प्रमाण
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
स्व व पर प्रकाशक सम्यग्ज्ञान प्रमाण है । जैनदर्शनकार नैयायिकों की भाँति इंद्रियविषय व सन्निकर्ष को प्रमाण नहीं मानते । स्वार्थ व परार्थ के भेद से अथवा प्रत्यक्ष व परोक्ष के भेद से वह दो प्रकार का है । परार्थ तो परोक्ष ही होता है, पर स्वार्थ प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों प्रकार का होता है । तहाँ मतिज्ञानात्मक स्वार्थ प्रमाण तो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है, और श्रुतज्ञानात्मक स्वार्थ परोक्ष है । अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीनों ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं । नैयायिकों के द्वारा मान्य अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, ऐतिह्य व शब्दादि सब प्रमाण यहाँ श्रुतज्ञानात्मक परोक्षप्रमाण में गर्भित हो जाते हैं । पहले न जाना गया अपूर्व पदार्थ प्रमाण का विषय है, और वस्तु की सिद्धि अथवा हित-प्राप्ति व अहित-परिहार इसका फल है ।
- भेद व लक्षण
- अन्य अनेकों भेद - अनुमान, उपमान, आगम, तर्क प्रत्यभिज्ञान, शब्द, स्मृति, अर्थापत्ति आदि । -देखें वह वह नाम
- न्याय की अपेक्षा प्रमाण के भेदादिका निर्देश । - देखें परोक्ष - 2.2
- अन्य अनेकों भेद - अनुमान, उपमान, आगम, तर्क प्रत्यभिज्ञान, शब्द, स्मृति, अर्थापत्ति आदि । -देखें वह वह नाम
- प्रमाण निर्देश
- सम्यक् व मिथ्या अनेकांतके लक्षण । - देखें अनेकांत - 1.3
- प्रमाण व नय संबंध । -देखें नय - I.2 व II/10
- परोक्षज्ञान देशतः और प्रत्यक्ष ज्ञान सर्वतः प्रमाण है ।
- सम्यग्ज्ञानी आत्मा ही कथंचित् प्रमाण है ।
- प्रमाण का विषय ।
- प्रमाण का फल ।
- वस्तु विवेचन में प्रमाण नय का स्थान । - देखें न्याय - 1, 2/1
- उपचार में कथंचित् प्रमाणता । -देखें उपचार - 4.3
- सम्यक् व मिथ्या अनेकांतके लक्षण । - देखें अनेकांत - 1.3
- प्रमाण का प्रामाण्य
- प्रमाण ज्ञान में अनुभव का स्थान। -देखें अनुभव - 3.1
- प्रमाण ज्ञान स्व-पर व्यवसायात्मक होता है । -देखें ज्ञान I.3.2
- प्रमाण ज्ञान में अनुभव का स्थान। -देखें अनुभव - 3.1
- प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता के भेदाभेद संबंधी शंका
- ज्ञान को प्रमाण कहने से प्रमाण का फल किसे मानोगे ?
- ज्ञान को प्रमाण मानने से मिथ्याज्ञान भी प्रमाण हो जायेगा ।
- सन्निकर्ष व इंद्रिय को प्रमाण मानने में दोष ।
- प्रमाण व प्रमेय को सर्वथा भिन्न मानने में दोष ।
- ज्ञान व आत्मा को भिन्न मानने में दोष ।
- प्रमाण को लक्ष्य और प्रमाकरण को लक्षण मानने में दोष ।
- प्रमाण और प्रमेय में कथंचित् भेदाभेद ।
- प्रमाण व उसके फलों में कथंचित् भेदाभेद ।
- ज्ञान को प्रमाण कहने से प्रमाण का फल किसे मानोगे ?
- गणनादि प्रमाणनिर्देश
- अन्य अनेकों भेद -अंगुल, संख्यात, असंख्यात, अनंत, सागर, पल्य आदि प्रमाण । - देखें वह वह नाम ।
- गणना प्रमाण संबंधित विषय । -देखें गणित - I.1
- अन्य अनेकों भेद -अंगुल, संख्यात, असंख्यात, अनंत, सागर, पल्य आदि प्रमाण । - देखें वह वह नाम ।
- भेद व लक्षण
- प्रमाण सामान्य का लक्षण
- निरुक्ति अर्थ
सर्वार्थसिद्धि/1/10/98/2 प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम् । = जो अच्छी तरह मान करता है, जिसके द्वारा अच्छी तरह मान किया जाता है या प्रमितिमात्र प्रमाण है । ( राजवार्तिक/1/10/1/49/13 ) ।
कषायपाहुड़/1/1,1/27/37/6 प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम् = जिसके द्वारा पदार्थ जाना जाता है उसे प्रमाण कहते हैं । ( आलापपद्धति/9 ) (स.म./28/307/18) ( न्यायदीपिका/1/10/11
- अन्य अर्थ
- आहार का एक दोष – देखें आहार - II.4 ।
- वसतिका का एक दोष – देखें वसतिका ;
- Measure ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ प्र.107)
- निरुक्ति अर्थ
- प्रमाण के भेद
तत्त्वार्थसूत्र/1/10-12 भावार्थ- प्रमाण दो प्रकार का है - प्रत्यक्ष व परोक्ष ( धवला 9/4,1,45/142/6 )(नय चक्र वृहद/170) ( परीक्षामुख/1/10;2/1 ) ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/47 ) ( गोम्मटसार जीवकांड व.जी.प्र./299/648) ( समयसार / आत्मख्याति/13/क.8 की टीका) (स.म./38/331/5) स्याद्वादमंजरी/28/307/19 ) ( न्यायदीपिका/2/1/23 ) ।
सर्वार्थसिद्धि 1/6/20/3 तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च । = प्रमाण के दो भेद हैं - स्वार्थ और परार्थ । ( राजवार्तिक/1/6/4/33/11 ) ।
