ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 2
From जैनकोष
पदम पुराण - द्वितीय पर्व
अथानंतर- जंबू द्वीप भारत क्षेत्र में मगध नाम से प्रसिद्ध एक अत्यंत उज्जवल देश है ।।1।। वह देश पूर्ण पुण्य के धारक मनुष्यों का निवासस्थान है, इंद्र की नगरी के समान जान पड़ता है और उदारतापूर्ण व्यवहार से लोगों की सब व्यवस्था करता है ।।2।। जिसदेश के खेत हलों के अग्रभाग से विदारण किये हुए स्थल- कमलों की जड़ों के समूह को इस प्रकार धारण करते हैं मानो पृथिवी के श्रेष्ठ गुणों को ही धारण कर रहे हों ।।3।। जो दूध के सिंचन से ही मानो उत्पन्न हुए थे और मंद-मंद वायु से जिनके पत्ते हिल रहे थे ऐसे पौड़ों और ईखों के वनों के समूह से जिस देश का निकटवर्ती भूमिभाग सदा व्याप्त रहता है ।।4।। जिस देश के समीपवर्ती प्रदेश खलिहानों में जुदी जुदी लगी हुई अपूर्व पर्वतों के समान बड़ी-बड़ी धान्य की राशियों से सदा व्याप्त रहते है ।।5।। जिस देश की पृथिवी रँहट की घड़ियों से सींचे गये अत्यंत हरे-भरे जीरों और धानों के समूह से ऐसी जान पड़ती है मानो उसने जटाएँ ही धारण कर रखी हों ।।6।। जहाँ की भूमि अत्यंत उपजाऊ है, जो धान के श्रेष्ठ खेतों से अलंकृत है और जिसके भू भाग मूंग और मौठ की फलियों से पीले-पीले हो रहे हैं ।।7।। गर्मी के कारण जिनकी फली चटक गयी थी ऐसे रोंसा अथवा वर्वटी के बीजों से वहाँ के भू-भाग निरंतर व्याप्त होकर चित्र-विचित्र दिख रहे हैं और ऐसे जान पड़ते हैं कि वहाँ तृण के अंकुर उत्पन्न ही नहीं होंगे ।।8।। जो देश उत्तमोत्तम गेहुँओं की उत्पत्ति के स्थानभूत खेतों से सहित है तथा विध्न रहित अन्य अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम अनाजों से परिपूर्ण है ।।9।। बड़े-बड़े भैंसों की पीठ पर बैठे गाते हुए ग्वाले जिनकी रक्षा कर रहे हैं, शरीर के भिन्न-भिन्न भागों में लगे हुए कीड़ों के लोभ से ऊपर को गरदन उठाकर चलने वाले बगुले मार्ग में जिनके पीछे लग रहे है, रंग-विरंगे सूत्रों में बँधे हुए घंटाओं के शब्द से जो बहुत मनोहर जान पड़ती हैं, जिनके स्तनों से दूध झर रहा है और उससे जो ऐसी जान पड़ती हैं मानो पहले पिये हुए क्षीरोदक को अजीर्ण के भय से छोड़ती रहती हैं, मधुर रस से संपन्न तथा इतने कोमल कि मुँह की भाप मात्र से टूट जावें ऐसे सर्वत्र व्याप्त तृणों के द्वारा जो अत्यंत तृप्ति को प्राप्त थीं ऐसी गायों के द्वारा उस देश के वन सफेद-सफेद हो रहे हैं ।।10-12।। जो इंद्र के नेत्रों के समान जान पड़ते हैं ऐसे इधर-उधर चौकड़ियाँ भरने वाले हजारों श्याम हरिण से उस देश के भू-भाग चित्र-विचित्र हो रहे हैं ।।13।। जिस देश के ऊँचे-ऊँचे प्रदेश केतकी की धूलि से सफेद-सफेद हो रहे हैं और ऐसे जान पड़ते हैं मानो मनुष्यों के द्वारा सेवित गंगा के पुलिन ही हों ।।14।। जो देश कहीं तो शाक के खेतों से हरी-भरी शोभा को धारण करता है और कहीं वनपालों से आस्वादित नारियलों से सुशोभित है ।।15।।
जिनके फूल तोताओं की चोचों के अग्रभाग तथा वानरों के मुखों का संशय उत्पन्न करनेवाले हैं ऐसे अनार के बगीचों से वह देश युक्त है ।।16।। जो वनपालियों के हाथ से मर्दित बिजौरा के फलों के रस से लिप्त हैं, केशर के फूलों के समूह से शोभित हैं तथा फल खाकर और पानी पीकर जिन में पथिक जन सुख से सो रहे हैं, ऐसे दाखों के मंडप उस देश में जगह- जगह इस प्रकार लाये हुए हैं मानो वनदेवी के प्याऊ के स्थान ही हों ।।17-18।। जिन्हें पथिक जन तोड़ तोड़कर खा रहे हैं ऐसे पिंड खर्जूर के वृक्षों से तथा वानरों के द्वारा तोड़कर गिराये हुए केला के फलों से वह देश व्याप्त है ।।19।। जिनके किनारे ऊँचे-ऊँचे अर्जुन वृक्षों के वनों से व्याप्त हैं, जो गायों के समूह के द्वारा किये हुए उत्कट शब्द से युक्त कूलों को धारण कर रहे हैं, जो उछलती हुई मछलियों के द्वारा नेत्र खोले हुए के समान और फूले हुए सफेद कमलों के समूह से हँसते हुए के समान जान पड़ते है, ऊँची-ऊँची लहरों के समूह से जो ऐसे जान पड़ते हैं मानो नृत्य के लिए ही तैयार खड़े हों, उपस्थित हंसों की मधुर ध्वनि में जो ऐसे जान पड़ते हैं मानो गान ही कर रहे हों, जिनके उत्तमोत्तम तटों पर हर्ष से भरे मनुष्यों के झुंड के झुंड बैठे हुए हैं और जो कमलों से व्याप्त हैं ऐसे सरोवरों से वह देश प्रत्येक वन-खंडों में सुशोभित है ।।20-23।। हितकारी पालक जिनकी रक्षा कर रहे हैं ऐसे खेलते हुए सुंदर शरीर के धारक भेड़, ऊँट तथा गायों के बछड़ों से उस देश की समस्त दिशाओं में भीड़ लगी रहती है ।।24।। सूर्य के रथ के घोड़ों को लुभाने के लिए ही मानो जिनके पीठ के प्रदेश केशर की पंक से लिप्त हैं और जो चंचल अग्रभाग वाले मुखों से वायु का स्वच्छंदता पूर्वक इसलिए पान कर रही है मानो अपने उदर में स्थित बच्चों को गति के वेग की शिक्षा ही देनी चाहती हों, ऐसी घोड़ियो के समूह से वह देश व्याप्त है ।।25-26।। जो मनुष्यों के बहुत भारी गुणों के समूह के समान जान पड़ते हैं तथा जो अपने शब्द से लोगों का चित्त आकर्षित करते हैं ऐसे चलते-फिरते हंसों के झुंडों से वह देश कहीं-कहीं अत्यधिक सफेद हो रहा है ।।27।। संगीत के शब्दों से युक्त तथा मयूरों के शब्द से मिश्रित मृदंगो की मनोहर आवाज से उस देश का आकाश सदा शब्दायमान रहता है ।।28।। जो शरद् ऋतु के चंद्रमा के समान श्वेतवृत्त अर्थात् निर्मल चरित्र के धारक हैं (पक्ष में श्वेतवर्ण गोलाकार हैं), मुक्ताफल के समान हैं तथा आनंद के देने में चतुर हैं ऐसे गुणी मनुष्यों से वह देश सदा सुशोभित रहता है ।।29।। जिन्होंने आहार आदि की व्यवस्था से पथिकों के समूह को संतुष्ट किया है तथा जो फलों के द्वारा श्रेष्ठ वृक्षों के समान जान पड़ते है ऐसे बड़े-बड़े गृहस्थों के कारण उस देश में लोगों का सदा आवागमन होता रहता है ।।30।। कस्तूरी आदि सुगंधित द्रव्य तथा भाँति-भाँति के वस्त्रों से वेष्टित होने में कारण जो हिमालय के प्रत्यंत पर्वतों (शाखा) के समान जान पड़ते हैं ऐसे बड़े-बड़े लोग उस देश में निवास करते हैं ।।31।। उस देश में मिथ्यात्वरूपी दृष्टि के विकार जैन वचन रूपी अंजन के द्वारा दूर होते रहते हैं और पापरूपी वन महा-मुनियों की तपरूपी अग्नि से भस्म होता रहता है ।।32।।
