्वयं नहीं परिणमता है’ यदि तेरा यह मत है तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है और जीव स्वयं क्रोधादि भावरूप नहीं परिणमता होने से संसार का अभाव सिद्ध होता है। अथवा सांख्य मत का प्रसंग आता है।१२१-१२२। और पुद्गल कर्मरूप जो क्रोध है वह जीव को क्रोधरूप परिणमन कराता है ऐसा तू माने तो यह प्रश्न होता है कि स्वयं न परिणमते हुए को वह कैसे परिणमन करा सकता है।१२३।
स.सा./आ./३३२-३३४ एवमीदृशं सांख्यसमयं स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमबुध्यमाना: केचिच्छ्रमणाभासा: प्ररूपयन्ति;तेषां प्रकृतेरेकान्तेन कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकान्तेनाकर्तृत्वापत्ते: जीव: कर्तेति श्रुते: कोपो दु:शक्य: परिहर्तुम् ।=इस प्रकार ऐसे सांख्यमत को अपनी प्रज्ञा के अपराध से सूत्र के अर्थ को न जानने वाले कुछ श्रमणाभास प्ररूपित करते हैं; उनकी एकान्त प्रकृति के कर्तृत्व की मान्यता से समस्त जीवों के एकान्त से अकर्तृत्व आ जाता है। इसलिए ‘जीव कर्ता है’ ऐसी जो श्रुति है उसका कोप दूर करना अशक्य हो जाता है।
स.सा./आ./३७२/क.२२१ रागजन्मनि निमित्ततां पर-द्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते। उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं, शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धय:।२२१।=जो राग की उत्पत्ति में परद्रव्य का ही निमित्तत्व मानते हैं, वे जिनकी बुद्धि शुद्धज्ञान से रहित अन्ध है मोहनदी को पार नहीं कर सकते।२२१।
पं.ध./पू./५६६-५७१ अथ सन्ति नयाभासा यथोपचाराख्यहेतुदृष्टान्ता:।५६६। अपि भवति बन्ध्यबन्धकभावो यदि वानयोर्न शङ्क्यमिति। तदनेकत्वे नियमात्तद्बन्धस्य स्वतोऽप्यसिद्धत्वात् ।५७०। अथ चेदवश्यमेतन्निमित्तनैमित्तिकत्वमस्ति मिथ:। न यत: स्वयं स्वतो वा परिणममानस्य किं निमित्ततया।५७१।=(जीव व शरीर में परस्पर बन्ध्यबन्धक या निमित्त नैमित्तिक भाव मानकर शरीर को व्यवहारनय से जीव का कहना नयाभास अर्थात् मिथ्या नय है, क्योंकि अनेक द्रव्य होने से उनमें वास्तव में बन्ध्य बन्धक भाव नहीं हो सकता। निमित्त नैमित्तिक भाव भी असिद्ध है क्योंकि स्वयं परिणमन करने वाले को निमित्त से क्या प्रयोजन)
- सभी कार्य निमित्त का अनुसरण नहीं करते
- कर्म व जीवगत कारण कार्य भाव की गौणता
- जीव के भाव को निमित्तमात्र करके पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमते हैं
पं.का./मू./६५ अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावेहिं। गच्छंति कम्मभावं अण्णोण्णागाहमवगाढा।६५।=आत्मा अपने रागादि भाव को करता है। वहाँ रहने वाले पुद्गल अपने भावों से जीव में अन्योन्य अवगाहरूप से प्रविष्ट हुए कर्मभाव को प्राप्त होते हैं। (प्र.सा./त.प्र./१८६)
स.सा./मू./८०-८१ जीवपरिणामहेदुं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तदेव जीवो वि परिणमइ।८०। णवि कुव्वइ कम्मगुणो जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे। अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणामं जाण दोह्णं पि।८१।=पुद्गल जीव के परिणाम के निमित्त से कर्मरूप में परिणमित होते हैं और जीव भी पुद्गलकर्म के निमित्त से परिणमन करता है।८०। जीव कर्म के गुणों को नहीं करता। उसी तरह कर्म भी जीव के गुणों को नहीं करता। परन्तु परस्पर निमित्त से दोनों के परिणमन जानो।८१। (स.सा./मू./९१,११९) (स.सा./आ./१०५,११९) (पु.सि.उ./१२)
प्र.सा./त.प्र./१८७ यदायमात्मा रागद्वेषवशीकृत: शुभाशुभभावेन परिणमति तदा अन्ये योगद्वारेण प्रविशन्त: कर्मपुद्गला: स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यैर्ज्ञानावरणादिभावै: परिणमन्ते। अत: स्वभावकृतं कर्मणां वैचित्र्यं न पुनरात्मकृतम् ।=(मेघ जल के संयोग से स्वत: उत्पन्न हरियाली व इन्द्रगोप आदिवत्) जब यह आत्मा रागद्वेष के वशीभूत होता हुआ शुभाशुभ भावरूप परिणमित होता है तब अन्य, योगद्वारों से प्रविष्ट होते हुए कर्मपुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त ज्ञानावरणादि भावरूप परिणमित होते हैं। इससे कर्मों की विचित्रता का होना स्वभावकृत है किन्तु आत्मकृत नहीं।
प्र.सा./त.प्र./१६९ जीवपरिणाममात्रं बहिरङ्गसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मत्वपरिणमनशक्तियोगिन: पुद्गलस्कन्धा: स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति।=बहिरंगसाधनरूप से जीव के परिणामों का आश्रय लेकर, जीव उसको परिणमाने वाला न होने पर भी, कर्मरूप परिणमित होने की शक्तिवाले पुद्गलस्कन्ध स्वयमेव कर्मभाव से परिणमित होते हैं। (पं.का./त.प्र./६५-६६), (स.सा./आ./९१)
पं.ध./उ./२९७ सति तत्रोदये सिद्धा: स्वतो नोकर्मवर्गणा:। मनो देहेन्द्रियाकारं जायते तन्निमित्तत:।२९७।=उस पर्याप्ति नामकर्म का उदय होने पर स्वयंसिद्ध आहारादि नोकर्मवर्गणाएँ उसके निमित्त से मन देह और इन्द्रियों के आकार रूप हो जाती हैं।
