ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 31
From जैनकोष
अथानंतर किसी समय कुमार वसुदेव प्रभावती के साथ महल में सो रहे थे कि उसी समय उनका वैरी सूर्पक उन्हें हरकर आकाश में ले गया । कुछ देर बाद जब उनकी नींद खुली तो मुक्कों के प्रहार से उन्होंने शत्रु को पीटना शुरू किया । मुक्कों की मार से घबड़ाकर सूर्पक ने उन्हें आकाश से छोड़ दिया जिससे वे शरीर को सुख पहुँचाने वाले गोदावरी के कुंड में गिरे ॥1-2॥ वहाँ से निकलकर वे कुंडपुर ग्राम में पहुंचे । वहाँ का राजा पद्मरथ था । उसकी कला-कौशल से सुशोभित एक सुंदरी कन्या थी । उस कन्या को प्रतिज्ञा थी कि जो मुझे माला गूंथने में पराजित करेगा उसी के साथ मैं विवाह करूंगी । कुमार वसुदेव ने उसे माला गूंथने का कौशल दिखाकर प्राप्त किया― उसके साथ विवाह किया ॥3 ॥ एक दिन कुमार का शत्रु नीलकंठ वहाँ से भी उन्हें हरकर ले गया तथा आकाश में ले जाकर उसने छोड़ दिया । भाग्यवश कुमार चंपानगरी के तालाब में गिरे । वहाँ से निकलकर उन्होंने चंपापुरी में प्रवेश किया तथा वहाँ के मंत्री की पुत्री के साथ विवाह किया ॥4॥ एक दिन कुमार चंपानगरी में जलक्रीड़ा कर रहे थे कि वैरी सूर्पक फिर हर ले गया । अब की बार उससे छूटकर अनेक मनोरथों को धारण करने वाले कुमार भागीरथी नदी में गिरे ॥5॥ वहाँ से निकलकर वे अटवी में घूमने लगे । वहाँ म्लेच्छों के राजा ने उन्हें देखा जिससे वे म्लेच्छराज की जरा नामक कन्या को विवाहकर वहीं रहने लगे ॥6॥ उन्नत पराक्रम को धारण करने वाले वसुदेव ने उस कन्या में जरत्कुमार नाम का पुत्र उत्पन्न किया । उसी समय कुमार ने अवंती सुंदरी और शूरसेना नाम की उत्तम कन्या को भी प्राप्त किया ॥7॥ तदनंतर पुरुष को खोजने वाली जीवंद्यशा नाम की कन्या को एवं अनेक कन्याओं को विवाह कर कुमार वसुदेव अरिष्टपुर नामक नगर आये ॥8॥ उस समय वहाँ युद्ध में शत्रुओं को रोकने वाला धीर-वीर रुधिर नाम का राजा था । उसकी मित्रा नाम की महारानी थी जो कांतिरूपी संपदा से देवी के समान जान पड़ती थी ॥5॥ उन दोनों के नीति का वेत्ता, रण-निपुण, महापराक्रमी एवं शस्त्र और शास्त्र का अभ्यास करने वाला हिरण्य नाम का ज्येष्ठ पुत्र था ॥10॥ और कलाओं की पार गामिनी, रूप तथा यौवन के अभ्युदय को धारण करने वाली, रोहिणी नाम की पुत्री थी । वह पुत्री सचमुच ही रोहिणी तारा के समान कीर्तिमती थी ॥11॥ रोहिणी के स्वयंवर में जरासंध को आगे कर समुद्रविजय आदि समस्त राजा आये ॥12॥ शोभित शरीर को धारण करने वाले राजा लोग स्वयंवर मंडप में नाना प्रकार के मणिमयी खंभों से सुशोभित मंचों पर यथाक्रम से बैठ गये ॥ 13 ॥ भाइयों की पहचान में न आ सके ऐसे वेष को धारण करने वाले कुमार वसुदेव भी स्वयंवर में गये और पणव नामक बाजा बजाने वालों के पास जाकर बैठ गये । उस समय कुमार अपने हाथ में पणव नामक बाजा लिये हुए थे और उसके बजाने वालों में सबसे अग्रणी जान पड़ते थे ॥14॥