न्यायदर्शन सूत्र/ मू./1/1/3/9 प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि । = प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द के भेद से प्रमाण चार प्रकार का है ।
- प्रमाण के भेदों के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/6/20/4 ज्ञानात्मकं स्वार्थं वचनात्मकं परार्थम् । = ज्ञानात्मक प्रमाण को स्वार्थ प्रमाण कहते हैं और वचनात्मक प्रमाण परार्थ प्रमाण कहलाता है । ( राजवार्तिक/1/6/4/33/11 ) ( सिद्धि विनिश्चय/ मू./2/4/123) ( सप्तभंगीतरंगिणी/1/6 )
- प्रमाण के भेदों का समीकरण
सर्वार्थसिद्धि/1/6/20/3 तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्जम् (वर्ज्यम्) । श्रुतं पुनः स्वार्थं भवति परार्थं च । = श्रुतज्ञानको छोड़कर शेष सब (अर्थात् शेष चार) ज्ञान स्वार्थ प्रमाण हैं । परंतु श्रुतज्ञान स्वार्थ और परार्थ दोनों प्रकार का है । (इस प्रकार स्वार्थ व परार्थ भी प्रत्यक्ष व परोक्ष में अंतर्भूत है ।)
राजवार्तिक/1/20/15/78/10 एतान्यनुमानादीनि श्रुते अंतर्भवंति तस्मात्तेषां पृथगुपदेशो न क्रियते । ... स्वपरप्रतिपत्तिविषयत्वादक्षरानक्षरश्रुते अंतर्भवति । = अनुमानादिका (अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापति, संभव और अभाव प्रमाण का) स्वप्रतिपत्तिकाल में अनक्षर श्रुत में और परप्रतिपत्तिकाल में अक्षर श्रुत में अंतर्भाव होता है । इसलिए इनका पृथक् उपदेश नहीं किया है ।
आलापपद्धति/9 सविकल्पं मानसं तच्चतुर्विधम् । मतिश्रुतावधिमन:पर्ययरूपम् । निर्विकल्पं मनोरहितं केवलज्ञानं । = मति, श्रुत, अवधि व मनःपर्यय ये चार सविकल्प हैं, और केवलज्ञान निर्विकल्प और मनरहित है । (इस प्रकार ये भेद भी प्रत्यक्ष व परोक्ष में ही गर्भित हो जाते हैं ।)
- प्रमाणाभास का लक्षण
स.मं.त./74/4 मिथ्यानेकांतः प्रमाणाभासः । = मिथ्या अनेकांत प्रमाणाभास है ।
देखें प्रमाण - 4.2 (संशयादि रहित मिथ्याज्ञान प्रमाणाभास है । )
देखें प्रमाण - 2.8 (प्रमाणाभास के विषय संख्यादि ।)
- प्रमाण सामान्य का लक्षण
- प्रमाण निर्देश
- ज्ञान ही प्रमाण है
तिलोयपण्णत्ति/1/83 णाणं होदि पमाण । = ज्ञान ही प्रमाण है । ( सिद्धि विनिश्चय/ मू./1/3/12; 1/23/96; 10/2/663), ( धवला 1/1,1,1/ गा, 11/17), ( नयचक्र बृहद्/170 ), ( परीक्षामुख/1/1 ), ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/541 ) ।
- सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है, मिथ्याज्ञान नहीं
श्लोकवार्तिक 3/1/10/38/65 मिथ्याज्ञानं प्रमाणं न सम्यगित्यधिकारतः । यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता ।38। = सूत्र में सम्यक् का अधिकार चला आ रहा है , इस कारण संशयादि मिथ्याज्ञान प्रमाण नहीं है । जिस प्रकार जहाँ पर अविसंवाद है वहाँ उस प्रकार प्रमाणपना व्यवस्थित है ।
तत्त्वसार/1/35 मतिः श्रुतावधिश्चैव मिथ्यात्वसमवायिनः । मिथ्याज्ञानानि कथ्यंते न तु तेषां प्रमाणता ।35। = मिथ्यात्वरूप परिणाम होने से मति, श्रुत व अवधिज्ञान मिथ्याज्ञान कहे जाते हैं । ये ज्ञान मिथ्या हो तो प्रमाण नहीं माने जाते ।
देखें प्रमाण - 4.2 संशयादि सहित ज्ञान प्रमाण नहीं है ।
- परोक्षज्ञान देशतः और प्रत्यक्षज्ञान सर्वतः प्रमाण है
श्लोकवार्तिक 3/1/10/39/66 स्वार्थे मतिश्रुतज्ञानं प्रमाणं देशतः स्थितं । अवध्यादि तु कार्त्स्न्येन केवलं सर्ववस्तुषु ।39। = स्व विषय में भी एक-देश प्रमाण है मति, श्रुतज्ञान । अवधि व मनःपर्यय स्व विषय में पूर्ण प्रमाण है और केवलज्ञान सर्वत्र प्रमाण है ।
श्लोकवार्तिक 2/1/6/18-29/383 में भाषाकार द्वारा समंतभद्राचार्य का उद्घृत वाक्य - मिथ्याज्ञान भी स्वांश की अपेक्षा कथंचित् प्रमाण है ।
देखें ज्ञान - III.2.8 (ज्ञान वास्तव में मिथ्या नहीं है बल्कि मिथ्यात्वरूप अभिप्रायवश उसे मिथ्या कहा जाता है ।
- सम्यग्ज्ञानी आत्मा ही कथंचित् प्रमाण है
धवला 9/4,1,45/141/9 किं प्रमाणम् । निर्बाधबोधविशिष्टः आत्मा प्रमाणम् । = प्रश्न -प्रमाण किसे कहते हैं ? उत्तर- निर्बाध ज्ञान से विशिष्ट आत्मा को प्रमाण कहते हैं । ( धवला 9/4,1,45/164/9 ) ।
द्रव्यसंग्रह टीका/44/190/10 संशयविमोहविभ्रमरहितवस्तुज्ञानस्वरूपात्मैव प्रमाणम् । स च प्रदीपवत् स्वपरगतं सामान्यं विशेषं च जानाति । तेन कारणेनाभेदन तस्यैव प्रमाणत्वमिति । = संशय-विमोह-विभ्रमसे रहित जो वस्तु का ज्ञान है, उस ज्ञानस्वरूप आत्मा ही प्रमाण है । जैसे - प्रदीप स्व- पर प्रकाशक है, उसी प्रकार आत्मा भी स्व और परके सामान्य विशेषको जानता है, इस कारण अभेद से आत्मा के ही प्रमाणता है ।
- प्रमाण का विषय