- ११ वें गुणस्थान में अनुभागोदय में हानिवृद्धि रहते हुए भी जीव के परिणाम अवस्थित रहते हैं
ल.सा./जी.प्र./३०७/३८९ अत: कारणादवस्थितविशुद्धिपरिणामेऽप्युपशान्तकषाये एतच्चतुस्त्रिंशत्प्रकृतीनां अनुभागोदयस्त्रिस्थानसंभवी भवति, कदाचिद्धीयते, कदाचिद्वर्धते, कदाचिद्धानिवृद्धिभ्यां विना एकादृश एवावतिष्ठते।= (यद्यपि तहाँ परिणामों की अवस्थिति के कारण शरीर वर्ण आदि २५ प्रकृतियें भी अवस्थित रहती हैं परन्तु) अब शेष ज्ञानावरणादि ३४ प्रकृतियें भवप्रत्यय हैं। उपशान्तकषायगुणस्थान के अवस्थित परिणामों की अपेक्षा रहित पर्याय का ही आश्रय करके इनका अनुभाग उदय इहाँ तीन अवस्था लिए है। कदाचित् हानिरूप हो है, कदाचित् वृद्धिरूप हो है, कदाचित् अवस्थित जैसा का तैसा रहे है।
- <a name="III.3.3" id="III.3.3">जीव व कर्म में बध्यघातक विरोध नहीं है
यो.सा./अ./९/४९ न कर्म हन्ति जीवस्य न जीव: कर्मणो गुणान् । बध्यघातकभावोऽस्ति नान्योन्यं जीवकर्मणो:।=न तो कर्म जीव के गुणों का घात करता है और न जीव कर्म के गुणों का घात करता है। इसलिए जीव और कर्म का आपस में बध्यघातक सम्बन्ध नहीं है।
- जीव व कर्म में कारणकार्य मानना उपचार है
ध.६/१/९,१-८/११/५ मुह्यत इति मोहनीयम् । एवं संते जीवस्स मोहणीयत्तं पसज्जदि त्ति णासंकणिज्जं, जीवादो अभिणम्हि पोग्गलदव्वे कम्मसण्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तथा उत्तीदो।=जो मोहित होता है वह मोहनीय कर्म है। प्रश्न–इस प्रकार की व्युत्पत्ति करने पर जीव के मोहनीयत्व प्राप्त होता है ? उत्तर–ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए;क्योंकि, जीव से अभिन्न और कर्म ऐसी संज्ञावाले पुद्गलकर्म में उपचार से कर्मत्व का आरोपण करके उस प्रकार की व्युत्पत्ति की गयी है।
प्र.सा./त.प्र./१२१-१२२ तथात्मा चात्मपरिणामकर्तृत्वाद्द्रव्यकर्मकर्ताप्युपचारात् ।१२१। परमार्थादात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण एव कर्ता, न तु पुद्गलपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण:।... परमार्थात् पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण एव कर्ता, न त्वात्मात्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण:।१२२।=आत्मा भी अपने परिणाम का कर्ता होने से द्रव्यकर्म का कर्ता भी उपचार से है।१२१। परमार्थत: आत्मा अपने परिणामस्वरूप भावकर्म का ही कर्ता है किन्तु पुद्गल परिणामस्वरूप द्रव्यकर्म का नहीं।... (इसी प्रकार) परमार्थत: पुद्गल अपने परिणामस्वरूप उस द्रव्यकर्म का ही कर्ता है किन्तु आत्मा के परिणामस्वरूप भावकर्म का कर्ता नहीं है।१२२। (स.सा./मू./१०५)
- <a name="III.3.5" id="III.3.5">ज्ञानियों का कर्म अकिंचित्कर है
स.सा./मू./१६९ पुढवीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दु पच्चया तस्स। कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वे वि णाणिस्स।१६९। =उस ज्ञानी के पूर्वबद्ध समस्त प्रत्यय मिट्टी के ढेले के समान हैं और वे कार्मण शरीर के साथ बँधे हुए हैं। (विशेष देखें - विभाव / ४ / २ )
आ.अनु/१६२-१६३ निर्धनत्वं धनं येषां मृत्युरेव हि जीवितम् । किं करोति विधिस्तेषां सतां ज्ञानैकचक्षुषाम् ।१६२। जीविताशा धनाशा च तेषां येषां विधिर्विधि:। किं करोति विधिस्तेषां येषामाशा निराशता।१६३।=निर्धनत्व ही जिनका धन है और मृत्यु ही जिनका जीवन है (अर्थात् इनमें साम्यभाव रखते हैं) ऐसे साधुओं को एक मात्र ज्ञानचक्षु खुल जाने पर यह दैव या कर्म क्या कर सकता है।१६२। जिनको जीने की या धन की आशा है उनके लिए ही ‘दैव’ दैव है, पर निराशा ही जिनकी आशा है ऐसे वीतरागियों को यह दैव या कर्म क्या कर सकता है।१६३।
- <a name="III.3.6" id="III.3.6">मोक्षमार्ग में आत्मपरिणामों की विवक्षा प्रधान है कर्मों की नहीं
रा.वा./१/२/१०-१/२०/३ औपशमिकादिसम्यग्दर्शनमात्मपरिणामत्वात् मोक्षकारणत्वेन विवक्ष्यते न च सम्यक्त्वकर्मपर्याय: पौद्गलिकत्वेऽस्य परपर्यायत्वात् ।१०।...स्यादेतत्...सम्यग्दर्शनोत्पाद आत्मनिमित्त: सम्यक्त्वपुद्गलनिमित्तश्च, तस्मात्तस्यापि मोक्षकारणत्वमुपपद्यते इति; तन्न, किं कारणम् । उपकरणमात्रत्वात् ।=औपशमिकादिसम्यग्दर्शन सीधे आत्मपरिणामस्वरूप होने से मोक्ष के कारण रूप से विवक्षित होते हैं, सम्यक्त्व नाम कर्म की पर्याय नहीं क्योंकि परद्रव्य की पर्याय होने के कारण वह तो पौद्गलिक है। प्रश्न–सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति जिस प्रकार आत्मपरिणाम से होती है, उसी प्रकार सम्यक्त्वनामा कर्म के निमित्त से भी होती है, अत: उसको भी मोक्षकारणपना प्राप्त होता है। उत्तर–नहीं, क्योंकि वह तो उपकरणमात्र है।
- कर्मों की उपशम क्षय व उदय आदि अवस्थाएँ भी कथंचित् अयत्न साध्य हैं