उस मगध देश में सब ओर से सुंदर तथा फूलों की सुगंधि से मनोहर राजगृह नाग का नगर है जो ऐसा जान पड़ता है मानो संसार का यौवन ही हो ।।33।। वह राजगृह नगर धर्म अर्थात् यमराज के अंतःपुर के समान सदा मन को अपनी ओर खींचता रहता है क्योंकि जिस प्रकार यमराज का अंतःपुर केदार से युक्त शरीर को धारण करने वाली हजारों महिषियों अर्थात् भैंसों से युक्त होता है उसी प्रकार वह राजगृह नगर भी केशर से लिप्त शरीर को धारण करने वाली हजारों महिषियों अर्थात् रानियों से सुशोभित है। भावार्थ- महिषी नाम भैंस का है और जिसका राज्याभिषेक किया गया ऐसी रानी का भी है। लोक में यमराज महिषवाहन नाम से प्रसिद्ध हैं इसलिए उसके अंतःपुर में महिषों की स्त्रियो- महिषियों का रहना उचित ही है और राजगृह नगर में राजा की रानियों का सद्भाव युक्तियुक्त ही है ।।34।। उस नगर के प्रदेश जहाँ-तहाँ बालव्यजन अर्थात् छोटे-छोटे पंखों से सुशोभित थे और जहाँ-तहाँ उनमें मरुत अर्थात् वायु के द्वारा चमर कंपित हो रहे थे। इसलिए वह नगर इंद्र की शोभा को प्राप्त हो रहा था क्योंकि इंद्र के समीपवर्ती प्रदेश भी बालव्यजनों से सुशोभित होते हैं और उनमें मरुत् अर्थात् देवों के द्वारा चमर कंपित होते रहते हैं ।।35।। वह नगर, मानो त्रिपुर नगर को जीतना ही चाहता है क्योंकि जिस प्रकार त्रिपुर नगर के निवासी मनुष्य ईश्वरमार्गणै: अर्थात् महादेव के बाणों के द्वारा किये हुए संताप को प्राप्त हैं उस प्रकार उस नगर के मनुष्य ईश्वरमार्गणै: अर्थात् धनिक वर्ग की याचना से प्राप्त संताप को प्राप्त नहीं हैं- सभी सुख से संपन्न हैं ।।36।। बह नगर चुना से पुते सफेद महलों की पंक्ति से लसा जान पड़ता है मानो टांकियों से गढ़े चंद्रकांत मणियों से ही बनाया गया हो ।।37।। वह नगर मदिरा के नशा में मस्त स्त्रियों के आभूषणों की झनकार से सदा भरा रहता है इसलिए ऐसा जान पड़ता है मानो कुबेर की नगरी अर्थात् अलकापुरी का द्वितीय प्रतिबिंब ही हो ।।38।। उस नगर को श्रेष्ठ मुनियों ने तपोवन समझा था, वेश्याओं ने काम का मंदिर माना था, नृत्यकारों ने नृत्यभवन समझा था और शत्रुओं ने यमराज का नगर माना था ।।39।। शस्त्रधारियों ने वीरों का घर समझा था, याचकों ने चिंतामणि, विद्यार्थियों ने गुरु का भवन और वंदीजनों ने धूर्तों का नगर माना था ।।40।। संगीत शास्त्र के पारगामी विद्वानों ने उस नगर को गंधर्व का नगर और विज्ञान के ग्रहण करने में तत्पर मनुष्यों ने विश्वकर्मा का भवन समझा था ।।41।।
सज्जनों ने सत्समागम का स्थान माना था, व्यापारियों ने लाभ की भूमि और शरणागत मनुष्योंने वज्रमय लकड़ी से निर्मित-सुरक्षित पंजर समझा था ।।42।। समाचार प्रेषक उसे असुरों के बिल जैसा रहस्यपूर्ण स्थान मानते थे, चतुर जन उसे विटमंडली- विटों का जमघट समझते थे और समीचीन मार्ग में चलने वाले मनुष्य उसे किसी मनोज्ञ- उत्कृष्ट कर्म का सुफल मानते थे ।।43।। चारण लोग उसे उत्सवों का निवास, कामीजन अप्सराओं का नगर और सुखीजन सिद्धों का लोक मानते थे ।।44।। उस नगर की स्त्रियाँ यद्यपि मातंगगामिनी थीं अर्थात् चांडालों के साथ गमन करने वाली थीं फिर भी शीलवती कहलाती थीं (पक्ष में हाथियों के समान सुंदर चाल वाली थीं तथा शीलवती अर्थात् पातिब्रत्य धर्म से सुशोभित थीं) श्यामा अर्थात् श्यामवर्ण वाली होकर भी पद्मरागिण्य: अर्थात् पद्मराग मणि जैसी लाल कांति से संपन्न थीं (पक्ष में श्यामा अर्थात् नवयौवन में युक्त होकर पद्मरागिण्य अर्थात् कमलों में अनुराग रखने वाली थीं अथवा पद्मराग मणियों से युक्त थीं) साथ ही गौरी अर्थात् पार्वती होकर भी विभवाश्रया अर्थात् महादेव के आश्रय से रहित थीं ( पक्ष में गौर्य: अर्थात् गौर वर्ण होकर विभवाश्रया: अर्थात् संपदाओं से संपन्न थीं ) ।।45।। उन स्त्रियों के शरीर चंद्रकांत मणियों से निर्मित थे फिर भी वे शिरीष के समान सुकुमार थीं (पक्ष में उनके शरीर चंद्रमा के समान कांत- सुंदर थे और वे शिरीष के फूल के समान कोमल शरीर वाली थी)। वे स्त्रियाँ यद्यपि भुजंगों अर्थात् सर्पों के अगम्य थीं फिर भी उनके शरीर कंचुक अर्थात् काँचलियों से युक्त थे (पक्ष में भुजंगों अर्थात् विटपुरुषों के अगम्य थी और उनके शरीर कंचुक अर्थात् चोलियों से सुशोभित थे) ।।46।। वे स्त्रियां यद्यपि महालावण्य अर्थात् बहुत भारी खारापन से युक्त थीं फिर भी मघुराभास-तत्परा अर्थात् मिष्ट भाषण करने में तत्पर थीं (पक्ष में महालावण्य अर्थात् बहुत भारी सौंदर्य से युक्त थीं और प्रिय वचन बोलने में तत्पर थीं)। उनके मुख प्रसन्न तथा उज्ज्वल थे और उनकी चेष्टाएँ प्रमाद से रहित थीं ।।47।। वे स्त्रियाँ अत्यंत सुंदर थीं, स्थूल नितंबों की शोभा धारण करती थीं, उनका मध्यभाग अत्यंत मनोहर था, वे सदाचार से युक्त थीं और उत्तम भविष्य से संपन्न थीं (इस श्लोक में भी ऊपर के श्लोकों के समान विरोधाभास अलंकार है जो इस प्रकार घटित होता है―वहां की स्त्रियाँ दुर्विधा अर्थात् दरिद्र होकर भी कलम अर्थात् स्त्री-संबंधी भारी लक्ष्मी संपदा को धारण करती थी और सुवृत्त अर्थात् गोलाकार होकर भी आयर्ति गता अर्थात् लंबाई को प्राप्त थीं। इस विरोधाभास का परिहार अर्थ में किया गया है) ।।48।। उस राजगृह नगर का जो कोट था वह (मनुष्य) लोक के अंत में स्थित मानुषोतर पर्वत के समान जान पड़ता था तथा समुद के समान गंभीर परखा उसे चारों ओर से घेरे हुई थी ।।49।।
उस राजगृह नगर में श्रेणिक नाम का प्रसिद्ध राजा रहता था जो कि इंद्र के समान सर्ववर्णधर अर्थात् ब्राह्मण आदिक समस्त वर्णों की व्यवस्था करनेवाले (पक्ष में लाल-पीले आदि समस्त रंगों को धारण करने वाले) धनुष को धारण करता था ।।50।। वह राजा कल्याण प्रकृति था अर्थात् कल्याणकारी स्वभाव को धारण करनेवाला था (पक्ष में सुवर्णमय था) इसलिए सुमेरुपर्वत के समान जान पड़ता था और उसका चित्त मर्यादा के उल्लंघन से सदा भयभीत रहता था अत: वह समुद्र के समान प्रतीत होता था ।।51।। राजा श्रेणिक कलाओं के ग्रहण करने में चंद्रमा था, लोक को धारण करने में पृथिवीरूप था, प्रताप से सूर्य था और धन-संपत्ति से कुबेर था ।।52।। वह अपनी शूरवीरता से समस्त लोकों की रक्षा करता था फिर भी उसका मन सदा नीति से भरा रहता था और लक्ष्मी के साथ उसका संबंध था तो भी अहंकाररूपी ग्रह से वह कभी दूषित नहीं होता था ।।53।। उसने यद्यपि जीतने योग्य शत्रुओं को जीत लिया था तो भी वह शस्त्र-विषयक व्यायाम से विमुख नहीं रहता था। वह आपत्ति के समय भी कभी व्यय नहीं होता था और जो मनुष्य उसके समक्ष नम्रीभूत होते थे उनका वह सम्मान करता था ।।54।। वह दोषरहित सज्जनों को ही रत्न समझता था, पाषाण के टुकड़ों को तो केवल पृथ्वी का एक विशेष परिणमन ही मानता था ।।55।।