धवला 9/4,1,45/166/1 प्रकर्षेण मानं प्रमाणम्, सकलादेशोत्यर्थः । तेन प्रकाशितानां प्रमाणगृहीतानामित्यर्थः । = प्रकर्ष अर्थात् संशयादि से रहित वस्तु का ज्ञान प्रमाण है, अभिप्राय यह कि जो समस्त धर्मों को विषय करने वाला हो वह प्रमाण है । ( कषायपाहुड़ 1/174/210/3 ) ।
धवला 1/4,2,13,254/457/12 संतविसयाणं पमाणाणमसंते वावारविरोहादो । = सत् को विषय करने वाले प्रमाणों के असत् में प्रवृत्त होने का विरोध है ।
परीक्षामुख/1/1 स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं ।1. = अपना और अपूर्व पदार्थ का निश्चय करने वाला ज्ञान प्रमाण है ।
परीक्षामुख/4/1 सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषयः = सामान्य और विशेष स्वरूप अर्थात् द्रव्य और पर्यायस्वरूप पदार्थ, प्रमाण का विषय होता है ।1।-देखें नय - .I.3(सकलादेशी, अनेकांतरूप व सर्व नयात्मक है ।)
- प्रमाण का फल
सिद्धि विनिश्चय/ मू./1/3/12 प्रमाणस्य फलं साक्षात् सिद्धिः स्वार्थ विनिश्चयः । = स्व व पर दोनों प्रकार के पदार्थों की सिद्धि में जो अन्य इंद्रिय आदि की अपेक्षा किये बिना स्वयं होता है वह ज्ञान ही प्रमाण है ।
नयचक्र बृहद्/169 कज्जं सयलसमत्थं जीवो साहेइ वत्थुगहणेण । वत्थू पमाणसिद्धं तह्मा तं जाण णियमेण ।169। = वस्तु के ग्रहण से ही जीव कार्य की सिद्धि करता है, और वह वस्तु प्रमाण सिद्ध है । इसलिए प्रमाण ही सकल समर्थ है ऐसा तुम नियम से जानो ।
परीक्षामुख/12 हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं हि प्रमाणं ... ।2।
परीक्षामुख/5/1 अज्ञाननिवृत्तिर्हानोपादानोपपेक्षाश्च फलं ।1। = प्रमाण ही हितकी प्राप्ति और अहित के परिहार करने में समर्थ है ।2। अज्ञान की निवृत्ति, त्यागना, ग्रहण करना और उपेक्षा करना यह प्रमाण के फल हैं । 1। (और भी - देखें प्रमाण - 4.1) ।
- प्रमाण का कारण
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/677 हेतुस्तत्त्वबुभुत्सो संदिग्धस्याथवा च वालस्य । सार्थमनेकं द्रव्यं हस्तामलकवद्वेत्तुकामस्य ।677। = हाथ में रखे हुए आँवले की भाँति अनेक रूप द्रव्य को युगपत् जानने की इच्छा रखने वाले संदिग्ध को अथवा अज्ञानी को तत्त्वों की जिज्ञासा होना प्रमाण का कारण है ।677।
- प्रमाणामास के विषय आदि
परीक्षामुख/6/55-72 प्रत्यक्षमेवेकं प्रमाणमित्यादिसंख्याभासं ।55। लौकायतिकस्य प्रत्यक्षतः परलोकादिनिषेधस्य परबुद्ध्यादेश्चासिद्धेरतद्विषयत्वात् ।56। सौगतसांख्ययोगप्रभाकरजैमिनीयानां प्रत्यक्षानुमानागमोपमार्थापत्त्यभावैरेकैकाधिकैर्व्याप्तिवत् ।57। अनुमानादेस्तद्विषयत्वे प्रमाणांतरत्वं ।58। तर्कस्येव व्याप्तिगोचरत्वे प्रमाणांतरत्वं ।59। अप्रमाणस्याव्यवस्थापकत्वात् । प्रतिभासभेदस्य च भेदकत्वात् ।60। विषयाभासः सामान्यं विशेषो द्वयं वा स्वतंत्रं ।61। तथाऽप्रतिभासनात् कार्याकरणाच्च।62। समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ।63। परापेक्षणे परिणामित्वमन्यथा तद्भावात् ।64। स्वयमसमर्थस्याकारकत्वात्पूर्ववत् ।65। फलाभासं प्रमाणादभिन्नं भिन्नमेव वा ।66। अभेदे तद्व्यवहारानुपपत्तेः ।67। ब्यावृत्त्यापि, न तत्कल्पना फलंतराद् व्यावृत्त्याऽफलत्वप्रसंगात् ।68। प्रमाणांतराद् व्यावृत्येवाप्रमाणत्वस्य ।69। तस्माद्वास्तवो भेदः ।70। भेदे त्वात्मांतरवत्तदनुपपत्तेः ।71। समवायेऽतिप्रसंगः ।72। =- संख्याभास- प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है । इस प्रकार एक या दो आदि प्रमाण मानना संख्याभास है ।55. चार्वाक लोग एक प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं, परंतु उसके द्वारा न तो वे परलोक आदि का निषेध कर सकते हैं और न ही पर बुद्धि आदि का, क्योंकि, वे प्रत्यक्ष के विषय ही नहीं हैं ।56। बौद्ध लोग प्रत्यक्ष व अनुमान दो प्रमाण मानते हैं । सांख्य लोग प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम तीन प्रमाण मानते हैं । नैयायिक लोग प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम व उपमान ये चार प्रमाण मानते हैं । प्रभाकर लोग प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान व अर्थापत्ति ये पाँच प्रमाण मानते हैं, और जैमिनी लोग प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति व अभाव ये छह प्रमाण मानते हैं । इनका इस प्रकार दो आदि का मानना संख्याभास है ।57। चार्वाक लोग परलोक आदि के निषेध के लिए स्वमान्य एक प्रमाण के अतिरिक्त अनुमान का आश्रय लेते हैं ।58। इसी प्रकार बौद्ध लोग व्याप्ति की सिद्धि के लिए स्वमान्य दो प्रमाणों के अतिरिक्त एक तर्क को भी स्वीकार कर लेते हैं ।59। यदि संख्या भंग के भय से वे उस तर्क को प्रमाण न कहें तो व्याप्ति की सिद्धि ही नहीं हो सकती । दूसरे प्रत्यक्षादि से विलक्षण जो तर्क उसका प्रतिभास जुदा ही प्रकार का होने के कारण वह अवश्य उन दोनों से पृथक् है ।60।