स.सि./२/३/१५२/१० अनादिमिथ्यादृष्टेर्भव्यस्य कर्मोदयापादितकालुष्ये सति कुतस्तदुपशम:। काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात् । तत्र काललब्धिस्तावत् ...। ‘आदि’ शब्देन जातिस्मरणादि: परिगृह्यते। =प्रश्न–अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के कर्मों के उदय से प्राप्त कलुषता के रहते हुए इनका उपशम कैसे होता है ? उत्तर–काललब्धि आदि के निमित्त से इनका उपशम होता है। अब यहाँ काललब्धि को बताते हैं (देखें - नियति / २)। आदि शब्द से जातिस्मरण आदि का ग्रहण करना चाहिए ( देखें - सम्यग्दर्शन / III / २ )।
स.सि./१०/२/४६६/५ कर्माभावो द्विविध:–यत्नसाध्योऽयत्नसाध्यश्चेति। तत्र चरमदेहस्य नारकतिर्यग्देवायुषामभावो न यत्नसाध्य: असत्त्वात् । यत्नसाध्य इत ऊर्ध्वमुच्यते। असंयतसम्यग्दृष्टयादिषु सप्तप्रकृतिक्षय: क्रियते।=कर्म का अभाव दो प्रकार का है–यत्नसाध्य और अयत्नसाध्य। इनमें से चरमदेहवाले के नरकायु तिर्यंचायु और देवायु का अभाव यत्नसाध्य नहीं है, क्योंकि इसके उनका सत्त्व उपलब्ध नहीं होता। यत्नसाध्य का अभाव इनसे आगे कहते हैं-असंयतदृष्टि आदि चार गुणस्थानों में सात प्रकृतियों का क्षय करता है। (आगे भी १०वें गुणस्थान में यथायोग्य कर्मों का क्षय करता है (देखें - सत्त्व )।
पं.ध./उ./३७९,९३२,९२६ प्रयत्नमन्तरेणापि दृङ्मोहोपशमो भवेत् । अन्तर्मुहूर्तमात्रं च गुणश्रेण्यनतिक्रमात् ।३७९। तस्मात्सिद्धोऽस्ति सिद्धान्तो दृङ्मोहस्येतरस्य वा। उदयोऽनुदयो वाथ स्यादनन्यगति: स्वत:।९३२। अस्त्युदयो यथानादे: स्वतश्चोपशमस्तथा। उदय: प्रथमो भूय: स्यादर्वागपुनर्भवात् ।९२६।= उक्त कारण सामग्री के मिलते ही (अर्थात् दैव व कालादिलब्धि मिलते ही) प्रयत्न के बिना भी गुणश्रेणी निर्जरा के अनुसार केवल अन्तर्मुहूर्त काल में ही दर्शनमोहनीय का उपशम हो जाता है।३७९। इसलिए यह सिद्धान्त सिद्ध होता है कि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दोनों के उदय अथवा अनुदय ये दोनों ही अपने आप होते हैं, एक दूसरे के निमित्त से नहीं।९३२। जिस तरह अनादिकाल से स्वयं मोहनीय का उदय होता है उसी तरह उपशम भी काललब्धि के निमित्त से स्वयं होता है। इस तरह मुक्ति होने के पहले उदय और उपशम बार-बार होते रहते हैं।
- जीव के भाव को निमित्तमात्र करके पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमते हैं
- निमित्त की कथंचित् प्रधानता
- <a name="III.4.1" id="III.4.1">निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध भी वस्तुभूत है
आप्त.मी./२४ अद्वैतैकान्तपक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुध्यते। कारकाणां क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात् प्रजायते।२४।=अद्वैत एकान्तपक्ष होनेतै (अर्थात् जगत् एक ब्रह्म के अतिरिक्त कोई नहीं है, ऐसा मानने से) कर्ता कर्म आदि कारकनि के बहुरि क्रियानि के भेद जो प्रत्यक्ष प्रमाण करि सिद्ध है सो विरोधरूप होय है। बहुरि सर्वथा यदि एक ही रूप होय तौ आप ही कर्ता आप ही कर्म होय। अर आप ही तै आपकी उत्पत्ति नाहीं होय। (और भी देखें - कारण / II / ३ / २ ), (अष्टसहस्री पृ॰ १४९,१५९) (स्या.म./१६/१९७/१७१)
श्लो.वा.२/१/७/१३/५६५/१ तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठ: संबन्ध: संयोगसमवायादिवत्प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुन: कल्पनारोपित।=व्यवहारनय का आश्रय लेने पर संयोग समवाय सम्बन्धों के समान दो में ठहरने वाला कारणकार्यभाव सम्बन्ध भी प्रतीतियों से सिद्ध होने के कारण वस्तुभूत ही है केवल कल्पना आरोपित ही नहीं है।
- कारण के बिना कार्य नहीं होता
रा.वा./१०/२/१/६४०/२७ मिथ्यादर्शनादीनां पूर्वोक्तानां कर्मास्रवहेतूनां निरोधे कारणाभावात् कार्याभाव इत्यभिनवकर्मादानाभाव:।=मिथ्यादर्शन आदि पूर्वोक्त आस्रव के हेतुओं का निरोध हो जाने पर नूतन कर्मों का आना रुक जाता है? क्योंकि कारण के अभाव से कार्य का अभाव होता है।
ध.१/१,१,६३/३०६/९ अप्रमत्तादीनां संयतानां किमित्याहारककाययोगी न भवेदिति चेन्न, तत्र तदुत्थापने निमित्ताभावात् ।=प्रश्न–प्रमादरहित संयतों के आहारककाययोग क्यों नहीं होता है? उत्तर–क्योंकि तहाँ उसे उत्पन्न कराने में निमित्त कारण का (असंयम की बहुलता का) अभाव है।
ध.१२/४,२,१३,१७/३८२।२ ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जदि अइप्पसंगादो।=कारण के बिना कहीं भी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है; क्योंकि, वैसा होने में अतिप्रसंग दोष आता है। (उत्कृष्ट संक्लेश से उत्कृष्ट प्रदेश बन्ध होने का प्रकरण है)।