जिन में दान दिया जाता था, ऐसी क्रियाओं को― धार्मिक अनुष्ठानों को ही वह कार्य की सिद्धि का श्रेष्ठ साधन समझता था। मद से उत्कट हाथियों को तो वह दीर्घकाय कीड़ा ही मानता था ।।56।। सबके आगे चलने वाले यश में ही वह बहुत भारी प्रेम करता था। नश्वर जीवन को तो वह जीर्ण तृण के समान तुच्छ मानता था ।।57।। वह आर्यपुत्र कर प्रदान करने वाली दिशाओं को ही सदा अपना अलंकार समझता था स्त्रियों से तो सदा विमुख रहता था ।।58।। गुण अर्थात् डोरी से झुके धनुष को ही वह अपना सहायक समझता था। भोजन से संतुष्ट होने वाले अपकारी सेवकों के समुह को वह कभी भी सहायक नहीं मानता था ।।59।। उसके राज्य में वायु भी किसी का कुछ हरण नहीं करती थी फिर दूसरों की तो बात ही क्या थी। इसी प्रकार दुष्ट पशुओं के समूह भी हिंसा में प्रवृत्त नहीं होते थे फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या थी ।।60।। हरि अर्थात् विष्णु की चेष्टाएँ तो वृषघाती अर्थात् वृषासुर को नष्ट करने वाली थीं पर उसकी चेष्टाएँ वृषघाती अर्थात् धर्म का घात करने वाली नहीं थीं। इसी प्रकार महादेवजी का वैभव दक्षवर्गतापि अर्थात् राजा दक्ष के परिवार को संताप पहुँचाने वाला था परंतु उसका वैभव दक्षवर्गतापि अर्थात् चतुर मनुष्यों के समुह को संताप पहुँचाने वाला नहीं था ।।61।। जिस प्रकार इंद्र की चेष्टा गोत्रनाशकरी अर्थात् पर्वतों का नाश करने वाली थी उस प्रकार उसकी चेष्टा गोत्रनाशकारी अर्थात् वंश का नाश करने वाली नहीं थी और जिस प्रकार दक्षिण दिशा के अधिपति यमराज के अतिदंडग्रहप्रीति अर्थात् दंडधारण करने में अधिक प्रीति रहती है उस प्रकार उसके अतिदंडग्रहप्रीति अर्थात् बहुत भारी सजा देने में प्रीति नहीं रहती थी ।।62।।
जिस प्रकार वरुण का द्रव्य मगरमच्छ आदि दुष्ट जलचरो से रहित होता है उस प्रकार उसका द्रव्य दुष्ट मनुष्यों से रक्षित नहीं था अर्थात् उसका सब उपभोग कर सकते थे और जिस प्रकार कुबेर की सन्निधि अर्थात् उत्तमनिधि का पाना निष्फल है उस प्रकार उसकी सन्निधि अर्थात् सज्जनरूपी निधि का पाना निष्फल नहीं था ।।63।। जिस प्रकार बुद्ध का दर्शन अर्थात् अर्थवाद- वास्तविकवाद से रहित होता है उस प्रकार उसका दर्शन अर्थात् साक्षात्कार अर्थवाद- धन प्राप्ति से रहित नहीं होता था और जिस प्रकार चंद्रमा की भी बहुलदोषोपघातिनी अर्थात् कृष्णपक्ष की रात्रि से उपहत- नष्ट हो जाती है उस प्रकार उसकी भी बहुलदोषो-पघातिनी अर्थात् बहुत भारी दोषों से नष्ट होनेवाली नहीं थी ।।64।। याचक गण उसके त्यागगुण की पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सके थे अर्थात् वह जितना त्याग-दान करना चाहता था उतने याचक नहीं मिलते थे। शास्त्र उसकी बुद्धि की पूर्णता को प्राप्त नहीं थे, अर्थात् उसकी बुद्धि बहुत भारी थी और शास्त्र अल्प थे। इसी प्रकार सरस्वती उसकी कवित्व शक्ति की पूर्णता को प्राप्त नहीं थी अर्थात् वह जितनी कविता कर सकता था उतनी सरस्वती नहीं थी- उतना शब्द-भंडार नहीं था ।।65।। साहसपूर्ण कार्य उसकी महिमा का अंत नहीं पा सके थे, चेष्टाएं उसके उत्साह की सीमा नहीं प्राप्त कर सकी थीं, दिशाओं के अंत उसकी कीर्ति का अवसान नहीं पा सके थे और संध्या उसकी गुणरूप संपदा की पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकी थी अर्थात् उसकी गुणरूपी संपदा संरक्षा से रहित थी- अपरिमित थी ।।66।। समस्त पृथ्वीतल पर मनुष्यों के चित्त उसके अनुराग की सीमा नहीं पा सके थे, कला चतुराई उसकी कुशलता की अवधि नहीं प्राप्त कर सकी थीं और शत्रु उसके प्रताप- तेज की पूर्णता प्राप्त नहीं कर सके थे ।।67।।
इंद्र की सभा में जिसके उत्तम सम्यग्दर्शन की चर्चा होती थी उस राजा श्रेणिक के गुण हमारे जैसे तुच्छ शक्ति के धारक पुरुषों के द्वारा कैसे कहे जा सकते है ।।68।। वह राजा, उद्दंड शत्रुओं पर तो वज्रदंड के समान कठोर व्यवहार करता था और तपरूपी धन से समृद्ध गुणी मनुष्यों को नमस्कार करता हुआ उनके साथ बेंत के समान आचरण करता था ।।69।। उसने अपने भुजदंड से ही समस्त पृथिवी की रक्षा की थी-नगर के चारों ओर जो कोट तथा परखा आदिक वस्तुएँ थी वह केवल शोभा के लिए ही थीं ।।70।। राजा श्रेणिक की पत्नी का नाम चेलना था। वह शीलरूपी वस्त्राभूषणों से सहित थी सम्यग्दर्शन से शुद्ध थी तथा श्रावकाचार को जानने वाली थी ।।71।।
किसी एक समय, अनंत चतुष्टयरूपी लक्ष्मी से संपन्न तथा सुर और असुर जिनके चरणों को नमस्कार करते थे ऐसे महावीर जिनेंद्र उस राजगृह मगर के समीप आये ।।72।। वे महावीर जिनेंद्र, जो कि दिक्-कुमारियों के द्वारा शुद्ध किये हुए माता के उदर में भी मति, श्रुत तथा अवधि इन तीन ज्ञानों से सहित थे तथा जिन्हें उस गर्भवास के समय भी इंद्र के समान सुख प्राप्त था ।।73।। जिनके जन्म लेने के पहले और पीछे भी इंद्र के आदेश से कुबेर ने उनके पिता का घर रत्नों की वृष्टि से भर दिया था ।।74।। जिनके जन्माभिषेक के समय देवों ने इंद्रों के साथ मिलकर सुमेरु पर्वत के शिखर पर बहुत भारी उत्सव किया था ।।75।। जिन्होंने अपने पैर के अंगूठे से अनायास ही सुमेरुपर्वत को कंपित कर इंद्र से महावीर ऐसा नाम प्राप्त किया था ।।76।। बालक होने पर भी अबालकोचित कार्य करने वाले जिन महावीर जिनेंद्र के शरीर की वृत्ति इंद्र के द्वारा अँगूठे में सींचे हुए अमृत से होती थी ।।77।। बालकों जैसी चेष्टा करने वाले, मनोहर विनय के धारक, इंद्र के द्वारा भेजे हुए सुंदर देवकुमार सदा जिनकी सेवा किया करते थे ।।78।। जिनके साथ ही साथ माता-पिता का, बंधु-समूह का और तीनों लोकों का आनंद परम वृद्धि को प्राप्त हुआ था ।।79।। जिनके उत्पन्न होते ही पिता के चिरविरोधी प्रभावशाली समस्त राजा उनके प्रति नतमस्तक हो गये थे ।।80।।