तदनंतर सौभाग्य की भूमि और रोहिणी-तारा के समान अतिशय रूपवती रोहिणी कन्या ने स्वयंवर के भीतर प्रवेश किया ॥15॥ उस समय समस्त राजाओं ने मुड़-मुड़कर, आकुलता से युक्त नेत्रों द्वारा एक साथ उसका अवलोकन किया । उस समय उसकी ओर देखने वाले राजा ऐसे जान पड़ते थे मानो नेत्ररूपी कमलों से उसकी पूजा ही कर रहे हों ॥ 16 ॥ जिन राजाओं को पहले उसका रूप सुनकर परम प्रीति उत्पन्न हुई थी अब उसका रूप देखकर उन राजाओं की वह परम प्रीति और भी अधिक महत्त्व को प्राप्त हो गयी ॥ 17 ॥ सो ठीक ही है क्योंकि जो अनुरागरूपी अग्नि श्रवणरूपी रूई की संतति में लगकर धीरे-धीरे सुलग रही थी वह यदि दर्शन रूपी ईंधन को पाकर एकदम प्रज्वलित हो उठे तो उसकी वृद्धि का क्या कहना है ? ॥ 18 ॥ तदनंतर जब शंख और तुरही आदि वादित्रों का शब्द शांत हुआ तब पवित्र वचन बोलने वाली धाय, अलंकारों को धारण करने वाली माननीय कन्या को राजाओं के सम्मुख ले जाकर कहने लगी ॥ 19 ॥ कि हे पुत्री ! जिसका यह चंद्र-मंडल के समान सफेद छत्र, तीन खंडों की विजय से प्राप्त यशरूपी धन के समान सुशोभित हो रहा है और समस्त भूमिगोचरी तथा विद्याधर राजा जिसके आज्ञाकारी हैं ऐसा यह वसुधा का स्वामी राजा जरासंध बैठा है ॥ 20-21॥ हे रोहिणी ! तुझे पाने के लोभ से रोहिणी का समागम छोड़कर पृथिवी पर आये हुए चंद्रमा के समान जान पड़ता है ऐसे इस राजा जरासंध को तू स्वीकृत कर ॥22॥ सत्त्वगुण को धारण करने वाली धाय ने जब देखा कि इसका अनुराग जरासंध में नहीं है तब उसने आगे बढ़कर कहा कि ये जरासंध के पुत्र हैं । इनमें से जो तुझे पसंद हो उसे वर ॥23॥ उनमें भी जब अनुराग नहीं देखा तब चित्त को जानने वाली धाय ने आगे बढ़कर कहा कि हे बेटी ! यह आगे मथुरा के स्वामी राजा उग्रसेन बैठे हैं यदि तेरी रुचि हो तो इसकी ओर देख ॥24॥ तदनंतर विवेकवती धाय ने आगे बढ़कर कहा कि सौर्यपुर के स्वामी समुद्रविजय आदि को देख, यदि तेरी रुचि हो तो इनमें से किसी एक के गले में माला डाल ॥25॥ धाय के इस प्रकार कहने पर कन्या के चित्त ने उन सबके ऊपर गुरु के समान गौरव धारण किया अर्थात् उन्हें गुरु समझकर प्रणाम किया । तदनंतर धाय ने कन्या के लिए राजा पांडु को दिखाया और उसके बाद विदुर को भी दिखलाया ॥26॥ जब उसे इनमें से किसी पर भी कन्या का अनुराग नहीं दिखा तब उसने यश की घोषणा करने वाले दम घोष, अतिशय पराक्रमी दत्तवक्त्र, शत्रुओं के लिए शल्य के समान दुःख देने वाले शल्य, सार्थक नाम को धारण करने वाले शत्रुंजय, चंद्रमा के समान सुंदर चंद्राभ, अतिशय मुख्य कालमुख, कमल के समान नेत्रों को धारण करने वाले पौंड्र, मात्सर्य से रहित मत्स्य, विजय प्राप्त करने में लीन संजय, राजाओं में उत्तम सोमदत्त, भाइयों सहित सोमदत्त का आज्ञाकारी पुत्र भूरिश्रवा, अंशुमान् नामक पुत्र से सहित तथा अतिशय विशाल नेत्रों को धारण करने वाला राजा कपिल, राजा पद्मरथ, सोम-चंद्रमा के समान सौम्य राजा सोमक, इंद्र के समान आभा को धारण करने वाला देवक और लक्ष्मीरूपी वधू से सेवित श्रीदेव राजा को दिखाया तथा इन सब राजाओं को दिखाकर उनके वंश और स्थान आदि का भी वर्णन किया ॥27-31॥ तदनंतर न्याय को जानने वाली धाय ने कन्या के लिए और भी अनेक राजाओं का परिचय देते हुए कहा कि हे बाले ! मुख्य इतने ही हैं । इस तरह चुपचाप क्यों खड़ी है ? इनमें से जो भी तेरे हृदय में स्थित हो― जिसे तू चाहती हो उसके कंठ में माला डाल दे । ये सभी राजा तेरे सौभाग्यरूपी गुण से आकर्षित होकर इधर तेरे समीप स्थित हैं इनमें जो तुम्हारे चित्त को हरण करने वाला हो उसके सौभाग्य को प्रकाशित कर । हे मुग्धे ! तेरे लिए योग्य भर्ता की प्राप्ति की चिंता से तेरे माता-पिता को निद्रा नष्ट हो गयी है सो योग्य वर को स्वीकार कर उन्हें सुखी बना ॥32-34॥ धाय के इस प्रकार कहने पर कन्या ने उत्तर दिया कि हे मातः ! आपने ठीक कहा है किंतु आपके द्वारा दिखाये हुए इन राजाओं में से किसी पर मेरा मन अनुरक्त नहीं हो रहा है ॥35 ॥ देखने के बाद ही जिसके ऊपर हृदय में स्नेह प्रकट हो जाता है उसे वरने के लिए वचन पुनरुक्त होता है तथा आंतरिक स्नेह के प्रकट होने पर ही स्त्री-पुरुष दोनों में संतोष का अनुभव होता है ॥ 36॥ इन राजाओं पर मुझे न राग है, न द्वेष है, न मोह है और न शून्यता है । अहो! मुनि के समान मेरी इन सब पर किसी कारण से उपेक्षा हो गयी है ॥37॥ यदि विधाता ने इन सबसे बढ़कर कोई दूसरा वर मेरे लिए बनाना चाहा है तो जगत्का गुरु विधाता ही आज उस वर को दिखलावे ॥38 ॥ इतना कहने के बाद ही कन्या ने, कर्ण मार्ग से भीतर जाकर चित्त को खींचने वाली पणव की मधुर ध्वनि सुनी ॥39॥ वह ध्वनि मानो स्पष्ट रूप से यही कह रही थी कि हे सुंदरि ! तुम्हारे मन को हरण करने वाला राजहंस इधर बैठा है, अतः इस ओर देखो ॥40 ॥ तदनंतर ज्योंही कन्या ने मुड़कर उस ओर देखा, त्यों ही उसे राजलक्षणों से युक्त कुबेर के समान वसुदेव दिखे ॥41॥ उसी क्षण कामदेव ने परस्पर दृष्टि सम्मिश्रणरूप तीक्ष्ण बाणों की संपदा से दोनों का मन जर्जरित कर दिया ॥42॥ तदनंतर जो आभूषणों के शब्द से अतिशय मनोहर जान पड़ती थी और स्तनचक्र के भार से नीचे की ओर झुक रही थी ऐसी रोहिणी ने पास जाकर वसुदेव के गले में माला डाल दी ॥43 ॥ मंच पर आसीन वसुदेव के समीप बैठी हुई रोहिणी, चंद्रमा के समीप स्थित रोहिणी तारा के समान मनोहर जान पड़ती थी ॥44॥ नवीन समागम से उत्पन्न भय के कारण जिसका शरीर कुछ-कुछ काँप रहा था ऐसी रोहिणी ने अपने शरीर के स्पर्श से वसुदेव के शरीर को सुख उत्पन्न कराया ॥ 45 ॥ उस स्वयंवर को देखकर कितने ही राजा यह कहने लगे कि अहो ! जिस प्रकार रत्न और सुवर्ण का संयोग होता है उसी प्रकार यह दोनों योग्य वर वधू का संयोग हुआ है ॥46॥ अहो ! इस कन्या की चतुराई देखो कि जिसने छिपे कुल से युक्त लक्ष्मी-संपन्न एवं प्रधान पुरुषरूप इस किसी अनिर्वचनीय राजा को वरा है ॥47॥ मात्सर्य से पीड़ित अन्य राजा लोग यह कह रहे थे कि देखो पणव वादक को वर बनाती हुई कन्या ने यह बड़ा अन्याय किया है ॥48॥ राजाओं को इस पराभव की उपेक्षा करना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा होने से तो पृथिवीतल पर सदा अतिप्रसंग होने लगेगा― कुल मर्यादा की सब व्यवस्था ही भंग हो जायेगी ॥49॥ कुलीन मनुष्यों की इस सभा में इस अकुलीन मनुष्य का असर ही क्या था ? अथवा यह कुलीन है और अपना कुल बताना चाहता है तो बतावे ॥50 ॥ यदि यह ऐसा नहीं करता है― अपना कुल नहीं बतलाता है तो यह कोई नीच कुल में उत्पन्न हुआ है अतः इसे यहाँ से हटा दिया जाये और यह कन्या किसी राजपुत्र को दे दी जाये ॥51॥