ध.६/१,९-९/६,७/४२१/३ णेरइया मिच्छाइट्ठी कदिहि कारणेहि पढमसम्मत्तुमुप्पदेंति। मूलसूत्र ६/ उप्पज्जमाणं सव्वं हि कज्जं कारणादो चेव उप्पज्जदि, कारणेण विणा कज्जुप्पत्तिविरोहादो। एवं णिच्छिदकारणस्स तस्संखाविसयमिदं पुच्छासुत्तं।=नारकी मिथ्यादृष्टि जीव कितने कारणों से प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं। सूत्र ६।। उत्पन्न होने वाला सभी कार्य कारण से ही उत्पन्न होता है क्योंकि कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति का विरोध है। इस प्रकार निश्चित कारण की संख्या विषयक यह पृच्छा सूत्र है।
ध.६/१,९-९,३०/४३०/९ णइसग्गिमवि पढमसम्मत्तं तच्चट्ठे उत्तं, तं हि एत्थेव दट्ठव्वं, जाइस्सरण-जिणबिंबदंसणेहिं विणा उप्पज्जमाणणइसग्गियपढमसम्मत्तस्स असंभवादो।=नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्व का भी पूर्वोक्त कारणों से उत्पन्न हुए सम्यक्त्व में ही अन्तर्भाव कर लेना चाहिए, क्योंकि जाति-स्मरण और जिनबिम्बदर्शनों के बिना उत्पन्न होने वाला प्रथम नैसर्गिक सम्यक्त्व असम्भव है। (सम्यक्त्व के कारणों के लिए देखें - सम्यग्दर्शन / III / २ )
ध.७/२,१,१८/७०/९ ण च कारणेण बिणा कज्जाणामुप्पत्ती अत्थि।...तदो कज्जमेत्ताणि चेव कम्माणि बि अत्थि त्ति णिच्छओ कायव्वो।=कारण के बिना तो कार्यों की उत्पत्ति होती नहीं। इसलिए जितने कार्य हैं उतने उनके कारण रूप कर्म भी हैं, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए।
ध.९/४,१,४४/११७/६ ण च णिक्कारणाणि, कारणेण बिणा कज्जाणमुप्पत्तिविरोहादो।...ण च कारणविरोहीण तक्कज्जेहिविरोहो जुज्जदे कारणविरोहादुवारेणेव सव्वत्थ कज्जेसु विरोहुवलंभादो। =यदि कहा जाय कि जन्म जरादिक अकारण हैं, सो भी ठीक नहीं है;क्योंकि, कारण के बिना कार्यों की उत्पत्ति का विरोध है जो कारण के साथ अविरोधी हैं उनका उक्त कारण के कार्यों के साथ विरोध उचित नहीं है;क्योंकि, कारण के विरोध के द्वारा ही सर्वत्र कार्यों में विरोध पाया जाता है।
स्या.म./१६/१९७/१७ द्विष्ठसंबन्धसंवित्तिर्नैकरूपप्रवेदनात् । द्वयो: स्वरूपग्रहणे सति संबन्धवेदनम्। इति वचनात् ।=दो वस्तुओं के सम्बन्ध में रहने वाला ज्ञान दोनों वस्तुओं के ज्ञान होने पर ही हो सकता है। यदि दोनों में से एक वस्तु रहे तो उस सम्बन्ध का ज्ञान नहीं होता।
न्या.दी./२/४/२७ न हि किंचित्स्वस्मादेव जायते।=कोई भी वस्तु अपने से ही पैदा नहीं होती, किन्तु अपने से भिन्न कारणों से पैदा होती है।
देखें - नय / V / ९ / ५ उपादान होते हुए भी निमित्त के बिना मुक्ति नहीं।
- उचित निमित्त के सान्निध्य में ही द्रव्य परिणमन करता है
प्र.सा./त.प्र./९२ द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरङ्गसाधनसंनिधिसद्भावे... उत्तरावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते।=जिसने पूर्वावस्था को प्राप्त किया है, ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित बहिरंग साधनों के सान्निध्य के सद्भाव में उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता है, वह उत्पाद से लक्षित होता है। (प्र.सा./त.प्र./१०२,१२४)।
- उपादान की योग्यता के सद्भाव में भी निमित्त के बिना कार्य नहीं होता
ध./१/१,१,३३/२३३/२ सर्वजीवावयवेषु क्षयोपशमस्योत्पत्त्यभ्युपगमात् । न सर्वावयवै: रूपाद्युपलब्धिरपि तत्सहकारिकारणबाह्यनिवृत्तेरशेषजीवावयवव्यापित्वाभावात् ।=जीव के सम्पूर्ण प्रदेशों में क्षयोपशम की उत्पत्ति स्वीकार है। (यद्यपि यह क्षयोपशम ही जीव की ज्ञान के प्रति उपादानभूत योग्यता है, देखें - कारण (I/१८) परन्तु ऐसा मान लेनेपर भी जीव के सम्पूर्ण प्रदेशों के द्वारा रूपादि की उपलब्धि का प्रसंग भी नहीं आता है;क्योंकि, रूपादिक के ग्रहण करने में सहकारी कारणरूप बाह्यनिर्वृत्ति (इन्द्रिय) जीव के सम्पूर्ण प्रदेशों में नहीं पायी जाती है।
- निमित्त के बिना केवल उपादान व्यावहारिक कार्य करने को समर्थ नहीं है
स्व.स्तो./मू./५९ यद्वस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेर्निमित्तमभ्यन्तरमूलहेतो:। अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूतमभ्यन्तरं केवलमप्यलं न।५१।=जो बाह्य वस्तु गुण दोष या पुण्य-पाप की उत्पत्ति का निमित्त होती है वह अन्तरंग में वर्तनेवाले गुणदोषों की उत्पत्ति के अभ्यन्तर मूल हेतु की अंगभूत होती है। (अर्थात् उपादान को सहकारी कारणभूत होती है)। उसकी अपेक्षा न करके केवल अभ्यन्तर कारण उस गुणदोष की उत्पत्ति में समर्थ नहीं है।
भ.आ./वि./१०७०/११५९/४ बाह्यद्रव्यं मनसा स्वीकृतं रागद्वेषयोर्बीजं, तस्मिन्नसति सहकारिकारणे न च कर्ममात्राद्रागद्वेषवृत्तिर्यथा सत्यपि मृत्पिण्डे दण्डाद्यनन्तरकरणवैकल्ये न घटोत्पत्तिर्यथेति मन्यते।=मन से विचारकर जब जीव बाह्य परिग्रह का स्वीकार करता है तब रागद्वेष उत्पन्न होते हैं। यदि सहकारीकारण न होगा तो केवल कर्ममात्र से रागद्वेष उत्पन्न होते नहीं। यद्यपि मृत्पिण्ड से घट उत्पन्न होता है तथापि दण्डादिक कारण नहीं होंगे तो घट की उत्पत्ति नहीं होती है।
