गृहस्थ धर्म
From जैनकोष
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/1/13 आराध्यंते जिनेंद्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिकै: प्रीतिरुच्चै: पात्रेभ्यो दानमापन्निहतजनकृते तच्च कारुण्यबुद्धया। तत्त्वाभ्यास: स्वकीयव्रतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यं, तद्गार्हस्थ्यं बुधानामितरदिह पुनर्दु:खदो मोहपाश:।13।...एकादश स्थानानीति गृहिव्रते व्यसनितात्यागस्तदाद्य: स्मृत:।14। =जिस गृहस्थ अवस्था में जिनेंद्र की आराधना की जाती है, निर्ग्रंथ गुरुओं के प्रति विनय, धर्मात्माओं के प्रति प्रीति व वात्सल्य, पात्रों को दान, आपत्ति ग्रस्त पुरुषों को दया बुद्धि से दान, तत्त्वों का परिशीलन, व्रतों व गृहस्थ धर्म से प्रेम तथा निर्मल सम्यग्दर्शन धारण करना, ये सब किया जाता है वह गृहस्थ अवस्था विद्वानों के लिए पूजने के योग्य है अन्यथा दु:खरूप है। श्रावक धर्म में ग्यारह प्रतिमाएँ निर्दिष्ट की गयी हैं। उस सबके आदि में द्यूतादि व्यसनों का त्याग स्मरण किया गया है।14। (विशेष देखें श्रावक )।
देखें सागार ।