जिनके पिता के भवन का आँगन रथों से, मदोन्मत्त हाथियों से, वायु के समान वेगशाली घोड़ों से, उपहार के अनेक द्रव्यों से युक्त ऊँटों के समूह से, छत्र, चमर, वाहन आदि विभूति का त्याग कर राजाधिराज महाराज के दर्शन की इच्छा करने वाले अनेक मंडलेश्वर राजाओं से तथा नाना देशों से आये हुए अन्य अनेक बड़े-बड़े लोगो से सदा क्षोभ को प्राप्त होता रहता था ।।81-83।। जिस प्रकार कमल जल में आसक्ति की प्राप्त नहीं होता- उससे निर्लिप्त ही रहता है उसी प्रकार जिनका चित्त कर्मरूपी कलंक की मंदता से मनोहारी विषयों में आसक्ति को प्राप्त नहीं हुआ था- उससे निर्लिप्त ही रहता था ।।84।। जो स्वयंबुद्ध भगवान् समस्त संपदा को बिजली की चमक के समान क्षणभंगुर जानकर विरक्त हुए और जिनके दीक्षाकल्याणक में लौकांतिक देवों का आगमन हुआ था ।।85।। जिन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों की आराधना कर चार घातिया कर्मों का विनाश किया था ।।86।। जिन्होंने लोक और अलोक को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान प्राप्त कर लोककल्याण के लिए धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया था तथा स्वयं कृतकृत्य हुए थे ।।87।। जो प्राप्त करने योग्य समस्त पदार्थ प्राप्त कर चुके थे और करने योग्य समस्त कार्य समाप्त कर चुके थे इसीलिए जिनकी समस्त चेष्टाएँ सूर्य के समान केवल परोपकार के लिए ही होती थीं ।।88।। जो जन्म से ही ऐसे उत्कृष्ट शरीर को धारण करते थे, जो कि मल तथा पसीना से रहित था, दूध के समान सफेद जिसमें रुधिर था, जो उत्तम संस्थान, उत्तम गंध और उत्तम संहनन से सहित था, अनंत बल से युक्त था, सुंदर-सुंदर लक्षणों से पूर्ण था, हित मित वचन बोलने वाला था और अपरिमित गुणो का भंडार था ।।89-90।।
जिनके बिहार करते समय दो सौ योजन तक दुर्भिक्ष आदि दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले कार्य तथा अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि ईतियो का होना संभव नहीं था ।।91।। जो समस्त विद्याओं की परमेश्वरता को प्राप्त थे। स्फटिक के समान निर्मल कांतिवाला जिनका शरीर छाया को प्राप्त नहीं होता था अर्थात् जिनके शरीर की परछाई नहीं पड़ती थी ।।92।। जिनके नेत्र टिमकार से रहित अत्यंत शांत थे, जिनके नख और महानील मणि के समान स्निग्ध कांति को धारण करनेवाले बाल सदा समान थे अर्थात् वृद्धि से रहित थे ।।93।। समस्त जीवों में मैत्रीभाव रहता था, विहार के अनुकूल मंद-मंद वायु चलती थी, जिनका विहार समस्त संसार के आनंद का कारण था ।।94।। वृक्ष सब ऋतुओं के फल-फूल धारण करते थे और जिनके पास आते ही पृथिवी दर्पण के समान आचरण करने लगती थी ।।95।। जिनके एक योजन के अंतराल में वर्तमान भूमि को सुगंधित पवन सदा धूलि, पाषाण और कंटक आदि से रहित करती रहती थी। ।96।। बिजली की माला से जिनकी शोभा बढ़ रही है ऐसे स्तनितकुमार― मेघ कुमार जाति के देव बड़े उत्साह और आदर के साथ उस योजनांतरालवर्ती भूमि को सुगंधित जल से सींचते रहते थे ।।97।। जो आकाश में विहार करते थे और विहार करते समय जिनके चरणों के तले देव लोग अत्यंत कोमल कमलों की रचना करते थे ।।98।। जिनके समीप आने पर पृथिवी बहुत भारी फलों के भार से नम्रीभूत धान आदि के पौधों से विभूषित हो उठती थी तथा सब प्रकार का अन्न उसमें उत्पन्न हो जाता था। ।।99।। आकाश शरद ऋतु के तालाब के समान निर्मल हो जाता था और दिशाएँ धूमक आदि दोषों से रहित होकर बड़ी सुंदर मासूम होने लगती थीं ।।100।। जिसमें हजार आरे देदीप्यमान हैं, जो कांति के समूह से जगमगा रहा है और जिसने सूर्य को जीत लिया है ऐसा धर्मचक्र जिनके आगे स्थित रहता था ।।101।।
ऊपर कही हुई विशेषताओं से सहित भगवान् वर्धमान जिनेंद्र राजगृह के समीपवर्ती उस विशाल विपुलाचलपर अवस्थित हुए जो कि नाना निर्झरों के मधुर शब्द से मनोहर था, जिसका प्रत्येक स्थान फूलों से सुशोभित था, जिसके वृक्ष लताओं से आलिंगित थे। सिंह, व्याघ्र आदि जीव वैररहित होकर निश्चिंतता से जिसकी अधित्यकाओं (उपरितन भागों) पर बैठे थे। वायु से हिलते हुए वृक्षों से जो ऐसा जान पड़ता था मानो नमस्कार ही कर रहा हो। ऊपर उछलते हुए झरनों के निर्मल छींटों से जो ऐसा जान पड़ता था मानो हँस ही रहा हो। पक्षियों के कलरव से ऐसा जान पड़ता था मानो मधुर भाषण ही कर रहा हो। मदोन्मत्त भ्रमरों की गुंजार से ऐसा जान पड़ता था मानो गा ही रहा हो। सुगंधित पवन से जो ऐसा जान पड़ता था मानो आलिंगन ही कर रहा हो। जिसके ऊँचे-ऊँचे शिखर नाना धातुओं की कांति के समूह से सुशोभित थे। जिसकी गुफाओं के अग्रभाग में सुख से बैठे हुए सिंहों के मुख दिख रहे थे। जिसकी सघन वृक्षावली के नीचे गजराज बैठे थे और जो अपनी महिमा से समस्त आकाश को आच्छादित कर स्थित था। जिस प्रकार अत्यंत रमणीय कैलास पर्वत पर भगवान् वृषभदेव विराजमान हुए थे उसी प्रकार उक्त विपुलाचल पर भगवान् वर्धमान जिनेंद्र विराजमान हुए ।।102-108।। उस विपुलाचल पर एक योजन विस्तार वाली भूमि समवशरण के नाम में प्रसिद्ध थी ।।109।। संसाररूपी शत्रु को जीतने वाले वर्धमान जिनेंद्र जब उस समवशरण भूमि में सिंहासनारूढ़ हुए तब इंद्र का आसन कंपायमान हुआ ।।110।। इंद्र ने उसी समय विचार किया कि मेरा यह सिंहासन किसके प्रभाव से कंपायमान हुआ है विचार करते ही उसे अवधिज्ञान से सब समाचार विदित हो गया ।।111।। इंद्र में सेनापति का स्मरण किया और सेनापति तत्काल ही हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। इंद्र ने उसे आदेश दिया कि सब देवों को यह समाचार मालूम कराओ कि भगवान् वर्धमान जिनेंद्र विपुलाचलपर विराजमान हैं इसलिए आप सब लोग एकत्रित होकर उनकी वंदना के लिए चलिए ।।112-113।।