ध.१/१,१,६०/२९८/१ यतो नाहारर्द्धिरात्मनमपेक्ष्योत्पद्यते स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । अपि तु संयमातिशयापेक्षया तस्या: समुत्पत्तिरिति।=आहारक ऋद्धि स्वत: की अपेक्षा करके उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि स्वत: से स्वत: की उत्पत्तिरूप क्रिया के होने में विरोध आता है। किन्तु संयमातिशय की अपेक्षा आहारक ऋद्धि की उत्पत्ति होती है।
क.पा.१/१,१३-१४/२५६/२९५/४ ण च अण्णादो अण्णम्मि कोहो ण उप्पज्जइ; अक्कोसादो जीवेकम्मकलंकंकिए कोहुप्पत्तिदंसणादो। ण च उबलद्धे अणुववण्णदा; विरोहादो। ण कज्जं तिरोहियं संतं आविब्भावमुवणमइ; पिंडवियारणे घडोवलद्धिप्पसंगादो। ण च णिच्चं तिरोहिज्जइ; अणाहियअइसयभावादो। ण तस्स आविब्भावो वि; परिणामवज्जियस्स अवत्थंतराभावादो। ण गद्दहस्स सिंगं अण्णेहिंतो उप्पज्जइ; तस्स विसेसेणेव सामण्णसरूवेण वि पुव्वमभावादो। ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जइ; सव्वकालं सव्वस्स उप्पत्ति-अणुप्पत्तिप्पसंगादो। णाणुप्पत्ती सव्वाभावप्पसंगादो। ण चेव (वं); उवलब्भमाणत्तादो। ण सव्वकालमुप्पत्ती वि; णिच्चस्सुप्पत्तिविरोहादो। ण णिच्चं पि; कमाकमेहि कज्जमकुणंतस्स पमाणविसए अवट्ठाणाणुववत्तीदो। तम्हा ण्णेहिंतो अण्णस्स सारिच्छ-तब्भावसामण्णेहि संतस्स विसेससरूवेण असंतस्स कज्जस्सुप्पत्तीए होदव्वमिदि सिद्धं।=‘किसी अन्य के निमित्त से किसी अन्य में क्रोध उत्पन्न नहीं होता है’ यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि १. कर्मों से कलंकित हुए जीव में कटुवचन के निमित्त से क्रोध की उत्पत्ति देखी जाती है। और जो बात पायी जाती है उसके सम्बन्ध में यह कहना कि यह बात नहीं बन सकती, ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा कहने में विरोध आता है। २. यदि कार्य को सर्वथा नित्य मान लिया जावे तो वह तिरोहित नहीं हो सकता, क्योंकि सर्वथा नित्य पदार्थ में किसी प्रकार का अतिशय नहीं हो सकता है। तथा नित्य पदार्थ का आविर्भाव भी नहीं बन सकता, क्योंकि जो परिणमन से रहित है, उसमें दूसरी अवस्था नहीं हो सकती है। ३. ‘कारण में कार्य छिपा रहता है और वह प्रगट हो जाता है’ ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने पर मिट्टी के पिण्ड को विदारने पर घड़े की उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। ४. ‘अन्य कारणों से गधे के सींग की उत्पत्ति का प्रसंग देना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसका पहिले से ही जिस प्रकार विशेषरूप से अभाव है उसी प्रकार सामान्यरूप से भी अभाव है। इस प्रकार जब वह सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकार से असत् है तो उसकी उत्पत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। ५. तथा कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होने लगे तो सर्वदा सभी कार्यों की उत्पत्ति अथवा अनुपत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। ६. ‘यदि कहा जाये कि कार्य की उत्पत्ति मत होओ’ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि (सर्वदा) कार्य की अनुत्पत्ति मानने पर सभी के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। ७. ‘यदि कहा जाये कि सभी का अभाव होता है तो हो जाओ’ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सभी पदार्थों की उपलब्धि पायी जाती है। ८. यदि (दूसरे पक्ष में) यह कहा जाये कि सर्वदा सबकी उत्पत्ति होती ही रहे’ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो पदार्थ क्रम से अथवा युगपत् कार्य को नहीं करता है वह पदार्थ प्रमाण का विषय नहीं होता है। इसलिए जो सादृश्यसामान्य और तद्भाव सामान्यरूप से विद्यमान है तथा विशेष (पर्याय) रूप से अविद्यमान है ऐसे किसी भी कार्य की, किसी दूसरे कारण से उत्पत्ति होती है यह सिद्ध हुआ।
- निमित्त के बिना कार्योत्पत्ति मानने में दोष
क.पा.१/१,१३/२५६/२९५/९ ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जइ; सव्वकालं सव्वस्स उप्पत्ति–अणुप्पत्तिप्पसंगादो।=कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति मानना ठीक नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होने लगे तो सर्वदा सभी कार्यों की उत्पत्ति अथवा अनुत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है।
प.मु./६/६३ समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ।=यदि पदार्थ स्वयं समर्थ होकर क्रिया करते हैं तो सदा कार्य की उत्पत्ति होनी चाहिए, क्योंकि, केवल सामान्य आदि कार्य करने में किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते।
- सभी निमित्त धर्मास्तिकायवत् उदासीन नहीं होते