- विषयाभास- प्रमाण का विषय सामान्य ही है या विशेष ही है, या दोनों ही स्वतंत्र रहते प्रमाण के विषय है, ऐसा कहना विषयाभास है ।61। क्योंकि, न तो पदार्थ में वे धर्म इस प्रकार प्रतिभासित होते हैं, और न इस प्रकार मानने से पदार्थ में अर्थक्रिया की सिद्धि हो सकती है ।62। यदि कहोगे कि वे सामान्य व विशेष पदार्थ में अर्थक्रिया कराने को स्वयं समर्थ हैं तो उसमें सदा एक ही प्रकार के कार्य की उत्पत्ति होती रहनी चाहिए। 63। यदि कहोगे कि निमित्तों आदि की अपेक्षा करके वे अर्थक्रिया करते हैं, तो उन धर्मों को परिणामी मानना पड़ेगा, क्योंकि परिणामी हुए बिना अन्य का आश्रय संभव नहीं है ।64। यदि कहोगे कि असमर्थ रहते ही स्वयं कार्य कर देते हैं तो भी ठीक नहीं है, क्योंकि असमर्थ धर्म कोई भी कार्य नहीं कर सकता ।
- फलाभास- प्रमाण से फल भिन्न ही होता है या अभिन्न हो होता हैं, ऐसा मानना फलाभास है ।66। क्योंकि सर्वथा अभेद पक्ष में तो ‘यह प्रमाण है और यह उसका फल’ ऐसा व्यवहार ही संभव नहीं है ।67। यदि व्यावृत्ति द्वारा अर्थात् अन्य अफल से जुदा प्रकार का मानकर फल की कल्पना करोगे तो अन्य फल से व्यावृत्त होने के कारण उसी में अफल की कल्पना भी क्यों न हो जायेगी ।68। जिस प्रकार कि बौद्ध लोग अन्य प्रमाण की व्यावृत्ति के द्वारा अप्रमाणपना मानते हैं । इसलिए प्रमाण व फल में वास्तविक भेद मानना चाहिए।69-70। सर्वथा भेद पक्ष में ‘यह इस प्रमाण का फल है’ ऐसा नहीं कहा जा सकता ।71। यदि समवाय द्वारा उनका परस्पर संबंध बैठाने का प्रयत्न करोगे तो अतिप्रसंग होगा, क्योंकि, एक, नित्य व व्यापक समवाय नामक पदार्थ भला एक ही आत्मा में प्रमाण व फल का समवाय क्यों करने लगा । एकदम सभी आत्मा के साथ उनका संबंध क्यों न जोड़ देगा ।72।
- ज्ञान ही प्रमाण है
- प्रमाण का प्रामाण्य
- प्रामाण्य का लक्षण
न्यायदीपिका/1/10/11/7 पर प्रत्यक्ष निर्णय में उद्धृत .. इदमेव हि प्रमाणस्य प्रमाणत्वं यत्प्रमितिक्रियां प्रति साधकतमत्वेन करणत्वम् । = प्रमाण वही है जो प्रमिति क्रिया के प्रति साधकतमरूप से करण (नियम से कार्य का उत्पादक) हो ।
न्यायदीपिका/1/18/14/11 किमिदं प्रमाणस्य प्रामाण्यं नाम । प्रतिभातविषयाव्यभिचारित्वम् । = प्रश्न -प्रमाण का यह प्रामाण्य क्या है, जिसमें ‘प्रमाण’ प्रमाण कहा जाता है, अप्रमाण नहीं ।उत्तर- जाने हुए विषय में व्यभिचार (अन्यथापन) का न होना प्रामाण्य है । इसके होने से ही ज्ञान प्रमाण कहा जाता है और इसके न होने से अप्रमाण कहा जाता है ।
- स्वतः व परतः दोनों से होता है
श्लोकवार्तिक 3/1/10/126-127/119 तत्राभ्यासात्प्रमाणत्वं निश्चितं स्वत एव नः । अनभ्यासे तु परत इत्याहुः । = अतः अभ्यासदशा में ज्ञानस्वरूप का निर्णय करते समय ही युगपत् उसके प्रमाणपन का भी निर्णय कर लिया जाता है । परंतु अनभ्यासदशा में तो दूसरे कारणों से (परतः) ही प्रमाणपना जाना जाता है । (प्रमाण परीक्षा), ( परीक्षामुख/1/13 ); ( न्यायदीपिका/1/20/16 ) ।
देखें ज्ञान - I.3 (प्रमाण स्व-पर प्रकाशक है ।)
- वास्तव में आत्मा ही प्रामाण्य है ज्ञान नहीं
धवला 9/4,1,45/142/2 ज्ञानस्यैव प्रामाण्यं किमिति नेष्यते । न, जानाति परिछिनत्ति जीवादिपदार्थानिति ज्ञानात्मा, तस्यैव प्रामाण्याभ्युपगमात् । न ज्ञानपर्यायस्य स्थितिरहितस्य उत्पाद-विनाशलक्षणस्य प्रामाण्यम्, तत्र त्रिलक्षणाभावतः । अवस्तुनि परिच्छेदलक्षणार्थ क्रियाभावात्, स्मृति-प्रत्यभिज्ञानुसंधानप्रत्ययादीनामभावप्रसंगाच्च । = प्रश्न- ज्ञान को ही प्रमाण स्वीकार क्यो नहीं करते । उत्तर- नहीं, क्योंकि ‘जानातीति ज्ञानम्’ इस निरुक्ति के अनुसार जो जीवादि पदार्थों को जानता है, वह ज्ञान अर्थात् आत्मा है, उसी को प्रमाण स्वीकार किया गया है । उत्पाद व व्ययस्वरूप किंतु स्थिति से रहित ज्ञानपर्याय के प्रमाणता स्वीकार नहीं की गयी, क्योंकि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप लक्षणत्रय का अभाव होने के कारण अवस्तु-स्वरूप उसमें परिच्छित्तिरूप अर्थक्रिया का अभाव है, तथा स्थिति रहित ज्ञानपर्याय को प्रमाणता स्वीकार करने पर स्मृति, प्रत्यभिज्ञान व अनुसंधान प्रत्ययों के अभावका प्रसंग आता है ।
- प्रामाण्य का लक्षण
- प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता के भेदाभेद संबंधी शंका-समाधान
- ज्ञान को प्रमाण कहने से प्रमाण का फल किसे मानोगे ?