तदनंतर धीर-वीर वसुदेव ने क्षोभ को प्राप्त हुए राजाओं से कहा कि अहंकार से भरे क्षत्रिय तथा सज्जन पुरुष हमारे वचन सुनें ॥52॥ स्वयंवर में आयी हुई कन्या अपनी इच्छा के अनुरूप कुलीन अथवा अकुलीन वर को वरती है । स्वयंवर में कुलीन अथवा अकुलीन का कोई क्रम नहीं है ॥53॥ इसलिए कन्या के पिता, भाई अथवा स्वयंवर की विधि को जानने वाले किसी अन्य महाशय को इस विषय में अशांति करना योग्य नहीं है ॥54॥ कोई महाकुल में उत्पन्न होकर भी दुर्भग― स्त्री के लिए अप्रिय होता है और कोई नीच कुल में उत्पन्न होकर भी सुभग-स्त्री के लिए प्रिय होता है । यही कारण है कि इस विषय में कुल और सौभाग्य का कोई प्रतिबंध नहीं है ॥55॥ इसलिए यदि इस कन्या ने मुझ अपरिचित का सौभाग्य प्रकट किया है तो इस विषय में आप लोगों को कुछ नहीं कहना चाहिए ॥56॥ इतने पर भी यदि कोई पराक्रम के गर्व से यहाँ शांत नहीं होता है तो मैं कान तक खींचकर छोड़े हुए बाणों से उसे शांत कर दूंगा ॥57॥ वसुदेव के उक्त वचन सुनकर राजा जरासंध शीघ्र ही कुपित हो उठा । उसने राजाओं से कहा कि इस उद्दंड को तथा पुत्र सहित राजा रुधिर को पकड़ लो ॥58॥ दुष्ट स्वभाव के राजा पहले ही से कुपित थे फिर चक्रवर्ती का आदेश पाकर तो दूने कुपित हो गये । तदनंतर वे दुष्ट राजा तैयार होकर युद्ध के लिए उद्यत हो गये ॥59॥ वहाँ जो सज्जन प्रकृति के राजा थे वे पाप से निःस्पृह हो अपनी-अपनी सेना लेकर अलग खड़े हो गये ॥60॥ जो क्षत्रिय रुधिर के पक्ष के थे वे क्रोध से रक्त के समान लाल-लाल नेत्र करते हुए, शत्रु को घायल करने की इच्छा से शीघ्र ही तैयार होकर वहाँ पहुंचे ॥61॥ राजा रुधिर का पुत्र स्वर्णनाभ रोहिणी को अपने रथ पर चढ़ाकर खड़ा हो गया और समस्त सेना से युक्त राजा रुधिर उत्कृष्ट वर― वसुदेव को अपने रथ पर सवार कर खड़ा हो गया ॥62 ॥ रुधिर ने मीठे-मीठे शब्दों द्वारा अपने योद्धाओं को संबोधते हुए कहा कि हे महारथियो ! तुम लोग युद्ध में अपने अनुरूप ही कार्य करो― जैसा तुम लोगों का नाम है वैसा ही कायं करो ॥63 ॥ वसुदेव ने अपने श्वसुर― राजा रुधिर से कहा कि हे पूज्य ! आप मुझे अनेक अस्त्र-शस्त्रों से भरा हुआ रथ शीघ्र ही दीजिए ॥64॥ जिससे मैं इन क्षत्रियों को शीघ्र ही पलायमान कर दूं । ये लोग युद्ध में जिसके कुल का पता नहीं ऐसे मेरे बाणों को सहन करें ॥65॥ वसुदेव के इस प्रकार कहने पर राजा रुधिर बहुत संतुष्ट हुआ । वह पुरुषों के अंतर को समझने वाला जो था । तदनंतर उसने मजबूत अस्त्र-शस्त्रों से युक्त एवं वेगशाली घोड़ों से जुता हुआ महारथ बुलाया ॥66॥ उसी समय शूर, वीर, उत्तम रथ पर स्थित तथा दिव्य अस्त्रों से देदीप्यमान दधिमुख नाम का विद्याधर मनोरथ के समान कुमार वसुदेव के पास आ पहुँचा ॥67॥ और नम्र होकर बोला कि आप शीघ्र ही मेरे रथ पर चढ़ जाइए । युद्ध में मैं आपका सारथी रहूँगा । आप इच्छानुसार शत्रुओं के समूह को नष्ट कीजिए ॥68॥ उसके वचन सुनकर वसुदेव बहुत संतुष्ट हुए और धनुष हाथ में ले तथा कवच धारण कर नाना प्रकार के बाणों के समूह से भरे हुए उसके रथ पर चढ़ गये ॥69 ॥ जिसमें दो हजार रथ थे, छह हजार मदोन्मत्त हाथी थे; चौदह हजार घोड़े थे और एक लाख पैदल सैनिक थे, ऐसी राजा रुधिर की विशाल सेना, शत्रु सेना के नाश का दृढ़ निश्चय कर शीघ्र ही कुमार वसुदेव के समीप आ गयी ॥70-71 ॥ उस बलशाली चतुरंग सेना के साथ वसुदेव शीघ्र ही, जिसका अंत नहीं दिखाई देता था ऐसे शत्रु की सेनारूपी समुद्र के सम्मुख गये ॥72 ॥