पं.का./त.प्र./८८ यथा हि गतिपरिणत: प्रभञ्जनो वैजयन्तीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते न तथा धर्म:। स खलु निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गतिपरिणाममेवापद्यते। कुतोऽस्य सहकारित्वेन गतिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वम् ।...अपि च यथा गतिपूर्वस्थितिपरिणतिपरिणतस्तुरंगोऽश्ववारस्य स्थितिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते न तथाधर्म:। स खलु निष्क्रियत्वात्... उदासीन एवासौ प्रसरो भवतीति।=जिस प्रकार गतिपरिणत पवन ध्वजाओं के गतिपरिणाम का हेतुकर्ता (प्रेरक) दिखाई देता है, उसी प्रकार धर्म नहीं है। वह वास्तव में निष्क्रिय होने से कभी गति परिणाम को ही प्राप्त नहीं होता; तो फिर उसे (पर के) सहकारी की भाँति पर के गतिपरिणाम का हेतुकर्तृत्व कहाँ से होगा ? किन्तु केवल उदासीन ही प्रसारक है। और जिस प्रकार गतिपूर्वक स्थिति परिणत अश्व सवार के स्थिति परिणाम का हेतुकर्ता (प्रेरक) दिखाई देता है उसी प्रकार अधर्म नहीं है।... वह तो केवल उदासीन ही प्रसारक है। (तात्पर्य यह कि सभी कारण धर्मास्तिकायवत् उदासीन नहीं है। निष्क्रियकारण उदासीन होता है और क्रियावान् प्रेरक होता है)।
- <a name="III.4.1" id="III.4.1">निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध भी वस्तुभूत है
- <a name="III5" id="III5">कर्म व जीवगत कारणकार्य भाव की कथंचित् प्रधानता
- <a name="III.5.1" id="III.5.1">जीव व कर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का निर्देश
मू.आ./९६७ जीवपरिणामहेदू कम्मत्तण पोग्गला परिणमंति। ण दु णाणपरिणदो पुण जीवो कम्मं समादियदि।=जिनको जीव के परिणाम कारण हैं ऐसे रूपादिमान परमाणु कर्मस्वरूप से परिणमते हैं, परन्तु ज्ञानभावकरि परिणत हुआ जीव कर्मभावकरि पुद्गलों को नहीं ग्रहण करता।
स.सा./मू./८० जीवपरिणामहेदु कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ।८०।=पुद्गल जीव के परिणाम के निमित्त से कर्मरूप में परिणत होते हैं और जीव भी पुद्गलकर्म के निमित्त से परिणमन करता है। (स.सा./मू./३१२-३१३), (पं.का./मू./६०), (न.च.वृ./८३), (यो.सा.अ./३/९-१०)। पं.का./मू./१२८-१३० जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदु परिणामो। परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी।१२८। गदिमधिगस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते। तेहिं कु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा।१२९। जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि। इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणा सणिधणो वा।१३०।=जो वास्तव में संसार-स्थित जीव हैं उससे परिणाम होता है, परिणाम से कर्म और कर्म से गतियों में गमन होता है।१२८। गतिप्राप्त को देह होती है, देह से इन्द्रियाँ होती हैं, इन्द्रियों से विषयग्रहण और विषयग्रहण से राग अथवा द्वेष होता है।१२९। ऐसे भाव संसारचक्र में जीव को अनादिअनन्त अथवा अनादि सान्त होते रहते हैं, ऐसा जिनवरों ने कहा है।१३०। (न.च.वृ./१३१-१३३); (यो.सा./अ./४/२९,३१ तथा २/३३); (त.अनु./१६-१९); (सा.ध./६/३१)
और भी देखो–प्रकृति बन्ध/१/६ में परिणाम प्रत्यय प्रकृतियों के लक्षण व भेद।
पं.ध./इ/४१,१०७१ जीवस्याशुद्धरागादिभावानां कर्मकारणम् । कर्मणस्तस्य रागादिभावा: प्रत्युपकारिवत् ।४१। अस्ति सिद्धं ततोऽन्योन्यं जीवपुद्गलकर्मणो:। निमित्तनैमित्तिको भावो यथा कुम्भकुलालयो:।१०७१।=परस्पर उपकार की तरह जीव के अशुद्ध रागादि भावों का कारण द्रव्यकर्म है और उस द्रव्यकर्म के कारण रागादि भाव है।४१। इसलिए जिस प्रकार कुम्भ और कुम्भार में निमित्तनैमित्तिक भाव है उसी प्रकार जीव और पुद्गलात्मक कर्म में परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव है यह सिद्ध होता है।१०७१। (पं.ध./उ./१०९;१३१-१३२;१०६९-१०७०) - जीव व कर्मों की विचित्रता परस्पर सापेक्ष है
ध.७/२,१,१९/७०/९ ण च कारणेण विणा कज्जाणमुप्पत्ती अत्थि।... ततो कज्जमेत्ताणि चेव कम्माणि वि अत्थि त्ति णिच्छओ कायव्वो। जदि एवं तो भमर-महुवर...कयंबादि सण्णिदेहि वि णामकम्मेहि होदव्वमिदि। ण एस दोसो इच्छिज्जमाणादो।=कारण के बिना तो कार्यों की उत्पत्ति होती नहीं है। इसलिए जितने (पृथिवी, अप्, तेज आदि) कार्य हैं उतने उनके कारणरूप कर्म भी हैं, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए। प्रश्न–यदि ऐसा है तो भ्रमर, मधुकर-कदम्ब आदिक नामोंवाले भी नाम कर्म होने चाहिए ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यह बात तो इष्ट ही है।
