ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 46
From जैनकोष
अथानंतर बंधुओं का सम्मान करने वाले पर्वतों के समान धीर-वीर पांडवों का भोग भोगते हुए हस्तिनापुर में सुख से समय व्यतीत होने लगा ॥1॥ पाँचों पांडव उत्कृष्ट विभूति से प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे, उन्हें देख सो कौरव पहले के समान पुनः मर्यादा से विचलित हो गये ॥2॥ एक बार शकुनि के उपदेश से दुर्योधन ने युधिष्ठिर को शीघ्र ही जुआ में जीत लिया । जीत लेने पर अपने छोटे भाइयों के साथ मिलकर दुर्योधन ने भीमसेन आदि छोटे भाइयों से युक्त युधिष्ठिर से कहा कि हे युधिष्ठिर ! चूंकि तुम सत्यवादी हो― तुम्हारे द्वारा की हुई प्रतिज्ञा कभी मिथ्या नहीं होती इसलिए तुम्हें अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार यहाँ से चला जाना चाहिए और छिपकर वहाँ रहना चाहिए जहाँ से तुम्हारा नाम भी सुनाई न दे सके ॥3-4॥ दुर्योधन के इस कथन को सुनकर यद्यपि भीमसेन आदि भाइयों को क्षोभ उत्पन्न हुआ तथापि युधिष्ठिर उन्हें शांत कर बारह वर्ष की लंबी अवधि के लिए सब राज्य-पाट छोड़ हस्तिनापुर से बाहर निकल गये ॥ 5 ॥ जिस प्रकार चाँदनी चंद्रमा के पीछे-पीछे चलती है उसी प्रकार प्रेम और हर्ष से भरी द्रौपदी अर्जुन के पीछे-पीछे चलने लगी ॥6॥
तदनंतर धैर्य से संपन्न, उत्तम शक्ति से सुशोभित एवं एक-दूसरे का हित करने में तत्पर वे सब श्रेष्ठ पुरुष क्रम-क्रम से कालांजला नामक अटवी में पहुंचे ॥7॥ उस समय वहाँ प्रकीर्णकासुरी का पुत्र सुतार नाम का विद्याधर असुरोद्गीत नामक नगर से आकर क्रीड़ा कर रहा था ꠰꠰8॥ वह शावरी विद्या से युक्त था अतः किरात का सुंदर वेष रख अपनी कुसुमावलि नामक स्त्री के साथ क्रीड़ा कर रहा था ॥9॥ उसकी स्त्री भी किरात का वेष रखे थी और दोनों इच्छानुसार साथ-साथ क्रीड़ा कर रहे थे । धनुर्धारी अर्जुन ने धनुर्धारी उस विद्याधर को देखा ॥10॥ उन दोनों ने ज्यों ही अकस्मात् एक-दूसरे को देखा त्यों ही उनमें भयंकर युद्ध होने लगा । ऐसा युद्ध कि जिसमें दिशाएं दिव्य वाणों से आच्छादित हो गयीं ॥11॥ तदनंतर उन दोनों में बाहुयुद्ध होने पर बलवान् अर्जुन ने दृढ़ मुट्ठी बांधकर उस बलवान् विद्याधर की छाती पर भुजा से मजबूत प्रहार किया । जिससे घबड़ाकर विद्याधर की स्त्री कुसुमावली अर्जुन से पति की भिक्षा मांगने लगी । फलस्वरूप अर्जुन ने उसे छोड़ दिया और वह उन्हें प्रणाम कर विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में चला गया ॥12-13॥
तदनंतर वे धीर-वीर क्रम-क्रम से मेघदल नामक उस नगर में पहुंचे जहाँ सिंह नाम का राजा राज्य करता था । राजा सिंह की स्त्री का नाम कनकमेखला था और उन दोनों के कनकावर्ता नाम की अत्यंत सुंदरी कन्या थी । उसी नगरी में मेघ नामक सेठ और अल का नामक सेठानी के चारुलक्ष्मी नाम की एक सुंदर कन्या और थी ॥14-15॥ निमित्तज्ञानी के आदेशानुसार भिक्षा के लिए गये हुए भयंकर कंधों को धारण करने वाले भीमसेन ने उन दोनों कन्याओं को प्राप्त किया सो ठीक ही है क्योंकि पुण्य के लिए क्या कार्य कठिन है ? ꠰꠰16॥ सौम्य प्रकृति के धारक उन श्रेष्ठ पुरुषों ने कुछ दिन तक वहाँ विश्राम किया । तदनंतर क्रम-क्रम से चलकर वे कौशल नामक देश में पहुंचे ॥ 17॥ वहाँ भी कुछ महीने तक सुख से ठहरकर वे उस रामगिरि पर्वत पर पहुंचे जो कि पहले राम और लक्ष्मण के द्वारा सेवित हुआ था ॥18॥ तथा जिस पर्वत पर रामचंद्रजी के द्वारा बनवाये हुए चंद्रमा और सूर्य के समान देदीप्यमान, सैकड़ों जिन-मंदिर सुशोभित हो रहे थे ꠰꠰19॥ नाना देशों से आये हुए भव्य जीव प्रतिदिन जिन-प्रतिमाओं की वंदना करते थे, पांडवों ने भी उन प्रतिमाओं को बड़ी भक्ति से वंदना की ॥20॥ जिस प्रकार सीता के साथ रामचंद्रजी ने क्रीड़ा की थी उसी प्रकार उस पर्वत के सुंदर-सुंदर लतागृहों में अर्जुन द्रौपदी के साथ नाना प्रकार की क्रीड़ा करता था ॥21॥ जिन्होंने कभी सुख के विच्छेद का अनुभव नहीं किया था, जो स्वेच्छा से जहाँ-तहां विहार करते थे और मान्य चेष्टाओं के धारक थे ऐसे उन भाग्यशाली पांडवों ने उस पर्वत पर ग्यारह वर्ष व्यतीत कर दिये ॥22॥
तदनंतर वहाँ से चलकर वे उस विराटनगर में पहुंचे जहाँ विराट नाम का राजा रहता था । राजा विराट की स्त्री का नाम सुदर्शना था ॥23॥ पांडव और अत्यंत कुशल द्रौपदी― सब अपने-आपको छिपाकर राजा विराट से सम्मानित हो विराटनगर में रहने लगे ॥24॥ इस प्रकार विनोदपूर्वक वहाँ रहते हुए प्रमादरहित पांडवों का सुख से समय बीतने लगा ॥25॥ अब इनसे संबंध रखने वाली दूसरी घटना लिखी जाती है―
इसी पृथिवीतल पर एक चूलिका नाम की नगरी थी । उसके राजा का नाम चूलिक था । राजा चुलिक की, विकसित कमल के समान मुख वाली एवं सौ पुत्रों से पवित्र विकचा नाम की स्त्री थी ॥26॥ विकचा के सौ पुत्रों में सबसे बड़े पुत्र का नाम कीचक था । यह कीचक क्रूरकर्मा मनुष्यों में अग्रणी था तथा रूप, यौवन, विज्ञान, शूर-वीरता और धन के मद से मलिन था ॥27॥ एक बार वह कीचक, अपनी बहन सुदर्शना को देखने के लिए विराट नगर आया । वहाँ उसने द्रौपदी को देखा ॥28॥ उस समय द्रौपदी किसी विशिष्ट सुगंधित पदार्थ के संयोग से समस्त दिशाओं को सुगंधित कर रही थी एवं रूप, लावण्य, सौभाग्य आदि गुणों से उसका शरीर परिपूर्ण था ॥29॥ यद्यपि कीचक मानी था तथापि उसका मन देखते ही द्रौपदी के विषय में दीनता को प्राप्त हो गया । वह वहाँ से अन्यत्र जाता था तब भी उसका मन द्रौपदी के साथ तन्मयता को ही प्राप्त रहता था ॥30॥ कीचक ने अनेक उपायों से द्रौपदी को स्वयं लुभाया तथा दूसरों के द्वारा भी उसे प्रलोभन दिखलाये पर वह उसके हृदय में स्थिति को प्राप्त न कर सका ॥31॥ द्रौपदी उसे तृण के समान तुच्छ समझती थी और उसे मना भी कर चुकी थी पर वह अपनी धृष्टता नहीं छोड़ता था अतः विवश हो शैलंध्री (सैरंध्री) का वेष धारण करने वाली द्रौपदी ने एक दिन उसकी इस दुर्हठ की शिकायत भीमसेन से कर दी ॥32॥ फिर क्या था, भीमसेन का हृदय क्रोध से उबल उठा । उन्होंने कामातुर कीचक को द्रौपदी के द्वारा सायंकाल के समय एकांत स्थान में मिलने का संकेत करा दिया और आप स्वयं शैलंध्री (द्रौपदी) का वेष रख उस स्थान पर पहुंच गये । आप अत्यंत बलवान् तो थे ही ॥