तदनंतर समुद्र के समान शब्द करने वाली एवं शंख, तुरही आदि के शब्दों से भयंकर दोनों चतुरंग सेनाओं में मुठभेड़ शुरू हुई ॥73॥ हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल सैनिक यथायोग्य रीति से हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल सैनिकों के सामने जाकर रणक्षेत्र में युद्ध करने लगे ॥74॥ आकाश-विवर को आच्छादित करने वाले सघन बाणों के समूह से उस समय युद्ध में सूर्य भी दिखाई नहीं देता था फिर अन्य पदार्थों की तो बात ही क्या थी ? ꠰꠰75॥ तलवार, चक्र और गदा के प्रहार से निकलती हुई खून की धाराओं से जहाँ अंधकार फैल रहा था ऐसे उस रणक्षेत्र में सूर्य का भी पादसंचार― किरणों का संचार रुक गया था । पक्ष में अतिशय तेजस्वी मनुष्य का पैदल आना जाना रुक गया था ॥76 ॥ वहाँ सब ओर पर्वतों के समान बड़े-बड़े हाथी गिर रहे थे तथा मनुष्य, घोड़े और रथ जीर्ण-शीर्ण होकर धराशायी हो रहे थे । इन सबसे वहाँ बहुत भारी शब्द हो रहा था ॥ 77॥ तदनंतर चिरकाल तक युद्ध करने के बाद जो खेद-खिन्न हो गया था ऐसी अपनी सेना के अग्रभाग को सहारा देने के लिए वसुदेव और स्वर्णनाभ दोनों ही उद्यत हुए ॥78॥ दृष्टि को अपहरण करने वाले प्रयोग से जिन्हें कोई देख नहीं पाता था ऐसे ये दोनों ही जहां-तहां बाणों के द्वारा शत्रु-पक्ष के योद्धाओं को आच्छादित करने लगे ॥79॥ उस महायुद्ध में न ऐसा हाथी था, न रथ था, न घोड़ा था और न मनुष्य ही था जो तीक्ष्ण बाणों को छोड़ने वाले उन दोनों के द्वारा जर्जरित न किया गया हो ॥80॥ कुमार वसुदेव शत्रु के द्वारा चलाये हुए बाणों की वर्षा को तो वायव्य अस्त्र से तितर-बितर कर देते थे और अपने माहेंद्र बाण से शत्रुओं के धनुष तक को तोड़ देते थे ॥81॥ उन्होंने बाणों के प्रहार से शत्रुओं के चंद्रमा के समान सफेद छत्र, उज्ज्वल यश तथा अतिशय उन्नत माननीय सिर के बालों को नीचे गिरा दिया ॥ 82॥ इधर वीरों को भय उत्पन्न करने वाले शूरवीर वसुदेव इस प्रकार भयंकर युद्ध कर रहे थे और उधर वीर स्वर्णनाभ ने युद्धक्षेत्र में पौंड्र राजा को अपने सामने किया ॥83॥ जिस प्रकार सिंह के दो बच्चों का भयंकर युद्ध होता है उसी प्रकार अतिशय महान् रथ पर बैठे हुए उन दोनों कुमारों में भी बाणों द्वारा भयंकर युद् होने लगा ॥84॥ स्वर्णनाभ ने देखते-देखते तीक्ष्ण बाणों से शत्रु की ध्वजा, छत्र, सारथी और रथ के घोड़ों को शीघ्र ही नीचे गिरा दिया ॥85॥ तदनंतर राजा पौंड्र ने भी अत्यंत कुपित हो वज्रदंड के समान तीक्ष्ण बाणों से शत्रु की नकल करते हुए उसकी ध्वजा, छत्र, सारथी और घोड़ों को धराशायी कर दिया ॥86॥ तत्पश्चात् स्वर्णनाभ ने भी बाणों के समूह से शत्रु के कवच, पताका, छत्र, रथ, सारथी, और घोड़ों को काट डाला ॥87॥ यह देख पौंड्र ने भी तीक्ष्ण बाण के द्वारा स्वर्णनाभ को शीघ्र ही रथ-रहित कर तत्काल ही उसके प्राणों को हरण करने वाला बाण ज्यों ही धनुष पर चढ़ाया त्यों ही वसुदेव ने अर्धचंद्राकार बाण से उसके धनुष को काट डाला और शीघ्रता के साथ स्वर्णनाभ को अपने स्थिर रथ पर चढ़ा लिया ॥ 88-89 ॥ तदनंतर लगातार बाण वर्षा करने वाले वसुदेव ने जब पौंड्र को आच्छादित कर लिया तब बहुत से शत्रु एक होकर-मिलकर वसुदेव पर बाणों के समूह की वर्षा करने लगे ॥90॥ परंतु फिर भी वसुदेव अपने बाणों से शत्रु के बाणों का निवारण कर तीक्ष्ण बाणों से शत्रु पर प्रहार करते रहे । उस समय कुमार की कुशलता से प्रसन्न होकर शत्रु भी उन्हें पद-पद पर साधु-साधु बहुत अच्छा बहुत अच्छा कहकर धन्यवाद दे रहे थे ॥ 91॥
अथानंतर जो वहाँ न्याय-नीति के जानने वाले सज्जन राजा थे उन्होंने कहा कि हम लोगों को यह युद्ध नहीं देखना चाहिए क्योंकि यह एक का अनेक के साथ हो रहा है-एक के ऊपर अनेक व्यक्ति प्रहार कर रहे हैं इसलिए यह अन्यायपूर्ण युद्ध है ॥ 92 ॥ तदनंतर धर्म-युद्ध देखने की इच्छा से जरासंध ने कहा कि अच्छा, कन्या के लिए इसके साथ एक-एक राजा युद्ध करे ॥93 ॥ तत्पश्चात् जरासंध का आदेश पाकर राजा शत्रुंजय कुमार वसुदेव के साथ युद्ध करने के लिए उठा और शेष राजा मत्सर रहित हो युद्ध देखने लगे ॥94॥ कुमार ने शत्रुंजय के द्वारा चलाये हुए बाणों को दूर फेंककर उसके रथ और कवच को तोड़ डाला तथा उसे मूर्च्छित कर छोड़ दिया ॥95 ॥ तदनंतर मद से उद्धत राजा दत्तवक्त्र युद्ध करने लगा परंतु कुमार ने उसका भी रथ तोड़ डाला और उसके पौरुष को निःसार कर उसे भगा दिया ॥96॥ तदनंतर जो यमराज के समान उद्धत था ऐसा कालमुख युद्ध के लिए सामने आया सो अतिशय बलवान् वसुदेव ने उसे भी प्राण-शेष कर छोड़ दिया ॥97॥ अब रथ पर सवार हो तीक्ष्ण बाणों को छोड़ता हुआ शल्य सामने आया सो वसुदेव ने उसे भी अतिशय भयंकर जृंभण नामक अस्त्र से बांध लिया ॥98॥
तदनंतर जरासंध ने समुद्रविजय से कहा कि हे राजन् ! तुम अस्त्र-विद्या में अत्यंत निपुण हो इसलिए शीघ्र ही युद्ध में इसका गर्व हरण करो ॥ 99 ॥ यद्यपि समुद्रविजय न्याय-नीति के वेत्ता थे― युद्ध नहीं करना चाहते थे तथापि राजा जरासंध की आज्ञा से उठे सो ठीक ही है क्योंकि युद्ध के विषय में न्याय के वेत्ता मनुष्य भी प्रायः अपने स्वामी का ही अनुसरण करते हैं ॥ 100 ॥ तत्पश्चात् समुद्रविजय की आज्ञा पाकर सारथी के द्वारा चलाया हुआ रथ, ऐसा रथ कि जिस पर बहुत ऊंची ध्वजा और छत्र लगा हुआ था, वसुदेव के रथ की ओर दौड़ा ॥101॥ वसुदेव ने दूर से ही बड़े भाई के रथ को देखकर अपने सारथी से कहा कि इन्हें तुम मेरे बड़े भाई समुद्रविजय जानो ॥102 ॥ हे दधिमुख ! ये हमारे पिता तुल्य हैं अतः तुम्हें इनके आगे रथ धीरे-धीरे ले जाना चाहिए । मुझे रणभूमि में इनके साथ इनकी रक्षा का ध्यान रखते हुए ही युद्ध करना चाहिए ॥103॥ सारथी― दधिमुख ने, वसुदेव की आज्ञानुसार ही रथ चलाया जिससे वह प्रेरित होने पर भी समुद्रविजय से अधिष्ठित रथ की ओर धीरे-धीरे ही चला ॥104 ॥ युद्ध के मैदान में आने पर राजा समुद्रविजय ने अपने सारथी से कहा कि हे भद्र ! इस योद्धा को देखकर मेरा मन स्नेह युक्त क्यों हो रहा है ? ॥