ध.१०/४,२,३,१/१३/७ जा सा णोआगमदव्वकम्मवेयणा सा अट्ठविहा...। कुदो। अट्ठविहस्स दिस्समाणस्स अण्णाणादंसण...वीरियादिअंतरायकज्जस्स अण्णहाणुववत्तीदो। ण च कारणभेदेण विणा कज्जभेदो अत्थि, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो।=जो वह नोआगमद्रव्यकर्मवेदना कही है, वह ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि के भेद से आठ प्रकार की है। क्योंकि ऐसा नहीं मानने पर अज्ञान अदर्शन...एवं वीर्यादि के अन्तरायरूप आठप्रकार का कार्य जो दिखाई देता है वह नहीं बन सकता है। यदि कहा जाय कि यह आठ प्रकार का कार्यभेद कारणभेद के बिना भी बन जायेगा, सो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यत्र ऐसा पाया नहीं जाता। क.पा.१/१,१/३७/५६/४ एदस्स पमाणस्स वडि्ढहाणितरतमभावो ण ताव णिक्कारणो; वडि्ढहाण्णिहि विणा एगसरूवेणावट्ठाणप्पसंगादो।
ण च एवं तहाणुवलंभादो। तम्हा सकारणाहि ताहि होदव्वांजंतं वड्ढि हाणि तरतमभावकारणं तमावरणमिदि सिद्धं।=इस ज्ञानप्रमाण का वृद्धि और हानि के द्वारा जो तरतमभाव होता है, वह निष्कारण तो हो नहीं सकता है, क्योंकि ज्ञानप्रमाण में वृद्धि और हानि से होने वाले तरतमभाव को निष्कारण मान लेने पर वृद्धि और हानिरूप कार्य का ही अभाव हो जाता है। और ऐसी स्थिति में ज्ञान के एकरूप से रहने का प्रसंग प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि एकरूप ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती है। इसलिए ये तरतमता सकारण होनी चाहिए। उसमें जो हानि वृद्धि के तरतम भाव का कारण है वह आवरण कर्म है।
क.पा.४/३,२२/२९/१५/९ एगट्ठिदिबंधकालो सव्वेसिं जीवाणं समाणपरिणामो किण्ण होदि। ण, अंतरंगकारणभेदेण सरिसत्ताणुववत्तीदो। एगजीवस्स सव्वकालमेगपमाणद्धाएट्ठिदिबंधो किण्ण होदि। ण, अंतरंगकारणेसु दव्वादिसंबंधेण परियत्तमाणस्स एगम्मि चेव अंतरंगकारणे सव्वकालमवट्ठाणाभावादो।=प्रश्न–सब जीवों के एक स्थितिबन्ध का काल समान परिणामवाला क्यों नहीं होता ? उत्तर–नहीं, क्योंकि अन्तरंगकारण में भेद होने से उसमें समानता नहीं बन सकती। प्रश्न–एक ही जीव के सर्वदा स्थितिबन्ध एक समान काल वाला क्यों नहीं होता है? उत्तर–नहीं; क्योंकि, यह जीव अन्तरंग कारणों में द्रव्यादि के सम्बन्ध से परिवर्तन करता रहता है, अत: उसका एक ही अन्तरंग कारण में सर्वदा अवस्थान नहीं पाया जाता है।
क.पा. ४/१,२२/४४/२४/५ सो केण जणिदो। अणंताणुबंधीणमुदएण। अणंताणुबंधीणमुदओ कुदो जायदे। परिणामपचएण।=प्रश्न–वह (सासादन परिणाम) किस कारण से उत्पन्न होता है? उत्तर–अनन्तानुबन्धी चतुष्क के उदय से होता है। प्रश्न–अनन्तानुबन्धी चतुष्क का उदय किस कारण से होता है? उत्तर–परिणाम विशेष के कारण से होता है।
- <a name="III.5.3" id="III.5.3">जीव की अवस्थाओं में कर्म मूल हेतु है
रा.वा./५/२४/९/४८८।२१ तादात्मनोऽस्वतन्त्रीकरणे मूलकारणम् ।=वह (कर्म) आत्मा को परतन्त्र करने में मूलकारण है।
रा.वा./१/३/६/२३/१६ लोके हरिशार्दूलवृकभुजगादयो निसर्गत: क्रौर्यशौर्याहारादिसंप्रतिपत्तौ वर्तन्ते इत्युच्यन्ते न चासावाकस्मिकी कर्मनिमित्तत्वात् ।=लोक में भी शेर, भेड़िया, चीता, साँप आदि में शूरता-क्रूरता आहार आदि परोपदेश के बिना होने से यद्यपि नैसर्गिक कहलाते हैं; परन्तु वे आकस्मिक नहीं हैं, क्योंकि कर्मोदय के निमित्त से उत्पन्न होते हैं।
देखें - विभाव / ३ / १ (जीव की रागादिरूप परिणति में कर्म ही मूल कारण है)।
का.अ./सु./३१९ ण य को वि देदि लच्छी ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं। उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि।३१९।=न तो कोर्इ देवी देवता आदि जीव को लक्ष्मी देता है और न कोई उसका उपकार करता है। शुभाशुभ कर्म ही जीव का उपकार या अपकार करते हैं।
पं.ध./उ./२०१ स्वावरणस्योच्चैर्मूलं हेतुर्यथोदय:।=अपने-अपने ज्ञान के घात में अपने-अपने आवरण का उदय वास्तव में मूलकारण है।
- <a name="III.5.4" id="III.5.4">कर्म की बलवत्ता के उदाहरण
स.सा./मू./१६१-१६३ (सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र के प्रतिबन्धक क्रम से मिथ्यात्व, अज्ञान व कषाय नाम के कर्म हैं।)
भ.आ./मू./१६१० असाता के उदय में औषधियें भी सामर्थ्यहीन हैं।
स.सि./१/२०/१०१/२ प्रबल श्रुतावरण के उदय से श्रुतज्ञान का अभाव हो जाता है।
प.प्र./मू./१/६६,७८ इस पंगु आत्मा को कर्म ही तीनों लोकों में भ्रमण कराता है।६६। कर्म बलवान हैं, बहुत हैं, विनाश करने को अशक्य हैं, चिकने हैं, भारी हैं और वज्र के समान हैं।७८।
रा.वा./१/१५/१३/६१/१५ चक्षुदर्शनावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के अवष्टम्भ (बल) से चक्षुदर्शन की शक्ति उत्पन्न होती है।
रा.वा./५/२४/९/४८८/२१ सुख-दुःख की उत्पत्ति में कर्म बलवान हेतु हैं।
आप्त.प./११४-११५/२४६-२४७ कर्म जीव को परतन्त्र करने वाले हैं। (रा.वा./५/२४/९/४८८/२०) (गो.जी./जी.प्र./२४४/५०८/२)
ध.१/१,१,३३/२३४/३ कर्मों की विचित्रता से ही जीव प्रदेशों के संघटन का विच्छेद व बन्धन होता है।
ध.१/१,१,३३/२४२/८ नाम कर्मोदय की वशवर्तिता से इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं।
स.सा./आ./१५७-१५९ कर्म मोक्ष के हेतु का तिरोधान करने वाला है।