तदनंतर इंद्र स्वयं उस ऐरावत हाथी पर आरूढ़ होकर चला जो कि शरद्ऋतु के मेघों के किसी बड़े समूह के समान जात पड़ता था। सुवर्णमय तटों के आघात से जिसकी खीसों का अग्रभाग पीला-पीला हो रहा था, जो सुवर्ण की मालाओं से युक्त था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो कमलों की पराग से जिसका जल पीला हो रहा है ऐसी नदी से परिवृत कैलास गिरि ही हो। जो मदांध भ्रमरों की पंक्ति से युक्त गंडस्थलों से सुशोभित था, कदंब के फूलों की पराग से मिलती-जुलती सुगंधि से जिसने समस्त संसार को व्याप्त कर लिया था, जिसके कानों के समीप शंख नामक आमरण दिखाई दे रहे थे, जो अपने लाल तालु से कमलों के वन को उगलता हुआ सा जान पड़ता था। जो दर्प के कारण ऐसा जान पड़ता था मानो सांस ही ले रहा हो। मद से ऐसा प्रतीत होता था मानो मूर्च्छा को ही प्राप्त हो रहा हो और यौवन से ऐसा विदित होता था मानो मोहित ही हो रहा हो। जिसके वस्त्रों के प्रदेश चिकने और शरीर के रोम कठोर थे, विनय के ग्रहण करने में जो समीचीन शिष्य के समान जान पड़ता था, जो मुख में परम गुरु था अर्थात् जिसका मुख बहुत विस्तृत था, जिसका मस्तक कोमल था, जो परिचय के ग्रहण करने में अत्यंत दृढ़ था, जो आयु में दीर्घता और स्कंध में ह्रस्वता धारण करता था अर्थात् जिसकी आयु विशाल थी और गरदन छोटी थी, जो उदर में दरिद्र था अर्थात् जिसका पेट कृश था, जो दान के मार्ग में सदा प्रवृत्त रहता था अर्थात् जिसके गंडस्थलों से सदा मद झरता रहता था, जो कलह संबंधी प्रेम के धारण करने में नारद था अर्थात् नारद के समान कलह प्रेमी था, जो नागों का नाश करने के लिए गरुड़ था, जो सुंदर नक्षत्रमाला (सत्ताईस दानों वाली माला- पक्ष में नक्षत्रों के समूह) से प्रदोष-रात्रि के प्रारंभ के समान जान पड़ता था, जो बड़े-बड़े घंटाओं का शब्द कर रहा था, जो लाल रंग के चमरी से विभूषित था और जो सिंदूर के द्वारा लाल-लाल दिखने वाले उन्नत गंडस्थलों के अग्रभाग से मनोहर था ।।114-123।।
जिनेंद्र भगवान के दर्शन संबंधी उत्साह से जिनके मुखकमल विकसित हो रहे थे ऐसे समस्त देव अपने-अपने वाहनों-पर सवार होकर इंद्र के साथ आ मिले ।।124।। देवों के सिवाय नाना अलंकारों को धारण करने वाले कमलायुध आदि विद्याधरों के राजा भी अपनी अपनी पत्नियों के साथ आकर एकत्रित हो गये ।।125।। तदनंतर भगवान् के वास्तविक, दिव्य तथा अत्यंत निर्मल गुणों के द्वारा आश्चर्य को प्राप्त हुए वचनों से इंद्र ने निम्न प्रकार स्तुति की ।।126।। हे नाथ! महामोहरूपी निशा के बीच सोते हुए इस समस्त जगत् को आपने अपने विशाल तेज के धारक ज्ञानरूपी सूर्य के बिंब से जगाया है ।।127।। हे भगवत्! आप वीतराग हो, सर्वज्ञ हो, महात्मा हो, और संसाररूपी समुद्र के दुर्गम अंतिम तट को प्राप्त हुए हो अत: आपको नमस्कार हो ।।128।। आप उत्तम सार्थवाह हो, भव्य जीवरूपी व्यापारी आपके साथ निर्वाण धाम को प्राप्त करेंगे और मार्ग में दोषरूपी चोर उन्हें नहीं लूट सकेंगे ।।129।। आपने मोक्षाभिलाषियो को निर्मल मोक्ष का मार्ग दिखाया है और ध्यान रूपी देदीप्यमान अग्नि के द्वारा कर्मों के समूह को भस्म किया है ।।130।। जिनका कोई बंधु नहीं और जिनका कोई नाथ नहीं, ऐसे दुख रूपी अग्नि में वर्तमान संसार के जीवों के आप ही बंधु हो, आप ही नाथ हो, तथा आप ही परम अभ्युदय के धारक हो ।।131।। हे भगवन! हम आपके गुणों का स्तवन कैसे कर सकते हैं जबकि वे अनंत हैं, उपमा से रहित हैं तथा केवल ज्ञानियों के विषय हैं ।।132।। इस प्रकार स्तुति कर इंद्र ने भगवान को नमस्कार किया। नमस्कार करते समय उसने मस्तक, घुटने तथा दोनों हस्त रूपी कमलों के कुड़मलों से पृथिवी तल का स्पर्श किया ।।133।। वह इंद्र भगवान का समवसरण देखकर आश्चर्य को प्राप्त हुआ था इसलिए यहाँ संक्षेप से उसका वर्णन किया जाता है ।।134।। इंद्र के आज्ञाकारी पुरुषों ने सर्वप्रथम समवसरण के तीन कोटों की रचना की थी जो अनेक वर्ण के बड़े-बड़े रत्नों से और स्वर्ण से निर्मित थे ।।135।। उन कोटो की चारों दिशाओं में चार गोपुर द्वार थे जो बहुत ही ऊंचे थे, बड़ी-बड़ी बावडिओ सुशोभित थे तथा रत्नों की कांति रूपी पर्दा से आवृत थे ।।136।। गोपुरों का वह स्थान अष्टमंगल द्रव्यों से युक्त था तथा वचनों से अगोचर कोई अद्भुत शोभा धारण कर रहा था ।।137।। उस समवसरण में स्फटिक की दीवालों से बारह कोठे बने हुए थे जो प्रदक्षिणा रुप से स्थित थे ।।138।। उन कोठों में से प्रथम कोठे में गणधरों से सुशोभित मुनिराज बैठे थे, दूसरे में इंद्राणियों के साथ-साथ कल्पवासी देवों की देवांगनायें थीं, तीसरे में गणिनीयों से सहित आर्यिकाओं का समूह बैठा था, चौथे में ज्योतिषी देवों की देवांगनायें थी, पांचवें में व्यंतर देवों की देवांगनायें बैठी थी, छठे में भवनवासी देवों की देवांगनायें बैठी थी, सातवें में ज्योतिषी देव ठे, आठवें व्यंतर देव थे, नौवें में भवनवासी देव थे, दसवें में कल्पवासी देव थे, ग्यारहवें में मनुष्य थे और बारहवें में बैरभाव से रहित त्रियंच सुख से बैठे थे ।।131-142।।
तदनंतर सब ओर से आने वाले देवों के समूह से जिसके मन में आश्चर्य उत्पन्न हो रहा था ऐसा महा बलवान और बहुत बड़ी सेना का नायक राजा श्रेणिक भी अपने नगर से बाहर निकला ।।143।। उसने वाहन आदि राजाओं के उपकरणों का दूर से ही त्याग कर दिया, फिर समवसरण में प्रवेश कर स्तुति पूर्वक जिनेंद्रदेव को नमस्कार कर अपना स्थान ग्रहण किया ।।144।। दयालु वारिषेण, अभय कुमार, विजयावह तथा अन्य राजकुमारों ने भी हाथ जोड़कर मस्तक से लगाये, स्तुति पढ़कर भगवान को नमस्कार किया। तदनंतर बहुत भारी विनय को धारण करते हुए वे सब अपने योग्य स्थानों पर बैठ गये।।145-146।। भगवन् वर्धमान समवशरण में जिस अशोक वृक्ष के नीचे सिंहासन पर विराजमान थे उसकी शाखाएँ वैदूर्य (नील) मणि की थीं, वह कोमल पल्लवों से शोभायमान था, फूलों के गुच्छों की कांति से उसने समस्त दिशाएँ व्याप्त कर ली थीं, वह अत्यंत सुशोभित था, कल्पवृक्ष के समान रमणीय था, मनुष्यों के शोक को हरने वाला था, उसके पत्ते हरे रंग वाले तथा सघन थे और वह नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित पर्वत के समान जान पड़ता था। उनका वह सिंहासन भी नाना रत्नों के प्रकाश से इंद्रधनुष को उत्पन्न कर रहा था। दिव्य वस्त्र से आच्छादित था, कोमल स्पर्श से मनोहारी था, इंद्र के सिर पर लगे हुए रत्नों की कांति के विस्तार को रोकने वाला था, तीन लोक की ईश्वरता के चिह्न स्वरूप तीन छत्रों से सुशोभित था, देवों के द्वारा बरसाये हुए फूलों से व्याप्त था, भूमि मंडल पर वर्तमान था, यक्षराज के हाथों में स्थित चंचल चमरों से सुशोभित था और दुंदुभि बाजों के शब्दों की शांतिपूर्ण प्रतिध्वनि उससे निकल रही थी ।।147-152।। भगवान की जो दिव्यध्वनि खिर रही थी वह तीन गति संबंधा जीवों की भाषा―रूप परिणमन कर रही थी तथा मेघों की सुंदर गर्जना के समान उसकी बुलंद आवाज थी ।।153।। वहाँ सूर्य के प्रकाश को तिरस्कृत करने वाले प्रभामंडल के मध्य में भगवान् विराजमान थे। गणधर के द्वारा प्रश्न किये जाने पर उन्होंने लोगों के लिए निम्न प्रकार से धर्म का उपदेश दिया था ।।154।।