33॥ जिस प्रकार हस्तिनी के स्पर्श से अंधा मदोन्मत्त हाथी बंधन के स्थान में स्वयं आ जाता है उसी प्रकार मदनातुर कीचक उस संकेत-स्थान में स्वयं आ गया । तदनंतर स्पर्शजन्य आनंद के अतिरेक से जिसके नेत्र निमीलित हो रहे थे ऐसे उस कीचक के कंठ को द्रौपदी का वेष धारण करने वाले भीमसेन ने अपनी दोनों भुजाओं से आलिंगित किया और पृथिवी पर पटक कर उसकी छाती पर दोनों पैरों से चढ़ गये । जिस प्रकार वज्राघात से किसी पर्वत को चूर-चूर किया जाता है उसी प्रकार मजबूत मुक्कों के प्रहार से उसे चूर-चूर कर दिया । इस प्रकार उसकी परस्त्री विषयक आकांक्षा को पूर्ण कर महामना भीमसेन ने दया युक्त हो अरे पापी जा यह कह उसे छोड़ दिया ॥34-36 ॥
तदनंतर विषयों का प्रत्यक्ष फल देख कीचक को उनसे अत्यंत वैराग्य उत्पन्न हो गया जिससे उसने रतिवर्धन नामक मुनिराज के पास जाकर दीक्षा धारण कर ली ॥37॥ कीचक मुनि अनुप्रेक्षाओं के द्वारा आत्मा की भावना करते-आत्मा का स्वरूप विचारते, शास्त्रों का स्वाध्याय करते और भाव-शुद्धि के द्वारा रत्नत्रय को शुद्ध करने के लिए उद्यम करने लगे ॥38॥ कीचक के सौ भाइयों ने जब कीचक को नहीं देखा तो वे बहुत ही घबड़ाये । उन्होंने जहाँ-तहाँ उसकी खोज की पर कहीं नहीं दिखा । उसी समय उन्हें एक जलती हुई चिता की अग्नि दिखी । किसी ने बता दिया कि वह कीचक की ही चिता है, यह सुन वे सब भाई बहुत ही कुपित हुए । वे सोचने लगे कि कीचक को यह दशा इस शैलंध्री ने ही की है इसलिए वे कुपित होकर उसे (शैलंध्री का वेष धारण करने वाले भीम को) उसी चिता में डालने की इच्छा करने लगे । परंतु भीमसेन ने उनकी बलवत्ता ठिकाने लगा दी और एक-एक कर सबको जलती हुई उस चिता में डाल दिया जिससे सब जलकर राख हो गये ॥39-40॥ देखो, एक ही भीमसेन ने मद से उद्धत हुए अनेक पुरुषों को नामावशिष्ट कर दिया-मरण को प्राप्त करा दिया सो ठीक ही है क्योंकि एक सिंह अनेकों हाथियों को नष्ट कर देता है ॥41॥
अथानंतर किसी दिन कीचक मुनि एकांत उपवन के मध्य विराजमान थे । वे उस समय पद्मासन से योगारूढ हो निश्चल बैठे थे कि एक यक्ष ने उन्हें देखा ॥42॥ उनके चित्त की परीक्षा करने के लिए वह यक्ष आधी रात के समय द्रौपदी का रूप रख उनके पास पहुंचा और काम से अलसाया हुआ रूप उन्हें दिखाने लगा ॥43॥ परंतु मुनिराज कीचक, उसके सुंदर आलाप के सुनने में बहिरे-जैसे हो गये और दृष्टि के विलास से युक्त उसका मनोहर रूप देखने के लिए अंधे के समान हो गये ॥44॥ जिन्होंने अपनी इंद्रियों के समूह की अच्छी तरह रक्षा की थी तथा जो मन की शुद्धि को प्राप्त हो रहे थे ऐसे उन कीचक मुनिराज को उसी समय अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया ॥45॥ तदनंतर ध्यान समाप्त होने पर यक्ष ने उन्हें प्रणाम किया और हे नाथ ! क्षमा कीजिए इस प्रकार बार-बार कहकर उनसे क्षमा मांगी ॥46॥ तत्पश्चात् यक्ष ने पुनः नमस्कार कर उनसे द्रौपदी के प्रति मोह उत्पन्न होने का कारण पूछा क्योंकि बिना कारण के उस प्रकार के मोह की उत्पत्ति नहीं हो सकती ॥47॥ उत्तर स्वरूप मुनिराज कीचक, नम्रीभूत यक्ष के लिए अपने तथा द्रौपदी के कुछ पूर्वभव इस प्रकार कहने लगे ॥48॥