स.सा./आ./२,४,३१,३२, क ३ इत्यादि (इन सर्व स्थलों पर आचार्य ने मोहकर्म की बलवत्ता प्रगट की है)
स.सा./आ./८९ जीव के लिए कर्म संयोग ऐसा ही है जैसा स्फटिक के लिए तमालपत्र।
त.सा./८/३३ ऊर्ध्व गमन के अतिरिक्त अन्यत्र गमनरूप क्रिया कर्म के प्रतिघात से तथा निज प्रयोग से समझनी चाहिए।
का.अ./मू./२११ कर्म की कोई ऐसी शक्ति है कि इससे जीव का केवलज्ञान स्वभाव नष्ट हो जाता है।
द्र.सं./टी./१४/४४/१० जीव प्रदेशों का विस्तार कर्माधीन है, स्वाभाविक नहीं।
स्या.म./१७/२३८/६ स्व ज्ञानावरण के क्षयोपशमविशेष के वश से ज्ञान की निश्चित पदार्थों में प्रवृत्ति होती है।
पं.ध./उ./१०५,३२८,६८७,८७४,९२५ जीव विभाव में कर्म की सामर्थ्य ही कारण है।१०५। आत्मा की शक्ति की बाधक कर्म की शक्ति है।३२८। मिथ्यात्व कर्म ही सम्यक्त्व का प्रत्यनीक (बाधक) है।६८७। दर्शनमोह के उपशमादि होने पर ही सम्यक्त्व होता है और नहीं होने पर नहीं ही होता है।८७४। कर्म की शक्ति अचिन्त्य है।९२५।
स.सा./३१७/क १९८/पं. जयचन्द–जहाँ तक जीव की निर्बलता है तहाँ तक कर्म का जोर चलता है।
स.सा./१७२/क११६/पं. जयचन्द–रागादि परिणाम अबुद्धिपूर्वक भी कर्म की बलवत्ता से होते हैं।
– देखें - विभाव / ३ / १ –(कर्म जीव का पराभव करते हैं)
- जीव की एक अवस्था में अनेक कर्म निमित्त होते हैं
रा.वा./१/१५/१३/६१/१५ इस चक्षुषा चक्षुर्दर्शनावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामावष्टम्भाद् अविभावितविशेषसामर्थ्येन किंचिदेतद्वस्तु इत्यालोचनमनाकारं दर्शनमित्युच्यते बालवत् ।=चक्षुदर्शनावरण और वीर्यान्तराय इन दो कर्मों के क्षयोपशम से तथा साथ-साथ अंगोपांग नामकर्म के उदय से होने वाला सामान्य अवलोकन चक्षुदर्शन कहलाता है।
पं.ध./उ./२०१-२०२ सत्यं स्वावरणस्योच्चैर्मूलं हेतुर्यथोदय:। कर्मान्तरोदयापेक्षो नासिद्ध: कार्यकृद्यथा।२०१। अस्ति मत्यादि यज्ज्ञानं ज्ञानावृत्युदयक्षते:। तथा वीर्यान्तरायस्य कर्मणोऽनुदयादपि।२०२।=जैसे अपने-अपने घात में अपने-अपने आवरण का उदय मूलकारण है वैसे ही वह ज्ञानावरण आदि दूसरे कर्मों के उदय की अपेक्षा सहित कार्यकारी होता है, यह भी असिद्ध नहीं है।२०१। जैसे जो मत्यादिक ज्ञान ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से होता है वैसे ही वह वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से भी होता है।२०२।
- कर्म के उदय में तदनुसार जीव के परिणाम अवश्य होते हैं
रा.वा./७/२१/२५/५४९/२७ यद्यभ्यन्तरसंयमघातिकर्मोदयोऽस्ति तदुदयेनावश्यमनिवृत्तपरिणामेन भवितव्यं ततश्च महाव्रतत्वमस्य नोपपद्यत इति मतम्; तन्न; किं कारणम्, उपचारात् राजकुले सर्वगतंचैत्रवत् ।=प्रश्न–(छठे गुणस्थानवर्ती संयत को) यदि संयतघाती कर्म का उदय है तो अवश्य ही उसे अविरति के परिणाम होने चाहिए। और ऐसा होने पर उसके महाव्रतत्वपना घटित नहीं होता (अत: संज्वलन के उदय के सद्भाव में छठे गुणस्थानवर्ती साधु को महाव्रती कहना उचित नहीं है)। उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि राजकुल में चैत्र या खोजे पुरूष को सर्वगत कहने की भाँति यहाँ उपचार से उसे महाव्रती कहा जाता है।
ध./१२/४,२,१३,२५४/४५७/६ ण च सुहुमसांपराइय मोहणीय भावो अत्थि, भावेण विणा दव्वकम्मस्स अत्थित्तविरोहादो सुहुससांपराइयसण्णाणुवत्तीदो वा।=सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान में मोहनीय का भाव नहीं हो, ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि भाव के बिना द्रव्यकर्म के रहने का विरोध है, अथवा वहाँ भाव के न मानने पर ‘सूक्ष्मसांपरायिक’ यह संज्ञा ही नहीं बनती है।
नोट–(यद्यपि मूल सूत्र नं. २५४ ‘‘तस्स मोहणीयवेयणाभावदो णत्थि’’ के अनुसार वहाँ मोहनीय का भाव नहीं है। परन्तु यह कथन नय विवक्षा से आचार्य वीरसेन स्वामी ने समन्वित किया है। तहाँ द्रव्यार्थिक नय की विवक्षा से सत् का ही विनाश होने के कारण उस गुणस्थान के अन्तिम समय में मोहनीय के भाव का भी विनाश हो जाता है और पर्यायार्थिक नय असत् अवस्था में ही अभाव या विनाश स्वीकार करता होने के कारण उसकी अपेक्षा वह मोहनीय का भाव उस गुणस्थान के अन्तिम समय में है और उपशान्तकषाय या क्षीणकषाय के प्रथम समय में विनष्ट होता है। विशेष–देखो उत्पाद/२/७)
ल.सा./जी.प्र./३०४/३८४/१९ द्रव्यकर्मोदये सति संक्लेशपरिणामलक्षणभावकर्मण: संभवेन तयो: कार्यकारणभावप्रसिद्धे:।=(उपशान्त कषाय गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। तदुपरान्त अवश्य ही मोहकर्म का उदय आता है जिसके कारण वह नीचे गिर जाता है।) नियमकरि द्रव्यकर्म के उदय के निमित्ततै संक्लेशरूप भाव कर्म प्रगट हो है। इसलिए दोनों में कार्यकारणभाव सिद्ध है।
- <a name="III.5.1" id="III.5.1">जीव व कर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का निर्देश
- निमित्त के उदाहरण