105 ॥ दाहिनी आँख तथा भुजा भी फड़क रही है जो बंधु के समागम को सूचित करने वाली है परंतु युद्ध के मैदान में जबकि शत्रु सामने खड़ा है इस शकुन की संगति कैसे बैठ सकती है तुम्हीं कहो ॥106॥ उत्तम शकुनों में विसंवाद― विरोध का कभी अनुभव नहीं किया और देश तथा काल के विरुद्ध होने से निमित्तों का संवाद भी संगत नहीं जान पड़ता ॥107॥ समुद्रविजय के इस प्रकार कहने पर सारथी ने कहा कि हे स्वामिन् ! अभी आप शत्रु के सामने खड़े हैं जब इसे आप जीत लेंगे तब अवश्य ही बंधु-समागम होगा ॥108 ॥ हे राजन् ! यह शत्रु दूसरों के द्वारा अजेय है अतः इसके जीत लेने पर आप राजाओं के समक्ष राजाधिराज जरासंध से अवश्य ही विशिष्ट सम्मान को प्राप्त करेंगे ॥109॥
समुद्रविजय ने सारथी के वचनों की प्रशंसा कर धनुष उठाया और तरकश से बाण निकालकर धनुष हाथ में ले बाण निकालकर खड़े हुए कुमार वसुदेव से कहा कि हे धीर ! युद्ध में तुम्हारे धनुष का जैसा कौशल देखा है अब मेरे आगे वैसा हो उसका समारोप करो― उसी प्रकार की कुशलता दिखाते रहो तो जानें ॥110-111 ॥ हे शूरवीरता के पर्वत ! तुम्हारा अतिशय उन्नत यह मानरूपी शिखर अभी तक अनाच्छादित है सो मैं बाणरूपी मेघों से अभी आच्छादित करता हूँ, मैं समुद्र विजय हूँ ॥112 ॥ कुमार ने आवाज बदलकर कहा कि हे राजेंद्र ! हम लोगों को बहुत कहने से क्या लाभ है ? युद्ध में ही हम दोनों की प्रकटता हो जायेगी― जो जैसा होगा वह वैसा सामने आ जावेगा ॥113 ॥ यदि आप समुद्रविजय हैं तो मैं संग्रामविजय हूँ । यदि आपको प्रतीति न हो तो शीघ्र ही धनुष पर बाण रखकर छोड़िए ॥114॥ वसुदेव के इस प्रकार कहने पर जिनकी मध्यस्थता छूट गयी थी तथा जो वैशाख आसन से खड़े थे ऐसे राजा समुद्रविजय ने डोरी पर बाण रखकर तथा खींचकर क्रोधवश जोर से मारा ॥115 ॥ उधर वैशाख आसन से सुशोभित वसुदेव ने शीघ्र ही बदले में चलाये हुए बाण से समुद्रविजय के उस बाण को दूर से ही काट डाला ॥116 ॥ इस प्रकार राजा समुद्रविजय ने युद्ध में जितने बाण छोड़े उन सबको बदले में छोड़े हुए बाणों के द्वारा वसुदेव ने बहुत शीघ्र दूर से ही निराकृत कर दिया ॥ 117 ॥ तदनंतर जो अस्त्र-विद्या में निपुण थे और राजा लोग ‘साधु-साधु’ शब्द कहकर जिनकी स्तुति कर रहे थे ऐसे उन दोनों ने वायव्य तथा वारुण आदि अस्त्रों से चिरकाल तक युद्ध किया ॥118॥ योद्धा, सारथी और घोड़ों को लक्ष्य कर बड़े भाई जिन बाणों को छोड़ते थे छोटे भाई उन्हें अपने बाणों से उस तरह छेद डालते थे जिस तरह कि गरुड़ सर्पों को छेद डालता है ॥ 119॥ तदनंतर युवा वसुदेव ने भाई के द्वारा चलाये हुए एक-एक बाण के तीन-तीन टुकड़े कर अपने अस्त्रों से उनके रथ, सारथी और घोड़ों को छेद डाला ॥120॥ वसुदेव के अस्त्र-कौशल को देखकर राजा लोग उनकी बड़ी प्रशंसा कर रहे थे । उस समय कितने ही राजा अपना सिर हिला रहे थे, कोई अंगुलियां चट का रहे थे और कोई मुख से साधु-साधु शब्द का उच्चारण कर रहे थे ॥121 ॥ बड़े भाई को इस बात का पता नहीं था कि इसके साथ हमारा क्या संबंध है इसलिए उन्होंने क्रोध में आकर वसुदेव पर हजारों अस्त्रों से युक्त दिव्य रौद्रास्त्र छोड़ा परंतु कुमार वसुदेव ने भी शीघ्र ही अस्त्रों को आच्छादित करने वाला ब्रह्मसिर नामक अस्त्र छोड़कर बड़े भाई के द्वारा छोड़े हुए उस रौद्रास्त्र को बीच में ही काट डाला ॥122-123॥ वसुदेव का संग्राम में शस्त्र चलाने का कौशल परम प्रशंसनीय था क्योंकि उन्होंने नाना प्रकार के शस्त्रों को तो काट दिया था परंतु अपने बड़े भाई को सुरक्षित रखा था ॥124॥
