वेदना
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
- सुख दुःख अर्थ में
सर्वार्थसिद्धि/9/32/447/5 वेदनाशब्दः सुखे दुःखे च वर्तमानोऽपि आर्तस्य प्रकृतत्वाद् दुःखवेदनायां प्रवर्तते । = ‘वेदना’ शब्द यद्यपि सुख और दुःख दोनों अर्थों में विद्यमान है, पर यहाँ आर्तध्यान का प्रकरण होने से उससे दुःख वेदना ली गयी है । ( राजवार्तिक/9/32/1/628/20 ) ।
राजवार्तिक/6/11/12/521/6 विदेश्चेतनार्थस्य ग्रहणात् । विदेः चुरादिण्यंतस्य चेतनार्थस्येदं वेद्यमिति । = विद्, विद्लृ, विंति और विद्यति चे चार विद् धातुएँ क्रमशः ज्ञान, लाभ, विचार और सद्भाव अर्थ को कहती हैं । यहाँ चेतनार्थक विद् धातु से चुरादिण्यंत प्रत्यय करके वेद्य शब्द बना है ।
धवला 12/4, 2, 10, 1/302/7 अनुभवनं वेदना । = अनुभव करने का नाम वेदना है ।
देखें उपलब्धि –(चेतना, अनुभूति, उपलब्धि व वेदना ये शब्द एकार्थवाची हैं ।)
- कर्म व नोकर्म के अर्थ में
धवला 11/4, 2, 10, 1/302/4 वेद्यते वेदिष्यत इति वेदनाशब्दसिद्धः । अट्ठविहकम्मपोग्गलक्खंधो वेयणा । णोकम्म-पोग्गला वि वेदिज्जंति त्ति तेसिं वेयणासण्णा किण्ण इच्छज्जदे । ण, अट्ठविहकम्मपरूवणाए परूविज्जमाणाए णोकम्म-परूवणाए संभवाभावादो । = जिसका वर्तमान में अनुभव किया जाता है, या भविष्य में किया जायेगा वह वेदना है, इस निरुक्ति के अनुसार आठ प्रकार के कर्म पुद्गलस्कंध को वेदना कहा गया है । = प्रश्न–नोकर्म भी तो अनुभव के विषय होते हैं, फिर उनकी वेदना संज्ञा, क्यों अभीष्ट नहीं है । उत्तर–नहीं, क्योंकि आठ प्रकार के कर्म की प्ररूपणा का निरूपण करते समय नोकर्म प्ररूपणा की संभावना ही नहीं है ।
धवला 14/5, 6, 68/48/3 वेद्यंत इति वेदनाः । जीवादो पुधभूदा कम्मणोकम्मबंधपाओग्गखंधा अबंधणिज्जा णाम । तेसिं कधं वेदणाभावो जुज्जदे । ण, दव्वखेत्तकालभावेहि वेदणापाओग्गेसु दव्वट्ठियणयमस्सिदूण वेदणासद्दपवुत्तीए अब्भुवगमादो । वेदनात्वमात्मा स्वरूपं येषां ते वेदनात्मानः पुद्गलाः इह गृहीतव्याः । कुदो । अण्णेसिं बंधणिज्जत्तत्भावादो । ते च बंधणिज्जा पोग्गला खंधसमुद्दिट्ठा, खंधसरूवाणंताणंतपरमाणुपोग्गलसमुदयसमागमेण बंधपाओग्गपोगलसमुप्पत्तीदो । = जो वेदे जाते हैं उन्हें वेदन कहते हैं, जीव से पृथग्भूत बंधयोग्य कर्म और नोकर्म स्कंध बंधनीय कहलाते हैं । प्रश्न–वे वेदनरूप कैसे हो सकते हैं? उत्तर–नहीं, क्योंकि जो द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा वेदनायोग्य हैं, उनमें द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा वेदना शब्द की प्रवृत्ति स्वीकार की गयी है । वेदनपना जिनका आत्मा अर्थात् स्वरूप है, वे वेदनात्मा कहलाते हैं । यहाँ इस पद से पुद्गलों का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अन्य कोई पदार्थ बंधनीय नहीं हो सकते । वे बंधनीय पुद्गल स्कंधसमुद्दिष्ट अर्थात् स्कंध स्वरूप कहे गये हैं, क्योंकि स्कंधरूप अनंतानंत परमाणुपुद्गलों के समुदायरूप समागम से बंधयोग्य पुद्गल होते हैं ।