सर्वार्थसिद्धि/1/10/97/1 यदि ज्ञानं प्रमाणं फलाभावः । ...नैष दोष, अर्थाधिगमे प्रीतिदर्शनात् । ज्ञस्वभावस्यात्मनः कर्ममलीमसस्य करणालंबनादर्थनिश्चये प्रीतिरुपजायते । सा फलमित्युच्यते । उपेक्षा अज्ञाननाशो वा फलम् । = प्रश्न -यदि ज्ञान को प्रमाण मानते हैं तो फलका अभाव हो जायेगा । (क्योंकि उसका कोई दूसरा फल प्राप्त नहीं होता ।) उत्तर -... यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि पदार्थ के ज्ञान होने पर प्रीति देखी जाती है । वही प्रमाण फल कहा जाता है । अथवा अपेक्षा या अज्ञान का नाश प्रमाण का फल है । ( राजवार्तिक/1/10/6-7/50/4 ); ( परीक्षामुख/1/2 ) ।
- ज्ञान को ही प्रमाण मानने से मिथ्याज्ञान भी प्रमाण हो जायेंगे
कषायपाहुड़ 1/1,1/28/42/2 णाणस्स पमाणत्ते भण्णमाणे संसयाणज्झवंसायविवज्जयणाणाणं पि पमाणत्तं पसज्जदे; ण; ‘पंसद्देण तेसिं पमाणत्तस्स ओसारिदत्तादो । = प्रश्न - ज्ञान प्रमाण है ऐसा कथन करने पर संशय, अनध्यवसाय, और विपर्यय ज्ञानों को भी प्रमाणता प्राप्त होती है । उत्तर- नहीं, क्योंकि प्रमाण में आये हुए ‘प्र’ शब्द के द्वारा संशयादिक प्रमाणता निषेध कर दिया है ।
देखें प्रमाण - 2.2 सूत्र में सम्यक् शब्द चला आ रहा है इसलिए सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण हो सकते हैं, मिथ्याज्ञान नहीं । ( न्यायदीपिका/1/8/9 ) ।
- सन्निकर्ष व इंद्रिय को प्रमाण मानने में दोष
सर्वार्थसिद्धि/1/10/ पृ./पं. अथ संनिकर्षे प्रमाणे सति इंद्रिये वा को दोषः । यदि संनिकर्षः प्रमाणम् सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टानामग्रहणप्रसंगः । न हि ते इंद्रियैः संनिकृष्यंते । अतः सर्वज्ञत्वाभावः स्यात् । इंद्रियमपि यदि प्रमाणं स एव दोषः; अल्पविषयत्वात् चक्षुरादीनां ज्ञेयस्य चापरिमाणत्वात् । सर्वेंद्रियसंनिकर्षाभावश्च; ।96/7। संनिकर्षे इंद्रिये वा प्रमाणे सति अधिगमः फलमर्थांतरभूतं युज्यते इति तद्युक्तम् । यदि संनिकर्ष: प्रमाणं अर्थाधिगमफलं, तस्य द्विष्ठत्वात्तत्फलेनाधिगमेनापि द्विष्ठेन भवितव्यमिति अर्थादीनामप्यधिगमः प्राप्नोतीत । = प्रश्न - सन्निकर्ष या इंद्रिय को प्रमाण मानने में क्या दोष है । उत्तर-- यदि सन्निकर्षको प्रमाण माना जाता है तो सूक्ष्म व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों के ग्रहण न करने का प्रसंग प्राप्त होगा; क्योंकि इनका इंद्रियों से संबंध नहीं होता । इसलिए सर्वज्ञता का अभाव हो जाता है ।
- यदि इंद्रियको प्रमाण माना जाता है तो वही दोष जाता है, क्योंकि, चक्षु आदि का विषय अल्प है और ज्ञेय अपरिमित हैं ।
- दूसरे सब इंद्रियों का सन्निकर्ष भी नहीं बनता, क्योंकि चक्षु और मन प्राप्यकारी नहीं है । इसलिए भी सन्निकर्ष को प्रमाण नहीं मान सकते । प्रश्न- (ज्ञान को प्रमाण मानने पर फल का अभाव है ) पर सन्निकर्ष या इंद्रिय को प्रमाण मानने पर उससे भिन्न ज्ञानरूप फल बन जाता है ? उत्तर- यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि यदि सन्निकर्ष को प्रमाण और अर्थ के ज्ञान को फल मानते हैं, तो सन्निकर्ष दो में रहने वाला होने से उसके फलरूप ज्ञान को भी दो में रहने वाला होना चाहिए इसलिए घट, पटादि पदार्थों के भी ज्ञान की प्राप्ति होती है । ( राजवार्तिक/1/10/16-22/51/5 ); ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/725-733 ) ।
- प्रमाण व प्रमेय को सर्वथा भिन्न मानने में दोष