इस प्रकार रण क्रीड़ा करते-करते जिनका हृदय स्नेह से भर गया था ऐसे वसुदेव ने बड़े भाई के पास अपने नाम से चिह्नित बाण भेजा । उनका वह बाण मंदगति से गमन करता हुआ बड़े भाई के पास पहुंचा ॥125॥ राजा समुद्रविजय ने उस अनुकूल बाण को लेकर उसमें लिखा हुआ यह समाचार पढ़ा कि हे महाराज ! जो अज्ञात रूप से निकल गया था वही मैं आपका छोटा भाई वसुदेव हूँ । सौ वर्ष बीत जाने के बाद वह आज आत्मीय जनों के समीप आया है । हे आर्य ! वह आपके चरणों में प्रणाम करता है ॥ 126-127॥ तदनंतर भ्रातृ-स्नेह की प्रबलता से समुद्रविजय ने अपने हाथ का धनुष दूर फेंक दिया और वे शीघ्र ही रथ से उतरकर छोटे भाई के पास जा पहुँचे ॥128॥
इधर वसुदेव भी शीघ्र ही रथ से उतरकर दूर से ही उनके चरणों में गिर गये । समुद्रविजय ने दोनों भुजाओं से उठाकर उनका आलिंगन किया ॥129॥ दोनों भाई एक दूसरे का आलिंगन कर रोने लगे और उनके नेत्रों से आँसू टप-टप गिर ने लगे । उसी समय अक्षुभ्य आदि शेष भाई भी आ गये और सब गले लगकर रोने लगे ॥130॥ उस समय युद्धभूमि में वसुदेव के जितने श्वसुर, साले तथा अन्य बंधुजन थे वे सब उनसे लिपटकर रोने लगे ॥131 ॥ जरासंध आदि राजा, भाइयों के इस समागम को देखकर बहुत ही संतुष्ट हुए । रोहिणी के भाई, पिता तथा अन्य संबंधी जन उसकी बहुत प्रशंसा करने लगे ॥132॥
तदनंतर सायंकाल के समय सब राजा लोग अपने-अपने शिविरों में गये और वसुदेव की ही कथा में आसक्त हो दिन तथा रात्रियां व्यतीत करने लगे ॥133॥ तत्पश्चात् शुभ तिथि में जब कि चंद्रमा रोहिणी नक्षत्र पर था वसुदेव ने रोहिणी को विधिपूर्वक विवाहा ॥134 ॥ जरासंध तथा समुद्रविजय आदि राजा उस विवाहोत्सव को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए और एक वर्ष तक वहीं राजा रुधिर के यहाँ रहे आये ॥135॥ युद्ध में जिसने सहायता की थी तथा वसुदेव ने जिसका अच्छा सम्मान किया था ऐसा दधिमुख वसुदेव से आज्ञा लेकर प्रसन्न होता हुआ अपने स्थानपर चला गया ॥136 ॥ कामासक्त वसुदेव नवीन स्त्री के सुंदर मुख कमल के भौंरे बन गये थे इसलिए उन्होंने पहले भोगी हुई स्त्रीरूपी लताओं का स्मरण भी नहीं किया ॥137॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो शूरवीरता के पर्वत वसुदेव यद्यपि रणांगण में अकेले ही थे केवल भुजाएँ ही उनकी सहायक थीं और अद्भुत पराक्रम के धारक, अतिशय लोभी पृथिवीतल के समस्त राजाओं ने एक साथ मिलकर उन्हें पराजित करना चाहा था तथापि वे उन्हें पराजित नहीं कर सके सो यह अच्छी तरह तपे हुए जिनेंद्र कथित तप का ही प्रभाव समझना चाहिए ॥138॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराण में रोहिणी का स्वयंवर और भाइयों के समागम का वर्णन करने वाला इकतीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥31॥