- निक्षेपों की अपेक्षा वेदना के भेद व लक्षण
धवला 10/4, 2, 1, 3/7/8 तव्वदिरित्तणोआगमदव्ववेयणा कम्मणोकम्मभेएण दुविहा । तत्थ कम्मवेयणा णाणावरणा-दिभेएण अट्ठविहा । णोकम्मणोआगमदव्ववेयणा सचित्त-अचित्त-मिस्सभेएण तिविहा । तत्थ सचित्तदव्ववेयणा कम्मणो-कम्मभेएण दुविहा । तत्थ सचित्तदव्ववेयणा सिद्धजीवदव्वं । अचित्तदव्ववेयणा पोग्गलकालागासा-धम्माधम्मदव्वाणि । मिस्सदव्ववेयणासंसारिजीवदव्वं, कम्मणोकम्मजीवसमवायस्स जीवजीवेहिंतो पुधभावदंसणादो । = [नाम, स्थापना, आदि निक्षेपों रूप भेद तो यथायोग्य निक्षेपोंवत् जानने तद्वय्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यवेदना कर्म और नोकर्म के भेद से दो प्रकार की है । उनमें से कर्मवेदना ज्ञानावरण आदि के भेद से आठ प्रकार की है’ तथा नोकर्म नोआगम द्रव्यवेदना सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार की है । उनमें से सचित्त द्रव्यवेदना सिद्धजीव द्रव्य है । अचित्त द्रव्यवेदना पुद्गल, काल, आकाश, धर्म और अधर्म द्रव्य हैं । मिश्र द्रव्यवेदना संसारी जीवद्रव्य है, क्योंकि कर्म और नोकर्म का जीव के साथ हुआ संबंध जीव और अजीव से भिन्न रूप से देखा जाता है ।
- बध्यमान द्रव्य को वेदना संज्ञा कैसे
धवला 12/4, 2, 10, 3/304/9 सिया बज्झमाणिया वेयणा होदि, तत्ते अण्णाणादि फलुप्पत्तिदंसणादो । बज्झमाणस्स कम्मस्स फलमकुणंतस्स कधं वेयणाववएसो । ण, उत्तरकाले फलदाइत्तण्णहाणुववत्तीदो बंधसमए वि वेदणभावसिद्धीए । = कथंचित् बध्यमान वेदना होती है, क्योंकि उससे अज्ञानादिरूप फल की उत्पत्ति देखी जाती है । प्रश्न-चूँकि बाँधा जाने वाला कर्म उस समय फल को करता नहीं है, अतः उसकी वेदना संज्ञा कैसे हो सकती है? उत्तर-नहीं, क्योंकि इसके बिना वह उत्तरकाल में फलदाता बन नहीं सकता, अतएव बंधसमय में भी उसे वेदना सिद्ध है ।
- वेदना नाम का आर्त्तध्यान–देखें आर्त्तध्यान ।
पुराणकोष से
(1) तीसरा-नरकभूमि के प्रथम प्रस्तार में तप्त-इंद्रकबिल की दक्षिण दिशा में स्थित महानरक । हरिवंशपुराण 4.154
(2) अग्रायणीयपूर्व की पंचम वस्तु के बीस प्राभृतों में कर्मप्रकृति चौथे प्राभृत के चौबीस योगद्वारों में दूसरा योगद्वार । हरिवंशपुराण 10.81-82, देखें अग्रायणीयपूर्व