सर्वार्थसिद्धि/1/10/98/3 यदि जीवादिरधिगमे प्रमाणं प्रमाणाधिगमे च अन्यत्प्रमाणं परिकल्पयितव्यम् । तथा सत्यनवस्था । नानवस्था प्रदीपवत् । यथा घटादीनां प्रकाशने प्रदीपो हेतुः स्वस्वरूप्रकाशनेऽपि स एव, न प्रकाशांतरंमृग्यं तथा प्रमाणमपीति अवश्यं चैतदभ्युपगंतव्यम् । प्रमेयवत्प्रमाणस्य प्रमाणांतरपरिकल्पनाया स्वाधिगमाभावात् स्मृत्यभावः । तदभावाद् व्यवहारलोपः स्यात् । = प्रश्न - यदि जीवादि पदार्थों के ज्ञान में प्रमाण कारण है तो प्रमाण के ज्ञान में अन्य प्रमाण को कारण मानना चाहिए । और ऐसा मानने पर अनवस्था दोष प्राप्त होता है ? उत्तर- जीवादि पदार्थों के ज्ञान में कारण मानने पर अनवस्था दोष नहीं आता, जैसे दीपक । जिस प्रकार घटादि पदार्थों के प्रकाश करने में दीपक हेतु है और अपने स्वरूप को प्रकाश करने में भी वही हेतु है, इसके लिए प्रकाशांतर नहीं ढूँढना पड़ता है । उसी प्रकार प्रमाण भी है, यह बात अवश्य मान लेनी चाहिए । अब यदि प्रमेय के समान प्रमाण के लिए अन्य प्रमाण माना जाता है तो स्वका ज्ञान नहीं होने से स्मृतिका अभाव हो जाता है, और स्मृतिका अभाव हो जाने से व्यवहार का लोप हो जाता है । ( राजवार्तिक/1/10/10/50/19 ) ।
- ज्ञान व आत्मा को भिन्न मानने में दोष
सर्वार्थसिद्धि/1/10/97/5 आत्मनश्चेतनत्वात्तत्रैव समवाय इति चेत् । न; ज्ञस्वभावाभावे सर्वेषामचेतनत्वात् । ज्ञस्वभावाभ्युपगमे वा आत्मनः स्वमतविरोधः स्यात् । = प्रश्न - आत्मा चेतन है, अतः उसी में ज्ञान का समवाय है । उत्तर- नहीं, क्योंकि आत्मा को ज्ञस्वभाव नहीं मानने पर सभी पदार्थ अचेतन प्राप्त होते हैं । यदि आत्मा को ‘ज्ञ’ स्वभाव माना जाता है, तो स्वमत का विरोध होता है ।
राजवार्तिक/1/10/9/50/15 स्यादेतत् - ज्ञानयोगाज्ज्ञातृत्वं भवतीति; तन्न; किं कारणम् । अतत्स्वभावत्वे ज्ञातृत्वाभावः । कथम् । अंधप्रदीपसंयोगवत् । यथा जात्यंधस्य प्रदीपसंयोगेऽपि न द्रष्ट्टत्वं तथा ज्ञानयोगेऽपि अज्ञस्वभावस्यात्मनो न ज्ञातृत्वम् । = प्रश्न - ज्ञान के योग से आत्मा के ज्ञातृत्व होता है ? उत्तर- ऐसा नहीं है, क्योंकि अतत् स्वभाव होने पर ज्ञातृत्व का अभाव है । जैसे - अंधे को दीपक का संयोग होने पर भी दिखाई नहीं देता यतः वह स्वयं दृष्टि-शून्य है, उसी तरह ज्ञ स्वभाव-रहित आत्मा में ज्ञान का संबंध होने पर भी ज्ञत्व नहीं आ सकेगा ।
- प्रमाण को लक्ष्य और प्रमाकरण को लक्षण मानने में दोष
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/534-535 स यथा चेत्प्रमाणं लक्ष्यं तल्लक्षणं प्रमाकरणम् । अव्याप्ति को हि दोषः सदेश्वरे चापि तदयोगात् ।734। योगिज्ञानेऽपि तथा न स्यात्तल्लक्षणं प्रमाकरणम् । परमाण्वादिषु नियमान्न स्यात्तत्संनिकर्षश्च । = यदि प्रमाण को लक्ष्य और प्रमाकरण को उसका लक्षण माना जाये तो निश्चय करके अव्याप्ति नामक दोष आयेगा, क्योंकि प्रमाणभूत ईश्वर के सदैव रहने पर भी उसमें ‘प्रमाकरणं प्रमाणं’ यह प्रमाण का लक्षण नहीं घटता ।734। तथा योगियों के ज्ञान में भी प्रमाका करणरूप प्रमाण का लक्षण नहीं जाता है, क्योंकि नियम से परमाणु वगैरह सूक्ष्म पदार्थों में इंद्रियों का सन्निकर्ष भी नहीं होता है । 735।
- प्रमाण और प्रमेय में कथंचित् भेदाभेद
राजवार्तिक/1/10/10-13/50/19 प्रमाणप्रमेययोरन्यत्वमिति चेत्; न; अनवस्थानात् ।10। प्रकाशवदिति चेत्; न; प्रतिज्ञाहानेः ।11। अनन्य त्वमेवेति चेत्; न; उभयाभावप्रसंगात । यदि ज्ञातुरनन्यत्प्रमाणं प्रमाणाच्च प्रमेयम्; अन्यतराभावे तदविनाभाविनोऽवशिष्टस्याप्यभाव इत्युभयाभावप्रसंगः । कथं तर्हि सिद्धि:- ।12। अनेकांतात् सिद्धिः ।13। स्यादन्यत्वं स्यादनन्यत्वमित्यादि । संज्ञालक्षणादिभेदात् स्यादन्यत्वम्, व्यतिरेकेणानुपलब्धेः स्यादनन्यत्वमित्यादि । ततः सिद्धमेतत्-प्रमेयं नियमात् प्रमेयम्, प्रमाणं तु स्यात्प्रमेयम् इति । =प्रश्न - जैसे दीपक जुदा है और घड़ा जुदा है, उसी तरह जो प्रमाणहै वह प्रमेय नहीं हो सकता और जो प्रमेय है वह प्रमाण नहीं है । दोनों के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं । उत्तर-- जिस प्रकार बाह्य प्रमेयों से प्रमाण जुदा है उसी तरह उसमें यदि अंतरंग प्रमेयता न हो तो अनवस्थादूषण होगा ।