उन्होंने कहा था कि सबसे पहले एक सत्ता ही तत्व है उसके बाद जीव और अजीव के भेद से तत्व दो प्रकार का है। उनमें भी जीव के सिद्ध और संसारी के भेद से दो भेद माने गये हैं ।।155।। इनके सिवाय जीवों के भव्य और अभव्य इस प्रकार दो भेद और भी हैं। जिस प्रकार उड़द आदि अनाज में कुछ तो ऐसे होते हैं जो पक जाते हैं- सीझ जाते हैं और कुछ ऐसे होते हैं कि जो प्रयत्न करने पर भी नहीं पकते हैं- नहीं सीजते हैं, उसी प्रकार जीवों में भी कुछ जीव तो ऐसे होते हैं जो कर्म नष्ट कर सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो सकते हैं और कुछ ऐसे होते हैं जो प्रयत्न करने पर भी सिद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकते। जो सिद्ध हो सकते हैं वे भव्य कहलाते हैं और जो सिद्ध नहीं हो सकते हैं वे अभव्य कहलाते हैं। इस तरह भव्य और अभव्य की अपेक्षा जीव दो तरह के हैं और अजीव तत्व के धर्म, अधर्म, आकाश, काल तथा पुद्गल के भेद से पाँच भेद हैं ।।156-157।।
जिनेंद्र भगवान के द्वारा कहे हुए तत्वों का श्रद्धान होना भव्यों का लक्षण है और उनका श्रद्धान नहीं होना अभव्यों का लक्षण है। एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रिय ये भव्य तथा अभव्य जीवों के उत्तर भेद हैं ।।158।। गति, काय, योग, वेद, लेश्या, कषाय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, गुणस्थान, निसर्गज एवं अधिगमज सम्यग्दर्शन, नामादि निक्षेप और सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव तथा अल्प बहुत्व इन आठ अनुयोगों के द्वारा जीव तत्व के अनेक भेद होते हैं ।।159-160।। सिद्ध और संसारी इन दो प्रकार के जीवों में संसारी जीव केवल दुःख का ही अनुभव करते रहते हैं। पंचेंद्रियों के विषयों से जो सुख होता है उन्हें संसारी जीव भ्रमवश सुख मान लेते हैं ।।161।। जितनी देर में नेत्र का पलक झपकता है उतनी देर के लिए भी नारकियों को सुख नहीं होता ।।162।। दमन, ताड़न, दोहन, वाहन आदि उपद्रवों से तथा शीत, घाम, वर्षा आदि के कारण तिर्यंचों को निरंतर दुःख होता रहता है ।।163।।
प्रियजनों के वियोग से, अनिष्ट वस्तुओं के समागम से तथा इच्छित पदार्थो के न मिलने से मनुष्य गति में भारी दुःख है ।।164।। अपने से उत्कृष्ट देवों के बहुत भारी भोगों को देखकर तथा वहाँ से च्युत होने के कारण देवों को दुःख उत्पन्न होता है ।।165।। इस प्रकार जब चारों गतियों के जीव बहुत अधिक दुःख से पीड़ित हैं तब कर्मभूमि पाकर धर्म का उपार्जन करना उत्तम है ।।166।। जो मनुष्य भव पाकर भी धर्म नहीं करते हैं मानो उनकी हथेली पर आया अमृत नष्ट हो जाता है ।।167।। अनेक योनियों से भरे इस संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव बहुत समय के बाद बड़े दुःख से मनुष्य भव को प्राप्त होता है ।।168।। उस मनुष्य भव में यह जीव अधिकांश लोभी तथा पाप करने वाले शबर आदि नीच पुरुषों में ही जन्म लेता है। यदि कदाचित् आर्य देश प्राप्त होता है तो वहाँ भी नीच कुल में ही उत्पन्न होता हैं ।।169।।
यदि भाग्यवश उच्च कुल भी मिलता है तो काना-लूला आदि शरीर प्राप्त होता है। यदि कदाचित् शरीर की पूर्णता होती है तो नीरोगता का होना अत्यंत दुर्लभ रहता है ।।170।। इस तरह यदि कदाचित् समस्त उत्तम वस्तुओं का समागम भी हो जाता है तो विषयों के आस्वाद का लोभ रहने से धर्मानुराग दुर्लभ ही रहा आता है ।।171।। इस संसार में कितने ही लोग ऐसे हैं जो दूसरों की नौकरी कर बहुत भारी कष्ट से पेट भर पाते हैं। उन्हें वैभव की प्राप्ति होना तो दूर रहा ।।172।। कितने ही लोग जिह्वा और काम इंद्रिय के वशीभूत होकर ऐसे संग्राम में प्रवेश करते है जो कि रक्त की कीचड़ से घृणित तथा शस्त्रों की वर्षा से भयंकर होता है ।।173।। कितने ही लोग अनेक जीवों को बाधा पहुँचाने वाली भूमि जोतने की आजीविका कर बड़े क्लेश से अपने कुटुंब का पालन करते हैं और उतने पर भी राजाओं को ओर से निरंतर पीड़ित रहते हैं ।।174।। इस तरह सुख की इच्छा रखनेवाले जीव जो कार्य करते हैं वे उसी में बहुत भारी दुःख को प्राप्त करते हैं ।।175।। यदि किसी तरह कष्ट से धन मिल भी जाता है तो चोर, अग्नि, जल और राजा से उसकी रक्षा करता हुआ यह प्राणी बहुत दुःख पाता है और उससे सदा व्याकुल रहता है ।।176।। यदि प्राप्त हुआ धन सुरक्षित भी रहता है तो उसे भोगते हुए इस प्राणी को कभी शांति नहीं होती क्योंकि उसकी लालसा रूपी अग्नि प्रति दिन बढ़ती रहती है ।।177।।
यदि किसी तरह पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के उदय से धर्म भावना को प्राप्त होता भी है तो अन्य दुष्टजनों के द्वारा पुन: उसी संसार के मार्ग में ला दिया जाता है ।।178।। अन्य पुरुषों के द्वारा नष्ट हुए सत्पुरुष अन्य लोगों को भी नष्ट कर देते है, पथ भ्रष्ट कर देते हैं और धर्म सामान्य की अपेक्षा केवल रूढि का ही पालन करते हैं ।।179।। परिग्रही मनुष्यों के चित्त में विशुद्धता कैसे हो सकती है और जिसमें चित्त की विशुद्धता ही मूल कारण है ऐसी धर्म की स्थिति उन परिग्रही मनुष्यों में कहाँ से हो सकती है ।।180।। जब तक परिग्रह में आसक्ति है तब तक प्राणियों की हिंसा होना निश्चित है। हिंसा ही संसार का मूल कारण है और दु:ख को ही संसार कहते हैं ।।181।। परिग्रह के संबंध से राग और द्वेष उत्पन्न होते हैं तथा राग और द्वेष ही संसार संबंधी दुःख के प्रबल कारण है ।।182।।
दर्शनमोह कर्म का उपशम होने से कितने ही प्राणी यद्यपि सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेते हैं तथापि चारित्र मोह के आवरण से आवृत रहने के कारण वे सम्यक् चारित्र को प्राप्त नहीं कर सकते ।।183।। कितने ही लोग सम्यक् चारित्र को पाकर श्रेष्ठ तप भी करते हैं परंतु दु:खदायी परिषहों के निमित्त से भ्रष्ट हो जाते हैं ।।184।। परिषहों के निमित्त से भ्रष्ट हुए कितने ही लोग अणुव्रतों का सेवन करते हैं और कितने ही केवल सम्यग्दर्शन से संतुष्ट रह जाते हैं अर्थात् किसी प्रकार का व्रत नहीं पालते हैं ।।185।। कितने ही लोग संसाररूपी गहरे कुए से हस्तावलंबन देकर, निकालने वाले सम्यग्दर्शन को छोड़कर फिर से मिथ्यादर्शन की सेवा करने लगते हैं ।।186।। तथा ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव निरंतर दु:खरूपी अग्नि के बीच रहते हुए संकटपूर्ण संसार में भ्रमण करते रहते हैं ।।187।। कितने ही ऐसे महा शूरवीर पुण्यात्मा जीव हैं जो ग्रहण किये हुए चारित्र को जीवन पर्यंत धारण करते हैं ।।188।। और समाधिपूर्वक शरीर त्याग कर निदान के दोष से नारायण आदि पद को प्राप्त होते हैं ।।189।। जो नारायण होते हैं वे दूसरों को पीड़ा पहुंचाने में तत्पर रहते हैं तथा उनका चित्त निर्दय रहता है इसलिए वे मरकर नियम से नरकों में भारी दुःख भोगते हैं ।।190।।