एक समय मैं, तरंगिणी नामक नदी के तट पर जहाँ वेगवती नामक नदी का संगम होता था, क्षुद्र मनुष्यों का वैरी क्षुद्र नाम का म्लेच्छ था, उस समय मेरे परिणाम अत्यंत रौद्र रूप थे ॥49॥ एक बार अचानक ही मुनिराज के दर्शन कर मैं अत्यंत शांत हो गया और वैश्य कुल में मनुष्य पर्याय को प्राप्त हुआ । इस समय मेरे पिता धनदेव और माता सुकुमारिका थी तथा मेरा निज का नाम कुमारदेव था । एक बार मेरी माता ने विष मिला आहार देकर एक सुव्रत नामक मुनि को मार डाला ॥ 50-51॥ उसके फलस्वरूप वह पापिनी नरक पहुंची और वहाँ मुनि के घात से उत्पन्न दुःख भोगकर तिर्यंच तथा नरकगति के दुःख भोगती रही ॥52॥ मैं भी संयम से रहित था इसलिए तीव्र वेदना वाले संसार में भटककर पापरूपी पवन से प्रेरित हुआ अपनी माता के जीव के कुत्ता हुआ । तदनंतर तापसों के किसी तपोवन में सित नामक तापस के द्वारा मृगशृंगिणी नामक तापसी के मधु नाम का पुत्र हुआ तथा तापसों के आश्रम में ही मैं वृद्धि को प्राप्त हुआ ॥ 53-54॥ एक दिन किसी श्रावक ने विनयदत्त नामक मुनिराज को आहार दान दिया । उसका माहात्म्य देख मैंने दीक्षा ले ली और उसके फलस्वरूप स्वर्गारोहण कर वहाँ से च्युत होता हुआ कीचक हुआ ॥55॥ माता सुकुमारिका चिरकाल तक भ्रमण कर संसार में तीव्र दुःख भोगती रही । अंत में वह दौर्भाग्य से युक्त दुःखों को भोगने वाली मानुषी हुई ॥56॥ अनुमति का उसका नाम था । अंत में वह निदान सहित तप से युक्त हो द्रौपदी हुई है । इसी कारण इसमें मुझे मोह उत्पन्न हो गया था ॥57॥ देखो, माता बहन हो जाती है, पुत्री प्रिय स्त्री हो जाती है, और स्त्री, माता, बहन तथा पुत्रीपने को प्राप्त हो जाती है । आश्चर्य की बात है कि संसाररूपी चक्र के साथ घूमने वाले जीवों में संकर और व्यतिकर नियम से होते रहते हैं ॥58॥ इसलिए हे भव्यजनो ! संसार की इस विचित्रता को अच्छी तरह समझकर वैषयिक सुख से भले ही वह कितना ही महान् क्यों न हो विरक्त होओ और संसार के कारणों से विरक्त हो सदाचार के धारी बन विशाल तप से मोक्ष के लिए ही यत्न करो ॥59 ॥
इस प्रकार कीचक मुनि के वचन सुन उस यक्ष ने अपनी देवियों के साथ-साथ अपनी
आत्मा को उस समय सम्यग्दर्शनरूपी उत्कृष्ट रत्नों के आभूषणों से आभूषित किया । तदनंतर वह बड़े हर्ष से मुनिराज को नमस्कार कर वन के अंत में अंतर्हित हो गया― छिप गया ॥60॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि अंतरंग में विवेकबुद्धि को धारण करने वाला जो मनुष्य, अंतरंग और बहिरंग के भेद से दोनों प्रकार का तप करता है वह मनुष्य देव तथा असुरों के समूह से पूजित-चरण होता हुआ लोक में निर्बाध जिनमार्ग को प्रकाशित करता है और आत्मशुद्धि के द्वारा अविनाशी परमपद को प्राप्त होता है ॥61 ॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में कीचक के निर्वाण गमन का वर्णन करने वाला छयालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥46॥