- यदि अनवस्थादूषण निवारण के लिए ज्ञान को दीपक की तरह स्व-परप्रकाशी माना जाता है, तो प्रमाण और प्रमेय के भिन्न होने का पक्ष समाप्त हो जाता है ।
- यदि प्रमाता प्रमाण और प्रमेय से अनन्य माना जाता है, तो एकका अभाव होने पर, दूसरे का भी अभाव हो जाता है क्योंकि दोनों अविनाभावी हैं, इस प्रकार दोनों के अभाव का प्रसंग आता है । प्रश्न -तो फिर इनकी सिद्धि कैसे हो ? उत्तर- वस्तुतः संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि की भिन्नता होने से प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय में भिन्नता है तथा पृथक्-पृथक्रूप से अनुलब्धि होने के कारण अभिन्नता है । निष्कर्ष यह है कि प्रमेय प्रमेय ही है किंतु प्रमाण प्रमाण भी है और प्रमेय भी ।
- प्रमाण व उसके फल में कथंचित् भेदाभेद
परीक्षामुख/5/2-3 प्रमाणादभिन्नं भिन्नं च । 2। यः प्रमिमीते स एव निवृत्ताज्ञानो जहात्यादत्त उपेक्षते चेति प्रतीतेः ।3। = फल प्रमाण से कथंचित् अभिन्न और कथंचित् भिन्न है । क्योंकि जो प्रमाण करता है - जानता है उसी का अज्ञान दूर होता है और वही किसी पदार्थ का त्याग वा ग्रहण अथवा उपेक्षा करता है इसलिए तो प्रमाण और फल का अभेद है किंतु प्रमाण फल की भिन्न-भिन्न भी प्रतीति होती है इसलिए भेद भी है ।2-3।
- ज्ञान को प्रमाण कहने से प्रमाण का फल किसे मानोगे ?
- गणनादि प्रमाण निर्देश
- प्रमाण के भेद
- गणना प्रमाण की अपेक्षा
गणना- प्रमाण
लौकिक लोकोत्तर
मान उन्मान अवमान गणना प्रतिमान तत्प्रमाण
रसमान बीजमान द्रव्य क्षेत्र काल भाव
संख्या उपमान अवगाह विभाग साकार अनाकार
(देखें संख्या )क्षेत्र निष्पन्न क्षेत्र
पल्य सागर सूच्यंगुल प्रतरांगुल घनांगुल जगतश्रेणी जगतप्रतर जगतघन
संख्या या द्रव्य प्रमाण क्षेत्र प्रमाण काल प्रमाण
संदर्भ नं. 1 :- ( राजवार्तिक/3/38/2-5/205-206/19 ) ( गोम्मटसार जीवकांड/ </भाषा/पृ.290) । संदर्भ नं. 2:— (मू.आ./1126) ( तिलोयपण्णत्ति/1/93-94 ) ( धवला 3/1,2,17/ गा. 65/132) ( धवला 4/1,3,2/ गा. 5/10) ( गोम्मटसार जीवकांड/ भाषा/312/7) ।
- निक्षेप रूप प्रमाणों की अपेक्षा
धवला 1/1,1,1/80/2 पमाणं पंचविहं दव्व-खेत्त-काल--णयप्पमाणभेदेहि । ... भाव-पमाणं पंचविहं, आभिणिबोहियणाणं सुदणाणं ओहिणाणं मणपज्जवणाणं केवलणाणं चेदि णय-प्पमाणं सत्तविहं, णेगम-संगह-ववहारुज्जुसुद-सद्द-समभिरूढ-एवंभूदभेदेहि । = द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और नय के भेद से प्रमाण के पाँच भेद हैं । ... मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान के भेद से भावप्रमाण पाँच प्रकार है । ( कषायपाहुड़/1/1,1/27/37/1;28/42/1 ); ( धवला 1/1,1,2/92/4 ) नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूतनय के भेद से नयप्रमाण सात प्रकार का है । देखें निक्षेप - 1.2 नाम स्थापना की अपेक्षा भेद ।
- गणना प्रमाण की अपेक्षा
- गणना प्रमाण के भेदों के लक्षण
राजवार्तिक/3/38/3/205/23 तत्र मानं द्वेधा रसमानं बीजमानं चेति । घृतादिद्रव्यपरिच्छेदकं षोडशिकादि रसमानम् । कुडवादि बीजमानम् । कुष्टतगरादिभांडं येनोत्क्षिप्य मीयते तदुन्मानम् । निवर्तनादिविभागेन क्षेत्रं येनावगाह्य मीयते तदवमानं दंडादि । एकद्वित्रिचतुरादिगणितमानं गणनामानम् । पूर्वमानापेक्षं मानं प्रतिमानं प्रतिमल्लवत् । चत्वारि महिधिकातृणफलानि श्वेतसर्षप एकः, .... इत्यादि मागधकप्रमाणम् । मणिजात्यजात्यश्वादेर्द्रव्यस्य दीप्त्युच्छ्रायगुणविशेषादिमूलपरिमाणकरणे प्रमाणमस्येति तत्प्रमाणम्. तद्यथा - मणिरत्नस्य दीप्तिर्यावत्क्षेत्रमुपरि व्याप्नोति तावत्प्रमाणं सुवर्णकूटं मूल्यमिति । अश्वस्य च यावानुच्छ्रायस्तावत्प्रमाणं सुवर्णकूटं मूल्यम् । =- मान के दो भेद हैं - रसमान व बीजमान । घी आदि तरल पदार्थों को मापने की छटंकी आदि रसमान हैं । और धान्य मापने के कुडव आदि बीजमान हैं ।