कितने ही लोग सुतप करके इंद्र पद को प्राप्त होते हैं। कितने ही बलदेव पदवी पाते हैं और कितने ही अनुत्तर विमानों में निवास प्राप्त करते हैं ।।191।। कितने ही महाधैर्यवान् मनुष्य षोडश कारण भावनाओं का चिंतवन कर तीनों लोकों में क्षोभ उत्पन्न करने वाले तीर्थकर पद प्राप्त करते हैं ।।192।। और कितने ही लोग निरंतराय रूप से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र की आराधना में तत्पर रहते हुए दो-तीन भव में ही अष्ट कर्मरूप कलंक से मुक्त हो जाते हैं ।।193।। वे फिर मुक्त जीवों के उत्कृष्ट एवं निरुपम स्थान को पाकर अनंत काल तक निर्बाध उत्तम का उपभोग करते हैं ।।194।।
इस प्रकार जिनेंद्र भगवान के मुखारबिंद से निकले हुए धर्म को सुनकर मनुष्य, तिर्यंच तथा देव तीनों गति के जीव परम हर्ष को प्राप्त हुए ।।195।। धर्मोपदेश सुनकर कितने ही लोगों ने अणुव्रत धारण किये और संसार से भयभीत चित्त होकर कितने ही लोगों ने दिगंबर दीक्षा धारण की ।।196।। कितने ही लोगों ने केवल सम्यग्दर्शन ही धारण किया और कितने ही लोगों ने अपनी शक्ति के अनुसार पाप कार्यों का त्याग किया ।।197।। इस तरह धर्म श्रवण कर सबने श्री वर्धमान जिनेंद्र की स्तुति कर उन्हें विधिपूर्वक नमस्कार किया और तदनंतर धर्म में चित्त लगाते हुए सब यथायोग्य अपने अपने स्थान पर चले गये ।।198।। धर्म श्रवण करने से जिसकी आत्मा हर्षित हो रही थी ऐसे महाराज श्रेणिक ने भी राजलक्ष्मी से सुशोभित होते हुए अपने नगर में प्रवेश किया ।।199।।
तदनंतर सूर्य ने पश्चिम समुद्र में अवगाहन करने की इच्छा की सो ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान के उत्कृष्ट तेज पुंज को देखकर वह इतना अधिक लज्जित हो गया था कि समुद्र में डूबकर आत्मघात ही करना चाहता था ।।200।। संध्या के समय सूर्य अस्ताचल के समीप पहुँचकर अत्यंत लालिमा को धारण करने लगा था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो पद्मराग मणियों की किरणों से आच्छादित होकर ही लालिमा धारण करने लगा था ।।201।। निरंतर सूर्य का अनुगमन करने वाली किरणें भी मंद पड़ गयीं सो ठीक ही है क्योंकि स्वामी के विपत्तिग्रस्त रहते हुए किसके तेज की वृद्धि हो सकती है? अर्थात् किसी के नहीं ।।202।।
तदनंतर चकवियों ने अश्रु भरे नेत्रों से सूर्य की ओर देखा इसलिए उन पर दया करने के कारण ही मानो वह धीरे-धीरे अदृश्य हुआ था ।।23।। धर्म श्रवण करने से प्राणियों ने जो राग छोड़ा था संध्या के छल से मानो उसी ने दिशाओं के मंडल को आच्छादित कर लिया था ।।204।। जिस प्रकार मित्र बिना प्रार्थना किये ही लोगों के उपकार करने में प्रवृत्त होता है उसी प्रकार सूर्य भी बिना प्रार्थना किये ही हम लोगों के उपकार करने में प्रवृत्त रहता है इसलिए सूर्य का अस्त हो रहा है मानो मित्र ही अस्त हो रहा है ।।205।। उस समय कमल संकुचित हो रहे थे जिससे ऐसे जान पड़ते थे मानो अस्तंगामी सूर्य के प्रलयोन्मुख राग (लालिमा) को ग्रास बना-बनाकर ग्रहण ही कर रहे थे ।।206।। जिसने विस्तार और ऊँचाई को एक रूप में परिणत कर दिया था तथा जिसका निरूपण नहीं किया जा सकता था ऐसा अंधकार प्रकटता को प्राप्त हुआ। जिस प्रकार दुर्जन की चेष्टा उच्च और नीच को एक समान करती है तथा विषमता के कारण उसका निरूपण करना कठिन होता है उसी प्रकार वह अंधकार भी ऊंचे-नीचे प्रदेशों को एक समान कर रहा था और विषमता के कारण उसका निरूपण करना भी कठिन था ।।207।। जिस प्रकार पूनम का पटल बुझती हुई अग्नि को आच्छादित कर लेता है उसी प्रकार बढ़ते हुए समस्त अंधकार ने संध्या संबंधी अरुण प्रकाश को आच्छादित कर लिया था ।।208।। चंपा की कलियों के आकार को धारण करनेवाला दीपकों का समूह वायु के मंद-मंद झोंके से हिलता हुआ ऐसा जान पड़ता था मानो रात्रि रूपी स्त्री के कर्ण फूलों का समूह ही हो ।।209।। जो कमलों का रस पीकर तृप्त हो रहे थे तथा मृणाल के द्वारा खुजली कर अपने पंख फड़फड़ा रहे थे ऐसे राजहंस पक्षी निद्रा का सेवन करने लगे ।।210।। जो स्त्रियों की चोटियों में गुथी मालती की मालाओं को हरण कर रही थी ऐसी संध्या समय की वायु रात्रि रूपी स्त्री के श्वासोच्छवास के समान धीरे-धीरे बहने लगी ।।211।। ऊँची उठी हुई केशर की कणिकाओं के समूह से जिनकी संकीर्णता बढ़ रही थी ऐसी कमल की कोटरों में भ्रमरों के समूह सोने लगे ।।212।। जिस प्रकार जिनेंद्र भगवान के अत्यंत निर्मल उपदेशों के समूह से तीनों लोक रमणीय हो जाते हैं उसी प्रकार अत्यंत उज्जवल ताराओं के समूह से आकाश रमणीय हो गया था ।।213।। जिस प्रकार जिनेंद्र भगवान के द्वारा कहे हुए नय से एकांतवादियों के वचन खंड-खंड हो जाते हैं उसी प्रकार चंद्रमा की निर्मल किरणों के प्रादुर्भाव से अंधकार खंड-खंड हो गया था ।।214।।
तदनंतर लोगों के नेत्रों ने जिसका अभिनंदन किया था और जो अंधकार के ऊपर क्रोध धारण करने के कारण ही मानो कुछ कुछ काँपते हुए लाल शरीर को धारण कर रहा था ऐसे चंद्रमा का उदय हुआ ।।215।। जब चंद्रमा की उज्जवल चांदनी सब ओर फैल गयी तब यह संसार ऐसा जान पड़ने लगा मानो अंधकार से खिन्न होकर क्षीर समुद्र की गोद में ही बैठने की तैयारी कर रहा हो ।।216।। सहसा कुमुद फूल उठे सो वे ऐसे जान पड़ते थे मानो चंद्रमा की किरणों का स्पर्श पाकर ही बहुत भारी आमोद- हर्ष (पक्ष में गंध) को धारण कर रहे थे ।।217।। इस प्रकार स्त्री पुरुषों की प्रीति से जिसमें अनेक समद- उत्सवों की वृद्धि हो रही थी और जो जनसमुदाय को सुख देनेवाला था ऐसा प्रदोष काल जब स्पष्ट रूप से प्रकट हो चुका था, राजकार्य निपटा कर जिनेंद्र भगवान की कथा करता हुआ श्रेणिक राजा उस शय्या पर सुख से सो गया जो कि तरंगों के कारण क्षत-विक्षत हुए गंगा के पुलिन के समान जान पड़ती थी। जड़े हुए रत्नों की कांति से जिसने महल के समस्त मध्यभाग को आलिंगित कर दिया था, जिसके फूलों की उत्तम सुगंधि झरोखों से बाहर निकल रही थी, पास में बैठी वेश्याओं के मघुरगान से जो मनोहर थी, जिसके पास ही स्फटिकमणि निर्मित आवरण से आच्छादित दीपक जल रहा था, अंगरक्षक लोग प्रमाद छोड़कर जिसकी रक्षा कर रहे थे, जो फूलों के समूह से सुशोभित पृथिवी तल पर बिछी हुई थी, जिस पर कोमल तकिया रखा हुआ था, जिनेंद्र भगवान के चरणकमलों से पवित्र दिशा की ओर जिसका सिरहाना था तथा जिसके प्रत्येक पाये पर सूक्ष्म किंतु विस्मृत पट्ट बिछे हुए थे ।।218-224।। राजा श्रेणिक स्वप्न में भी बार-बार जिनेंद्र भगवान के दर्शन करता था, बारबार उन्हीं से संशय की बात पूछा था और उन्हीं के द्वारा कथित तत्त्व का पाठ करता था ।।225।।