- तगर आदि द्रव्यों को ऊपर उठाकर जिनसे तोला जाता है वे तराजू आदि उन्मान हैं ।
- निवर्तन आदि विभाग द्वारा खेत को जिससे ग्रहण करके मापा जाता है, ऐसे डंडा आदि अवमान कहलाते हैं।
- एक दो तीन आदि गणना है ।
- पूर्व की अपेक्षा आगे के मानों की व्यवस्था प्रतिमान हैं जैसे - चार मेंहदी के फलों का एक सरसों ... इत्यादि मगध देश का प्रमाण है ।
- मणि आदि की दीप्ति, अश्वादि की ऊँचाई गुण आदि के द्वारा मूल्य निर्धारण करने के लिए तत्प्रमाण का प्रयोग होता है, जैसे - मणिकी प्रभा ऊपर जहाँ तक जाये उतनी ऊँचाई तक सुवर्ण का ढेर उसका मूल्य होगा । घोड़ा जितना ऊँचा हो उतनी ऊँची सुवर्ण मुद्राएँ घोड़े का मूल्य है । आदि । नोट - लोकोत्तर प्रमाण के भेदों के लक्षण देखें अगला शीर्षक ।
- निक्षेपरूप प्रमाणों के लक्षण
नोट- नाम स्थापनादि प्रमाणों के लक्षण - देखें निक्षेप । 1/2
राजवार्तिक/3/38/4/206/10- द्रव्यप्रमाणं जघन्यमध्यमोत्कृष्टम् एकपरमाणु द्वित्रिचतुरादिप्रदेशात्मकम् आमहास्कंधात् । क्षेत्रप्रमाणं जघन्यमध्यमोत्कृष्टमेकाकाशद्वित्रिचतुरादिप्रदेशनिष्पन्नमासर्वलोकात् । कालप्रमाणं जघन्यमध्यमोत्कृष्टमेकद्वित्रिचतुरादिसमयनिष्पन्नम् आ अनंतकालात् । भावप्रमाणमुपयोगः साकारानाकारभेदः जघन्यसूक्ष्मनिगोतस्य, मध्यमोऽन्यजीवानाम्, उत्कृष्टः केवलिनः । = द्रव्य-प्रमाण एक परमाणु से लेकर महास्कंध पर्यंत, क्षेत्रप्रमाण एक प्रदेश से लेकर सर्व लोक पर्यंत और कालप्रमाण एक समय से लेकर अनंत काल जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन-तीन प्रकार का है । भावप्रमाण अर्थात् ज्ञान, दर्शन उपयोग । वह जघन्य सूक्ष्म निगोद के, उत्कृष्ट केवली के, और मध्यम अन्य जीवों के होता है ।
धवला 1/1,1,1/80/2 तत्थ दव्व-पमाणं संखेज्जमसंखेज्जमणंतयं चेदि । खेत्तपमाणं एय-पदेसादि । कालपमाणं समयावलियादि । = संख्यात, असंख्यात और अनंत यह द्रव्यप्रमाण है । एक प्रदेश आदि क्षेत्रप्रमाण है । एक समय एक आवली आदि कालप्रमाण है । ( कषायपाहुड़/1/1,1/27/41/1 ) ।
कषायपाहुड़/1/1,1/27/38-39/6 पल-तुला-कुडवादीणि दव्व-पमाणं, दव्वंतरपरिच्छित्तिकारणत्तादो । दव्वपमाणेहि मविदजव-गोहूम ... आदिसण्णाओ उवयारणिबंधणाओ त्ति ण तेसिं पमाणत्तं किंतु पमेयत्तमेव । अंगुलादि-ओगाहणाओ खेत्तपमाणं, ‘प्रमीयंते अवगाह्यंते अनेन शेषद्रव्याणि’ इति अस्य प्रमाणत्वसिद्धेः । = पल, तुला और कुडव आदि द्रव्यप्रमाण हैं । क्योंकि, ये सोना, चाँदी, गेहूँ आदि दूसरे पदार्थों के परिमाण के ज्ञान कराने में कारण पड़ते हैं । किंतु द्रव्यमानरूप पल, तुला आदि द्वारा मापे गये जौ गेहूँ ... आदि में जो कुडव और तुला आदि संज्ञाएँ व्यवहृत होती हैं, वे उपचार निमित्तक हैं, इसलिए उन्हें प्रमाणता नहीं है, किंतु वे प्रमेयरूप ही हैं । अंगुल आदिरूप अवगाहनाएँ क्षेत्रप्रमाण हैं, क्योंकि, जिसके द्वारा शेष द्रव्य प्रमित (अवगाहित) किये जाते हैं, उसे प्रमाण कहते हैं, प्रमाण की इस व्युत्पत्ति के अनुसार अंगुल आदिरूप क्षेत्र को भी प्रमाणता सिद्ध है ।
- प्रमाण के भेद
पुराणकोष से
(1) द्रव्यानुयोग का एक प्रमुख विषय । द्रव्यों के निर्णय करने का यही एक मुख्य साधन है । यह पदार्थ के सकल देश का (विरोधी, अविरोधी धर्मों का) एक साथ बोध करने वाला ज्ञान होता है । महापुराण 2.101, 62.28, पद्मपुराण - 105.143
(2) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25. 166