तदनंतर मदोन्मत्त गजराज की निद्रा को दूर करने वाले, महल की कक्षाओं रूपी गुफाओं में गूंजने वाले एवं बड़े-बड़े मेघों की गंभीर गर्जना को हरने वाले प्रातःकालीन तुरही के शब्द सुनकर राजा श्रेणिक जागृत हुआ ।।226-227।। जागते ही उसने भगवान् महावीर के द्वारा भाषित, चक्रवर्ती आदि वीर पुरुषों के धर्म वर्धक चरित का एकाग्रचित्त से चिंतवन किया ।।228।। अथानंतर उसका चित्त बलभद्र पद के धारक रामचंद्रजी के चरित की ओर गया और उसे राक्षसों तथा वानरों के विषय में संदेह सा होने लगा ।।229।। वह विचारने लगा कि अहो! जो जिनधर्म के प्रभाव से उत्तम मनुष्य थे, उच्चकुल में उत्पन्न थे, विद्वान् थे और विद्याओं के द्वारा जिनके मन प्रकाशमान थे ऐसे रावण आदिक लौकिक ग्रंथों में चर्बी, रुधिर तथा मांस आदि का पान एवं भक्षण करने वाले राक्षस सुने जाते हैं ।।230-231।। रावण का भाई कुंभकर्ण महाबलवान था और घोर निद्रा से युक्त होकर छह माह तक निरंतर सोता रहता था ।।232।। यदि मदोन्मत्त हाथियों के द्वारा भी उसका मर्दन किया जाये, तपे हुए तेल के कड़ाही से उसके कान भरे जावें और भेरी तथा शंखों का बहुत भारी शब्द किया जाये तो भी समय पूर्ण न होने पर वह जागृत नहीं होता था ।।233-234।। बहुत बड़े पेट को धारण करनेवाला वह कुंभकर्ण जब जागता था तब भूख और प्यास से इतना व्याकुल हो उठता था कि सामने हाथी आदि जो भी दिखते थे उन्हें खा जाता था। इस प्रकार वह बहुत ही दुर्धर था ।।235।। तिर्यंच, मनुष्य और देवों के द्वारा वह तृप्ति कर पुन: सो जाता था उस समय उसके पास अन्य कोई भी पुरुष नहीं ठहर सकता था ।।236।। अहो! कितने आश्चर्य को बात है कि पाप वर्धक खोटे ग्रंथों की रचना करने वाले मूर्ख कुकवियो ने उस विद्याधर कुमार का कैसा बीभत्स चरित चित्रण किया है ।।237।। जिसमें यह सब चरित्र चित्रण किया गया है वह ग्रंथ रामायण के नाम से प्रसिद्ध है और जिसके विषय में यह प्रसिद्धि है कि वह सुननेवाले मनुष्यों के समस्त पाप तत्क्षण में नष्ट कर देता है ।।238।। सो जिसका चित्त ताप का त्याग करने के लिए उत्सुक है उसके लिए यह रामायण मानो अग्नि का समागम है और जो शीत दूर करने की इच्छा करता है उसके लिए मानो हिम मिश्रित शीतल वायु का समागम है ।।239।। घी की इच्छा रखनेवाले मनुष्य का जिस प्रकार पानी का बिलोवना व्यर्थ है और तेल प्राप्त करने की इच्छा रखनेवाले मनुष्य का बालू का पेलना निसार है उसी प्रकार पाप त्याग की इच्छा करने वाले मनुष्य का रामायण का आश्रय लेना व्यर्थ है ।।240।। जो महापुरुषों के चारित्र में प्रकट करते हैं ऐसे अधर्म शास्त्रों में भी पापी पुरुषों ने धर्मशास्त्र की कल्पना कर रखी है ।।241।। रामायण में यह भी लिखा है कि रावण ने कान तक खींचकर छोड़े हुए बाणों से देवों के अधिपति इंद्र को भी पराजित कर दिया था ।।242।। अहो! कहाँ तो देवों का स्वामी इंद्र और कहाँ वह तुच्छ मनुष्य जो कि इंद्र की चिंता मात्र से भस्म की राशि हो सकता है? ।।243।। जिसके ऐरावत हाथी था और वज्र जैसा महान् शस्त्र था तथा जो सुमेरु पर्वत और समुद्रों से सुशोभित पृथिवी को अनायास ही उठा सकता था ।।244।। ऐसा इंद्र अल्प शक्ति के धारक विद्याधर के द्वारा जो कि एक साधारण मनुष्य ही था कैसे पराजित हो सकता था ।।245।। उसमें यह भी लिखा है कि राक्षसों के राजा रावण ने इंद्र को अपने बंदी गृह में पकड़कर रखा था और उसने बंधन से बद्ध होकर लंका के बंदी गृह में चिरकाल तक निवास किया था ।।246।। सो ऐसा कहना मृगों के द्वारा सिंह का वध होना, तिलों के द्वारा शिलाओं का पिसा जाना, पनिया साँप के द्वारा नाग का मारा जाना और कुत्ता के द्वारा गजराज का दमन होने के समान है ।।247।। व्रत के धारक रामचंद्रजी ने सुवर्ण मृग को मारा था और स्त्री के पीछे सुग्रीव के बड़े भाई वाली को जो कि उसके पिता के समान था, मारा था ।।248।। यह सब कथानक युक्तियों से रहित होने के कारण श्रद्धान करने के योग्य नहीं है। यह सब कथा मैं कल भगवान् गौतम गणधर से पूछूँगा ।।241।। इस प्रकार बुद्धिमान् महाराज श्रेणिक चिंता कर रहे थे कि तुरही का शब्द बंद होते ही वंदीजनों ने जोर से जयघोष किया ।।250।। उसी समय महाराज श्रेणिक के समीपवर्ती चिरजीवी कुल पुत्र ने जागकर स्वभाववश निम्न श्लोक पढ़ा कि जिस पदार्थ को स्वयं जानते है उस पदार्थ को भी गुरुजनों से नित्य ही पूछना चाहिए क्योंकि उनके द्वारा निश्चय को प्राप्त कराया हुआ पदार्थ परम सुख प्रदान करता है ।।251-252।। इस सुंदर निमित्त से जो आनंद को प्राप्त थे तथा अपनी स्त्रियों ने जिनका मंगलाचार किया था ऐसे महाराज श्रेणिक शय्या से उठे ।।253।।
तदनंतर- पुष्प रूपी पट के भीतर सोकर बाहर निकले हुए भ्रमरों की मधुर गुजार से जिसका एक भाग बहुत ही रमणीय था, जिसके भीतर जलते हुए निष्प्रभ दीपक प्रातःकाल को शीत वायु के झोंक से हिल रहे थे और जो बहुत ही शोभा संपन्न था ऐसे निवास गृह से राजा श्रेणिक बाहर निकले ।।254।। बाहर निकलते ही उन्होंने लक्ष्मी के समान कांति वाली तथा कर कुड्मलों के द्वारा कमलों की शोभा को प्रकट करने वाली वीरांगनाओं के नुकीले दाँतों से दष्ट श्रेष्ठ बिंब से निर्गत जयनाद को सुना ।।255।। इस प्रकार अत्यंत शुभ ध्यान के प्रभाव से निश्चलता को प्राप्त हुए शुभ भाव से जिन्हें तत्काल के उपयोगी समस्त शुभ भावों की प्राप्ति हुई थी ऐसे महाराज श्रेणिक, सफेद कमल के समान कांति वाले निवास गृह से बाहर निकलकर शरद् ऋतु के मेघों के समूह से बाहर निकले हुए सूर्य के समान सुशोभित हो रहे थे ।।256।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्म चरित में महाराज श्रेणिक
की चिंता को प्रकट करने वाला दूसरा पर्व पूर्ण हुआ ।।2।